कुंडली योग बनाम वर्तमान क्षण: मानसिक शांति, ध्यान और आत्म जगरूकता का सही संतुलन

दोस्तो! एक पॉजिटिव प्रेशर कुंडलिनी जागरण होता है। एक नेगेटिव प्रेशर कुंडलिनी जागरण होता है। प्रथम ममले में यौनयोग आदि से जबरण शक्ति को ऊपर चढ़ाया जता है। दूसरे मामले में विपासना आदि से दिमाग को इतना खाली किया जाता है कि वह खुद ही मूलाधार से कुंडलिनी शक्ति को खींचता है। हालांकि मन का कुछ खालीपन तो दोनों में ही जरूरी होता है और कुछ ना कुछ यौन सहायता तो दोनों में ही ली जाती है। बस स्तर का ही अंतर है। पहले वाले मामले में आदमी को कुंडलिनी जागरण के बाद भी विपासना और कर्मयोग जारी रखना पड़ता है। क्योंकि मन पूरा खाली नहीं हुआ होता है। पर दूसरे ममले में ऐसा लगता है कि सब कुछ पा लिया और कुछ पाने या करने को शेष नहीं रहा। आनंद भी इसमें ज्यादा और लंबे समय तक टिकाऊ बना रहता है। यह ज्यादा गहरी पारलौकिक स्थिति होती है।

योग शास्त्र कहते हैं कि प्राणायाम से श्वास को रोकने से प्राण या मन अंदर ही रुक जाता है। इसका मतलब यह नहीं कि मन का विचार चित्र नष्ट हो जाता है। इसका मतलब है कि वह रुक सा जाता है अर्थात वह बदलता नहीं या उसकी जगह नया विचार चित्र नहीं बनता। प्राण गति का नाम है। जब सांस रोकने से प्राण रुकता है तो गति रुक जाती है। विचार चित्र के तनिक रुकने से यह फायदा हो जाता है कि वह स्पष्ट महसूस हो जाता है। स्पष्ट महसूस होने से उसके प्रति साक्षीभाव या आत्मभाव पैदा करना आसान हो जाता है। शरीर पर आत्मभाव होने से विचारों के प्रति खुद ही आत्मभाव हो जाता है। क्योंकि विचार वर्तमान के स्थूल शरीर में ही पैदा होते हैं। आमतौर पर विचारों की ऐसी दौड़ रहती है कि जितने में हम एक विचार के प्रति आत्मभाव पैदा करने लगते हैं उससे पहले ही वह नष्ट होकर उसकी जगह नया विचार आ जाता है। इस प्रकार यदि प्राणायाम से सांस रोकने की आदत बन जाती है तो निरंतर साक्षीभाव में रहने में लाभ देती है। अगर प्राणायाम के साथ भी सिर्फ विचार के प्रति साक्षी भाव किया जाए तब भी वह सफल नहीं होता। साक्षी भाव भी तभी सफल होता है जब उसके साथ स्थूल शरीर को भी जोड़ा जाए। मतलब सांस से शरीर की गति और शरीर की अन्य संवेदनाओं पर भी ध्यान रहना चाहिए। केवल विचारों के प्रति साक्षी भाव तो हो ही नहीं सकता। सिर्फ विचारों को देखने से तो हम खुद विचार बनकर बह रहे होते हैं। उन्हें देख नहीं रहे हैं। जब साथ में शरीर भी अनुभव में रहेगा, तभी तो सिद्ध होगा कि हम वर्तमान में शरीर हैं और किस्म किस्म के विचारों को देख रहे हैं जो भूतकाल और भविष्य काल में स्थित है। मतलब आदमी उस समय वर्तमान का शरीर बना होता है और आते जाते विचारों को देखता रहता है। हमको वर्तमान से एंकर करने वाला या जोड़ने वाला तो शरीर ही है। वैसे तो वर्तमान का कोई भी परिदृश्य जैसे आसपास की या पक्षियों की आवाजें, दृश्य आदि भी वर्तमान से जोड़ते हैं पर शरीर और सांसें सबसे ज्यादा प्रागढ़ता से जोड़ते हैं। वैसे तो विचारों को आत्मा या अपने से अलग नहीं देख सकते पर साक्षी भाव से वे आत्मा में विलीन हो जाते हैं। यह इसलिए क्योंकि हमने वर्तमान के स्थूल शरीर को आत्मा माना होता है। और विचार शरीर में ही तो उठते हैं लहर की तरह और उसमें विलीन भी हो जाते हैं। वैसे ही जैसे महासागर की लहरें बनती मिटती रहती हैं। वैसे तो वे आत्मा में बनती मिटती हैं। पर सीधे तौर पर हम शुद्ध आत्मा को अनुभव नहीं कर सकते। क्योंकि शुद्ध आत्मा अनुभव से परे है। पर जब शरीर पर ध्यान रहता है, और शरीर में विचार लहर बनती मिटती दिखती है, तब आत्मा में विचारों के बनने मिटने की याद आने लगती है और वह बढ़ती रहती है। यह स्थूल से सूक्ष्म की तरफ जाना ही है। स्थूल शरीर में स्थूल तरंग बनती मिटती रहती है। जबकि सूक्ष्म व अनुभवरूप आत्मा में उस तरंग का अनुभव बनता मिटता रहता है। स्थूल से सूक्ष्म देरसवेर याद आ ही जाता है। जैसे धरती में बने सुराखों से अंदाजा लग जाता है कि उसमें रहने वाले जीव या सर्प की आकृति कैसी है? खास बात यह है कि योग के दौरान जो दबे विचार उमड़ते हैं, वे भौतिक शरीर, उसकी सांसों, उसकी प्रतिक्रियाओं, संवेदनाओं, गतियों आदि से जुड़ जाते हैं। इसलिए वे विचार अगर योग के अतिरिक्त अन्य दुनियादारी के समय भी पुनः उमड़े तो शरीर पर स्वतः ही ध्यान चला जाता है। इससे स्वतः ही विपासना होती रहती है।

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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