दोस्तों, वैसे तो इस सीरीज के रिवियू ऑनलाइन दायरे में पहले भी आ चुके हैं। पर सबका अपना अपना नजरिया होता है। मैंने तो इसे परिवार के साथ देख लिया। बच्चे भी बिना किसी उकसावे के उसे देखने हमारे साथ बैठ गए थे। यह सबसे बड़ा प्रमाण है इसके गुणवत्तापूर्ण होने का। आजकल के बच्चों को वैसे गेम वीडियो या हॉलीवुड मसाले से फुरसत ही कहां है। हालंकि यह अलग बात है कि हम हरेक दृश्य की वाहवाही करते रहे, शायद उससे भी बच्चों को प्रेरणा मिली। आजकल यही तरीका है बच्चों को अपने संस्कारों के प्रति जागरूक करने का। इसमें जी फाइव कुछकुछ अच्छी भूमिका निभाता लग रहा। मुझे तो मात्र तीन वर्ष की आयु में ही चारों धाम यात्रा का सौभाग्य मिला था। उस समय जब चिकित्सा विज्ञान भी इतना विकसित नहीं हुआ था और चिकित्सा सुविधा भी आसानी से उपलब्ध नहीं होती थी। यात्रा के दौरान टाइफाइड भी हुआ था, यह पता नहीं कि अपनी इम्यूनिटी से खुद ठीक हुआ या दवाई से या देवताओं की कृपा से। ट्रेन का कोई रिजर्वेशन नहीं मिलता था उस समय। सोचो लगभग पूरे देश का भ्रमण, वह भी जनरल बोगी में। कई जगह तो भीड़ में लोग गोद में ही बैठने लग जाते थे। बिहार के गया में अकेले नदी में भागकर छोटे से गड्ढे में स्नान करना हो जब मैं गुम भी हो गया था, या खड़ी ट्रेन के सीट के पास किसी सुराख में पैर फंस जाना जब किसी भले यात्री ने चमत्कारिक ढंग से निकाला था, सब याद है। चंगलपेटु में रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर सोकर रात गुजारना हो या द्वारिका में अंग्रेज बच्चों को नगाड़े बजाते देखना, सब याद है। वहां तो मैं समुद्र से इकट्ठी की हुई सीपियां इकठ्ठी करकर के द्वारकाधीश कृष्ण के चारों तरफ़ घूमकर कुछ बड़बड़ाते हुए गिराता, जब पुजारी भी भक्तिभाव देखकर गदगद हो गए थे, वह भी याद है। मेरे लिए तो वह खेलतामाशा था औरों को देखदेख कर। एक जगह जहां बड़ी सी धर्मशाला में ठहरे थे, तो मुझे हंसाने के लिए पास के घर के एक बड़े से भैया बंदर की तरफ़ कद्दू जैसी कोई चीज़ फेंकते, वह भी याद है। बस इतना ही याद है। हां, गया में एक सुहागिन को रानी की तरह सजा के नदी की तरफ़ ले जाया जा रहा था। मुझे तो वह असली रानी और बहुत सुंदर लगी थी। आगे बहुत कुछ धुंधला है, जिसे लिखा और बोला नहीं जा सकता। शायद इसीलिए मुझे यह सीरीज अच्छी लगी। घर बैठे तीर्थों के दर्शन। मेरे घूमे हुए तीर्थ भी उसमें जरूर होंगे तभी अपनापन सा लगा। बचपन के संस्कार बहुत जरूरी होते हैं। आजकल तो कितना आसान हो गया है देशभर का भ्रमण। फिर भी लोग कहां जाते हैं और कहां ले जाते हैं बच्चों को। इससे कैसे उनमें संस्कार पड़ेंगे और कैसे होगी सनातन धर्म या भारतीय संस्कृति की रक्षा, यह सोचने का विषय है। दोनों शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची जैसे हैं। सनातन धर्म के बिना भारतीय संस्कृति अधूरी है, और भारतीय संस्कृति के बिना सनातन धर्म अधूरा है। बात हो रही है हाल ही में जी फाइव पर रिलीज हुई वेबसरीज सर्वम-शक्तिमयम की। इसमें अमेरिका से एक खोजी जिज्ञासु आता है और अंत में विश्वास को ही सबकुछ मानकर उसपर पुस्तक लिख बैठता है। वहीं अपने देश से एक परिवार शांति की खोज में जाता है, और मनचाही शांति पा लेता है। जिसको जो चाहिए, उसे मिल ही जाता है। किसी को वैज्ञानिक निष्कर्ष तो किसी को उसका अनुभव। सीरीज में सिर्फ दस एपिसोड और हरेक एपिसोड लगभग आधे घंटे का है, मतलब कुल पांच घंटे की, दो बड़ी फिल्मों के बराबर। हमने एक दिन में ही सारी देख ली, इतना मन लगा। वैसे अगले दिन मेरी पत्नी ने महिलाओं के एक ग्रुप के साथ खाटू श्याम और पुष्कर भी जाना था, इसलिए भी खत्म ही कर ली, ताकि तीर्थयात्रा के लिए अच्छा मूड़ बने और मन में कोई सस्पेंस न रहे।
हमारी माताजी बहुत आध्यात्मिक थीं। छोटी उम्र में बेशक किसी संतान संबंधी समस्या के निदान के रूप में एक साल उन्होंने पूरे साल प्रतिदिन मिट्टी के शिवलिंग सुबह बनाए, दिन में उनकी पूजा की और शाम को बहा दिए। उसके बाद उम्र भर हर साल पूरे श्रावण के महीने में यह नियम बना कर रहीं। मैं मानता हूं कि अधिकांश हिंदु पूरी उम्र भर इन्हीं आधारभूत आध्यात्मिक रिवाजों तक सीमित रहते हैं और अपनी साधना को वह मुक्तिगामी वेग नहीं दे पाते जिससे जागृति और मुक्ति मिल सके। पर यह आध्यात्मिक परंपराओं का दोष नहीं है। परंपराएं तो विश्वप्रसिद्ध हैं। बहुत से पाश्चात्य लोग भी इनके दीवाने होकर इन्हें अपना रहे हैं। अभी हाल ही में एक पड़ौस के मंदिर में बैठा था। तभी वहां कीर्तन शुरु हो गया। महिलाएं बहुत अच्छा गाना बजाना कर रही थीं। मैं आंख बंद करके, सिर और पीठ सीधे करके भजन की ताल के साथ जोरजोर से ताली बजाने लगा। जीभ को तालु से सटाकर खेचरी मुद्रा लगाई थी। ध्यान के साथ कुंडलिनी शक्ति चक्रों की ऐंठन के साथ बहुत अच्छे से घूमने लगी। हथेलियों के टकराने से आवाज भी हो रही थी और संवेदना भी महसूस हो रही थी। उससे कुंडलिनी के नीचे उतरने में भी मदद मिल रही थी, और हृदय चक्र पर उसके प्रकट होने में भी। बात स्पष्ट है कि संभवतः बाकि भक्तलोग मन की अस्थायी शांति के लिए ईजी गोइंग वे में लगे थे, पर मैं कुंडलिनी को मुक्तिगमी वेग मतलब एस्केप विलोसिटी देने की कोशिश में था। अध्यात्म से जब मन तृप्त सा हो जाता है तब भौतिक प्रगति का मन करता है। इससे मुझे लगता है कि पश्चिमी देशों के लोग कभी भारत या एशिया में रहते थे और भारत की आध्यात्मिक परंपराओं से जुड़े हुए थे। बाद में वे यूरोप आदि पश्चिमी देशों में चले गए।
ईसाई संस्था वाईएमसीए फिटनेस कक्षाओं के साथ योग भी सिखा रही है। एप्पल के संस्थापक स्टीव जॉब्स ने लिखा है कि कैसे ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी’ ने उन्हें प्रभावित किया। मार्क जुकरबर्ग ने नीम करोली बाबा आश्रम में समय बिताया। गूगल के संस्थापक लैरी पेज, ई-बे के सह-संस्थापक जेफ स्कोल और अन्य प्रमुख व्यापारिक नेताओं ने अपने जीवन में उद्देश्य खोजने के लिए भगवान हनुमान के भक्त इस गुरु के आश्रम का दौरा किया। 70 के दशक के बीटल्स और आज का हॉलीवुड भी इस पौराणिक अवधारणा से बच नहीं रहा है। जूलिया रॉबर्ट्स से लेकर विल स्मिथ, ओपेनहाइमर और कई क्वांटम भौतिक विज्ञानी जैसे हेइज़ेनबर्ग, बोह्र, शोर्डिंगर आदि हिंदू धर्म से प्रभावित थे। जिनेवा के पास सर्न (CERN) संस्थान में एक पौराणिक नर्तक नटराज की मूर्ति है। 14 शीर्ष जर्मन विश्वविद्यालय संस्कृत पढ़ा रहे हैं, और यूरोपीय विश्वविद्यालयों में इसकी ऊंची मांग है। पिछली सदी के प्रसिद्ध मिथक कथाकार जोसेफ कैंपबेल हिंदू पौराणिक कथाओं से बहुत प्रभावित थे। प्रसिद्ध खगोल-भौतिक विज्ञानी कार्ल सागन भी इससे प्रभावित थे। आज ईसाई जगत में सबसे ज्यादा फॉलो किए जाने वाले आध्यात्मिक शिक्षक, जैसे एकहार्ट टोल, माइक सिंगर, वेन डायर, स्टीफन वोल्पर्ट (राम दास) और कई अन्य भी हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म की शिक्षाओं में गहरा विश्वास रखते हैं। लिसा मिलर ने एक बार कहा था कि ‘अब हम सभी (इसाई) हिंदू हैं।’