वैसे प्राण को छाती में माना जाता है। इसे सबसे मुख्य इसलिए माना जाता है, क्योंकि यह श्वास प्रश्वास में मदद करता है। सांस है तो जीवन है। प्र और आन, दो शब्दों से मिलकर शब्द प्राण बना है। प्र का मतलब प्रथम या प्रमुख और आन का मतलब आना या शक्ति का संचार होता है। अपान को नाभि के नीचे माना जाता है। यह स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्रों से जुड़ा है। वैसे भी सभी प्राण किसी न किसी चक्र से जुड़े होते हैं। इसका काम अपशिष्ट उत्सर्जन है। यह संभोग में भी मदद करता है। उदान छाती से ऊपर के हिस्से में रहता है। यह शब्द उत् और आन के मेल से बना है। उत् का मतलब ऊपर होता है। मतलब ऊपर जाने वाली प्राण शक्ति उदान है। ये सभी प्राण आपस में जुड़े होते हैं। सबसे पहले आदमी नाभि से गहरी सांस लेता है। इससे वहां समान प्राण सक्रिय हो जता है। समान नाम इसलिए है क्योंकि इसकी सहायता से उत्पन्न भोजन की ऊर्जा पूरे शरीर में समान रूप से वितरित की जाती है। समान प्राण की क्रियाशीलता से कृकल नाम का उपप्राण भी सक्रिय हो जाता है, जिससे भूख लगती है। उपप्राण भी पांच हैं, जो प्राणों की क्रियाओं में सहयोग करते हैं। यह पूरा शरीर प्राणों से भरा हुआ है। समान की सक्रियता से व्यान प्राण भी वहां सक्रिय हो जाता है। व्यान का व्य शब्द व्यापकता का बोध कराता है। मतलब यह प्राण पूरे शरीर की नस नस में और हर एक कोशिका में फैला है। यह वास्तव में रक्त संचार से जुड़ा है। नाभि पर ध्यान जाने से वहां रक्त संचार तो बढ़ेगा ही, जैसा कि नियम है कि ध्यान वाली जगह पर खून का प्रवाह बढ़ जाता है। फिर रक्त तो हर एक कोशिका तक पहुंचता है। इससे वहां फैला व्यान सक्रिय हो जाता है। फिर तो कोशिकाओं से पाचक एंजाइम का निकलना, पचे हुऎ भोजन को रक्त में अवशोषित करना और उसे पूरे शरीर में भेजने का काम शुरु हो जाता है। कुछ समान प्राण अनपचे अपशिष्ट पदार्थ को नीचे धकेलने और गुदा मार्ग से बाहर निकालने के लिए अपान प्राण बन जाता है। पाचन का ज्यादातर काम हो जाने पर नाभि का अधिकांश समान प्राण छाती पर आकर श्वास और हृदय को शक्ति देने लगता है। मतलब समान प्राण मुख्य प्राण के रूप में कार्य करने लगता है। उदान प्राण उस समान प्राण को ऊपर चढ़ने में मदद करता है। यह पीठ से ऊपर चढ़ते हुऎ महसूस भी होता है। सांस छाती से चलने लगती है। इसीलिए तो खाना पच जाने के बाद आदमी काम की चिंता से तनाव जैसे में आ जाता है। और अगली भूख लगने तक खूब काम करना चाहता है। ऐसा छाती से सांस चलने से होता है। पूरे शरीर में भोजन आ जा रहा होता है और काम करने को मन करता है। फिर आदमी काम से थक कर थोड़ा विश्राम करने लगता है। उस समय उसका प्राण उदान बनकर ऊपर चढ़ने लगता है। इससे विशुद्धि चक्र, उससे जुड़ी वाणी, आज्ञा चक्र , उससे जुड़े चिंतन को शक्ति मिलती है, जिससे आदमी गप्पें हांकता है या ख्यालों में डूबने इतराने लगता है। फिर आदमी सुस्ता कर सोने लगता है। उस समय उसका उदान प्राण नीचे उतरकर स्वाधिष्ठान और मूलाधार में आकर अपान बन जाता है। फिर सो कर जागने के बाद उसका तनाव खत्म हो जाता है, जिससे सांस खुद ही नाभि से चलने लगती है। शांति या नींद और नाभि से सांस, दोनों आपस में जुड़े हैं। एक को करने से दूसरा खुद ही होने लगता है। इससे अपान ऊपर चढ़कर फिर से समान बन जता है। इससे पुनः भूख लगती है। इस तरह यह चक्र पुनः पुनः चलता रहता है।
सभी प्राण आपस में मिलकर और एक दूसरे की मदद करके शरीर को संतुलित बनाकर रखते हैं। कुंडलिनी योग से हम सभी चक्रों पर प्राणों को केंद्रित करने से एक बार में एक साथ ही पूरे शरीर को स्पष्ट और प्रचुर तौर पर संतुलित कर लेते हैं। अन्यथा यह प्रक्रिया हमारी जानकारी के बिना ही धीमी गति से दिन रात खुद ही चलती रहती है। कभी अगर इसमें असंतुलन हो जाए तो कुंडलिनी योग से यह संतुलित हो जाती है। इसीलिए कहते हैं कि कुंडलिनी योग रोगों से बचाव में व हो जाने पर उन्हें दूर करने में सहयोग करता है। ज्यादातर रोग शरीर में असंतुलन से ही पैदा होते हैं।
यह सारा विवरण तो कुंडलिनी योग में रुचि पैदा करने के लिए ही है। व्यवहार में इसकी ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती। पर क्या है कि आजकल के तर्कप्रधान समाज को भी कुछ खुराक मिलती रहनी चाहिए। सीधा योग, आसन और प्राणायाम करते रहने से पूरा शरीर स्वचालित रूप से खुद ही संतुलित बना रहता है। फिर उससे जुड़ी दुनियादारी भी संतुलित ही बनी रहेगी, इसमें भला क्या संदेह हो सकता है। गाड़ी के पुर्जों की जानकारी होगी तब भी गाड़ी चलेगी, और अगर नहीं होगी तब भी चलेगी। हां पुर्जों की जानकारी रखने वाला आदमी उनकी समयवार सर्विस करके गाड़ी को ज्यादा अच्छे से चलाएगा।