दोस्तो, महाभारत में भगवान कृष्ण, अर्जुन, द्रौणाचार्य आदि दिव्य और योगी महापुरुषों के सामने भीष्म पितामह गौण या गुमनाम से प्रतीत होते हैं। उन्हें दृढ़ प्रतिज्ञावान, पितृसेवक, ब्रह्मचारी, वीर सेनापति तक ही सीमित समझा जाता है। इन गुणों में तो वे निस्संदेह सर्वोत्तम माने गए हैं। पर मेरी समझ से वे इससे कहीं आगे हैं। वे भगवान कृष्ण की तरह मुक्त और कर्मयोगी भी हैं। इसीको उनकी इच्छामृत्यु से दिखाया गया है। अगर भगवान् कृष्ण योगेश्वर हैं, तो भीष्म पितामह महायोगी हैं। भगवान कृष्ण पहले से मुक्त और पूर्ण हैं पर भीष्म ने अपने पुरुषार्थ से पूर्णता प्राप्त की है। इसीलिए भीष्म अपने को कृष्ण का सबसे बड़ा भक्त सिद्ध करते हैं जब भगवान कृष्ण को उनके लिए अपनी प्रतिज्ञा भंग करनी पड़ी थी। निम्न लेख में उनके उन्नत योगी रूप की विवेचना की गई है।
भीष्म द्वारा अंबा, अम्बिका और अम्बालिका का हरण महाभारत की प्रसिद्ध घटनाओं में से एक है। सामान्य दृष्टि से यह राजनीति, कर्तव्य और मानवीय भावनाओं की कहानी लगती है। लेकिन योगिक दृष्टिकोण से देखें तो यह कुण्डलिनी ऊर्जा और चेतना की यात्रा के गहरे रहस्यों को दर्शाती है।
1. भीष्म: ऊर्जा को ऊपर ले जाने वाली अडिग इच्छा-शक्ति
भीष्म अपने अटूट संकल्प के साथ राजकन्याओं को हस्तिनापुर लाते हैं। योगिक अर्थ में भीष्म प्रतिनिधित्व करते हैं अनुशासन, दृढ़ इच्छा और वह केन्द्रित शक्ति, जो ऊर्जा को ऊपर उठाने में सहायक होती है। जैसे योग में—शक्ति अपने आप नहीं उठती; उसे दिशा, संकल्प और मार्गदर्शन चाहिए।
2. विचित्रवीर्य: निष्क्रिय चेतना
विचित्रवीर्य स्वयं कुछ नहीं करते—वे ग्राहक चेतना का प्रतीक हैं। आत्मतेज विचित्र होता है, वह किसी दुनियावी तेज या बल से मेल नहीं खाता। इसीलिए इसका नाम विचित्रवीर्य है।
वह चेतना, जो जागृत ऊर्जा को ग्रहण करने के लिए तैयार हो।
भीष्म ऊर्जा को लाते हैं, जैसे कुण्डलिनी ऊपर जाकर उच्च चेतना के साथ एकाकार होती है।
3. तीन राजकन्याएँ: ऊर्जा के विभिन्न प्रकार
- अम्बिका और अम्बालिका वे ऊर्जा हैं जो सहयोगी होती हैं, सहजता से एकीकृत होती हैं और जीवन के प्रवाह को आगे बढ़ाती हैं—जैसे संतुलित प्राण-नाड़ियाँ विकास में सहायक होती हैं।
यह इड़ा और पिंगला के समान हैं। पिंगला में भी ल अक्षर है और अंबालिका में भी। - अंबा इसका प्रतिरोध करती है। वह प्रतीक है अवरुद्ध, जटिल या देर से उठने वाली ऊर्जा का—जिसे पूर्ण जागरण से पहले शुद्धि, धैर्य और विशेष मार्ग की आवश्यकता होती है।
यह सुषुम्ना जैसी विशेषता है।
4. हरण: ऊर्जा के प्रवाह का आरंभ
भीष्म का राजकन्याओं को उठाकर ले जाना संकेत है ऊर्जा को नीचे से ऊपर ले जाने के आरंभिक प्रयास का।
लेकिन केवल बल—शारीरिक, मानसिक या योगिक—ऊर्जा का संपूर्ण उत्कर्ष सुनिश्चित नहीं कर सकता।
ऊर्जा का अंदर से तैयार होना भी आवश्यक है।
5. अस्वीकरण, गाँठ और रूपांतरण
अंबा को विचित्रवीर्य और शाल्व दोनों द्वारा अस्वीकार कर दिया जाना दर्शाता है, एक ग्रन्थि (अवरुद्ध ऊर्जा) को।
यह अवरुद्ध ऊर्जा अपार क्षमता रखती है—ठीक वैसे ही जैसे ध्यान में एक तत्त्व या छवि पर सतत एकाग्रता (ध्यान-आलम्बन) अंततः समाधि का कारण बनती है।
- शाल्व निचले चक्रों का प्रतीक है।
- विचित्रवीर्य भीष्म के उच्च चक्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
सुषुम्ना (अंबा) इनके बीच अटक जाती है—ऊपर भी नहीं पहुँचती और नीचे भी वापस नहीं जा पाती है।
भीष्म ने उसे ऊपर की गति दी, परंतु वह पर्याप्त नहीं थी क्योंकि भीष्म ब्रह्मचारी थे—ऊर्जा के पूर्ण संघटन (शिव–शक्ति मिलन) का मार्ग उन्होंने स्वयं अवरुद्ध कर रखा था।
ऊर्जा नीचे लौटती है, और “सांसारिक समाज” अंबा का ऊपर जाकर नीचे लौट आना “भ्रष्टता” मान लेता है—ठीक वैसे ही जैसे सामान्य समाज किसी उभरते बुद्धिजीवी को समझ नहीं पाता और उसे समाजभ्रष्ट मानकर अलग-थलग कर देता है।
इसलिए उसका पूर्व प्रेमी शाल्व उसे छोड़ देता है। वह इसका कारण बताता है कि वह भीष्म के द्वारा जीत ली गई है। अर्थात योगबल से सुषुम्ना को ऊपर चढ़ा दिया गया है, उसने ऊपर के उत्कृष्ट लोक देख लिए हैं, इसलिए वह अब मूलाधार में नहीं रह सकती। बीचबीच में भीष्म के साथ जरूर आ सकती है उसके क्षेत्र में भ्रमण करते हुए, पर स्थायी तौर पर उसकी पत्नी की तरह नहीं रह सकती।
अंबा लौटकर भीष्म से विवाह की विनती करती है—क्योंकि सुषुम्ना को ऊपर शिखर ले जाने के लिए तांत्रिक शक्ति ही सक्षम होती है। बीच में लटकी हुई हरेक चीज अस्थिर और अप्रिय ही होती है। स्थिरता तो उच्चतम शिखर या निम्नतम गर्त में ही निहित होती है।
लेकिन भीष्म, अपनी ब्रह्मचर्य-प्रतिज्ञा के कारण, उसे ठुकरा देते हैं। यह ऋषि-परंपरा के संस्कारों की कठोर छाप है।
अंबा क्रोध से भरकर तप करती है और अगले जन्म में शिखंडी बनती है—और वही भीष्म के पतन का कारण बनती है। अगला जन्म मतलब ऊर्जा रूपी मानसिक छवि का रूपांतरण।
योगिक अर्थ: अवरुद्ध ऊर्जा अंततः कठोर अहंकार को परास्त कर देती है, सही समय पर, शुद्ध होकर, और रूपांतरित रूप में।
शिखंडी का भीष्म के सामने युद्ध के लिए खड़े होना प्रतिनिधित्व करता है उस क्षण का जब
रूपांतरित ऊर्जा (शक्ति)
कठोर इच्छाशक्ति (भीष्म)
पर विजय पाती है, और अर्जुन (उच्च चेतना) के मार्गदर्शन में आध्यात्मिक प्रगति कराती है।
योगी भीष्म — महाभारत का अदृश्य तपस्वी
यह कथा उच्च अनुशासन वाले लोगों का मनोविज्ञान भी बताती है। एक प्रकार से यह कथा आम जनमानस का सामान्य मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है।
वास्तव में हर कोई व्यक्ति भीष्म है, अलग-अलग स्तर पर। भीष्म की तरह ही सभी लोग किशोरावस्था में ब्रह्मचारी, तपस्वी, और अत्यंत कर्तव्यनिष्ठ जैसे होते हैं। वे अवसर होते हुए भी संबंधों को ठुकरा देते हैं—परिवार, संस्कृति, कर्तव्य या आदर्शों के कारण। कई लोग अपना भौतिक कैरियर बनाने का इंतजार करते हैं, और कई अति महत्वाकांक्षी किशोर तो इससे भी आगे मतलब अपना आध्यात्मिक कैरियर भी बना लेना चाहते हैं आत्मज्ञान की पूर्णता को प्राप्त करके, पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और अंबा कहीं और बस चुकी होती है। आदमी के मन में शिखंडी के रूप में उसकी छवि ही शेष बची रहती है।
ऐसी सामान्य तौर पर घटने वाली घटना हृदय-चक्र में एक अवरुद्ध भावनात्मक छवि बना देती है।
अस्वीकृत स्त्री-ऊर्जा धीरे-धीरे एक उभयलिंगी मानसिक छवि (शिखंडी के समान) का रूप ले लेती है—
लिंग के मामले में पुरुष क्योंकि उस मानसिक छवि से कैसे कोई आदमी विवाह कर सकता है,
लेकिन रूपाकार और भावनात्मक रूप से कोमल स्त्री।
समय के साथ यह अवरुद्ध ऊर्जा व्यक्ति को नरम बना देती है—व्यक्ति का अहंकार ढीला पड़ जाता है। अगर वह उस भावनात्मक छवि को ठुकराए तो दुनियादारी के काम उत्कृष्टता से न कर पाए, अगर उसे अपनाकर रखे तो मन में अपराधबोध सा बढ़ता जाए। अंततः वह हार मान लेता है। वह उसके आगे आत्मसमर्पण कर लेता है, हालांकि मानवीय कर्तव्यबोध को गंवाए बिना। इससे उसके मन में प्रेम और कोमलता बढ़ जाती है, और अंततः वह संबंधों और परिवार की ओर बढ़ता है।
लेकिन यह ऊर्जा-छवि लंबे समय तक बनी रहती है और अंत में “ज्ञान” या “दूसरा जन्म” मिलने पर ही समाप्त होती है। आत्मज्ञान होने के बाद भी आदमी का दूसरा जन्म माना जाता है। इसीलिए आत्मज्ञानी को द्विज भी कहा जाता है।
यही शिखंडी द्वारा भीष्म का “वध” कहलाता है—यानी पुरानी कठोरता का नाश और नए कोमल और चेतन-रूप का जन्म।
अंततः वही ऊर्जा छवि ऊपर उठकर गुरु, देव, ज्ञान और जागरण के रूप में प्रकट हो जाती है।
अंबा, अम्बिका, अम्बालिका — योगिक नाड़ी-रूप में
- अंबा = सुषुम्ना
- अम्बिका और अम्बालिका = इड़ा और पिंगला
एक योगी प्रयासपूर्ण साधना, आसन, प्राणायाम, अनुशासन से
इड़ा–पिंगला को नियंत्रित कर सकता है।
कुछ हद तक ये प्रयास सुषुम्ना को भी ऊपर धकेलते हैं।
परंतु सुषुम्ना बल से कभी पूरी तरह नहीं खुलती।
सुषुम्ना जागरण के लिए आवश्यक है:
- आत्म-समर्पण
- आंतरिक व बाहरी जीवन का संतुलन
- गहरी संस्कार-शुद्धि
- धैर्य और समय
भीष्म ने सोचा कि यदि इड़ा और पिंगला (अम्बिका–अम्बालिका) को बलपूर्वक साध लिया जाए तो सुषुम्ना (अंबा) भी साथ चली जाएगी। उसकी ऊर्जा मूलाधार में सोई रहती थी, मतलब वह राजकुमार शाल्व से प्रेम करती थी। श से शयन, श से शाल्व।
पर इससे सुषुम्ना पर आंशिक रूप से ही नियंत्रण संभव हुआ।
धीरे-धीरे भीष्म के भीतर की हृदय-ग्रंथि खुलने लगी—अंबा (सुषुम्ना) की गुस्से से भरी कठोर छवि को वे स्वीकारने लगे, उसे पवित्र रूप देने लगे—जैसे गुरु/देव आदि का—और ब्रह्मचर्य की कठोर प्रतिज्ञा टूटने लगी (अंतर्मन में)। सुषुम्ना यहां अंबा की याद के पर्याय के रूप में है क्योंकि सुषुम्ना की ऊर्ध्वगामी ऊर्जा से ही मन में ध्यानछवि कायम रहती है और निरंतर पुष्ट होती रहती है। एक प्रकार से उन्होंने उस छवि के आगे समर्पण कर दिया था या कहो कि न समर्थन किया न विरोध, यह स्वीकार करते हुए कि वह जहां चाहे वहां ले जाए, जो चाहे वह कर ले। यह सबको पता है कि ध्यान चित्र हमेशा शुभ ही करता है। हां, इसमें कुछ गुरु को सहयोग भी अपेक्षित होता है। वह गुरु भी सुषुम्ना अर्थात गंगा ही थी। सुषुम्ना को ही गंगा कहा गया है। क्योंकि भीष्म को सुषुम्ना का पूरा सहयोग प्राप्त था, इसीलिए उसे गंगापुत्र भीष्म भी कहा जाता है। गुरु के प्रति प्रेम और समर्पण भाव भी सुषुम्ना की पवित्र शक्ति से ही संभव हो पाता है। सुषुम्ना ही सबकुछ है। उसी की ऊर्जा से सबकुछ शुभ संभव होता है। इसीलिए वह पवित्र गंगा है। विभिन्न उद्देश्य हल करने के कारण सुषुम्ना को ही यहां विभिन्न रूप दिए गए हैं। सुषुम्ना से पुष्ट होती हुई अंबा के रूप से बनी मानसिक छवि के आगे झुकने को ही भीष्म का शिखंडी के आगे हथियार छोड़ने के रूप में दिखाया गया है।
यह भीतर के शिखंडी से सामना था।
6. छिपा हुआ संदेश
महाभारत सिखाती है कि—
- हर ऊर्जा बल से नहीं चलती।
- शुद्धि, धैर्य, समर्पण और मार्गदर्शन भी आवश्यक हैं।
- अवरुद्ध ऊर्जा, रूपांतरित होकर, महान शक्ति बनती है।
- कठोर अहंकार को झुकना ही पड़ता है, तभी आध्यात्मिक प्रगति होती है।
निष्कर्ष
भीष्म और राजकन्याओं की कथा सिर्फ राजसत्ता की कहानी नहीं है—यह मानव शरीर के भीतर कुण्डलिनी की सूक्ष्म गति का प्रतिबिंब है।
भीष्म = इच्छाशक्ति
विचित्रवीर्य = चेतना
अंबा–अम्बिका–अम्बालिका = विभिन्न ऊर्जा-रूप
कुछ ऊर्जा सहज उठती है, कुछ प्रतिरोध करती है, और कुछ रूपांतरित होकर ही ऊपर पहुँचती है।
अंततः सीख यही है:
केवल प्रयास और अनुशासन पर्याप्त नहीं।
जागरण के लिए समर्पण, शुद्धि, धैर्य और दैवी समय भी आवश्यक है।
यद्यपि योग का प्रारंभ प्रयास और अनुशासन से ही होता है, भीष्म की तरह। समय आने पर और आवश्यकता पड़ने पर उसके साथ समर्पण, शुद्धि, धैर्य और दैवीय कृपा भी जुड़ जाते हैं। जीवन प्रवाह में बहते हुए विभिन्न द्वीपों और वस्तुओं से सामना होता ही रहता है।
इस तरह की अधिकांश आध्यात्मिक कथाओं के मूल में योग ही छिपा होता है। ऐसा भी नहीं है कि ये कथाएं केवल परहित के ही उद्देश्य से बनाई गई हैं। इनमें कथाकारों का अपना हित भी छिपा होता था। इससे नीरस, संक्षिप्त और सीमित सा लगने वाला योग रोचक, विस्तृत और आकर्षक बना रहता था और मन में सदैव उसकी याद बनी रहती थी। स्वाभाविक है कि विभिन्न प्रकार की कथाओं में बंधा हुआ योग प्रतिदिन के योगाभ्यास के रूप में आनंद के साथ सांसारिकता और आध्यात्मिक प्रगति प्रदान करता रहता था।
अपने पौराणिक हमनाम के विषय में सबको प्रायः स्वयं ही मनन होता रहता है। ऐसा ही संभवतः मेरे साथ भी हुआ होगा।
हाल ही में एक नया अर्थ प्रकट हुआ, जो संभवतःमेरे जीवन-चरित्र से या यूं कहो कि सबके ही जीवनचरित से कुछ साम्य रखता हो।
इसीलिए निःसंकोच होकर उसे व्यक्त कर दिया।
संभवतः इस नाम का यही प्रभाव है — और वास्तविक अर्थ भी शायद यही हो।
यह सब मेरे व्यक्तिगत अनुभव और दृष्टि मात्र हैं।
सत्य तो वही है जिसे पाठक स्वयं अपने भीतर खोजें।
यदि कहीं त्रुटि हो, तो वह मेरी है; और यदि कहीं सार हो, तो वह परम की कृपा है।