दोस्तों! प्राण और अपान के मेल का उल्लेख शास्त्रों में बहुत मिलता है। प्राण शरीर के ऊपरी हिस्से की प्राण शक्ति है, जबकि अपान शरीर के नीचे के हिस्से की प्राण शक्ति है। कहते हैं कि सांस रोकने से प्राण और अपान आपस में मिलते हैं। होता क्या है कि जब श्वास अंदर भरते हैं तो पीठ से होकर प्राण शक्ति ऊपर चढ़ती है। जब उसे भरकर रोकते हैं तो प्राण सक्रिय रहता है। उस समय मूलाधार क्षेत्र के हिस्सों पर ध्यान से अपान भी सक्रिय हो जाता है। ऊपर चढ़ता हुआ प्राण और नीचे जाता हुआ अपान आपस में मिश्रित होते रहते हैं। यह यिनयांग के मिलन की तरह ही होता है। इसी तरह सांस छोड़ते हुऎ प्राण शक्ति नीचे जाते हुऎ अपान बन जाती है। जब सांस को वहीं रोक कर रखा जाता है, तो अपान सक्रिय हो जाता है। उस समय कोई विचार दिमाग में आए तो प्राण भी सक्रिय हो जाता है। इससे भी नीचे जाता हुआ अपान और ऊपर उठता हुआ प्राण आपस में मिश्रित होते रहते हैं। सीधी सी बात है कि प्राणायाम के समय सांस पर ध्यान बना कर रखो। इससे प्राण और अपान खुद आपस में टकराते रहेंगे। सांस भरते समय जब अंदर को नीचे जाती हुई सांस पर ध्यान रहता है तो उससे अपान नीचे जाता है। पर सांस से पैदा पीठ की गति से प्राण खुद ही ऊपर चढ़ता है। नीचे जाता अपान और ऊपर चढ़ता हुआ प्राण बीच में आपस में टकराएंगे ही। इसी तरह जब सांस बाहर निकलकर नीचे जा रही होती है, उसपे ध्यान से भी अपान नीचे उतरता है और साथ में पीठ की गति से भी नीचे ही उतरता है। पर उस समय उसे संतुलित करने के लिए खुद ही मन में विचार से उमड़ते हैं ताकि प्राण ऊपर चढ़ सके। साथ में जानबूझकर भी अपनी वर्तमान भौतिक परिस्थिति का अवलोकन साक्षीभाव से किया जा सकता है। इससे प्राण का ऊपर की तरफ संचार और बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में भी प्राण और अपान आपस में टकराएंगे ही। उपनिषदों में अनेकों रोचक तरीकों से इसे लिखा है। उदाहरण के लिए निचले काष्ठ को निचली अरणि और ऊपर के काष्ठ को ऊपर की अरणि और उनके मिलन के घर्षण से पैदा हुई उनके बीच अग्नि की चिंगारी ही उत्तम फल है। सूर्य ऊपरी अरणि, पृथ्वी निचली अरणि और बीच में चंद्रमा फल है, आदि आदि, इस तरह से। अक्षरशः मुझे याद नहीं है। पर ऊपरी भाग और निचले भाग के मिलन को बहुत महत्व दिया गया है। और उससे उनके बीच में उत्पन्न जो वस्तु है, उसे श्रेष्ठ और वरणीय कहा गया है। प्राण और अपान के घर्षण से कुंडलिनी चित्र आग की चिंगारी की तरह जगमगाने लगता है। हो सकता है कि कुंडलिनी योग से ही आग की खोज हुई हो। वैसे भी चक्र पर प्राण और अपान के मिलन से ही ध्यान पक्का होता है। उससे ऊर्जा का जागरण होता है। उससे फिर मानसिक शांति मिलती है।
शास्त्रों में ओम को बहुत महत्व दिया गया है। उसे मूल ध्वनि कहा गया है और सभी ध्वनियों की उत्पत्ति इससे मानी गई है। मुझे लगता है कि ब्रह्मलीन ऋषि को ओम की ध्वनि ही ब्रह्म के सबसे निकट लगी होगी। संभवतया अन्य ध्वनियों जैसे पक्षी की आवाजें, बादल की गड़गड़ाहट, मनुष्यों की बोली या अन्य किसी भी प्रकार की प्राकृतिक और कृत्रिम ध्वनियों से उनका चित्त चंचल हो जाया करता होगा और ब्रह्म का ध्यान भंग हो जाया करता होगा। ऐसे ही जैसे ब्रह्म के ध्यान के अलावा अन्य दुनियावी चीजों के ध्यान से मन भटक जाता है। वे ओम का उच्चारण करते थे, जिससे ब्रह्म का अनुभव और ज्यादा सुदृढ़ और स्थिर हो जाता था। जैसे ब्रह्म से सारा संसार बना है, उसी तरह ओम से सारी दुनियावी आवाज़ें बनी मानी जा सकती हैं।
पता नहीं, योग को इतना ज्यादा माईथोलॉजी या पौराणिकता से क्यों लपेटा गया है? जबकि योग पूर्णतया वैज्ञानिक है। ऑटोबायोग्राफी आफ योगी में अच्छे और जटिल अंग्रेजी के शब्दों से ऐसा ताना बाना बुना गया है कि पाठक का मूल वस्तु योग पर से ध्यान कम और चमत्कारों पर ज्यादा हो जाता है। हालांकि यह लेखक का नायाब तरीका लगता है जो लोगों को योग के प्रति प्रेरित करता है. इसमें यह पुस्तक सफल होती लगती भी है. वह एक काल्पनिक सी रहस्यात्मकता में खो जाता है। उससे भी बढ़िया सुनने में जो पुस्तक आती है वह पुराण पुरुष है। यह पुस्तक योगी श्री लाहिड़ी महाशय की जीवनी और उनके डायरी नोटों पर आधारित है। उनका वर्णन ऑटोबायोग्राफी आफ योगी पुस्तक में कई जगह आता है। संभवतः वे पुस्तक लेखक के भी गुरु थे। वे भारतीय रेलवे में कर्मचारी थे और सेवानिवृत्ति के बाद पेंशनर रहे। उन्होंने गृहस्थी और दुनियादारी के सामान्य कर्मों के साथ योग से परम सिद्धि प्राप्त की, ऐसा माना जाता है। यह पुस्तक उनके पोते ने संभवतया उनके देहावसान के बाद संकलित की है। पर खेद का विषय है कि यह ईबुक के रूप में उपलब्ध नहीं मिली। न ही इसका निःशुल्क पीडीएफ संस्करण मिला। हालांकि स्कैन्ड पीडीएफ संस्करण आर्काइव.आर्ग पर मिला. अच्छा है इसे टेबलेट में ebook रीडर में पढ़ें. Readera भी अच्छी ऐप है. प्रिंट पुस्तकों को आदमी कितना खरीदेगा? घर में किताबों का ढेर लग जाता है। वैसे ही आजकल घरों में जगह की तंगी होती है। एक बार पढ़ो और रद्दी में फेंको, यह भी ठीक नहीं लगता। साथ में पर्यावरण की हानि का भय भी बना रहता है। मैं इंटरनेट आर्चीवे पर ऑनलाइन पीडीएफ में देख रहा था तो मुझे उसके वाक्य भी रहस्यात्मक शब्दों से युक्त लगे। पता नहीं लोग साधारण और लेमेन तरीके से क्यों तथ्यों को सामने नहीं रखते। शायद पहले वाले लोगों को लगता था कि बिलकुल सरल स्पष्टीकरण देने से ज्ञान का दुरुपयोग होगा। मुझे तो लगता है कि ऐसी ज्ञानवर्धक पुस्तकें निःशुल्क डाउनलोड में भी उपलब्ध होनी चाहिए। अगर तो लेखक साधनसंपन्न है तब तो निःशुल्क मिलनी ही चाहिए। एक लेखक की पुस्तकें उसके लिए बुरे समय के लिए जोड़ी गई संपत्ति की तरह ही है। अगर कभी उसे इतनी आर्थिक बदहाली आ जाए कि जीना ही दुश्वार हो जाए तब बेशक वह उनकी कीमत निर्धारित कर सकता है। कुछ ना कुछ तो आर्थिक संबल मिलेगा ही। पुस्तकें सोने के जेवर की तरह ही बुरे समय के लिए निवेश होती हैं। आदमी अच्छे समय में जेवर कभी नहीं बेचता बल्कि हर समय हर जगह मुफ्त में उनका प्रदर्शन करता है। बुरे वक्त में मजबूरी पर ही वह उन्हें बेचता है। पुस्तकों को भी हर जगह निःशुल्क प्रस्तुत करना चाहिए। परमात्मा करे कि बुरा वक्त आए ही न। वैसे भी ज्यादातर मामलों में पाठकों की शुभकामनाओं और दुआओं से ऐसा बुरा वक्त आता ही नहीं।