दोस्तों! लंबे समय से जीवन परिस्थितियां लेखन के अनुकूल नहीं चल रही थीं। लेखन के लिए आदमी बिलकुल तनावरहित और चिंतामुक्त होना चाहिए। मन की ऐसी भावना होनी चाहिए कि जो हो रहा है, ठीक हो रहा है। आदमी ज्यादा प्रतिक्रियात्मक नहीं होना चाहिए, नहीं तो जो शक्ति लेखन के काम आनी थी, वह प्रतिक्रिया देने में खर्च हो जाती है।
मुझे लग रहा है कि मेरे मन का कुंडलिनी चित्र रूपांतरित हो रहा है। लगता है कि अब गुरु का स्थान देव गणपति ले रहे हैं। ऐसा नहीं की अब गुरु नहीं रहे। इसका मतलब है कि गुरु ही गणपति के रूप में प्रकट हो रहे हैं। शंकराचार्य जी ने भी पतंजलि योग सूत्र के अपने भाष्य में इस समाधि स्थानांतरण के बारे में बताया है। मतलब समाधि एक चित्र से दुसरे चित्र पर लग जाती है। शायद यह इसलिए भी हो रहा होगा क्योंकि मेरे गुरु स्वयं एक विख्यात मूर्तिपूजक थे और मेरी आदत भी एक छोटी सी कांसे की गणपति की मूर्ति को प्रतिदिन नहलाने, तिलक लगाने और सूर्यार्घ के समय उसे सूरज दिखाने की रही है। हालांकि मैं ज्यादा औपचारिकताओं के चक्कर में कभी नहीं पड़ा हूं।
देव गणपति देवों के देव हैं। वे किसी भी अनुष्ठान में सबसे पहले पूजे जाते हैं। उनका शरीर ही अपने अंदर अनगिनत शिक्षाओं को समेटे हुऎ है। वे गजब के लेखक हैं, जो कभी लिखते हुऎ थकते नहीं है। यह इसीलिए है क्योंकि वे हाथी की तरह मस्त रहते हैं, मतलब ज्यादा प्रतिक्रियात्मक नहीं हैं। कहते हैं कि सारे पुराणों को कलमबद्ध करने वाले वही थे, महर्षि वेदव्यास तो सिर्फ मुख से बोलते थे। उनकी लंबी बढ़ी सूंड आज्ञा चक्र से सीधी नीचे जाने वाली आगे की नाड़ी की परिचायक है। वह सूंघने की उत्तम शक्ति की परिचायक है। दारअसल गंध से ही लोगों के बीच खासकर प्रेमी प्रेमिका के बीच आकषर्ण पैदा होता है। यह बात वैज्ञानिक रूप से भी सिद्ध है। पर हमें इस बात का पता नहीं चलता। आकषर्ण का बीज गंध में ही छिपा होता है। इसीलिए तो शादी के मामलों में उत्तम सुगंधित अनूलेपनों का प्रयोग किया जाता है। इससे ना चाहते हुऎ भी आकषर्ण पैदा हो जता है। और यह सभी जानते हैं कि आकषर्ण ही कुंडलिनी समाधि का बीज है।
इसी तरह गजानन की सूंड अनासक्ति की भी प्रतीक है। मतलब वह दुनियावी भोगों को चखती नहीं, सिर्फ सूंघती है। यह सूक्ष्म वासना का प्रतीक है। वास या बास शब्द जिससे वासना शब्द बना है, वह गंध के लिए ही प्रयुक्त होता है। वासना दुनियावी झमेलों का सबसे सूक्ष्म रूप है। मतलब योगी गणेश निरंतर साधना के बल से पूर्ण गृहस्थी में स्थित रहते हुए भी इस झमेले को न्यूनतम बना कर रखते हैं। दुनिया में रहते हुए इससे पूरी तरह पीछा छुड़ाना तो संभव नहीं है। पर इससे यह फायदा हो जाता है कि जरूरत पड़ने पर थोड़ी सी अतिरिक्त साधना से इसे नष्ट करना आसान हो जाता है। जो मुक्ति के लिए जरूरी है। अगर आदमी हर समय स्थूल भौतिकता में डूबा रहेगा, तो उसे आसानी से नष्ट नहीं कर पाएगा।
गणेश जी के बड़े-बड़े कानों का मतलब है कि वे दुनिया से ज्यादा से ज्यादा सूचनाएं ईकट्ठी करते हैं, सबकी सुनते हैं, बोलते कम है। तभी तो इतना कुछ लिख पाते हैं। गजानन को नेतृत्व का देवता भी कहा जता है। इनके बड़े-बड़े कान इसी नेतृत्व क्षमता के परिचायक हैं। एक अच्छा नेता देश दुनिया के बारे में हर तरह की जानकारी इकट्ठा करता है। उससे वह अच्छे से जनता का नेतृत्व कर पाता है। जिस नेता या देश का जासूसी नेटवर्क जितना सशक्त होता है, वह उतना ही सशक्त माना जाता है। एक अच्छा नेता अपने देश या समाज के राज गुप्त रखता है, पर अपने तेज कानों से सबके राज पता कर लेता है।
गणेश के बड़े पेट का मतलब यह नहीं कि उनको मोटापा है। बल्कि इसका यह मतलब है कि वे पेट भरकर लंबी और गहरी सांसें लेते हैं। ऐसी सांसें योग वाली सांसें होती हैं। उनका दायां दांत टूटा हुआ है। इसका मतलब है कि वे अपनी इड़ा और पिंगला नाड़ी मतलब बाएं शरीर और दाएं शरीर को बराबर और संतुलित कर रहे हैं, क्योंकि आम जीवन में शरीर का दायां हिस्सा बाएं से ज्यादा क्रियाशील व सशक्त होता है। इनके सिर के दोनों तरफ के बड़े बड़े, स्पष्ट और बराबर कान भी अपनी तरफ ध्यान खींच कर इड़ा और पिंगला को बराबर कर देते हैं, जो ध्यान साधना के लिए बहुत जरूरी है।
गणपति देवता का चित्र तो मन में बढ़ोतरी कर रहा है। पता नहीं कब जागेगा। जब जागेगा तब सही, क्योंकि दुनियादारी के झमेले में पड़ कर और स्वास्थ्य कारणों से अब तीव्र साधना करने की शक्ति भी नहीं बची है, और साथ में जागृति के प्रति इतना आकषर्ण भी नहीं रह गया है। पर इससे यह जरूर सिद्ध हो जाएगा कि निर्जीव समझी जाने वाली देव मूर्तियां भी आसानी से जागृत हो जाती हैं। मुझे तो वैसे भी इस शास्त्रोक्त उक्ति पर कोई संदेह नहीं है, पर जो मूर्तिपूजा को काफिरों, रूढ़िवादियों और पिछड़ों आदि का काम बताकर जमकर घृणा और नकारात्मकता फैलाते हुए अत्याचार, तोड़फोड़ और खूनखराबा करते हैं, उन्हें जरूर सद्बुद्धि मिल सकती है। इसकी संभावना तो है, पर कम है, कयोंकि जो धारणा बिना सोचे समझे मन में पक्की बैठा ली जाती है, उसे निकालना बहुत मुश्किल होता है।
यह जरुर है कि दुनियादारी के झमेले से ही कुंडलिनी चित्र अपनी पकड़ बनाता है और बढ़ोतरी करता है। पर जब लंबे समय की बढ़ोतरी के बाद उसकी जागृति का समय आता है, तब तक आदमी में बढ़ी हुई आयु, रोग या अन्य वजहों से जागृति लायक तीव्र साधना करने की शक्ति ही नहीं बची रहती। कई बार तो आदमी जीवन के आखिरी समय तक दुनिया में उलझा रहता है और लाख चाहकर भी कुंडलिनी को मुक्तिगामी वेग अर्थात एस्केप विलोसिटी देने के लिए समय और शक्ति नहीं बचा पाता। इसीलिए कहते हैं कि जितनी छोटी आयु से योग आरंभ कर दिया जाए, उतना अच्छा रहता है।
वैसे तो आदमी कभी भी और किसी भी हालत में अगर दुनियादारी को छोड़कर पूरी शक्ति और निष्ठा से कुंडलिनी साधना में लग जाए तो जागृति में ज्यादा समय नहीं लगता। यह कुछ महीनों से कुछ सालों में हो सकता है। लगने वाला समय इस बात पर निर्भर करता है कि दुनियादारी को कितना छोड़ा है और साधना में कितनी शक्ति और कितने समय को झौंका है। पर ऐसा करना कम ही व्यवहारिक है, अगर व्यवहारिक है तो गिनेचुने लोगों के लिए ही और बहुत कम समय के लिए और बहुत सी अनुकूल परिस्थितियों के साथ ही। इन गिनेचुने लोगों में से कुछ अत्यंत विरले लोग जागृति पा भी जाते हैं। पुराने ज़माने में बहुत से लोगों को इसलिए जागृति मिल जाया करती थी, क्योंकि जागृति उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य हुआ करता था, और वे इसके लिए घरबार तक छोड़कर तप करने जंगल चले जाया करते थे और ज्ञानप्राप्ति के बाद ही घर वापस लौटते थे। शास्त्रों में अधिकांशतः ज्ञान शब्द का ही प्रचलन है। यह कुंडलिनी जागरण ही है, कयोंकि वही असाधारण और प्रत्यक्ष ज्ञान है। साधारण ज्ञान तो दुनियादारी तक ही सीमित है। वह आत्मा की अनुभूति नहीं करा सकता। बेशक वह कितना भी और किसी भी तरह का क्यों न हो। पूरी उम्र भी अगर आध्यात्मिक शास्त्रों के बारे में कोई ज्ञान इकट्ठा करता रहे पर जागृति को न प्राप्त कर सके तो वह पूर्ण या असली ज्ञान नहीं माना जा सकता। है तो कुंडलिनी जागरण भी ज्ञान ही, पर वह अपनी आत्मा का मतलब अपना ज्ञान है। बाकि सभी दूसरे ज्ञान अपने से पराई चीजों के बारे में होते हैं। इसीलिए जागृति को संक्षेप में ज्ञान कहते हैं। शास्त्र मुख्यतः पुराण सभी किस्म के लोगों के हित को ध्यान में रख कर बने होते हैं। उन्हें पता है कि पुराण पढ़ने वाले सभी लोग योगी तो नहीं होंगे। कयोंकि पुराण बने ही सर्वसाधारण के लिए हैं। इसलिए अगर बिल्कुल अनपढ़ आदमी ज्ञान का असली अर्थ न समझ पाए तो कम से कम उसे भौतिक ज्ञान तो समझेगा ही। इससे उसकी भौतिक जिंदगी भी सुधरेगी कयोंकि ज्ञान है तो जीवन है। अब अगर जागृति या कुंडलिनी जागरण लिखा होगा और आम आदमी उसे समझ न पाया तो उसका पढ़ना व्यर्थ चला जाएगा। या हो सकता है कुछ उल्टा ही उसके अवचेतन मन में बैठ जाए। सब अवचेतन मन का खेल है। अगर ज्ञान शब्द अवचेतन मन में बैठ गया तो वह कभी न कभी जागृति तक भी ले ही जाएगा क्योंकि है तो सबकुछ ज्ञान ही। शास्त्रों में और प्राचीन आर्य सभ्यता में ज्ञान के प्रति अप्रतिम समर्पण कुंडलिनी के प्रति समर्पण की पराकाष्ठा ही है। आजकल तो जीवन का मुख्य लक्ष्य दुनियादारी है, फिर जागृति कैसे मिलेगी।
भिन्नभिन्न रूप आकार के देवता इसीलिए बने हैं क्योंकि आदमी के जीवन का माहौल कभी किसी तरह का होता है तो कभी किसी तरह का। इसी तरह किसी व्यक्ति को कोई एक विशेष छवि पसंद होती है, तो किसी दुसरे को कोई दूसरी। ताकि सभी किस्म के लोगों को हर समय साधना के लिए उपयुक्त देवता उपलब्ध होते रहें, इसीलिए सनातन संस्कृति बहुदेववादी है। बेशक यह इकेश्वरवादी भी है क्योंकि सभी देवता अंततः एक परम ईश्वर की तरफ ही ले जाते हैं।