दोस्तों, प्रकृति एक विशालकाय मां की तरह है। अंतरिक्ष इसका पेट है। जब पुरुष-पिता के द्वारा इसमें गर्भाधान किया गया, तब सूक्ष्मतम मूल कण इसके गर्भ में स्थापित हो गया। उसमें महा-विस्फोट अर्थात बिग बैंग के रूप में विभाजन और विकास की शुरुआत हो गई। जैसे-जैसे यह सृष्टि रूपी महा-भ्रूण बढ़ता गया, वैसे-वैसे इसके पेट का आकार भी बढ़ता गया। इसे ही वैज्ञानिक अंतरिक्ष का फैलना कहते हैं। आज भी अंतरिक्ष फैलता ही जा रहा है। जब यह सृष्टि रूपी बच्चा बड़ा होकर पूरी तरह विकसित हो जाएगा, तब उसका और आगे बढ़ना रुक जाएगा। उस समय प्रकृति के उदर का आकार भी स्थिर हो जाएगा। लंबे समय तक यही स्थिति बनी रहेगी। फिर यह सृष्टि रूपी आदमी बूढ़ा और कमजोर होने लगेगा। इससे इसका आकार भी घटने लगेगा। इससे प्रकृति मां के पेट का आकार भी घटने लगेगा। इसे ही वैज्ञानिक बिग क्रंच अर्थात महा सिकुड़न कहते हैं, जब अंतरिक्ष का फैलना रुक जाएगा और वह धीरे-धीरे सिकुड़ने लगेगा। फिर अंत में यह महा विशालकाय आदमी मर कर उसी मूल भ्रूण कोशिका के रूप में सिकुड़ जाएगा, जहां से इसका विकास शुरू हुआ था। फिर वह अंतिम मूल कोशिका भी उसी प्रकृति में मिल जाएगी, जिससे वह बनी थी। अंतिम मूल कण प्रकृति से ही बना था, और वह प्रकृति से ही पोषण प्राप्त करके बढ़ता गया था। इसीलिए प्रकृति को मां भी कहते हैं। पुरुष ने तो केवल जरा सा सहयोग किया प्रकृति का। उसके प्रार्थना करने पर उसे अपना बीज प्रदान किया है। सृष्टि-पुत्र की ज्यादा जरूरत प्रकृति को ही है, क्योंकि वह उस के माध्यम से अपनी कल्पित कमी और हीनता की भरपाई करना चाहती है। पुरुष तो मस्त मलंग है। वह अपने आप में पूर्ण है। उसे किसी की कोई जरूरत नहीं है। असली दुनियादारी में भी तो कुछ-कुछ ऐसा ही दिखता है। हां, चतुर लोग प्रतिदिन कुंडलिनी योग के माध्यम से प्रकृति-पुरुष का मिलन कराते रहते हैं, और अपनी मनचाही सृष्टि-संतान का निर्माण करते रहते हैं।
खाली अंडा कभी नहीं फूटता। खाली मादा-बीज कभी वृक्ष नहीं बनता। खाली मिट्टी भी कभी वृक्ष नहीं बना सकती। वृक्ष में नर-बीज, मादा-बीज और मिट्टी, तीनों के अंश होते हैं। पर सृष्टि में पुरुष और प्रकृति, केवल दोनों के ही अंश होते हैं। भूमि बीज को पोषण प्रदान करती है। नर-बीज को विविधता मादा-बीज के साथ मिश्रित होने से मिलती है। मादा-बीज को भी विविधता नर-बीज के साथ मिश्रित होने से ही मिलती है। उधर प्रकृति मादा-बीज भी है, और मिट्टी भी वही है। मतलब वह पुरुष-बीज अर्थात नर-बीज को विविधता भी प्रदान करती है, और उसे बढ़ाने के लिए मिट्टी का काम भी करती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सृष्टि के प्रारंभ में पुरुष और प्रकृति के इलावा अन्य कुछ भी नहीं था। प्रकृति में अव्यक्त रूप में छिपे हुए अति सूक्ष्म तत्त्व पुरुष-बीज और मादा -बीज के मिश्रण से बने मूल कण को बढ़ाते रहते हैं। प्रलय के समय सारी सृष्टि खत्म होकर प्रकृति में सूक्ष्म रूप में समा जाती है। उसे सांख्य की भाषा में अव्यक्त कहते हैं। उसी अव्यक्त से पुनः नई सृष्टि का निर्माण होता है। यह ऐसे ही है, जैसे सारे जीव-जंतु और पेड़-पौधे मर कर और सड़-गल कर सूक्ष्म तत्त्वों के रूप में मिट्टी में समा जाते हैं, और फिर मिट्टी के उन्हीं सूक्ष्म तत्त्वों से पोषण प्राप्त करके नए जीव-जंतु पैदा हो जाते हैं, और नए पेड़-पौधे उग आते हैं। साथ में अलग-अलग मात्राओं में और अलग-अलग तरीके से संयोग करके, पुरुष-बीज और प्रकृति-बीज संसार में विविधता भी पैदा करते हैं। वृक्ष के मादा-बीज और नर-बीज भी इसी तरह आपस में अलग-अलग मात्रा में और अलग-अलग तरीके से जुड़कर वृक्षों की विभिन्न प्रकार की किस्में पैदा कर देते हैं।