कुंडलिनी जागरण ही जीव का चरम लक्ष्य

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जागृति ही किसी भी जीव का परम लक्ष्य है। मुक्ति जीव के हाथ में नहीं, न ही बंधन में पड़ना उसके नियंत्रण में था। परमात्मा ने जीव को बंधन में डालकर उसे जागृति की अनुभूति देने का अवसर प्रदान किया। परमात्मा का आत्मा बनकर संसार के बंधन में पड़ने का लॉजिक भी तभी बनता है अगर यह माना जाए कि उन्हें प्रेमसुलभ जागृति का अनुभव नहीं था। वे उसी की प्राप्ति के लिए मृत्युलोक में आए। अगर वह उन्हें पहले ही सुलभ होती तो वे क्यों अपना पूर्ण रूप त्यागकर जीवात्मा बन कर दुखों से भरी जीव योनियों में भटकते। बेशक वे खुद नहीं पर उनकी फोटोकॉपी ही जीव बन कर आती है पर लॉजिक तो फिर भी यही लगता। बिना मतलब या फायदे के फोटोकॉपी भी क्यों आती। और जब जीव को जागृति मिल गई तो उसके बन्धन में बने रहने का क्या उद्देश्य रह गया? इससे वह तो खुद ही मुक्त हो गया। लॉजिक तो यही कहता है, शास्त्र क्या कहते हैं, यह अलग बात है। प्रेम की पराकाष्ठा वाली जागृति की अनुभूति स्वयं परमात्मा को भी नहीं, क्योंकि उन्होंने कभी शरीर धारण नहीं किया। चढ़ती ऊर्जा का तूफान केवल शरीर में ही संभव है, और यही प्रेम का मूल स्रोत भी है। जागृति प्रेम से ही प्राप्त होती है। शायद परमात्मा जीव की जागृति को ही अनुभव करके संतुष्ट हो जाते हैं। उनके लिए क्या कुछ संभव नहीं है। वे अनंत हैं।

जीव ने अनगिनत वर्षों तक संसार में दुख झेले हैं। यह उसकी तपस्या का प्रतिफल है, एक ऐसा उपहार जो केवल भक्त जीवों के लिए है, स्वयं परमात्मा के लिए भी नहीं। इसीलिए वे भक्त को अपने से भी बड़ा मानकर उसकी खोज में लगे रहते हैं। यह विचार भक्ति मत से पूरी तरह मेल खाता है और शास्त्रों एवं संतों की शिक्षाओं से भी सहमत है।

मेरा अनुभव बताता है कि जीवन की सांसारिकता बाधा नहीं, बल्कि अवसर है। इसे ध्यानपूर्वक जिया जाए तो जागृति की दिशा में सहज प्रगति संभव है। शरीरविज्ञान दर्शन के समन्वय से यह और भी सुगम हो सकता है। मेरी अपनी यात्रा में, मैंने अभी तक निर्विकल्प समाधि का अनुभव नहीं किया, किंतु जागृति के स्पर्श को समझा है। यह अनुभव प्रेम और ऊर्जा के संतुलन से उपजा है।

मुझे यह भी प्रतीत होता है कि ऊर्जा को उठाने-गिराने की प्रक्रिया मात्र एक स्वाभाविक खेल है। इसे जबरन नियंत्रित करने की आवश्यकता नहीं, बल्कि इसे सहज रूप से स्वीकार करने की जरूरत है। जागृति कोई बाहरी उपलब्धि नहीं, बल्कि आंतरिक अनुभव और प्रेम की पराकाष्ठा है।

यदि जागृति अर्थात आत्मज्ञान की बजाय मुक्ति या समाधि ही मुख्य लक्ष्य होता तो इसकी प्राप्ति के लिए विभिन्न आध्यात्मिक पंथ जैसे कि विभिन्न किस्म के योग, तंत्र आदि न बने होते। सभी लोग सिर्फ चुपचाप बैठकर अपने विचारों को साक्षीभाव से देखा करते। सभी हमेशा शांत रहकर दुनियादारी से हटकर जीवन गुजारा करते। मुक्ति तो किसीको दिखती नहीं है पर जागृति तो प्रत्यक्ष की तरह महसूस होती है। जागृति के लिए प्रयास करने से कम से कम जागृति मिलने की तो उम्मीद है ही, मुक्ति भी मिल सकती है। पर अगर जागृति को छोड़कर सिर्फ मुक्ति के लिए ही प्रयास किया गया तो यह भी हो सकता है कि न जागृति मिले और न ही मुक्ति। और मुक्ति मिलने का प्रमाण ही क्या है। आज कोई शांत है तो मुक्त है, पर अगर कल उस पर हमला होता है और वह बचाव की कार्यवाही करता है तो शांति खत्म और मुक्ति भी गायब। यह तो ऐसे ही है कि न माया मिली न राम। अधिकांश लोग मुक्त जैसा बनकर जीवन जीते रहते हैं। उनको देखकर पता ही नहीं चलता कि उनमें जीवन है भी कि नहीं। वे जागृति के लिए भी प्रयास नहीं करते क्योंकि वे इस भ्रम में रहते हैं कि वे तो मुक्त हैं। वे आपको शास्त्रों के उदाहरण देकर इसे एकदम से सही ठहरा देंगे। मुझे तो यह बहुत बड़ा शास्त्रीय छल लगता है। या यह शास्त्रों की अधूरी समझ है। या शास्त्र बाद के लोगों ने लिखे हैं। असली अनुभव करने वाले तो और ही थे।

मैं तो जागृति, कुंडलिनी जागरण, समाधि और आत्मज्ञान को एक ही चीज मानता हूं। कई स्थानों पर इनके अलग अलग अर्थ निकाले जाते हैं या इनके बीच में सूक्ष्म अंतर ढूंढे जाते हैं। मैं इन अव्यवहारिक झमेलों में नहीं पड़ता और न ही मुझे इनकी परवाह है। इनमें समय बर्बाद करने की बजाय अगर अनुभव के लिए समय लगाया जाए तो कुछ तो हासिल हो पाए।

मैंने यह भी अनुभव किया कि ध्यान में ऊर्जा पर अधिक ध्यान देने से ध्यान-प्रतिमा धुंधली पड़ जाती है। अतः ध्यान की मूल छवि को संजोकर रखना ही श्रेष्ठ है। दरअसल ध्यान चित्र पर ध्यान देने से ऊर्जा खुद संतुलित और उर्ध्वगामी हो जाती है मतलब खुद सभी चक्रों को यथावश्यक बल देती है, जबकि केवल ऊर्जा पर ही ध्यान देने से यह कहीं भी जा सकती है, जरूरी नहीं कि ध्यान चित्र को ही पुष्ट करे। मेरी यात्रा अभी जारी है, और मैं इस सत्य को और गहराई से समझने की ओर बढ़ रहा हूँ।

यदि इस अनुभव को अपनाया जाए, तो यह न केवल आत्मिक प्रगति देगा, बल्कि सांसारिक जीवन को भी संतुलित और समृद्ध बना सकता है। जागृति कोई दूरस्थ आदर्श नहीं, बल्कि प्रत्येक क्षण में उपलब्ध सत्य है। यह प्रेम और समर्पण के साथ ही संभव है।