दोस्तो, आम जीवनयात्रा में सभी कुछ अनात्मा सा लगता है। मतलब अपने से अलग लगता है। ऐसा जीवविकास की प्रक्रिया से होता है। जो दुनिया को जितना ज्यादा पराया समझेगा वह उतना ज्यादा उसका दोहन करेगा और उतना ही ज्यादा उससे सुरक्षित भी रहेगा। अपने आप का भला कोई कैसे दोहन कर सकता है और अपने आप से सुरक्षा की भी किसीको भला क्या जरूरत पड़ सकती है। आदमी सबसे अधिक विकसित प्राणी है। इसके इसी विकास की मार इसको पड़ती है। वह दुनिया को सभी जीवों में सबसे अधिक अनात्मा समझता है। इससे वह बंधन में पड़कर जन्ममरण के आवागमन में पड़ा रहता है। राग और द्वेष जो अनात्मा के प्रति पैदा होते हैं, वे ही बंधन के मूल कारण हैं। पशु तो इंस्टिंक्ट से काम करते हैं। इसलिए वे न तो दुनिया को आत्मा समझ सकते हैं और न अनात्मा। ऐसा कुछ समझने के लिए उनके पास दिमाग ही नहीं है। हो सकता है कि हल्का सा आत्मा ही समझते हों, तभी तो उनका धीरेधीरे क्रमवार विकास ही होता है, पतन नहीं।
आदमी द्वारा दुनिया को आत्मा समझना इस झूठे विकासवाद की विपरीत दिशा में चलने की तरह है। फिर आदमी प्रकृति का अंधाधुंध दोहन नहीं करेगा। इससे पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा। फिर वह दुनिया से असुरक्षा भी महसूस नहीं करेगा। इससे लड़ाइयां भी रुकेंगी। आदमी जरूरत से ज्यादा संसाधनों का संचय भी नहीं करेगा। इससे समाज में आर्थिक विषमता के साथ गरीबी भी मिटेगी। और भी बहुत कुछ लाभ होंगे, पर हमने तो मूल लाभ ही सामने रखे हैं। विकास रुकता नहीं है। प्राकृतिक विकास को कोई नहीं रोक सकता। आदमी का मस्तिष्क तो विकसित होता ही रहेगा। पर तब वह विकसित मस्तिष्क मानवता के विकास में प्रयुक्त होगा, दानवता या अंधी भौतिकता के विकास में नहीं। दोस्तो, आज दुनिया इस मोड़ पर खड़ी है कि अगर अध्यात्मवाद पनप गया तो पूरी दुनिया सतयुग में प्रविष्ट हो जाएगी, पर अगर अध्यात्मवाद को नजरंदाज किया जाता रहा तो इसके नष्ट होने में ज्यादा समय नहीं लगने वाला। इसलिए सभी लोगों को जीजान से अध्यात्मवाद को फैलाने में मदद करनी चाहिए।
श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण भगवान कहते हैं कि अध्यात्मविद्या विद्यानाम्। मतलब अध्यात्मविद्या सभी विद्याओं से श्रेष्ठ है। साथ में कहते हैं कि आत्मवत् सर्वभूतेषु य: पष्यति स: पंडितः। मतलब जो सभी चीजों को अपनी आत्मा की तरह देखता है, वही असली पंडित है। अध्यात्म विद्या को इसीलिए सर्वश्रेष्ठ कहा है क्योंकि इससे आदमी हर जगह आत्मा को देखता है। इससे अन्य सभी विद्याएं नियंत्रित रहती हैं। आज अन्य विद्याएं घातक परमाणु हथियारों और विश्वनाशक प्रदूषण तक इसीलिए पहुंची हैं क्योंकि इन्हें अध्यात्म विद्या का साथ नहीं मिला है। अध्यात्म विद्या के बिना सभी विद्याएं लगभग व्यर्थ ही हैं।
व्यवहार में सबको अपनी आत्मा की तरह देखना आसान नहीं होता है। इसके लिए प्रतिदिन के अभ्यास की जरूरत होती है। हम जब बचपन में होते थे तब हमारे बुजुर्ग कर्मकांडी पुरोहित हुआ करते थे। वे लोगों के घरों में सनातन संस्कृति के विभिन्न प्रकार के पूजापाठ करवाया करते थे। उनमें विभिन्न देवीदेवताओं की पूजा होती थी। सूर्यदेव, वायुदेव, अग्निदेव, जलदेव, गणेश, शिव, नारायण, कुलदेवी, पृथ्वीदेवी आदि विभिन्न देवी देवताओं को बुलाया जाता था, और उन्हें धूप, दीप, गंध, पुष्प, नैवेद्य आदि विभिन्न उपचारों से पूजा जाता था। प्रतिदिन की सुबह शाम की संध्या में भी लगभग ऐसा ही होता था। उसके बाद बड़े आनंद के साथ बड़ी शांति सी महसूस होती थी और ऐसा लगता था कि जैसे सबकुछ अपनी आत्मा के जैसा मतलब अपने जैसा ही है। वह शांति और आनंद पूरे दिन काम करते हुए भी कम होने की बजाय बढ़ता ही था। यह इसलिए होता था क्योंकि हमने कर्मकांड के माध्यम से दुनिया की हरेक चीज को अपना परम मित्र और परम प्रिय बना लिया होता था। हरेक चीज में ये ही सभी मूल देवता विभिन्न रूपों में विद्यमान हैं। सूर्यदेव व अग्निदेव हरेक प्रकाशित व प्रकाशमान वस्तु में है। जलदेव सभी पेयों व तरल पदार्थों में हैं। पृथ्वी देवी सभी खाद्यों और स्थूल पदार्थों में हैं। इसी तरह अन्य भी। किसी आदमी की भी अगर श्रद्धाभाव से इतनी सेवा पूजा करेंगे तो वह भी गहरा मित्र बन जाएगा बेशक उसमें बहुत से दोष भरे पड़े हैं। फिर सभी गुणों से संपन्न और निस्वार्थी देवता क्यों परम मित्र नहीं बनेंगे। फिर मित्र से अपनापन नहीं होगा तो किससे होगा। मतलब मित्र ही तो आत्मा के सबसे नजदीक होता है या कहो आत्मा की तरह होता है। मित्र बारंबार मिलने आता है। इसी तरह दुनिया को सम्मान देने से दुनियादारी की चीजें और क्रियाएं भी संकल्पों के रूप में पुनः पुनः उभरती हैं। मतलब मन में रिफ्लेक्ट होती रहती हैं। इससे खुद ही विपासना साधना हो जाती है, और मन कचरे से मुक्त होकर स्वच्छ हो जाता है।
समय के साथ सनातनियों का वह संग कम होता गया। पर उनके प्रभाव की याद बनी रही। इसलिए उस प्रभाव की प्रेरणा से शरीरविज्ञान दर्शन ही बना दिया। इसमें भी दुनिया की हरेक चीज को अपने शरीर में विद्यमान समझा जाता है। जो चीज शरीर के अन्दर आ गई, वह तो आत्मा के सबसे नजदीक या आत्मा की तरह हो ही गई। उससे भी बहुत लाभ मिला। उसका प्रभाव तो मुझे कर्मकांड से भी ज्यादा मजबूत लगता था।
उसके बाद आयु बढ़ने के साथ, रोगों और अन्य परिस्थितियों के कारण दुनियादारी के कामों को करने का मौका मिलना भी कम हो गया। इससे स्वाभाविक था कि शरीरविज्ञान दर्शन को आजमाने का मौका भी कम हो गया, क्योंकि यह भी दुनियादारी से ही जुड़ा है। यदि आदमी दुनियावी चीजों और क्रियाओं से दूर रहने लगेगा तो कैसे यह भावना कर पाएगा कि यह सभी कुछ उसके शरीर में हूबहू पहले से विद्यमान हैं। और कैसे उनको मित्र बना पाएगा। कर्मकांड भी इसी तरह दुनियादारी के साथ ही ज्यादा प्रभावी होता है, अकेले नहीं। कर्मकांड और शरीरविज्ञान दर्शन के अल्पप्रभावी होने से खुद ही कुंडलिनी योग का विकल्प सामने खुल गया। प्राणायाम और आसनों के बल से वर्तमान और पुराने समय की दुनियादारी पुनः पुनः मन में प्रकट होने लगी। इससे ऐसे ही विपासना साधना होने लगी, जैसे कर्मकांड या शरीरविज्ञान दर्शन से होती थी। मतलब कर्मकांड से तो दुनियादारी को मित्र बनाकर पुनः पुनः मन में आने को मजबूर किया जाता था, पर योग से दुनियादारी को जबरदस्ती मन में रिफ्लेक्ट करवाकर उसे मित्र बनने के लिए मजबूर किया जाने लगा। बात एक ही है। कान को इधर से पकड़ो चाहे उधर से। इसीलिए योगशास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि प्राणायाम से मोक्ष मिलता है। फिर कहते हैं कि योग से दुनिया में युद्ध कैसे रुकेंगे। इसी सिद्धांत से रुकेंगे। जब योग से सारी दुनिया मन में शुद्ध परावर्तित रूप में बारंबार आती रहेगी, तब कोई पराया ही नहीं रहेगा। फिर शत्रुता भी किससे होगी।
जिससे नफरत हो, या जो दुश्मन हो, वह बार बार मन में नहीं आता। मित्र ही बार बार मन में आता है। और जो बार बार मन में आता है, वह खुद ही मित्र भी बन ही जाता है। इसीलिए अगर किसी चीज से नफरत करेंगे तो वह मन से कभी नहीं मिटेगी, बल्कि ऐसे ही अज्ञात रूप में मन में दबी रहेगी। वह इसलिए क्योंकि उसका परावर्तित रूप मन में बार बार नहीं आएगा। इसलिए वह हमेशा आनंद की बजाय दुख देती रहेगी। पर जिस चीज से प्रेम करेंगे, वह बारंबार मन में प्रकट होकर भरपूर आनंद देते हुए समय के साथ मिट भी जाएगी। इससे आत्मा स्वच्छ होकर मुक्त भी हो जाएगी। मतलब मिट कर भी आनंद ही देगी। इसीलिए कहते हैं कि सबसे प्रेम करो। प्रेम से ही चीज बारंबार मन में परावर्तित रूप में आती है। भौतिक संसार में चीज को सीधे ही इंद्रियों और मन के सहयोग से अनुभव करते समय उसके प्रति पराए का भाव रहता है, क्योंकि वह अपने शरीर से बाहर से आ रही होती है। मतलब मन का प्रतिबिंब बाहरी संसार के बिंब के साथ जुड़ा होता है। इसलिए आत्मा और अनात्मा का मिश्रित अनुभव होता है। पर जब वही चीज बाह्य संसार और इंद्रियों की सहायता के बिना ही मन में याद के रूप में सिर्फ परावर्तित रूप में होती है, उस समय केवल भीतरी प्रतिबिंब होता है, बाहरी बिंब नहीं। इसलिए उसके साथ आत्मा का अनुभव ज्यादा होता है। क्योंकि मन भीतर है और आत्मा के सबसे नजदीक है या कहो कि आत्मा ही है, इसलिए वह चीज आत्मा की तरह या आत्मा ही बन जाती है, और कालांतर में आनंदमय आत्मा में ही विलीन हो जाती है। इसलिए यह मिथ्या धारणा ही लगती है कि प्रेम से आसक्ति बढ़ती है। प्रेम से तो दरअसल आसक्ति नष्ट होती है क्योंकि उससे दुनिया आनंदमय आत्मा में विलीन हो जाती है। आसक्ति तो घृणा से बढ़ती है क्योंकि इससे दुनिया मन में ही दबी और चिपकी रह जाती है, और मन में बारंबार प्रतिबिंबित न होने के कारण छूट नहीं पाती, जो बंधन और पुनर्जन्म का कारण बनती है।