कुंडलिनी जागरण केवल मनुष्य के सूक्ष्म शरीर से ही संभव है

दोस्तों, अंत में बात हट फिर के सूक्ष्म शरीर पर ही आती है। पिछली चर्चाओं से स्पष्ट है कि जगत सिकुड़ता हुआ अहंकार तक पहुंच जाता है। मतलब पारलौकिक सूक्ष्म शरीर के रूप में अहंकार ही बचता है। बेशक लौकिक सूक्ष्म शरीर में बुद्धि, मन, प्राण और इंद्रियां भी आती हैं। कई जगह यह केवल अहंकार, बुद्धि और मन से बना बताया गया है। कई जगह इसमें पंच तन्मात्राएं और पंचमहाभूत भी जोड़ दिए गए हैं। लौकिक सूक्ष्म शरीर के लिए तो यह सब ठीक है पर पारलौकिक सूक्ष्म शरीर में तो ये सब नहीं होने चाहिए। उसमें तो सिर्फ अहंकार होना चाहिए। कई जगह इस अहंकार को कारणशरीर के रूप में माना गया है। इसमें कर्म और संस्कार छिपे होते हैं, जो अगले जन्म का निर्धारण करते हैं। मान लो, परलोकिक सूक्ष्मशरीर मन, बुद्धि और अहंकार से बना होता है। पर वह स्थूल शरीर के बिना सोच-विचार कैसे कर सकता है। अगर नहीं कर सकता तो उसमें मन बुद्धि को मानने की क्या जरूरत है। यह एक जटिल विषय है।

चलो हम एक कोशिकीय जीवाणु को लेते हैं। यह सबसे सूक्ष्म जीवित प्राणी है, जिसे नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता। मान लेते हैं कि उसकी आत्मा या उसका अपने आप का स्वरूप एक पारलौकिक सूक्ष्म शरीर है। यह इसलिए क्योंकि उसके इतने छोटे स्थूल शरीर में अनुभव करने वाला मस्तिष्क नहीं हो सकता। वैज्ञानिकों को भी अभी तक इसका कोई सुराग नहीं मिला है। वह जीवाणु आदमी जैसे विकसित मस्तिष्क वाले प्राणी के जैसे ही आम जीवनचर्या के सभी काम करता है। वह चलता है, खाता है, पीता है, शिकार करता है, डरता है, भागता है, संभोग करता है, बच्चे पैदा करता है, लड़ाई झगड़े करता है, दोस्ती दुश्मनी समझता है, और निभाता है, आदि-आदि। सूचि बहुत लंबी है। समझ लो, वह सभी काम करता है। कई जगह तो आदमी से ज्यादा भी करता। इसका मतलब है कि उसमें आत्मा के साथ अहंकार, बुद्धि, मन, प्राण, पंच ज्ञानेंद्रियां, पंच  तन्मात्राएं और पंचमहाभूत सब कुछ हैं। पर यह सब उसको तो महसूस होते नहीं। तो क्या इन सबके होने के लिए इन सब को महसूस करना जरूरी है। बिल्कुल नहीं। मतलब आत्मा खुद सूक्ष्म शरीर की तरह व्यवहार करती है। मान लिया कि जीवात्मा ऐसा व्यवहार करती है। वह इसलिए क्योंकि जीवात्मा अज्ञान के अंधेरे में फंसी होती है। उसने विकास करना होता है। वह विकास शरीर से ही हो सकता है। पर परमात्मा क्यों सूक्ष्मजीव की तरह व्यवहार करता है, वह तो पूर्ण विकसित है। निर्जीव सृष्टि भी प्राणी की तरह ही व्यवहार करती है। उदाहरण के लिए तारे भी पैदा होते हैं, बढ़ते हैं, लड़ते हैं, प्रजनन कार्य करते हैं, खाते हैं, उगलते हैं, शिकार करते हैं, लड़ाई झगड़ा करते हैं, भागते हैं, दोस्ती और दुश्मनी निभाते हैं, आदि आदि। तो क्या निर्जीव पदार्थों में भी जीवात्मा है। जरूर है। सांख्य दर्शन भी कहता है कि प्रकृति भी पुरुष अर्थात परमात्मा की तरह अनादि, अनंत और सर्वव्यापक है। मतलब यह प्रकृति भी जीवात्मा ही है। एक विशाल, सर्वव्यापक, वैश्विक या समष्टि जीवात्मा। इसे ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर भी कह सकते हैं। ब्रह्मा भी तो इसे महसूस नहीं करता। फिर भी सूक्ष्मशरीर होता है, और काम करता है। एक प्रकार से जीवात्मा के विकास के लिए अहंकार, बुद्धि, मन, प्राण, दस इंद्रियां, पांच तन्मात्राएं, और पंचमहाभूत होना जरूरी है। खैर अहंकार तो खुद ही जीवात्मा के रूप में है। क्योंकि ये सभी जरूरी हैं, इसीलिए ये सभी तत्व इकट्ठे हो गए। इनके इकट्ठा होने से एक शरीर बन गया। उसके साथ जीवात्मा का जुड़ाव हो गया। जीवात्मा तो प्रकृति के रूप में पहले से ही हर जगह और हर समय मौजूद था। समझ लो कि उसका एक कल्पित अंश नवनिर्मित शरीर से बंध गया। वही पहला जीवात्मा हुआ। वह पहला शरीर जीवाणु का था। फिर जीवाणु का शरीर विकसित होकर कीड़ों मकोड़ों का शरीर बना। फिर मछली मेंढक का, फिर बड़े जंतुओं का, बंदरों का और अंत में मनुष्य का। सूक्ष्म शरीर तो सब में एक जैसा ही है। सूक्ष्म शरीर में कोई विकास नहीं हुआ। वही इंद्रियां, वही प्राण, वही मन, वही बुद्धि आदि। मतलब जीवात्मा के विकास के लिए सूक्ष्म शरीर के अलावा अन्य कोई अन्य कुछ तत्व जरूरी नहीं। यह जरूर हुआ कि बड़े जीवों और मनुष्यों में सूक्ष्म शरीर का दायरा बढ़ गया। इसलिए जीवात्मा का विकास भी तेज हुआ। पर सूक्ष्म शरीर तो वही पौराणिक था। मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में जो एक चीज विशेष हुई, जो किसी अन्य जीव के शरीर में नहीं है, वह है कुंडलिनी योग साधना की योग्यता। इससे आदमी अपने सूक्ष्म शरीर को इतना ऊंचा उठा लेता है कि उससे कुंडलिनी जागरण हो जाता है।