कुंडलिनीयोगानुसार ओम ॐ ही वह सिंगुलेरटी है जिसमें ब्लैकहोल समा जाता है

ब्लैकहोल में जो भी पदार्थ रूपी सूचना जाती है, वह नष्ट या अज्ञात रूप में रहती है। उसी तरह आदमी का अवचेतन मन भी उसकी सभी विचाररूपी सूचना को अनादिकाल से लेकर अपने अंदर नष्ट रूप में संजोकर रखता है। जब उन विचारों को साक्षीभाव साधना आदि से प्रकट या अभिव्यक्त रूप में वापिस लाया जाता है, तब वे धीरे धीरे ढीले होकर परमात्मा में विलीन होने लगते हैं। जब सभी विचार विलीन हो जाते हैं, तो जीवात्मा या सूक्ष्मश्रीर मुक्त हो जाता है। संभवतः ब्लैकहोल से भी इसी तरह बारबार स्थूल सृष्टि बनते रहने से वे सूचनाएं ढीली होती रहती हैं और अंत में महाकाश रूपी परमात्मा से एकाकार हो जाती हैं और पुनः कभी वापिस नहीं आतीं। मतलब ब्लैकहोल मुक्त हो जाता है। यहां एक पेच है। बारबार स्थूल सृष्टि बनने से ब्लैकहोल मुक्त नहीं होता, जैसे आदमी बारबार जन्म लेने से खुद मुक्त नहीं हो जाता। जब ब्लैकहोल से सूचनाएं सूक्ष्मरूप में लगातार बाहर निकलती रहती हैं, उन्हीं के रूप में वह महाकाश में विलीन होता है, सीधा नहीं। संभवतः वे सूक्ष्म सूचनाएं ही हॉकिंस रेडिएशन हैं, जिनके रूप में कभी पूरा ब्लैकहोल विलीन हो जाएगा। बेशक इसमें बहुत ज्यादा समय लगता है। जीव की मुक्ति में भी कम समय कहां लगता है। ब्लैकहोल से हॉकिंस रेडिएशन भी निकलती रहती हैं, और वह साथसाथ में नई सृष्टि भी बनाता रहता है, बेशक नई सृष्टियों का आकार धीरे धीरे घटता जाता है। इसी तरह आदमी की साक्षीभाव साधना भी कम या ज्यादा रूप में चलती रहती है, और साथसाथ में उसके नए नए जन्म भी होते रहते हैं, बेशक आगे आगे के जन्म में मन के विचारों का शोर कम होता जाता है, अहंकार घटता जाता है।
विज्ञान कहता है कि ब्लैकहोल के अंदर जितना पदार्थ घुसता जाएगा, उसका गुरुत्व बल उतना ही बढ़ता जाएगा, और उसके बाहर की एकरीशन डिस्क उतनी ही मोटी होती जाएगी। पहले मैंने सोचा कि ऐसा कैसे हो सकता है कि जब नया अनंत आकाश बन गया, तब तो उसमें घुसे हुए पदार्थ अनंत आकाश में फैल जाने चाहिए, और उनका प्रभाव एकरीशन डिस्क पर नहीं पड़ना चाहिए। साथ में, जब एकबार मूल अनंत आकाश में अनंत गड्ढा बन गया, तब अंदर और पदार्थ घुसने से वह गड्ढा और ज्यादा कैसे बढ़ सकता है, क्योंकि अनंत से बड़ा तो कुछ भी नहीं है। और ग्रेविटी बढ़ने का मतलब ही अंतरिक्ष में गड्ढे की गहराई बढ़ने से है वास्तव में। पर मुझे इसका हल जीवात्मा से इसकी तुलना करने पर मिला। जब पहली बार जीवात्मा रूपी व्यष्टि-अनन्ताकाश बनता है, तो वह नए बने ब्लैकहोल की तरह  होता है। पहली बात, जीवात्मा कैसे बनता है। जब किसी सबसे छोटे जीव में मन का पहला विचार बनता है, तो चिदाकाश अर्थात परमाकाश परमात्मा उसे अपने अंदर महसूस करता है। उस विचार की तरफ़ आसक्त होकर वह तुरंत अपने परमाकाश या महाकाश रूप को भूल जाता है। रहता वह महाकाश ही है, पर भ्रम से अपने परम सत्ता, ज्ञान (सत्य ज्ञान) और आनंद को काफी हद तक भूल जाता है। यह महाकाश के अंदर जीवाकाश की उत्पत्ति हो गई। हालांकि महाकाश परमात्मा बिना परिवर्तन का, वैसा ही, अपने मूलरूप में रहता है। मतलब यह परमात्मा के अंदर जीवात्मा की उत्पत्ति हो गई। अब ब्लैकहोल पर आते हैं। मूलाकाश के अंदर किसी बड़े तारे का ईंधन खत्म हो गया। तो उसके अंदर की तरफ़ के गुरुत्व बल का मुकाबला करने के लिए बाहर की तरफ़ का गर्म गैसों का बल नहीं रहता। इससे वह अपने भीतर ही भीतर लगातार सिकुड़ कर सबसे छोटे संभावित रूप तक पहुंच जाता है। मुझे तो लगता है कि वह रूप मन का सबसे सूक्ष्म विचार ही है। क्योंकि उसके सामने तो प्रोटोन, इलेक्ट्रॉन आदि मूलकण भी स्थूल ही है। सबसे छोटा विचार ॐ की मानसिक आवाज है। इसका प्रमाण यह है कि इसके साथ आत्मा को अपने पूर्ण रूप का सबसे कम भ्रम पैदा होता है। यहां तक कि भ्रम खत्म भी होने लगता है। इसीलिए ब्रह्मज्ञानी व पूर्ण योगियों के मुंह से ॐ का उच्चारण अनायास ही होता रहता है। दूसरे विचार तो जितना बढ़ते रहते हैं, भ्रम भी उतना ही बढ़ता रहता है। तो सबसे छोटी चीज ओम ध्वनि हुई। जीवात्मा की उत्पत्ति भी संभवतः ॐ से ही होती है, क्योंकि यत्पिंडे तत् ब्रह्मांडे। स्थूल वस्तु आकाश में छेद नहीं कर सकती। अगर ऐसा होता तो हरेक पत्थर एक अलग जीव या जीवात्मा होता, हरेक मूलकण जिंदा होता, और अपना अलग से अनंत आकाश वाला पृथक अस्तित्व महसूस करता। पर ऐसा नहीं होता। केवल मन का विचार ही आकाश में छेद कर सकता है। इसीलिए जितने शरीर अर्थात मस्तिष्क या मन हैं, उतने ही अनंताकाश रूपी जीव हैं। इसीलिए नया ब्रह्मांड बनाने के लिए मन की जरूरत पड़ती है, क्योंकि वह तभी बनेगा जब आकाश में छेद होगा। ॐ वही सूक्ष्मतम मन है। इसीलिए कहते हैं कि ईश्वर या ब्रह्मा के संकल्प या विचार से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई। तारे से बने ओम से उसके दायरे का मूलाकाश अपना मूलरूप भूलकर नया ही पूर्ण आकाश बन जाता है। हालांकि मूलाकाश वैसा ही रहता है। इसीको विज्ञान की भाषा में कहा गया है कि तारे से बनी सिंगुलरिटी से अंतरिक्ष में अनंत गहराई का गड्ढा बन जाता है। शायद ॐ को ही विज्ञान में सिंगुलरिटी कहा गया है, क्योंकि पता ही नहीं कि वह क्या है। बस यह अंदाजा लगाया है कि वह सबसे छोटी चीज है। सम्भवतः हमने सिद्ध कर दिया कि वह सबसे छोटी चीज ॐ ही है। फिर कहते हैं कि उसी सिंगुलरीटी में विस्फोट से सृष्टि का निर्माण फैलने लगता है। शास्त्रों में भी यही कहा है कि ॐ से सृष्टि की उत्पत्ति होती है। इस सबसे यह अर्थ भी निकलता है कि एक छोटे से विचार में भी सैंकड़ों सूर्यों के बराबर द्रव्यमान समाया हुआ है, इसी वजह से तो वह मूल आकाश की त्रिआयामी चादर में इतना बड़ा गड्ढा कर देता है कि एक नया ही आकाश बन जाता है, मतलब एक नया स्वतंत्र जीव रूपी नया स्वतंत्र ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आ जाता है। पर यह आश्चर्य की बात है कि ब्रह्माण्ड की रचना कर सकने वाला जीव कैसे दयनीय, और परतंत्र सा बना रहता है। तो अगर कल को वार्प ड्राइव बनी, तो वह ऐसी ही कोई ॐ मशीन होगी, जो आकाश को जितना चाहे मोड़कर अन्तरिक्ष की सैर करवाएगी। हो सकता है कि एलियंस ऐसी ही मशीन की सहायता से धरती पर आते हों। तथाकथित यूएफओ क्रैश के बाद एलियन से साक्षात्कार के मामले से जुड़े लोग दावा करते हैं कि एलियंस के पास आध्यात्मिक तकनीकें होती हैं, और वे योगी की तरह अपने असली रूप को अच्छे से पहचानते हैं। उनके लिए धरती की मानव सभ्यता एक बंदरों की सभ्यता की तरह है। फिर
उत्पत्ति के बाद जीवात्मा अपना दायरा बढ़ाता है। वह आंख, कान आदि विभिन्न इंद्रियों से सूचनाएं ग्रहण करता रहता है, और बढ़ता रहता है। यह ऐसे ही है जैसे ब्लैकहोल बाहर के पदार्थ निगलता रहता है, और अपना द्रव्यमान बढ़ाता रहता है। जीवात्मा जितना महान होता है, उसके प्रभाव का दायरा भी उतना ही बड़ा होता है। जहां कीड़ों मकोड़ों का दायरा कुछ इंच या फीट तक होता है, वहीं महापुरुषों के मन के अंदर इतनी ज्यादा सूचनाएं होती हैं कि उनके प्रभाव का दायरा पूरे राष्ट्र या विश्व तक फैला होता है। पूरी दुनिया से लोग उनकी तरफ़ खिंचे चले आते हैं। उनके प्रभाव के दायरे की तुलना ब्लैकहोल की इकरीशन डिस्क से की जा सकती है।
ओम से सृष्टि बनती रहती है और उसमें समाती भी रहती है। कभी केवल एक तारे की जगह पूरी सृष्टि का द्रव्यमान सिकुड़कर ॐ के अंदर समा जाएगा। इसे परम ब्लैकहोल का बनना कहेंगे। उसे निगलने के लिए कुछ मिलेगा ही नहीं। इससे वह जल्दी ही भूखा मर जाएगा, मतलब फ़िर वह ॐ भी परमाकाश परमात्मा में समा जाएगा। इसे प्रलय कहते हैं। लंबे समय तक प्रलय बनी रहेगी। फिर सृष्टि के आरंभ में सारी पुरानी सृष्टि का द्रव्यमान समेटे हुए ॐ पुनः प्रकट हो जाएगा। उसमें बिग बैंग या महाविस्फोट होगा और सृष्टि की रचना पुनः प्रारंभ हो जाएगी। यह प्रक्रिया बारंबार दोहराई जाती रहती है।
अब कई लोग कहेंगे कि ब्लैकहोल ने तो ब्रह्मांड की तुलना में नगण्य सा ही पदार्थ निगला होता है, उससे इतना बड़ा नया ब्रह्मांड कैसे बन सकता है। पर भई अनन्त आकाश तो बन ही गया होता है। उसमें नए पदार्थ खुद भी तो बन सकते हैं। पुराने ब्रह्मांड से निगले हुए पदार्थ तो सिर्फ एक शुरुआत करते हैं। यह ऐसे ही है जैसे एक बच्चा अपने पिछले जन्म की सूचनाएं बहुत सूक्ष्म रूप में लाया होता है, जो कि पिछले पूरे जन्म की तुलना में नगण्य जितनी दिखती है। फिर वह बाहर से भी कुछ सूचनाएं इकट्ठा करता है, वह भी नगण्य जैसी ही होती हैं। अधिकांश सूचनाएं तो वह खुद अपने अंदर तैयार करता है अपनी रचनात्मकता से, अपने कर्मों से। इसी तरह सबसे पहले बनने वाले सूक्ष्म जीव में सिर्फ सूक्ष्मतम ओम विचार होता है, पर विकास करते करते वह ब्रह्मा भी बन जाता है, जिसमें पूरा ब्रह्माण्ड समाया होता है। इससे तो यह मतलब भी निकलता है कि ब्लैकहोल चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो, वह बड़ा से बड़ा ब्रह्मांड बना सकता है, क्योंकि वह अनंत आकाश के रूप में अनंत आकार का बर्तन बना लेता है। और जहां बर्तन है, वहां बारिश का पानी भी इकट्ठा हो ही जाता है।