दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में नाक व इड़ापिंगला से जुड़े कुछ आध्यात्मिक रहस्य साझा कर रहा था। इसी से जुड़ी एक पौराणिक कथा का स्मरण हो आया तो सोचा कि इस पोस्ट में उसका योग आधारित रहस्योद्घाटन करने की कोशिश करते हैं। कहते हैं कि पुराने युग में राक्षस हिरण्याक्ष धरती को चुरा के ले गया था और उसे समुद्र के अंदर गहराई में छिपा दिया था। इससे सभी देवता परेशान होकर ब्रह्मा को साथ लेकर भगवान विष्णु के पास गए और उनसे सहायता का वचन प्राप्त किया। तभी ब्रह्मा की नाक से एक छोटा सा सूअर निकला। दरअसल भगवान विष्णु ने ही उस वराह का रूप धारण किया हुआ था। वह देखते ही देखते बड़ा होकर समुद्र में घुस गया। वहाँ उसने गहराई में छुपे दैत्य हिरण्याक्ष को देख लिया और उससे युद्ध करने लगा। देखते ही देखते उसने हिरण्याक्ष को मार दिया और वेदों समेत धरती को अपने मुंह के दोनों किनारों वाली लंबी और पैनी दो दाढ़ें आगे करके उन पर गोल धरती को बराबर संतुलित करके टिका दिया। फिर वे समुद्र के ऊपर आए और उन्होंने धरती को यथास्थान स्थापित कर दिया। फिर भी वराह भगवान शांत नहीं हो रहे थे। उनको भगवान शिव ने एक अवतार लेकर शांत किया।
वराह अवतार कथा का योग आधारित रहस्यात्मक विश्लेषण
नासिका पर और विशेषकर नासिका से अंदरबाहर आतीजाती साँस पर ध्यान देने से शक्ति केंद्रीय रेखा में सुषुम्ना नाड़ी की सीध में आ जाती है। कहते हैं कि नासिका से बाहर जाती साँस से होकर ही वराह बाहर निकला। बाहर जाती साँस पर ध्यान देने से शक्ति आगे वाले चैनल से नीचे उतरती है, और सभी चक्रोँ को भेदते हुए मूलाधार में पहुंच जाती है। यही वराह का समुद्र के नीचे पाताल लोक में पहुंचना है। अगर उसे पाताल लोक की बजाय समुद्र ही मानें तो भी संसार सागर का सबसे निचला पायदान मूलाधार ही है, क्योंकि विभिन्न चक्रोँ में ही सारा संसार बसा हुआ है। सम्भवतः इसलिए भी समुद्र कहा गया हो क्योंकि वीर्यरूपी जल के भंडार मूलाधार क्षेत्र के अंतर्गत ही आते हैं, जिसमें सारा संसार के रूप में दबा सा पड़ा होता है। हिरण्याक्ष का मतलब द्वैतभाव रूपी अज्ञान। हिरण्य मतलब सोना, अक्ष मतलब आंख। जिसकी नजर में सुवर्ण अर्थात समृद्धि के प्रति आदरभाव है, और उसके पीछे द्वैत भाव से अंधा सा होकर पड़ा हुआ है, वही हिरण्याक्ष है। उससे कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार के अँधेरे में छुप अर्थात सो जाती है। मतलब जो मन के विचारों की शक्ति है, वह अवचेतन विचारों के रूप में अव्यक्त होकर मूलाधार में दब जैसी जाती है। यही तो कुंडलिनी है। उस मानसिक संसार के साथ वेद भी मूलाधार में दब जाते हैं, क्योंकि शुद्ध व सत्त्वगुणी आचार-विचार ही तो वेदों के रूप में हैं। शक्ति मूलाधार पर पहुँचने के बाद पीठ से होते हुए वापिस ऊपर मुड़ने लगती है। शक्ति इड़ा और पिंगला, ज्यादातर इड़ा नाड़ी से ऊपर चढ़ने की कोशिश करती है, क्योंकि इसमें अवरोध कम होता है। कई बार शक्ति इड़ा और पिंगला में कुछ क्षणों के लिए प्रत्येक में बारीबारी से झूलने लगती है। ऐसे में आज्ञा चक्र पर भी ध्यान बनाकर रखने से शक्ति बीचबीच में कुछ क्षणों के लिए सुषुम्ना में भी ठहरती रहती है। इड़ा और पिंगला ही वराह के मुंह के दोनों किनारों वाले दो नुकीले दाँत हैं। सुषुम्ना नाड़ी या आज्ञा चक्र ही उन दोनों दांतों के ऊपर संतुलित करके रखी हुई गोल पृथ्वी है। चक्र भी गोल ही होता है। सुषुम्ना को पृथ्वी इसलिए कहा गया है क्योंकि दुनिया के सारे अनुभव मस्तिष्क में ही होते हैं, बाहर कहीं नहीं, और सुषुम्ना नाड़ी से होकर ही मस्तिष्क को शक्ति संप्रेषित होती है। वराह कुण्डलिनी-पुरुष अर्थात ध्यान-छवि है। यह भगवान विष्णु का ध्यान ही है। उसको भी विष्णु की तरह ही शंख, चक्र, गदा, पद्म के साथ चतुर्भुज रूप में दिखाया गया है।इसीलिए कहा है कि भगवान विष्णु ने वराह रूप में अवतार लिया। रूपक के लिए वराह को इसलिए भी चुना गया है क्योंकि सूअर ही जमीन को खोदकर गहराई में भोजन के रूप में छिपी अपनी शक्ति की तलाश करता रहता है। सूअर को पृथ्वी इसीलिए प्यारी होती है। इसीलिए उसे लाने वह समुद्र में भी घुस जाता है। मूलाधार में सोई हुई या दबी हुई धरती अर्थात मन रूपी शक्ति को पाने के लिए वह इड़ा और पिंगला रूपी दांतों के साथ उस शक्ति को वहाँ पर टटोलता और खोदता है। फिर उसको सुषुम्ना रूपी संतुलन देकर जल के बाहर ले आता है, और उसे अपने पूर्ववत असली स्थान पर स्थापित कर देता है। जल से बाहर ले आता है माने नाड़ी के शिखर पर उससे बाहर सहस्रार में पहुंचा देता है, क्योंकि नाड़ी भी जल की तरह ही बहती है। उसका असली स्थान मस्तिष्क का सहस्रार ही है, क्योंकि वही सभी अनुभवों का केंद्र है। सुषुम्ना नाड़ी भी सीधी मूलाधार से सहस्रार को जाती है। इससे अवचेतन मन में दबे हुए विचार फिर से अनुभव में आने लगते हैं, और आनंदमयी शून्य-आत्मा में विलीन होने लगते हैं। मतलब अवचेतन विचारों के रूप में सोई हुई शक्ति जागने लगती है। यह विपासना ही तो है। विपासना मस्तिष्क के किसी भी हिस्से में हो सकती है, सहस्रार को छोड़कर, क्योंकि इसके लिए कम शक्ति चाहिए होती है। होती सहस्रार में ही है, पर कम ऊर्जा के कारण बाहर जान पड़ती है। जिस विचार में जितनी कम शक्ति होती है, वह सहस्रार से उतना ही दूर प्रतीत होता है। वैसे भी आत्मा का स्थान सहस्रार में ही बताया गया है। सहस्रार में केवल कुण्डलिनी चित्र का ही ध्यान किया जाता है, जोकि किसी मूर्ति या गुरु या पारलौकिक देह आदि के रूप में होता है। यह चित्र लगभग असली भौतिक रूप की तरह महसूस होता है अभ्यास से, इसीलिए इसके लिए विपासना की अपेक्षा काफी ज्यादा शक्ति लगती है। यदि कोई किसी आम लौकिक आदमी या औरत के रूप की छवि को सहस्रार में जागृत करने लगे, तब तो वह रात को ही नींद में चलता हुआ उसके पास पहुंच जाएगा। तब ध्यान कैसे होगा। फिर सभी देवता और ऋषिगण प्रसन्न होकर वराह भगवान की हाथ जोड़कर स्तुति करते हैं। वैसे भी इन सभी का उद्देष्य जीवमात्र को जन्ममरण रूपी दुःख से दूर करना ही है, जो सहस्रार चक्र में ही संभव है, इसीलिए खुश होते हैं। शिवजी के द्वारा वराह को शांत करने या मारने का मतलब है कि योगी कुण्डलिनी का भी मोह छोड़कर शिव के जैसा अद्वैतवान तांत्रिक बन गया। वैसे भी सिद्धांत यही है कि ज्ञान अर्थात कुण्डलिनी जागरण होने के बाद या वैसे भी अद्वैतमय तंत्र ही सर्वोच्च समझ अर्थात सुप्रीम अंडरस्टेंडिंग है, जिसे ओशो महाराज भी अपनी एक पुस्तक ‘tantra- a supreme understanding’ के रूप में दुनिया के सामने स्पष्ट करते हैं।