दोस्तो, देखा जाए, बीचबीच में सांसों के ऊपर ध्यान देने से भी दुनियावी क्रियाओं और विचारों के साथ आत्मभाव जुड़ जाता है। यह इसलिए क्योंकि सांसें भी आत्मा के अर्थात अपने आप के सबसे ज्यादा नजदीक हैं। इसीलिए कहते हैं कि सांस के साथ दुनियावी विचार भी चलता रहना चाहिए। उसे रोकना नहीं चाहिए। अगर उसे बलपूर्वक रोकेंगे तो वह कुंडल बनाकर सो जाएगा। अगर उसे जागते रहने देंगे तो वह पहले तो आत्मा के जैसा महसूस होने से आनंद देगा। यह सविकल्प समाधि के सविकल्प आनंद की तरह होगा। फिर आत्मा में ही विलीन होकर उससे भी ज्यादा आनंद महसूस कराएगा। यह निर्विकल्प समाधि के निर्विकल्प आनंद के जैसा होगा। यह स्थिति उस विकल्पहीनता से अलग है जिसमें विचारों को बलपूर्वक दबाया जाता है। इस स्थिति में विचार नष्ट न होकर आत्मा से एकाकार हो जाते हैं। पतंजलि का योगश्चित्तवृत्ति निरोधः इसी अवस्था के लिए है, न कि विचारों को बलपूर्वक दबाने के लिए। इसमें आनंद के साथ भारहीनता सी और शांति सी भी महसूस होगी। वह इसलिए क्योंकि कचरे का कुछ बोझ हटा है। मतलब कुंडलिनी शक्ति शिव में विलीन हो जाएगी। यह शक्ति थोड़ी थोड़ी करके भी शिव में विलीन होती है और इकट्ठी भी। थोड़ी थोड़ी तो सबमें ही विलीन होती रहती है। उसका पता इसलिए नहीं चलता क्योंकि बहुत सी शक्ति कुंडल बना के सोई होती है। साथ में, नई शक्ति भी उससे जुड़ती रहती है। कुंडलिनी जागरण के कुछ क्षणों में ही सारी शक्ति शिव में विलीन हो पाती है, और अच्छे से महसूस हो पाती है। इसीलिए कुंडलिनी जागरण को ही आमतौर पर शक्ति और शिव के मिलन के रूप में देखा जाता है।
दुनियावी क्रियाओं के बीचबीच में शरीर की तरफ नजर डालने से और उसके प्रति ध्यान देने से भी दुनियावी क्रियाओं और विचारों के साथ आत्मभाव इसी सिद्धांत के अनुसार जुड़ता रहता है। इससे वे आसक्ति और घृणा के भाव से मुक्त हो जाते हैं। उनके साथ सिर्फ शुद्ध प्रेमभाव ही जुड़ा रहता है। आसक्ति या घृणा तो केवल पराई चीजों के साथ ही हो सकती है, अपने साथ नहीं। आसक्ति मतलब चिपकाव दूसरे से ही होगा।
एक डंडा झंडे से ही चिपक सकता है, अपने आप से नहीं। अपने आप में तो वह पहले ही चिपका हुआ है, और अपने आप में एक है। दूसरा कोई चिपकने के लिए है ही नहीं। इसी तरह झंडे से घृणा करके उसे डंडे से छुड़ाया और दूर हटाया जा सकता है। डंडे को डंडे से कैसे छुड़ाएंगे क्योंकि वह तो पहले ही अपने आप में एक है। अपने को अपने आप से कैसे हटाएंगे। घृणा से अगर झंडे को डंडे से हटा भी देंगे, तो भी वह अव्यक्त रूप में उससे चिपका ही रहेगा। मतलब हमेशा ऐसा महसूस होगा कि झंडा पहले था पर अब नहीं है। मतलब झंडा अपने अभाव के रूप में विद्यमान रहेगा। इसी तरह अगर किसी विचार से घृणा करके उसे मन से बलपूर्वक हटा दिया जाए तो वह उस विचार के अभाव से पैदा हुए अंधकार के रूप में रहेगा। मतलब वह चिपका हुआ ही रहेगा। अगर झंडे के साथ डंडे पर भी हमेशा आदमी की नजर रहेगी, तो झंडे के प्रति विशेष आसक्ति पैदा नहीं होगी। यह इसलिए क्योंकि लगाव झंडे में और डंडे में, दोनों में बंट जाएगा। साथ में, डंडा और झंडा, दोनों एकरूप या एकजैसे ही दिखेंगे, क्योंकि दोनों एकदूसरे के आश्रित हैं और साथ साथ अभिव्यक्त हो रहे हैं। दूसरा यह है कि दोनों का महत्त्व नजर के सामने रहेगा और वह केवल झंडे का ही गुणगान नहीं करेगा। फिर जब झंडा गायब होगा तो उसका मन डंडे से लगा रहेगा। क्योंकि वह झंडे के भाव से ज्यादा नहीं चिपका था, इसलिए उसके अभाव से भी ज्यादा नहीं चिपकेगा। मतलब इसी तरह शरीर के रखरखाव से व उसकी साज सज्जा से आम धारणा के विपरीत हानि की बजाय लाभ मिल सकता है तंत्र के अनुसार। मतलब शरीर को नए नवेले रूप देते हुए फैशन के अनुसार ढालने में कोई बुराई नहीं है।