दोस्तों, प्रकृति इस सृष्टि की माता है और पुरुष पिता है। हर एक वस्तु प्रकृति और पुरुष के सहयोग से बनी है। प्रकृति श्यामपट्ट है तो पुरुष उस पर चल रहा चलचित्र है। श्यामपट्ट नहीं है तो चलचित्र नहीं है। चलचित्र नहीं है तो श्यामपट्ट भी नहीं है। दोनों एक-दूसरे से हैं। अलग-अलग रहना उनके लिए संभव नहीं है। इसी तरह यदि प्रकृति रूपी तमोगुण का अंधेरा नहीं है तो प्रकाश रुप जगत को नहीं दिखाया जा सकता।
सफेद चाक से सफेद बोर्ड पर नहीं लिखा जा सकता। सफेद चौक से सिर्फ काले ब्लैक बोर्ड पर ही लिखा जा सकता है। इसी तरह केवल चेतन पुरुष से भी जगत रूपी चित्र नहीं बनाया जा सकता है। जगत चित्र के निर्माण के लिए अचेतन प्रकृति का आधार भी उपलब्ध होना चाहिए। यह सब अध्यात्म है। यहां सारा संसार मन, मस्तिष्क के अंदर है। हमें भौतिक रूप में मूल कण तक जाने की जरूरत नहीं है। यहां हर पल संसार का जन्म और मरण चल रहा है। नए चित्र बन रहे हैं, पुराने मिट रहे हैं। प्रकृति खाली व अन्धकार से भरा मन रूपी ब्लैकबोर्ड है, तो पुरुष चेतन अनुभूति रूपी स्याही। लगातार लिखा और मिटाया जा रहा है। न ब्लैक बोर्ड कभी नष्ट होता है, और न ही कभी स्याही। दोनों ही अजर, अमर और शाश्वत हैं। दोनों ही अस्तित्व के दो विपरीत ध्रुव हैं। एक यिन है तो एक यांग है। एक मां है जो अपने ऊपर चेतना रूपी उज्जवल स्याही की क्रीडा को स्वीकार करती है। एक पिता है जो अपनी उज्जवल चित्रकारी के लिए अपनी प्रियतमा प्रकृति को आकर्षित करता रहता है। वह जैसे जैसे चित्र बनाता जाता है, वैसे वैसे पदार्थों का जन्म होता जाता है। यह सारी सृष्टि चित्रात्मक है, असली नहीं। मस्तिष्क से बाहर की स्थूल भौतिकता को भी देखें। तो वह भी चित्रात्मक ही है, बस स्थूल चित्र थोड़े ज्यादा स्थिर होते हैं, और क्रमवार व धीरे धीरे बनते हैं। जैसे कि सबसे पहले बाहर के स्थूल आकाश में मूल कणों के चित्र बनेंगे। फिर वे आपस में क्रिया और प्रतिक्रिया करते हुए आगे से आगे एक निर्दिष्ट क्रम व वैज्ञानिक सिद्धांत के अनुसार नए-नए चित्र बनाते जाएंगे। मस्तिष्क के बाहर केवल मूल कण के चित्र ही उकेरे जाते हैं। बाद में वे प्रकृति माता के गर्भ में बढ़ते हुए विकसित संसार रूपी विभिन्न चित्र बन जाते हैं। पर मस्तिष्क के आकाश में जैसा मर्जी चित्र पल भर में बन जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वह बाहर के चित्र का प्रतिबिंब होता है, असली चित्र नहीं। हालांकि बिंब और प्रतिबिंब के स्वरूप में कोई अंतर नहीं होता। यह ऐसे ही है, जैसे मानसरोवर के जल में बने कैलाश के प्रतिबिंब को कोई अपनी आंखों से देख ले। पर्वत का वह प्रतिबिंब तो जल में पूरे दिन भर बना रहेगा और वह धीरे-धीरे बना था। रात को वह बिल्कुल नहीं होगा। फिर जैसे-जैसे सूर्य उगेगा और चढ़ेगा, वह प्रतिबिंब थोड़ा थोड़ा साफ और बड़ा होता जाएगा। उसे बनाने के लिए बहुत से कारकों का होना जरूरी है। पर आंख ने उस प्रतिबिंब का प्रतिबिंब मस्तिष्क में एकदम से बनाया क्योंकि वह पहले ही पूरा बना हुआ था। उसे बनाने के लिए अन्य कुछ नहीं, बस एक आंख और मस्तिष्क से युक्त शरीर चाहिए था। हैं तो दोनों चित्र एक जैसे ही। इसी तरह बाहर के आकाश में बने जगत-चित्रों को बनाने में अरबों-खरबों वर्ष लगे। पर उन चित्रों का चित्र बनाने के लिए सिर्फ एक शरीर चाहिए जो पल भर में उन चित्रों का चित्र खींच लेता है। बाहर के चित्रों का तो हमें पता भी नहीं चलता, क्योंकि हम उन्हें महसूस ही नहीं कर सकते। हम तो केवल भीतर के चित्रों को ही महसूस करते हैं। बाहर का अंदाजा तो हम सिर्फ भीतर से ही लगा सकते हैं। जब भीतर का जगत-चित्र मिटता है, तो उसका निशान ब्लैकबोर्ड पर रह जाता है। इसे ही हम सूक्ष्म शरीर कहते हैं जिस पर आदमी के पिछले सभी जन्मों के चित्र सूक्ष्म रूप में दबे रहते हैं। यह ऐसे ही है जैसे फोन की मेमोरी से डाटा डिलीट करने के बाद भी वह उसमें छुपा हुआ रहता है, जिसे फिर से ढूंढा और रिट्रीव किया जा सकता है। कुंडलिनी योग रूपी ऐप से ही इसे पूरी तरह से खारिज अर्थात इरेज किया जा सकता है। यह शरीर एक नायाब इलेक्ट्रॉनिक कैमरे की तरह है। कैमरा खराब होने से उसके अन्दर के सारे चित्र भी मिट जाते हैं, पर बिजली भी रहती है, और कैमरे की स्क्रीन बनाने वाले पदार्थ भी। मतलब शरीर के नाश के साथ जगत-चित्र नष्ट हो जाते हैं, पर पुरुष और प्रकृति तब भी रहते हैं। ये दोनों सनातन हैं। सनातन केवल शून्य-आकाश ही हो सकता है, और कुछ नहीं। मतलब वही शून्य-आकाश पुरुष है, और वही शून्य-आकाश प्रकृति भी है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह हैं।
सजीव शून्य-आकाश मतलब पुरुष भ्रम से निर्जीव शून्य-आकाश मतलब प्रकृति बन जाता है। हालांकि मूल पुरुष-आकाश वैसा ही रहता है। उसी मूल पुरुष-आकाश से अपने ही भ्रमित रूप पर चित्र उकेरे जाते रहते हैं। मूल पुरुष अर्थात पुरुषोत्तम या परमात्मा है, जबकि भ्रमित पुरुष जीवात्मा या प्रकृति है। यह ऐसे ही है जैसे शिव पुराण में कहा गया है कि एकमात्र शिव से नर और मादा मतलब पुरुष और प्रकृति का जोड़ा पैदा हुआ।