कुंडलिनी योग से अहंकार रूपांतरित हो जाता है

दोस्तों, शास्त्रों में योग से अणिमा सिद्धि प्राप्त होने की बात कही गई है। अणिमा अणु शब्द से बना है, जिसका मतलब सूक्ष्म होता है। इसलिए अणिमा सिद्धि का मतलब हुआ, सूक्ष्म स्वरूप बन जाने की सिद्धि। पर मुझे लगता है कि इसे अधिकांश लोगों ने ऐसे समझ लिया कि इससे आदमी के शरीर का आकार 6 फुट से 6 इंच का हो जाता होगा या 60 किलो वजन का आदमी 5 किलो का रह जाता होगा। पर ऐसा होना तो संभव नहीं है। अनुभव के आधार पर यह बात निकलती है कि कुंडलिनी योग से आदमी का अहंकार इतना क्षीण हो जाता है कि उसे अपने से छोटे आकार प्रकार के प्राणियों के साथ भी घुल मिलकर रहने की आदत पड़ जाती है। इसका मतलब है कि वह उनके जितना छोटा हो जाता है। आत्मज्ञान को प्राप्त होने पर तो योगी मिट्टी, पानी, हवा, आकाश जैसी सूक्ष्म आत्माओं के साथ भी अपना संपर्क सा स्थापित कर लेता है। मतलब वह सबसे सूक्ष्म बन जाता है। इसी तरह की योग सिद्धि गरिमा सिद्धि है, जो अणिमा के बिल्कुल विपरीत है। मतलब इससे आदमी पहाड़ जितना बड़ा भी बन सकता है। हमें इन्हें भौतिक परिपेक्ष में नहीं समझना चाहिए। क्योंकि ऐसा होना असंभव है। इसका मतलब है कि वह बड़ी सत्ता या बड़े अहंकार वाले लोगों जैसे कि महान उद्योगपतियों, अमीरों, नेताओं, कलाकारों, अध्यक्षों और राजाओं के समकक्ष या उनसे भी ऊपर के ब्रह्मा आदि देवताओं के बराबर या इन सब से भी ऊपर उठ जाता है, मतलब इन सबसे बड़ा या भारी बन जाता है। अहंकार सूक्ष्म या खत्म होने का मतलब यह नहीं है कि योगी की सत्ता ही नहीं रहती, या सत्ता छोटी हो जाती है। यह कोई अभाव या मृत्यु जैसी स्थिति नहीं है। इसका मतलब तो अहम भाव का अद्वैत भाव में रूपांतरित होना है। यह अहंकार भाव का कुंडलिनी भाव में रूपांतरित होना है। यह अहम भाव का समाधि भाव में रूपांतरित होना है। यह अहम भाव या आत्मभाव का परमात्म भाव में रूपांतरित होना है। जो परमात्म भाव में स्थित हो गया, वह सभी चीजों के रूप में स्थित हो गया, क्योंकि छोटी से छोटी चीज के रूप में भी परमात्मा ही है, और बड़ी से बड़ी चीज के रूप में भी परमात्मा ही है। यही अणिमा और गरिमा सिद्धियां है। अहंकार चेतना का मूल स्वभाव है। इसके बिना जीवन और चेतना संभव ही नहीं है। लोग क्या करते हैं कि अहंकार को मारने की कोशिश करते हैं, जिससे उनकी चेतना भी मर सी जाती है, और वे जड़ से बन जाते हैं। ठीक है कि अज्ञान से बंधा हुआ झूठा अहंकार हानिकारक होता है, पर अहंकार का अभाव तो उससे भी ज्यादा हानिकारक हो सकता है। इसलिए जरूरी है कि मध्य मार्ग अपनाया जाए। मतलब अहंकार रहे जरूर, पर ज्ञान से बंधा हुआ। इसलिए घटिया अहंकार को बढ़िया अहंकार में रूपांतरित करते रहना चाहिए। यही बढ़िया अहंकार अद्वैत के साथ रहता है। यह चींटी के भाव को भी उसी तरह स्वीकार करता है, जैसे हाथी के भाव को। यह मिट्टी के एक कण को भी उसी भाव से स्वीकार करता है, जैसे एक पहाड़ के भाव को। यह एक दरिद्र को भी उसी अहंभाव से स्वीकार करता है, जिस अहंभाव से एक राजा को। यही अणिमा, लघिमा और गरिमा हैं। पर यहां एक झोल है। ऐसे शुद्ध अहंभाव का हमने बलपूर्वक नाटक नहीं करना है, बल्कि कुंडलिनी योग से इतना सामर्थ्य पैदा करना है कि यह खुद ही पैदा हो जाए। मुझे लगता है कि अगर इसे नाटक से पैदा करेंगे तो सारी उमर नाटक ही करते रह जाएंगे, और असली कुंडलिनी योग तक पहुंच ही नहीं पाएंगे। यह बिल्कुल साधारण और व्यवहारिक अनुभव है। ज्यादा लिखने से तो भ्रम ही पैदा होता है। दरअसल ऐसा लिखने के लिए शब्द नहीं मिलते, इसलिए  मुख्यधारा के अहंकार जैसे शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है। इन्हें कई बार लोग गलत समझ लेते हैं। कोई बोल सकता है कि अहंकार तो हर जगह छोड़ा जाने योग्य बताया गया है, पर हम इसे अपनाने की बात कर रहे हैं। पर वे इस बात के मूल भाव को नहीं समझ रहे होंगे। दरअसल अहंकार जब अशुद्ध से शुद्ध हो जाता है, तब बहिर्मुखी से अंतर्मुखी या ध्यानमुखी और भड़कीले स्वभाव से शांत सा हो जाता है। शुद्ध अहंकार को सीधा बनाना मुश्किल होता है, पर अशुद्ध अहंकार को शुद्ध अहंकार में रूपांतरित करना आसान होता है। जैसे दुनियादारी अशुद्ध अहंकार से ज्यादा फलती फूलती है, इसी तरह शुद्ध अहंकार से अध्यात्म और कुंडलिनी योग ज्यादा फलता फूलता है। इसी तरह, अच्छी तरह से लिखने पर कोई बात सच नहीं हो जाती। पुराणों में बहुत सी रूढ़िवादी और अवैज्ञानिक सी लगने वाली बातें बहुत सुंदर श्लोकों में लिखी गई हैं। बहुत मेहनत की गई है उन श्लोकों को बनाने में। पर वे इससे तर्कशील या वैज्ञानिक नहीं बन जातीं। हो सकता है कि ऐसा ही हो अप्रत्यक्ष रूप में, पर जो साफ दिख रहा है, उसे दरकिनार करके केवल विश्वास के ही सहारे भी कैसे जिया जाए। सबसे बड़ा प्रमाण प्रत्यक्ष माना जाता है। अनुमान, आप्त वचन पर विश्वास आदि प्रमाण तो प्रत्यक्ष से छोटे ही हैं। हां, अगर प्रत्यक्ष रूप में उनसे हानि न दिख रही हो, तो अन्य प्रमाणों का सहारा लिया जा सकता है। प्रत्यक्ष को तो नजरंदाज नहीं किया जा सकता। अगर उससे प्रत्यक्ष रूप में हानि दिख रही हो, तो ऐसा भी समझा जा सकता है कि वह भौतिक रूप में सत्य नहीं, बल्कि मेटाफोर या रूपक के रूप में उससे कोई आध्यात्मिक पहलु समझाने की कोशिश की जा रही है। पर सभी लोग ऐसा नहीं समझते। बहुत से लोग उन्हें अक्षरशः सत्य मानने लगते हैं। अगर अशुद्ध अहंकार के साथ किसी भी तरह से अद्वैत धारणा भी बनी रहे, तो उसका शुद्ध अहंकार में रूपांतरण अधिक आसान हो जाता है।

वैसे तो ऐसे श्लोकों से दिमाग का दायां हिस्सा क्रियाशील हो जाता है, जो ज्यादा ही तार्किक और वैज्ञानिक बनने से सुप्त सा हो जाता है। जागृति के लिए दिमाग के दोनों हिस्सों का बराबर क्रियाशील रहना जरूरी है। इतनी ज्यादा मेहनत से इतने सुंदर, संगीतबद्ध व व्याकरण के अनुसार शुद्ध श्लोक मनघड़ंत बातों पर भी नहीं रचे जा सकते। इनका कोई मकसद तो जरूर है। अगर इनसे पैसा कमाना या शौहरत पाना ही मकसद होता तो ये तार्किक और लौकिक तथ्यों पर भी बनाए जा सकते थे। मतलब कि इनमें गूढ़ अर्थ छिपा हो सकता है जो ऊपर से नजर नहीं आता। मतलब कि अगर इनके सतही अर्थ को ही भौतिक रूप में पूर्णतः सत्य माना जाए, तो आदमी मूर्ख बन सकता है। यदि इन्हें काल्पनिक कथा के रूप में ज्यादा सत्य और भौतिक तथ्य के रूप में कम सत्य समझा जाए, तो उससे दायां मस्तिष्क ज्यादा सक्रिय हो जाएगा। यदि इन्हें काल्पनिक कथा के रूप में भी सत्य माना जाए और साथ में इनका आधारभूत वैज्ञानिक तथ्य भी सत्य माना जाए, तो मस्तिष्क के दोनों भाग एकसाथ सक्रिय हो जाएंगे। शायद यही पौराणिक मिथक कथाओं का और इस ब्लॉग का ध्येय है। मुझे स्वयं इन्हें पढ़कर अद्भुत आनंद, शान्ति, और ध्यान-समाधि के साथ अपनी कुंडलिनी क्रियाशील होते हुए महसूस होती थी।

Published by

demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

Leave a comment