कुण्डलिनी योग आनंदमय कोष के साथ शरीर के सभी कोषों को एकसाथ खोलता है

शास्त्रों के अनुसार हमारी स्थूल देह का नाम अन्नमय कोष है, जो कि मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है। शरीर में स्थित पांच वायु और पांच कर्मेंन्द्रियों के समूह को प्राणमय कोष कहते हैं। मन सहित पांचों ज्ञानेनिद्रियों के समूह को मनोमय कोष कहा गया है। बुद्धितत्व युक्त पांचोँ ज्ञानेंद्रियों के समूह को विज्ञानमय कोष कहते हैं। सबसे भीतरी और सूक्ष्म कोष आनंदमय कोष है, वह सत्वगुणी अविद्या से संचालित है। परन्तु आत्मा इन सब से अछूती है। इसका थोड़ा विश्लेषण करते हैं। स्थूल शरीर मतलब अन्नमय कोष तो सबके प्रत्यक्ष है ही। कर्मेंन्द्रियों को प्राणमय कोष में इसलिए लिया गया है, क्योंकि प्राणों का सबसे पहले स्पष्ट प्रभाव कर्म-इन्द्रियों पर ही नजर आता है। कुण्डलिनी योग के दौरान जब प्राण को विशेष चक्र पर केंद्रित करते हैं, तो वहाँ सिकुड़न जैसी हलचल होती है, और उससे जुड़ी कर्मेंन्द्रियों को शक्ति मिलती है। तभी तो व्यायाम, खेल, दौड़ व भारी काम से सांस तेज चलती है, जिससे कर्मेंन्द्रियों को प्राणों का संचार बढ़ता है। मानसिक काम से वैसी साँस नहीँ फूलती, इसलिए इसे मनोमय कोष में रखा गया है। दूरदर्शन देखते और सुनते समय साँस नहीँ फूलती। किसी भोजन को सूंघते और चखते हुए या उसको स्पर्श करते हुए भी साँस नहीँ फूलती। इसीलिए त्वचा, आँख, कान, नाक और जिव्हा पांचोँ को ज्ञानेंद्रियों में रखा गया है। मतलब ये कर्मप्रधान की अपेक्षा ज्ञानप्रधान हैं। कर्म तो इनसे भी होता है। जननेन्द्रिय को भी कर्मेंन्द्रिय में रखा गया है, क्योंकि इसके प्रयोग से भी साँस फूलती है। गुदा इन्द्रिय को भी कर्मप्रधान कर्मेंन्द्रियों के साथ रखा गया है। पांचोँ ज्ञानेंन्द्रियों को मन के साथ इसलिए मनोमय कोष में रखा जाता है, क्योंकि इनसे संवेदनाओं के अनुभव से मन क्रियाशील हो जाता है। सुंदर दृश्य देखने से या सुंदर संगीत सुनने से मन में सुंदर विचार आते हैं। विचारों को साधारण ज्ञान कह सकते हैं। विशेष ज्ञान बुद्धि के सहयोग से ही पैदा होता है। जैसे कार के शोरूम में बहुत से साधारण विचार आते हैं। आदमी जब बुद्धि से कार खरीदने का निर्णय लेता है, तो उसकी खरीद से जुड़े विचार ज्यादा ताकतवर, प्रभावशाली, व्यावहारिक और कर्मप्रेरक होते हैं। ‘वि’ मतलब विशेष, इसलिए विज्ञान मतलब विशेष ज्ञान। इससे आनंद पैदा होता है। कार का मालिक बन कर किसको आनंद नहीं होता। वह आनंदमय कोष से महसूस होता है। दरअसल आनंद बिना लहरों की शुद्ध आत्मा में महसूस होता है। विज्ञान और कर्म की ताकतवर व्यक्त लहरों से सूक्ष्मशरीर में ताकतवर छाप पड़ती है। उस छाप को ही सत्त्वगुणी अविद्या कहा गया है। मतलब कार खरीदने की क्रिया को आप सत्त्वगुणप्रधान कह लो, क्योंकि यह काम आराम से, आनंद से, तसल्ली से, इंसानियत से और शिष्टाचार से होता है। इसलिए इससे जो छाप सूक्ष्मशरीर अर्थात अविद्या अर्थात विशेष अँधेरे पर पड़ती है, वह भी वैसी ही होती है। सीमित समय के लिए ही इस छाप का प्रभाव शेष अनंत सूक्ष्मशरीर के मुकाबले ज्यादा होती है, क्योंकि यह छाप ताज़ा होती है, बाद में तो यह सूक्ष्मशरीर में मौजूद अनगिनत छापों में घुलमिलकर उनकी तरह साधारण बन जाती है। इसीलिए भौतिकता से मिला आनंद हमेशा के लिए नहीँ रहता। दूसरे उदाहरण के लिए आप कल्पना करो कि आप परिवार व किसी अच्छे रिश्तेदार के साथ सुंदर कार से पहुंच कर किसी सुंदर रिसोर्ट में बैठे हैं। बाहर लॉन में आरामदायक कुर्सी पर धूप सेंक रहे हैँ। सामने कांच के गोल टेबल पर पीने के लिए शुद्ध जल है। और भी खाने-पीने के लिए आर्डर पर एकदम मिल जाता है। नजदीक में आपका परिवार आनंद से टहल रहा है। बच्चे सामने पार्क में खेल रहे हैं। सामने ही स्विमिंग पूल है। आप लंबी और धीमी सांस लेते हुए सुस्ता रहे हैं। आपको अपनी आत्मा के अँधेरे में बहुत बढ़िया आनंद महसूस होगा। है तो वह आम अँधेरे की तरह ही जिसे अविद्या कहा गया है, पर वह अन्य सामान्य अंधेरों के विपरीत आनंद से भरा होगा। यह इसलिए क्योंकि यह अंधेरा स्वयं की सत्ता और अस्तित्व से भरा होगा। यह सत्त्वगुणी अंधेरा है। मतलब सत्ता बढ़ाने वाली सारी सुविधाएं आपको सामने उपलब्ध हैं, पर आप अविद्या में आनंद का मजा ले रहे हैं। आदमी की सुखसुविधा भोगने की भी सीमा है। उससे थकने के बाद सत्त्वगुणी अविद्या से ही आनंद मिलता है। दरअसल आनंद का स्रोत सत्त्वगुणी अविद्या ही है, सीधे तौर पर सुखसुविधा नहीँ। अविद्या मतलब विद्या या ज्ञान का निषेध है। इसलिए यह अज्ञान का अंधेरा ही है। आपको सत्त्वगुणी अविद्या का एक और उदाहरण देता हूँ। मानलो आप ऐसी जगह पर हैं, जहाँ से एक तरफ मैदानी क्षेत्र शुरु होता है। आपके सामने दूसरी तरफ पर्वतमाला दिख रही है। आपको उस मिश्रित जैसे मैदानी भाग में शुद्ध मैदानी भाग से भी ज्यादा आनंद आएगा, क्योंकि सामने का दुर्गम व कठिनाइयों से भरा पर्वत आप की सत्ता को सापेक्ष रूप से वास्तविक सत्ता से भी ज्यादा बढ़ा हुआ महसूस कराएगा। ऐसी ही एक जगह है आनंदपुर। सम्भवतः इसी विशेष आनंद के कारण इसका यह नाम पड़ा है। यहाँ पर सिख धर्म का प्रसिद्ध गुरुद्वारा आनंदपुर साहब स्थित है। सत्त्वगुणी अविद्या के विपरीत जो अंधेरा गुस्से, डर, अभाव, चिंता आदि के साथ पैदा होता है, उसमें आनंद नहीँ होता। इनमें अविद्या का अंधेरा स्व-अस्तित्व के विरुद्ध होता है। एक ही अंधेरा अलगअलग परिस्थितियों में अलगअलग ढंग से महसूस होता है। यह रोचक मनोविज्ञान है।आनंदमय कोष से भी एक कदम ज्यादा गहराई में पूर्ण शुद्ध आत्मा है। इसके साथ आनंद जैसा कोई शब्द नहीं जुड़ा है, क्योंकि यह अनिर्वचनीय है, आनंद से भी ऊपर। अधिकांश लोग आनंदमय कोष के ब्लिस या आनंद को शुद्ध आत्मा जानकर उससे मोहित हुए रहते हैं, और आत्मजागृति के लिए विशेष प्रयास नहीँ करते। शुद्ध आत्मा में स्थूल जगत की कोई छाप नहीं होती। इसलिए यह अपने मूलरूप में पूर्ण प्रकाशमान होता है। दरअसल प्रकाश शब्द भी लौकिक है, आत्मा इससे भी परे होता है। इसीलिए आत्मा को सबसे अप्रभावित अर्थात अछूता कहा गया है।

सभी कोष बारीबारी से और क्रमवार ही अच्छे खुलते हैं, जैसे किसी महल के सुरक्षा घेरे लांघे जाते हैं। बचपन में खाने-पीने से अन्नमय कोष विकसित होकर खुल जाता है। खेलकूद, व्यायाम और विभिन्न कामों को सीखने से प्राणमय कोष विकसित होकर खुल जाता है। फिर माध्यमिक विद्यालय स्तर की ऊँची कक्षाओं में पहुंच कर वह जटिल व विशेष विषय वाली शिक्षा को ग्रहण करते हुए मनोमय कोष को खोलता है। महाविद्यालय या विश्वविद्यालय स्तर पर तकनीकी और व्यावहारिक शिक्षा लेकर वह विज्ञानमय कोष को खोलता है। फिर नौकरी या व्यापार करते हुए वह धन कमाने लगता है, और विज्ञानमय कोष की सहायता से आनंदमय कोष को खोलता है। उसको भी पूरा विकसित करके वह तांत्रिक कुण्डलिनी योग की तरफ खुद ही आकर्षित होकर उससे आत्मा तक पहुंचने का प्रयास करता है।

कुण्डलिनी योग से वैसे सभी कोष एकसाथ भी खुल सकते हैं। योगासन व प्राणायाम से भूख लगती है, और शरीर स्वस्थ रहता है। इससे अन्नमय कोष खुला रहता है। प्राणायाम से प्राणमय कोष खुला रहता है। प्राणमय कोष खुलने से मनोमय कोष खुलता है। फिर चक्रोँ पर कुण्डलिनी ध्यान से विज्ञानमय कोष खुल जाता है। विज्ञानमय कोष खुलने से आनंदमय कोष खुद ही खुल जाता है। अंत में कुण्डलिनी जागृत होने से आदमी आत्मा तक भी पहुंच जाता है।

आनंदमय कोष को लाँघने का आसान तरीका बताता हूँ। आराम से धूप में कुर्सी पर बैठें। पूरे शरीर को देखते हुए उसका ध्यान करें। इससे अन्नमय कोष खुलेगा। निद्रा देवी का ध्यान करके और नींद शब्द का मानसिक उच्चारण करते हुए मस्तिष्क को ढीला व तनावरहित कर दें। गहरी साँस आएगी। उस पर ध्यान दें। धीमी और गहरी सांसें चलने लगेंगी। उससे प्राणमय कोष खुलेगा। उससे मन में पुरानी यादों के साथ अन्य विचार जागेंगे। इससे मनोमय कोष खुलेगा। फिर बुद्धि से निश्चय करके उन पर साक्षीभाव रखते हुए शरीर पर, सांसों पर और निद्रा पर ध्यान जारी रखेंगे। इससे विज्ञानमय कोष जागेगा। थोड़ी देर में विचार आत्मा में विलीन हो जाएंगे। इससे मन में विचारशून्यता का अंधेरा जैसा महसूस होगा। इसे सत्त्वगुणी अविद्या कहेंगे। यह इसलिए क्योंकि यह जानबूझकर पवित्र सत्त्वगुण से पैदा की गई। यह रजोगुणी अविद्या की तरह लड़ाई-झगड़े या जीवन के रोजाना के संघर्ष से पैदा नहीँ हुई। न ही यह नशे, आमिष आदि से पैदा तमोगुण से पैदा हुई। सत्त्वगुणी अँधेरे से आनंद महसूस होने से आनंदमय कोष भी खुल जाएगा। लगभग एक घंटे में यह पूरी साधना हो जाएगी। आनंदमय कोष के खुले होने पर यदि आदमी लगभग एक-दो घंटे तक तांत्रिक कुण्डलिनीयोग का अभ्यास भी करता रहे, तो कुण्डलिनी जागरण के रूप में आत्मा की तरफ भी बढ़ता रहेगा।

मृत्यु अटल सत्य है। पर मरना किसीके लिए कला है, तो किसी के लिए किस्मत है। कोई सतोगुणी अविद्या के माध्यम से सुख और आनंद से मरता है, तो किसी को मजबूरन रजोगुणी और तमोगुणी अविद्या के पाले पड़कर बहुत दुःख और कष्ट के साथ मरना पड़ता है।

कुंडलिनी योग डीएनए को सूक्ष्म शरीर और डार्क एनर्जी या डार्क मैटर के रूप में दिखाता है

सूक्ष्म शरीर पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेंद्रियों, पांच प्राण, एक मन और एक बुद्धि के योग से बना है। 

यह सूक्ष्मशरीर ही परलोकगमन करता है, हाड़मांस से बना स्थूलशरीर नहीं। कोई बोल सकता है कि जब स्थूल शरीर नष्ट हो गया, तब ये इन्द्रियां, प्राण आदि कैसे रह सकते हैं, क्योंकि ये सभी स्थूलशरीर के आश्रित ही तो हैं। यही तो ट्रिक है। इसे आप लेखन की वर्णन करने की कला भी कह सकते हैं। लेखक अगर चाहता तो सीधा लिख सकता था कि शरीर और उसके सारे क्रियाकलाप उसके सूक्ष्मशरीर में दर्ज हो जाते हैं। पर यह वर्णन आकर्षक और समझने में सरल न होता। क्योंकि शरीर और उसके सभी क्रियाकलाप उसके मन, बुद्धि, कर्मेंद्रियों, ज्ञानेन्द्रियों, और पांचोँ प्राणों के आश्रित रहते हैं, इसलिए कहा गया कि सूक्ष्मशरीर इन पांचोँ किस्म की चीजों से मिलकर बना है। मुझे तो ऐसा अनुभव नहीं हुआ था। मुझे तो ये चीजें सूक्ष्मशरीर में अलगअलग महसूस नहीँ हुई, बल्कि एक ही अविभाजित अंधेरा महसूस हुआ, जिसमें इन सभी चीजों की छाप महसूस हो रही थी। मतलब साफ है कि सूक्ष्मशरीर अनुभवरूप अपनी आत्मा के माध्यम से ही चिंतन करता है, आत्मा से ही निश्चय करता है, आत्मा से ही काम करता है, आत्मा के माध्यम से ही सभी इन्द्रियों के अनुभव लेता है, और आत्मा से ही दैनिक जीवन के सभी शारीरिक क्रियाकलाप करता है। मतलब सूक्ष्मशरीर में जीव के पिछले सभी जीवन पूरी तरह से दर्ज रहते हैं, जिनको वह लगातार आत्मरूप से अपने में अनुभव करता रहता है। ये अनुभव स्थूल शरीर की तरंगों की तरह बदलते नहीं। एक प्रकार से ये पिछले सभी जन्मों का मिलाजुला औसत रूप होता है। कई लोग सोचते होंगे कि सूक्ष्मशरीर एक बिना शरीर का मन होता होगा, जिसमें खाली अंतरिक्ष में विचारों की तरंगें उठती रहती होंगी, पर फिर स्थूल और सूक्ष्म शरीर में क्या अंतर रहा। वैसे भी बिना स्थूल शरीर के आधार के स्थूल मन का अस्तित्व संभव नहीं है। उदाहरण के लिए आप अपनी अंगूठी में जड़े हुए हीरे को सूक्ष्मशरीर मान लो। इसमें इसके जन्म से लेकर सभी सूचनाएं दर्ज हैं। कभी यह शुद्ध ऊर्जा था। सृष्टि निर्माण के साथ यह धरती पर वृक्ष बन गया। फिर भूकंप आदि से वृक्ष धरती के अंदर सैंकड़ो किलोमीटर नीचे दब कर कोयला बना। फिर पत्थर का कोयला बना। लाखों वर्षो तक यह भारी तापमान और दबाव झेलता रहा। इसमें अनगिनत परिवर्तन हुए। इसने अनगिनत क्रियाएं कीं। इसने अनगिनत वर्ष बिताए। फिर वह खोद कर निकाला गया। फिर तराशा गया। फिर आपने इसे खरीदा और अपनी अंगूठी में लगाया। ये सभी सूचनाएं इस हीरे में दर्ज हैं। हालांकि हीरे को देखकर हमें इन सूचनाओं का स्थूलरूप में पता नहीं चलता, पर वे सूचनाएं सूक्ष्मरूप में हमें जरूर अनुभव होती हैं, तभी हमें हीरा बहुत सुंदर, आकर्षक और कीमती लगता है। ऐसे ही किसीके सूक्ष्म शरीर के अनुभव से उसका पूरा पिछला ब्यौरा स्थूल रूप में मालूम नहीं होता, पर सूक्ष्मरूप में अनुभव होता है, उसके औसत स्वभाव को अनुभव करके। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे अर्जुन के पिछले सभी जन्मों को जानते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें अपने मन में दूरदर्शन की तरह सभी दृष्य महसूस हो रहे थे, बल्कि यह मतलब है कि उन सबका निचोड़ सूक्ष्मशरीर के रूप में महसूस हो रहा था। शास्त्रों की शैली ही ऐसी है कि वे अक्सर तथ्यों का पूर्ण विश्लेषण न करके उन्हें चमत्कारिक रूप में रहने देते हैं, ताकि पाठक हतप्रभ हो जाए।
ये अनुभव स्थूलशरीर से लिए अनुभवों से सूक्ष्म होते हैं, हालांकि हमें ऐसा लगता है, सूक्ष्मशरीर के लिए तो वह स्थूल अनुभव की तरह ही शक्तिशाली लगते होंगे, क्योंकि उस अवस्था में जीवित अवस्था के उन विचारों के शोर का व्यवधान नहीं होता, जो अनुभवों को कुंठित करते हैं। साथ में, पिछले सारे जन्मों का अनुभव भी आत्मा में हर समय सूक्ष्म रूप में बना रहता है, जबकि स्थूलशरीर में स्थूल विचारों के शोर में दबा रहता है। हाँ, वह नए अनुभव नहीँ ले सकता, क्योंकि उसके लिए स्थूलशरीर जरूरी होता है। इसलिए उसका आगे का विकास भी नहीँ होता। आगे के विकास के लिए ही उसे स्थूलशरीर के रूप में पुनर्जन्म लेना पड़ता है। मुझे तो सूक्ष्मशरीर डीएनए की तरह जीव की सारी सूचनाएं दर्ज करने वाला लगता है। इसी तरह मुझे डार्क एनर्जी या डार्क मैटर भी स्थूल ब्रह्माण्ड का शाश्वत डीएनए लगता है।

डार्क एनर्जी और सूक्ष्मशरीर की समतुल्यता तभी सिद्ध हो सकती है, अगर उसे हम विभागों में न बांटकर एकमात्र अंधेरभरे आसमान की तरह मानें जिसमें इनके स्थूल रूप की सभी सूचनाएं सूक्ष्म अर्थात आत्म-अनुभवरूप में दर्ज होती हैं। कृपया इसे पूर्ण आत्मानुभव अर्थात आत्मज्ञान न समझ लिया जाए। यह आत्म-अनुभव की सर्वोच्च अवस्था है, जो एक ही किस्म का होता है, और जिसमें कोई सूचना दर्ज नहीँ होती मतलब शुद्ध आत्म-रूप होता है, जबकि सूक्ष्मशरीर वाला आत्म-अनुभव बहुत हल्के दर्जे का होता है, और उसमें दर्ज गुप्त सूचनाओं के अनुसार असंख्य प्रकार का होता है। यह “यत्पिंडे तत् ब्रह्मान्डे” के अनुसार ही होगा।

कुण्डलिनी योग विज्ञान ही क्वांटम यांत्रिकी, अंतरिक्ष विज्ञान, खगोल-भौतिकी और ब्रह्माण्ड विज्ञान का शिखरबिंदु है

कुण्डलिनी जागरण ही सिद्ध करता है कि अभावात्मक शून्य का अस्तित्व ही नहीं है

दोस्तों, मैं हाल ही में अपने जागृति के अनुभवों को विज्ञानवादियों को प्रेषित करने बारे विचार कर रहा था, ताकि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के रहस्य को सुलझाया जा सके, जिस पर वे बुरी तरह से अटके हुए हैं। पर मुझे उनकी साइटों पर न तो कमेंट बॉक्स मिला और न ही उनकी तरफ से इस तरह की कोई अपील ही गूगल पर मिली। एक-दो का एड्रेस मिलने पर उनसे जीमेल पर कंटेक्ट किया भी पर कोई जवाब नहीं मिला। आपको ऐसा कोई मंच पता हो तो कृपया जरूर शेयर करना।

अध्यात्म विज्ञान और अंतरिक्ष विज्ञान आपस में जुड़े हुए हैं, और एकदूसरे के बिना अधूरे हैं। इसीलिए सनातन वैदिक दर्शन के साथ ज्योतिष विज्ञान भी सम्मिलित किया गया था, और इसे एक विशिष्ट सम्मानजनक स्थान प्राप्त था।

शून्यवाद ही सभी समस्याओं की जड़ है

शून्यवाद सबसे बड़ा द्वैतकारी अज्ञान है। विज्ञान अगर शून्यवाद का सहारा न लेता तो आज प्रकृति और मानवता का विनाश न हो रहा होता। इससे आज चारों तरफ युद्ध, प्राकृतिक आपदा आदि के रूप में हायतौबा न मच रही होती। फिर विज्ञान और अद्वैतरूपी अध्यात्म एकसाथ आगे बढ़ रहे होते और मानवमात्र का सम्पूर्ण व सर्वांगीण विकास सुनिश्चित हो रहा होता। प्राचीन भारत से बुद्ध धर्म इसी वजह से लगभग बाहर कर दिया गया था, क्योंकि उसने शून्यवाद का सहारा लिया। हालांकि बुद्धिस्ट बहुत तर्क देते हैं कि उनका उपास्य शून्य नहीं पर चेतन ब्रह्म है, यह सत्य भी है, पर बौद्ध धर्म के बाहरी आचारविचार से तो वह शून्य ही प्रतीत होता है। आम जनमानस तो ऊपर से ही देखते हैं, गहरी बात नहीं समझ पाते।

लगता है कि दुनिया की सबसे अधिक शून्य-विरोधी संस्कृति हिंदु सनातन संस्कृति ही है। इसमें मिट्टी-पत्थर आदि जड़ वस्तुओं के साथसाथ अंधेरा काला आसमान भी पूजा जाता है। उदाहरण के लिए शनि देव और काली माता

जागृति के अनुभव के आधार पर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और उसकी आधारभूत संरचना

जिसे हम शून्य या अंधकारनुमा या आनंदहीन आकाश समझते हैं, और अपनी आत्मा के रूप में महसूस भी करते हैं, वह जागृति के समय वैसा महसूस नहीं होता, अर्थात वह अशून्य या प्रकाश या आनंदमय जैसा आकाश महसूस होता है। अशून्य इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि वह भरे-पूरे भौतिक संसार के जैसा ही लगता है। प्रत्यक्ष भौतिक संसार व उससे बने मानसिक चित्र या विचार उसमें तरंगों की तरह महसूस होते हैं। वैसे ही जैसे सागर में तरंगें होती हैं। विभिन्न धर्मशास्त्रों में भी ऐसा ही वर्णन किया गया है। तो क्या विज्ञान इस बात को अनदेखा कर रहा है।

अपने मूल रूप में अंतरिक्ष ही आत्मा है

सारा संसार आभासी व अवास्तविक है

मूल मत ओरिजिनल माने वास्तविक अर्थात निर्विकार रूप में। आइंस्टिन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से यह काफी पहले ही जाहिर हो गया था, पर इस आध्यात्मिक रूप में किसी ने समझा नहीं था। आइंस्टिन बहुत महान व्यक्ति थे पर ऐसा लगता है कि उनका सामना किसी असली जागृत व्यक्ति से नहीं हुआ था। हाहा। आइंस्टिन ने सिद्ध किया कि स्पेसटाईम किसी त्रिआयामी चादर की तरह मुड़ सकता है, उसमें गड्ढे पड़ सकते हैं। वैसे जो पहले ही खाली गड्ढे की तरह है, उसमें एक और खाली गड्ढा कैसे बन सकता है। मतलब साफ है कि अंतरिक्ष वैसा शून्य नहीं है, जैसा आम आदमी समझते हैं। वह एकसाथ शून्य भी है और नहीं भी, वह भावरूप शून्य है, वह आत्मा है, वह परमात्मा है। यह ऐसे ही है, जैसे तलाब के पानी में किश्ती से गड्ढा बनता है। तरंग भी तो इसी तरह गड्ढा बनाते हुए चलती है। मतलब अंतरिक्ष में तरंग बन सकती है। फिर वह शून्य कैसे हुआ। कई लोग यह भी कह सकते हैं कि वह ऐसा शून्य है, जिसमें झूठमूठ वाली माने वर्चुअल तरंग बन सकती है। ऋषिमुनि भी आत्मा का ऐसा ही अनुभव बताते हैं। मतलब वह ऐसी तरंग नहीं होती जो आत्मा को असल में विकृत कर सके। यहाँ तक कि पानी भी तरंग से थोड़ी देर के लिए ही विकृत लगता है, तरंग गुजर जाने के बाद उसकी सतह भी बिल्कुल सीधी और पहले जैसी हो जाती है। हवा के साथ भी ऐसा ही होता है। फिर अंतरिक्ष या आकाश तो उनसे भी सूक्ष्म है, वह कैसे विकृत हो सकता है। वह तो थोड़ी देर के लिए भी विकृत नहीं हो सकता, क्योंकि विकृत होकर जाएगा कहाँ। क्योंकि हर जगह आकाश है। पानी और हवा तो खाली स्थान को खिसक जाते हैं, पर अंतरिक्ष कहाँ को खिसकेगा। इसका मतलब है कि अंतरिक्ष की तरंग पानी और हवा की तरंग से भी ज्यादा आभासी है। मतलब तरंग कहीं नहीं चलती, सिर्फ प्रतीत होती है। है न आश्चर्यजनक तथ्य। गजब का शून्य है भाई। सम्भवतः यही परमात्मा की वह जादूगरी या माया है जो न होते हुए भी सबकुछ दिखा देती है।

शास्त्रीय प्रमाण के रूप में, महाभारत जितने आकार वाले प्रसिद्ध योगवासिष्ठ उपनामित महारामायण ग्रंथ में बारम्बार और हर जगह भावपूर्ण शून्य आकाश या अंतरिक्ष को ही परमात्मा कहा गया है। उसमें हर जगह संसार को असत्य व आभासी कहा गया है।

शून्य में अगर सारी दुनिया विद्यमान है तो वह शून्य दुनिया के जैसे गुणों वाला होना चाहिए

अब हम उपरोक्त वैज्ञानिक विश्लेषण को थोड़ा तर्क की धार देते हैं। अंतरिक्ष रूपी शून्य में वह सभी क्रियाकलाप होते हैं, जो भौतिक संसार में होते हैं, जैसा कि हमने ऊपर कहा। इसका मतलब है कि शून्य का स्वभाव दुनिया के जैसा होना चाहिए। यह तभी संभव है अगर उस शून्य में सत्त्व गुण, रजो गुण और तमोगुण, प्रकृति के ये तीनों गुण एकसाथ विद्यमान हों, क्योंकि भौतिक संसार इन्हीं तीनों गुणों से बना है, जैसा कि शास्त्रों में कहा गया है। इसीलिए उस शून्य आत्मा को त्रिगुणातीत मतलब तीनों गुणों से परे कहा गया है, क्योंकि तीनों गुण एकसमान मात्रा में होने से एकदूसरे के प्रभाव को कैंसल कर देते हैं, हालांकि रहते तीनों गुण हैं। इसीलिए अध्यात्म शास्त्रों में परमात्मा को अनिर्वचनीय भी कहते हैं, मतलब उसमें तीनों गुण हैं भी, नहीं भी हैं, ये दोनों बातें भी हैं और दोनों भी नहीं हैं। शून्य में ये गुण एक दूसरे से कम ज्यादा नहीं हो सकते, क्योंकि समय के साथ भौतिक वस्तु के परिवर्तन से गुण कम या ज्यादा होते रहते हैं। पर शून्य परिवर्तित नहीं हो सकता। इसका मतलब है कि शून्य आत्मा एक ही समय में सत्त्व रूपी प्रकाश, रज रूपी क्रियाशीलता (आभासी तरंग के रूप में, यद्यपि यह नहीं भी है) और तम रूपी अंधकार एकसाथ विद्यमान हैं। यह सब शास्त्रों के इस कथन को सिद्ध करता है कि वास्तविक व सर्वव्यापी अंतरिक्ष जो परम-आत्मा है, वह सभी सांसारिक जीवों की तुलना में कहीं बेहतर तरीके से चेतन है, और वह प्राप्त किया जा सकता है।

शून्य अंतरिक्ष भी भौतिक पदार्थों की तरह व्यवहार करता है

हालांकि सिर्फ यह अंतर है कि जिसे शून्य अंतरिक्ष आभासिक या वर्चुअल रूप में करता है, उसे भौतिक पदार्थ सत्य रूप में करता है। इसलिए शास्त्रों में कहा है कि परमात्मा सबसे बड़ा नटखट, नाटककार और जादूगर है। उदाहरण के लिए समुद्र के पानी से पानी छोटे-छोटे टुकड़ों में बाहर उछलकर वास्तविक बुँदे बनाता है। पर शून्य अंतरिक्ष रूपी सागर में पहली बात, शून्य टुकड़ा बन कर नहीं उछल सकता, दूसरा ऐसी किसी खाली जगह का अस्तित्व ही नहीं है, जो शून्य आकाश के रूप में न हो। इसलिए एक ही रास्ता बचता है कि झूठमूठ की अर्थात दिखावे की अर्थात वर्चुअल बुँदे बनाई जाए। उन्हें ही विज्ञान के अनुसार हम मूल कण अर्थात एलिमेंट्री पार्टिकल्स कहते हैं, जो लगातार शून्य अंतरिक्ष में पॉप होते रहते हैं अर्थात प्रकट होते रहते हैं और उसीमें विलीन भी होते रहते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे समुद्र से जल की बुँदे बाहर निकलती रहती हैं, और उसीमें विलीन होती रहती हैं। फिर आत्मजागृति का यह अनुभव विज्ञानसम्मत व सही क्यों न मान लिया जाए कि सारी सृष्टि आत्मा के अंदर आभासी तरंग है। दिक्क़त यही है कि उस अनुभव को किसी और को नहीं दिखाया जा सकता और कोई मशीन भी उसे वेरिफाई नहीं कर सकती। इसे खुद अनुभव करना पड़ता है।

विज्ञान-युग का योग-युग में रूपान्तरण

धर्मग्रंथों में यह प्रचुरता से लिखा गया है कि शून्य से जगत की उत्पत्ति नहीं हो सकती। बहुत पहले से ऋषियों को आत्मानुभव से ज्ञात था कि स्वयंप्रकाश आकाशरूप आत्मा से ही इस जगत की उत्पत्ति हुई है, किसी अँधेरेनुमा शून्य अंतरिक्ष से नहीं। इसके लिए बहुत से विज्ञाननुमा तर्क दिए जाते थे, जिससे भी यही सिद्ध होता था। आत्मजागृत अर्थात कुण्डलिनी-जागृत व्यक्ति भी ऐसा ही अनुभव बताते हैं। वह आत्मा भौतिक इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आ सकता, केवल अपने स्वयं के असली स्वरूप के रूप में अनुभव होता है। इसलिए एक बात तो साफ है कि विज्ञान से बेशक उसका अंदाजा लग जाए, पर दिखेगा वह केवल योग से ही। विज्ञान उसका अंदाजा लगाकर शांत हो जाएगा, और फिर उसको अनुभव करने के लिए योग की तरफ बढ़ेगा। सारे वैज्ञानिक योगी बन जाएंगे, और विज्ञान-युग योग-युग में रूपान्तरित हो जाएगा।

बाहर के और भीतर के ब्रह्माण्ड में कोई अंतर नहीं है

अगर मन का ब्रह्माण्ड आत्मा के अंदर अनुभव होता है, तो बाहर का भौतिक ब्रह्माण्ड भी, क्योंकि उसे हम मानसिक ब्रह्माण्ड से ही अंदाजन जान सकते हैं, सीधे व असली रूप में कभी नहीं। पर इतना तय है कि बाहरी ब्रह्माण्ड का असली रूप भी मनोरूप ब्रह्माण्ड की तरह ही है। बस इतना सा अंतर है कि बाहरी ब्रह्माण्ड को भीतरी ब्रह्माण्ड से ज्यादा स्थिरता मिली हुई है, इसीलिए हजारों सालों तक सभी को वह लगभग एक जैसा ही दिखता है, पर मानसिक ब्रह्माण्ड विचारों और अनुभवों के साथ प्रतिपल बदलता रहता है।

विज्ञान के कई गहन रहस्य कुण्डलिनी जागरण से सुलझ सकते हैं

उदाहरण के लिए ब्रह्माण्ड के सबसे गहरे मूल में क्या है, क्वांटम एन्टेन्गलमेंट का सिद्धांत क्या है, विद्युत्चुंबकीय तरंग क्या है व कैसे चलती है, वेक्यूम एनर्जी, क्वांटम फलकचुएशन, डार्क एनर्जी, महाविस्फोट, ब्रह्माण्ड का विस्तार, ब्लैक होल, मल्टीवर्स, पैरालेल यूनिवर्स, एंटी यूनिवर्स, फोर्थ डाईमेंशन, स्पेसटाईम ट्रेवल, टेलीपोर्टेशन, एलियन हंटिंग आदि, और अन्य भी बहुत कुछ। कालेब शार्फ, एक अंतरिक्ष विज्ञानी कहते हैं कि पूरा ब्रह्माण्ड ही एक देत्याकार एलियन हो सकता है। आइंस्टिन की नजर में समय एक भ्रम है। ऐसी सभी सोचें और थ्योरियाँ ज्ञानी ऋषियों और दार्शनिकों के चिंतन से मेल खाती हैं। इसलिए विज्ञानवादियों को एकांगी भौतिक सोच छोड़कर योग और अध्यात्म को भी अपने अध्ययन में सम्मिलित करना चाहिए, तभी दुनिया के सारे रहस्यों से पर्दा उठ सकता है। कई क्वांटम थ्योरियाँ योग विज्ञान से समझ में आ सकती हैं, जैसे कि वेव पार्टिकल ड्यूल नेचर ऑफ़ मैटर, स्टैंडिंग वेव, डबल स्लिट एकस्पेरीमेंट, डी ब्रॉगली सिद्धांत, केसीमिर इफेक्ट, आदि बहुत सी। जिस थ्योरी ऑफ़ एव्रीथिंग के लिए वैज्ञानिक लम्बे समय से प्रयास कर रहे हैं, वह लगता है कि योग विज्ञान से मिल सकती है। कुछ वैज्ञानिक सत्य की तरफ बढ़ भी रहे हैं, जैसे कि स्टीफेन हॉकिंग की स्ट्रिंग थ्योरी, रोबर्ट लैंजा की बायोसेंटरिज्म थ्योरी, हरेक वस्तु के रूप में एलियन के छुपे होने की थ्योरी, एडम फ्रैंक की धरती को एक जीवित प्राणी समझने वाली थ्योरी, धरती को अपराधियों के लिए जेल और चन्द्रमा को जेल निगरानी केंद्र मानने वाली थ्योरी आदि,और अन्य भी कई सारी। हालांकि यह सब वैज्ञानिक अंदाजे ही हैं, जैसे मैंने ऊपर कहा। इनको सिद्ध करने के लिए उन लोगों को साथ में लेने की जरूरत है, जिन्होंने योग से कुण्डलिनी जागरण को प्रत्यक्ष रूप में अनुभव किया है। आजकल ऐसी अबूझ किस्म की विज्ञान पहेलियों पर हर जगह चर्चा का माहौल गरमाया हुआ है। लोहा गर्म है, और वैज्ञानिकों को हथोड़ा चलाने में संकोच नहीं करना चाहिए। अगर आप भी इन पहेलियों को सुलझाने में योगदान देना चाहते हैं, तो कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें।

कुंडलिनी योग रामायण वर्णित प्रभु राम की अयोध्या गृह-भूमि द्वारा रूपात्मक व अलंकारपूर्ण कथा के रूप में प्रदर्शित

वैश्विक आतंकवाद और विस्तारवाद के विरुद्ध सबसे अधिक कड़ा रुख अपनाने वाले जांबाज भारतीय सेनानायक विपिन रावत, उनकी पत्नी और कुछ अन्य बड़े सैन्य अधिकारियों की एक दुखद विमान हादसे में असामयिक वीरगति के उपरांत उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि और उनकी आत्मा की शांति के लिए हार्दिक कामना।

मित्रो, मैं पिछले सप्ताह कोई कुंडलिनी लेख नहीं लिख पाया। वजह थी, व्यस्तपूर्ण जीवनचर्या। किसी आवश्यक कार्य से हाईवेज पर सैंकड़ों किलोमीटर की बाइक राइडिंग करनी पड़ी। यद्यपि बाइक लेटेस्ट, कम्फर्टेबल और स्पोर्ट्स टाइप थी, साथ में पर्यावरण-अनुकूल भी। अच्छा अनुभव मिला। बहुत कुछ नया सीखने को मिला। सफर के भी बहुत मजे लिए, और स्थायी घर के महत्त्व का पता भी चला। जब तक आदमी पर कोई काम करने की बाध्यता नहीं पड़ती, तब तक वह कठिन काम करने से परहेज करता रहता है। जब ‘डू ओर डाई’ वाली स्थिति आती है, तब वह करता भी है, और सीखता भी है। इस सप्ताह मैं कुंडलिनी योग और रामायण के बीच के संबंध पर चर्चा करूँगा।

गहराई से देखने पर रामायण कुंडलिनी योग के व्यावहारिक व प्रेरक वर्णन की तरह प्रतीत होती है

भगवान राम यहाँ जीवात्मा का प्रतीक है। परमात्मा और जीवात्मा में तत्त्वतः कोई भेद नहीं है। वह नवरात्रि के नौ दिनों में शक्ति साधना करता है। उससे उसकी कुंडलिनी सहस्रार में पहुंच जाती है। उससे वह प्रतिदिन शुद्ध होता रहता है। दसवें दिन वह अहंकार रूपी रावण राक्षस को अपनी योगाग्नि से जलाकर नष्ट कर देता है। दीवाली के दिन उसकी कुंडलिनी जागृत हो जाती है। इसको राम का वापिस अपने घर अयोध्या लौटना दिखाया गया है। अयोध्या आत्मा का वह परमधाम है, जिसे कोई नहीं जीत सकता, मतलब जिसके ऊपर कोई न हो। अयोध्या का शाब्दिक अर्थ भी यही होता है। राम दशरथ का पुत्र है। दशरथ मतलब वह रथ जिसे दस घोड़े खींचते हैं। इन्द्रियों को शास्त्रों में घोड़े कहा गया है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेंन्द्रियाँ, कुल दस इन्द्रियाँ इस शरीर को चलाती हैं। इसलिए दशरथ शरीर को ही कहा गया है। इसीसे आत्मा बद्ध जैसा होकर जीवात्मा या राम बन जाता है। वैसे तो राम परमात्मा है, पर उससे बद्ध जीवात्मा या साधारण राम को यही दशरथ-शरीर पैदा करता है, इसीलिए इसे जीवात्मा राम का पिता कहा गया है। वह जो 12 वर्ष तक वनवास करता है, वह कुंडलिनी योग साधना ही है। कुंडलिनी योग साधना से आदमी सबके बीच रहता हुआ भी सबसे दूर और सबसे अलग सा बना रहता है। इसे ही वनवास कहा गया है। वैसे भी, तंत्र शास्त्रों के अनुसार कुंडलिनी योग में परिपक्वता या पूर्णता प्राप्त करने में औसतन 12 साल लग जाते हैं। दशरथ की पत्नी जो केकयी है, वह शरीर में पैदा होने वाली परमार्थ बुद्धि है। वह बाहर से देखने पर तो मूर्ख और दुष्ट लगती है, पर असलियत में वह परम हित करने वाली होती है। वह काक या कौवे की तरह कांय कांय जैसे कठोर शब्द करने वाली लगती है, इसीलिए उसका नाम केकयी है। उसने कभी दशरथ रूपी शरीर को राक्षसों के साथ युद्ध में बचाया था, मतलब उसने सख्ती और प्रेम से दशरथ को राक्षसों के जैसी बुरी आदतों से रोक कर परमार्थ- भ्रष्ट होने से बचाया था। इसीलिए दशरथ को उस पर गहरा विश्वास था। परमार्थ की बुद्धि को बनाए रखने के लिए परमार्थ के मार्ग पर चलना पड़ता है। केकयी के कोपभवन में जाकर आत्महत्या की धमकी देने का यही अर्थ है कि अगर कम से कम उसकी तीन तथाकथित आध्यात्मिक बातें नहीं मानी गईं तो शरीर ऐशोआराम में डूब कर मनमर्जी का दुराचरण करेगा, जिससे वह नष्ट हो जाएगी। जो सन्मार्ग पर चलते हैं, उनकी वाणी में सरस्वती का वास होता है। उनके बोल झूठे नहीं होते। इसे ही यह कहा गया है, रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई। केकयी का मांगा जीवात्मा राम के लिए पहला वर है, राम को राज्य न देना। इसका मतलब है कि राम को भोगविलास व व्यर्थ की जिम्मेदारियों से दूर रखना। दूसरा वर है कि राम को 12 वर्ष का वनवास देना। वनवास कुंडलिनी योग साधना का ही पर्याय है। तीसरा वर है कि उसके पुत्र भरत को अयोध्या का राजा बनाना। भरत मतलब भ्राता में रत, भाई राम की भक्ति में लीन। भरत शरीर का निर्लिप्त मन है। वह राज्य तो करता है, पर बुझे हुए मन से। वह भोगविलास में आसक्त नहीं होता। वह राम के जूतों को अपने सिंघासन पर रखे रखता है, खुद उसपर कभी नहीं बैठता। यह राजा राम का महान कर्मयोग ही है। वह सबकुछ करते हुए भी कुछ नहीं करता और कुंडलिनी योग साधना में ही तल्लीन रहता है। उसकी पत्नी सीता अर्थात उसकी शक्ति योगी राम के साथ रहती है, राजा राम के साथ नहीं। यही सीता का राम के साथ वन को जाना है। इसी तरह हनुमान और लक्ष्मण भी योगी राम के साथ रहते हैं, राजा राम या भरत के साथ नहीं। हनुमान यहां जंगली या अंधी शक्ति का प्रतीक है, जो राम के दिग्दर्शन में रहते हुए विभिन्न यौगिक क्रियाओं के माध्यम से कुंडलिनी योग में सहायक बनती है। लक्ष्मण मन के लाखों विचारों का प्रतीक है। लक्ष-मन मतलब लाखों विचार। ये भी अपनी संवेदनात्मक ऊर्जा कुंडलिनी को देते हैं। दरअसल रूपात्मक कथाओं में मन के विभिन्न हिस्सों को विभिन्न व्यक्तियों के रूप में दर्शाने की कला का बहुत महत्त्व होता है। वैसे भी, सारा संसार मन में ही तो बसता है। यदि कोई पूछे कि कुंडलिनी योगी राम किसका ध्यान करते हुए कुंडलिनी योग साधना करते थे, तो जवाब स्पष्ट है कि राम भगवान शिव का ध्यान करते थे। इसका प्रमाण रामेश्वरम तीर्थ है, जहाँ राम ने स्वयं शिवलिंग की स्थापना की है। यह अति प्रसिद्ध तीर्थ भारतवर्ष की चारधाम यात्रा के अंतर्गत आता है।

राम की दूसरी माता कौशल्या का नाम कुशल शब्द से पड़ा है। वह शरीर में वह बुद्धि है जो शरीर का कुशलक्षेम चाहती है। वह बाहर से तो अच्छी लगती है, क्योंकि वह शरीर को सभी सुख सुविधाएं देना चाहती है, पर वह परमार्थ बुद्धि केकयी को व अपना असली कल्याण चाहने वाले जीवात्मा राम को अच्छी नहीं लगती। केकयी राम के शरीर या दशरथ को भी अच्छी नहीं लगती क्योंकि शरीर को परमार्थ से क्या लेना देना, उसे तो बस ऐशोआराम चाहिए। पर जब वह मजबूत होती है, तब वह युक्ति से शरीर को भी वश में कर लेती है। यही केकयी के द्वारा दशरथ को वश में करना है। 

कुंडलिनी स्थायी घर से जुड़ी होती है

दशरथ रूपी शरीर को हम उसके स्थायी घर का राजा भी कह सकते हैं। यही अयोध्या का राजा दशरथ है। आदमी के अपने स्थायी घर को भी हम अयोध्या नगरी कह सकते हैं, क्योंकि हम इससे लड़ नहीं सकते। हम इसे नुकसान नहीं पहुंचा सकते। कोई भी प्राणी अपने स्थायी घर से युद्ध नहीं कर सकता। इसीलिए इसका नाम अयोध्या है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि एक आदमी से उसके स्थायी घर में कोई नहीं लड़ सकता। तभी तो कहते हैं कि अपने घर में तो कुत्ता भी शेर होता है। कोई आदमी कितना ही बड़ा लड़ाका क्यों न हो, पर अपने स्थायी घर में हमेशा शांति चाहता है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। कोई प्राणी नहीं चाहता कि उसे हर समय अपराध बोध सताता रहे, क्योंकि उसका स्थायी घर उसके मन से हमेशा जुड़ा होता है। क्योंकि आदमी का मन हमेशा उसके स्थायी घर से जुड़ा होता है, इसलिए कुंडलिनी भी स्थायी घर से जुड़ी होती है, क्योंकि कुंडलिनी मन का ही हिस्सा है, या यूं कहो कि मन का सर्वोच्च प्रतिनिधि है। इसीलिए हरेक आदमी अपने स्थायी घर में सदैव अपना सम्मान बना कर रखना चाहता है। मुसीबत के समय स्थायी घर ही याद आता है। आपने देखा होगा कि कैसे कोरोना लौकडाऊन को तोड़ते हुए लोग अपने-अपने स्थायी घरों को भागते थे। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, ये चार पुरुषार्थ बताए गए हैं। इनका आधार यह शरीर और उस शरीर का आधार उसका स्थायी घर ही है। कहा भी गया है कि शरीरमाद्यम खलु धर्मसाधनम। इसलिए बेशक जीवात्मा राम अपने कुंडलिनी जागरण के लिए इसे थोड़ा नजरअंदाज भी कर ले, पर कुंडलिनी जागरण के बाद उसे इसी शरीर में, शरीर के आधाररूप स्थायी घर और उसके माध्यम से भौतिकता में प्रविष्ट होना पड़ता है। बेशक वह कुंडलिनी जागरण के लिए अपना घर छोड़कर वन को चला जाए, पर अंततः उसे घर वापिस आना ही पड़ता है। देखा भी होगा आपने, आदमी घर से बाहर जहाँ मर्जी चला जाए, पर वह वास्तविक और स्थायी विकास अपने स्थायी घर में ही कर पाता है। नई जगह को घर बनाने में एक आदमी की कई पीढ़ियां लग जाती हैं। तभी तो एक प्रसिद्ध लघु कविता बनी है, “एक चिड़िया के बच्चे चार, घर से निकले पंख पसार; पूरव से वो पश्चिम भागे, उत्तर से वो दक्षिण भागे; घूम-घाम जग देखा सारा, अपना घर है सबसे प्यारा। घर की महिमा भी अपरम्पार है, और अयोध्या नगरी की भी। इसीलिए रिश्तों में घर और वर की बहुत ज्यादा अहमियत होती है। सबको पता है कि असली घर तो परमात्मा ही है, पर वहाँ के लिए रास्ता निवास-घर से होकर ही जाता है, ऐसा लगता है। सम्भवतः इसीलिए आदमी को मरणोपरांत भी उसके स्थायी घर पहुंचाया जाता है। अपने स्थायी घर गजनी को समृद्ध करने के लिए ही तो जेहादी आक्रांता महमूद गजनवी ने भारत को बेतहाशा लूटा था। बाहर जो कुछ भी विकास आदमी करता है, वह अपने स्थायी घर के लिए ही तो करता है। गजनवी को स्थायी घर के महत्त्व का पता था, नहीं तो क्या वह भारत में ही अपने रहने के लिए स्थायी घर न बना लेता? इसी तरह उपनिवेशवाद के दौरान अधिकांश अंग्रेजों ने भी भारत सहित अन्य उपनिवेशित देशों में अपने लिए स्थायी घर नहीं बनाए। विश्व के ज्यादातर आंदोलनों, संघर्षों  व युद्धों का एकमात्र मूल कारण होमलैंड या स्थायी घर ही प्रतीत होता है। इसका मतलब है कि आदमी कुंडलिनी के लिए ही ताउम्र संघर्ष करता रहता है, क्योंकि स्थायी घर भी उसमें विद्यमान कुंडलिनी की वजह से ही प्रिय लगता है। पेटभर खाना तो आदमी कहीं भी पा सकता है। पर घर घर ही होता है। अपनापन अपनापन ही होता है। कुंडलिनी से ही अपनापन है। इसका अर्थ है कि कुंडलिनी साधना करते हुए आदमी कहीं भी रहे, उसे अपने स्थायी घर जैसा ही आनन्द मिलता है, यहाँ तक कि उससे कहीं ज्यादा, यदि कुंडलिनी योग साधना निष्ठा व मेहनत से की जाए। इससे यह अर्थ भी निकलता है कि कुंडलिनी योग होम सिकनेस को कुछ हद तक दूर करके विश्व के अधिकांश संघर्षों और युद्धों पर विराम लगा सकता है, और दुनिया में असली व स्थायी शांति का माहौल बना सकता है, जिसकी आज सख्त जरूरत है। एक आम आदमी के द्वारा कुंडलिनी जागरण के बाद अपने स्थायी घर में जीतोड़ मेहनत करना ही राजा राम के द्वारा अयोध्या में बेहतरीन ढंग से राजकाज संभालना कहा गया है। यह अलग बात है कि कुंडलिनी जागरण के बाद व्यवहार में लाई गई भौतिकता आत्मज्ञान के साथ प्रयुक्त की जाती है, इसलिए ज्यादा हानिकारक नहीं होती। इसी दुनियादारी से कुंडलिनी जागरण स्थिरता और नित्यता को प्राप्त होता हुआ मुक्तिकारक आत्मज्ञान की ओर ले जाता है। मेरे खयाल से खाली कुंडलिनी जागरण की झलक से कुछ नहीं होता, यदि उसे सही दिशा में आगे नहीं बढ़ाया जाता। मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि रामायण जैसी घटनाएं कभी हुई ही नहीं थीं, या रामायण काल्पनिक है। रामायण वास्तविक भी हो सकती है, रूपात्मक भी हो सकती है, और एकसाथ दोनों रूपों में भी हो सकती है। यह श्रद्धा और विश्वास पर निर्भर करता है। रामायण हमें हर प्रकार से शिक्षा ही देती है। मानो तो सारा संसार ही काल्पनिक है, न मानो तो कुछ भी काल्पनिक नहीं है, किसीके साथ कोई भेदभाव नहीं।

कुंडलिनी एक पक्षी की तरह है जो खाली और खुले आसमान में उड़ना पसंद करता है

मित्रो, योग या अध्यात्म को उड़ान के साथ संबद्ध करके दिखाया गया है। आध्यात्मिक शास्त्रों में विमानों का वर्णन अनेक स्थानों पर आता है। कई जगहों पर योगियों को आसमान में उड़ते हुए दिखाया गया है। आत्मा को पंछी की उपमा दी गई है। आज हम इस पर वैज्ञानिक चर्चा करेंगे।
आत्मा और आकाश में तत्त्वतः कोई अंतर नहीं है
दोनों ही त्रिआयामी हैं। दोनों ही सर्वव्यापी हैं। आत्मजागृति के दिव्य अनुभव के दौरान आदमी अपने को प्रकाशमयी आनंदमयी, सर्वव्यापक, व चेतनापूर्ण आकाश के रूप में अनुभव करता है। इसी तरह, मृतात्मा से साक्षात्कार के समय भी आदमी अपने को आकाश की तरह अनुभव करता है। हालाँकि उसमें प्रकाश, चेतना व आनन्द के गुण बहुत कम होते हैं। इसलिए वह रूप चमकते काजल की तरह प्रतीत होता है। फिर भी वह रूप सर्वव्यापक होता है।

 आदमी का मन हमेशा से ही आसमान में उड़ने को ललचाता रहा है

इसका कारण यही है कि आत्मा आकाश जैसे रूप वाली होती है। हर कोई अपने जैसे गुण स्वभाव वाले से मैत्री करना चाहता है। इसीलिए हरेक आदमी आकाश में भ्रमण करना चाहता है। यही कारण है कि वायुयान में बैठकर आनन्द मिलता है। जब मैं विमान में बैठा था, तो मेरे मन में आनंद के साथ कुंडलिनी क्रियाशील हो गई थी। इसी तरह, मैं एकदिन परिवार के साथ पतंग का मजा लेने एक खाली मैदान में चला गया। बच्चे ऊंचे आसमान में पतंग उड़ा रहे थे, और मैं जमीन पर दरी बिछा कर उस पर लेट गया, ताकि बिना गर्दन मोड़े पतंग को लगातार देख पाता। मैं लगभग डेढ़ घंटे तक पतंग को बिना थके देखता रहा। उस दौरान मेरे मन में आनन्द से भरे शांत विचारों के साथ कुंडलिनी क्रियाशील बनी रही। कई बार तो ऐसा लगा कि मैं खुद ही पतंग पर बैठ कर ऊंचे आसमान में उड़े जा रहा हूँ। कई दिन तक वह आनन्द मेरे मन में बना रहा, और साथ में उमंग भी छाई रही। काम-काज में भी अच्छा मन लगा रहा। इसी तरह, पहाड़ों में भी कुंडलिनी आनंद बढ़ जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पहाड़ भी आकाश की तरह थ्री डायमेंशनल हैं, हालाँकि उससे थोड़ा कम हैं। पहाड़ों में भी आदमी हर प्रकार से गति कर सकता है। वह आगे-पीछे भी जा सकता है, और ऊपर नीचे भी चढ़ सकता है।

आत्मारूपी आकाश के उपलब्ध होते ही कुंडलिनी पक्षी उसमें उड़ान भरने लग जाता है

शरीरविज्ञान दर्शन या अन्य अद्वैतशास्त्र से जब मन में आकाश जैसी शून्यता छाने लगती है, तब कुंडलिनी उसमें एक उड़ते हुए पक्षी की तरह अनुभव होने लगती है। साथ में आकाश में उड़ने के जैसा आनन्द तो होता ही है। उस समय आत्मा तो बैकग्राउंड के अंधकारमयी व शून्य आकाश की तरह होती है, केवल कुंडलिनी ही प्रकाशरूप पक्षी की तरह अभिव्यक्त होती है। इसलिए शास्त्रों में कुंडलिनी को आत्मा या पक्षी के रूप में माना गया है। कुंडलिनी आत्मा का संपीडित या लघु रूप है। जैसे साँप कुंडलिनी मार कर छोटा हो जाता है, उसी तरह आत्मा भी। इसीलिए इसे कुंडलिनी कहते हैं। जब कुंडलिनी आत्मा से जुड़कर सर्वव्यापक हो जाती है, तब उसे ही सांप का कुंडलिनी खोलकर अपने असली और विस्तृत रूप में आना कहते हैं। इसी तरह, आकाश से संबंध होने पर भी मन में आकाश जैसी अद्वैतमयी शून्यता खुद ही छाने लगती है। उससे भी वही कुंडलिनी प्रभाव पैदा होता है, जिससे मन उसी तरह आनन्द से भर जाता है। इसीलिए उपरोक्तानुसार, शास्त्रों में योगियों को आसमान में उड़ते हुए दिखाया गया है, तथा विमानों का बहुतायत में वर्णन किया गया है। 

कुंडलिनी ही भ्रमित आत्मा का दीपक है

अद्वैत के ध्यान से मन आकाश की तरह शून्य व निश्चल तो बन जाता है, पर उसका आंनद व प्रकाश गायब हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आनन्द व प्रकाश मन के विचारों के साथ होते है। ये विचारों के साथ ही गायब हो जाते हैं। इन्हीं की भरपाई करने के लिए ही एकाकी चित्र रूपी कुंडलिनी मन में क्रियाशील हो जाती है। यह दीपक की तरह काम करती है, और विचारशून्य मन या आत्मा को आनंदपूर्ण प्रकाश से भर देती है। लम्बे समय के कुंडलिनी योग अभ्यास से एक समय ऐसा भी आता है जब आत्मा का अपना खुद का नैसर्गिक प्रकाश पैदा हो जाता है। फिर तो वहाँ कुंडलिनी दीपक की रौशनी भी फीकी पड़ जाती है। पर ऐसा साधना के सबसे ऊंचे व अंतिम स्तर पर ही होता है। इसे ही असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं।

कुंडलिनी ही आत्मा की भौतिक प्रतिनिधि है

आत्मा तो आकाश की तरह शून्य होती ही, पर उसके विपरीत चेतनापूर्ण होती है, पर दुनियादारी में रहने से उस पर माया या भ्रम का दुष्प्रभाव पड़ता है। इससे उसका चेतन प्रकाश गायब हो जाता है। जब आदमी अद्वैत भावना से आत्मा में लौटने का प्रयास करता है, तो वहाँ कुंडलिनी प्रकट हो जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अद्वैत से उत्पन्न निर्विचार अवस्था से मस्तिष्क में न्यूरोनल एनर्जी इकट्ठी हो जाती है, जो आमतौर के विचारों को बनाती है। उस न्यूरोनल एनर्जी को बाहर निकलने का आसान रास्ता कुंडलिनी के रूप में ही नजर आता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उसके लिए मस्तिष्क को निश्चय नहीं करना पड़ता है कि कुंडलिनी चित्र कैसा है, क्या इसके बारे में विचार करना चाहिए, इसको विचारने के क्या परिणाम होंगे आदि। इसकी वजह है, कुंडलिनी चित्र से लम्बे समय से संबंध बना होना। यह संबंध प्रेम आदि के रूप में प्राकृतिक भी हो सकता है, और योग आदि के रूप में बनावटी भी। वही कुंडलिनी चित्र आत्मा को उसके प्रकाश, चेतना आदि के स्वाभाविक गुण प्रदान करता है। उस समय यिन के रूप में आत्मा होती है, और यांग के रूप में कुंडलिनी। हालांकि ऐसा हमें सांसारिक भ्रम के कारण लगता है। असल में तो यिन के रूप में कुंडलिनी और यांग के रूप में आत्मा होती है। इन दोनों का जुड़ाव ही शिवविवाह है। जब यह पूरा हो जाता है, तो यही कुंडलिनी जागरण या आत्मसाक्षात्कार कहलाता है। उस समय कुंडलिनी की चेतना पूरे आत्म-आकाश में छा जाती है, और दोनों पूरी तरह एक-दूसरे में घुले-मिले प्रतीत होते हैं। कुंडलिनी को आत्मा का भौतिक प्रतिनिधि इसीलिए कहा जा रहा है, क्योंकि वह बेशक एक सीमित व एकाकी चित्र के रूप में है, और भौतिक बाध्यताओं से बंधी है, पर उसमें आत्मा के सभी चेतनामयी गुण विद्यमान हैं। वही आत्मा को उसके अपने असली चेतनामयी गुणों की याद दिलाती है। पर ऐसा अभ्यास से होता है। इसीलिए कुंडलिनी को योग, प्रेम आदि से हमेशा बना कर रखा जाता है।

कुंडलिनी जागरण ही सृष्टि विकास का चरम बिंदु है, फिर ब्रह्मांड के विकास का क्रम बंद हो जाता है, और स्थिरता की कुछ अवधि के बाद, प्रलय की प्रक्रिया शुरू हो जाती है

दोस्तों, मैंने पिछली पोस्ट में लिखा था कि सृष्टि का विकास केवल कुंडलिनी विकास के लिए है, और कुंडलिनी जागरण के साथ, सृष्टि का विकास पूरा हो जाता है, और उसके बाद रुक जाता है। आज हम चर्चा करेंगे कि उसके बाद क्या होता है। दरअसल, प्रलय की घटना हमारे शरीर के अंदर ही होती है, बाहर नहीं।

हिंदू पुराणों में प्रलय का वर्णन

हिंदू पुराणों के अनुसार, चार युग बीत जाने पर प्रलय होता है। पहला युग है सतयुग, दूसरा युग है द्वापर, तीसरा है त्रेता और अंतिम युग है कलियुग। इन युगों में मानव का क्रमिक पतन हो रहा है। सतयुग को सर्वश्रेष्ठ और कलियुग को सबसे बुरा बताया गया है। जिस क्रम से संसार का निर्माण होता है, उसी क्रम में प्रलय भी होता है। पंचतत्व इंद्रिय अंगों में विलीन हो जाते हैं। इंद्रियाँ तन्मात्राओं या सूक्ष्म अनुभवों में विलीन हो जाती हैं। पंचतन्मात्राएँ अहंकार में विलीन हो जाती हैं। अहंकार महात्त्व या बुद्धि में विलीन हो जाता है। अंत में, महातत्व प्रकृति में विलीन हो जाता है। आपदा के अंत में, प्रकृति भी भगवान में विलीन हो जाती है।

चार युग मानव जीवन के चार चरणों और चार आश्रमों के रूप में हैं

मनुष्य के बचपन को सतयुग कहा जा सकता है। इसमें मनुष्य सभी मानसिक और शारीरिक विकारों से मुक्त होता है। वह देवता के समान सत्यस्वरूप होता है। फिर किशोरावस्था आती है। इसे द्वापर नाम दिया जा सकता है। इसमें मन में कुछ विकार उत्पन्न होने लगता है। तीसरा चरण परिपक्वता आयु है, जिसमें एक व्यक्ति दुनियादारी की उलझनों से बहुत उदास हो जाता है। अंतिम चरण बुढ़ापे का है। यह कलियुग की तरह है, जिसमें मन और शरीर की विकृति के कारण अंधकार व्याप्त होता है। इसी प्रकार मानव जीवन के चार आश्रम या निवास भी चार युगों के रूप में हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम को सतयुग कहा जा सकता है, गृहस्थ का निवास द्वापरयुग है, वानप्रस्थ त्रेतायुग है और संन्यास आश्रम कलियुग है। वास्तव में होलोकॉस्ट या प्रलय को देखकर इन अवस्थाओं का बाहर से मिलान किया जा रहा है। वैसे तो शरीर की किसी भी अवस्था में, कोई भी व्यक्ति मन के किसी भी उच्च स्तर पर हो सकता है।

मानव मृत्यु को ही प्रलय के रूप में दर्शाया गया है

जैसा कि हमने पिछली पोस्ट में स्पष्ट किया था कि मनुष्य अपने मन के बाहर की दुनिया को कभी नहीं जान सकता। उसकी दुनिया उसके दिमाग तक सीमित है। इसका मतलब यह है कि तब सांसारिक निर्माण और प्रलय भी मन में हैं। इस मानसिक संसार का वर्णन पुराणों में मिलता है। हम धोखे में पड़ जाते हैं और इसे भौतिक दुनिया में व बाहर समझ लेते हैं। कुंडलिनी जागरण या मानसिक परिपक्वता के बाद मनुष्य का लगाव बाहरी दुनिया में नहीं होता है। वह अद्वैत भाव और वैराग्य के साथ रहता है। हम इसे ब्रह्मांड के पूर्ण विकास के बाद इसका स्थायित्व कह सकते हैं। फिर उसके जीवन के अंतिम दिनों में, प्रलय की प्रक्रिया शुरू होती है। कमजोरी के कारण, वह दुनियादारी का काम छोड़ देता है और अपने शरीर के रखरखाव में व्यस्त रहता है। एक तरह से हम कह सकते हैं कि पंचमहाभूत या पाँच तत्व इंद्रियों में विलीन हो जाते हैं। फिर समय के साथ उसकी इंद्रियाँ भी कमजोर होने लगती हैं। कमजोरी के कारण उसका ध्यान इंद्रियों से आंतरिक मन की ओर जाता है। वह अपने हाथ से पानी नहीं पी सकता। दूसरे उसे मुँह में पानी भरकर पिलाते हैं। वह पानी के रस को महसूस करता है। आसपास के परिचारक उसके मुंह में खाना डालकर उसे खाना खिलाते हैं। वह भोजन का स्वाद और गंध महसूस करता है। परिजन उसे अपने हाथों से नहलाते हैं। उसे पानी का स्पर्श महसूस होता है। अन्य लोग उसे विभिन्न चित्र आदि दिखाते हैं। दूसरे उसे कथा कीर्तन या ईश्वरीय कहानियाँ सुनाते हैं। वह उनकी मीठी और ज्ञान से भरी आवाज़ को महसूस करके आनन्दित होता है। एक तरह से, इंद्रियाँ पंचतन्मात्राओं या पाँच सूक्ष्म आंतरिक अनुभवों में विलीन हो जाती हैं। यहां तक कि बढ़ती कमजोरी के साथ, आदमी को पंचतन्मात्राओं का अनुभव करने में भी कठिनाई होती है। तब उसके प्यारे भाई उसे नाम से बुलाते हैं। इससे उसके अंदर थोड़ी ऊर्जा का प्रवाह होता है, और वह खुद का आनंद लेने लगता है। हम कह सकते हैं कि पंचतन्मात्राएँ अहंकार में विलीन हो गईं। कमजोरी के और बढ़ने के साथ ही उसके अंदर अहंकार का भाव भी कम होने लगता है। नाम से पुकारे जाने पर भी वह फुर्ती हासिल नहीं करता। अपनी बुद्धि के साथ, वह अंदर ही अंदर अपनी स्थिति के बारे में विश्लेषण करना शुरू कर देता है, क्या इसका कारण है, क्या उपाय और क्या भविष्य का परिणाम है। एक तरह से अहंकार महत्तत्त्व या बुद्धि में विलीन हो जाता है। उसके बाद बुद्धि में भी सोचने की ऊर्जा नहीं रहती है। मनुष्य निर्जीव की तरह हो जाता है। उस अवस्था में वह या तो कोमा में चला जाता है या मर जाता है। हम इसे महत्तत्त्व के प्रकृति में विलय के रूप में कहेंगे। जैसा कि पिछली पोस्ट में बताया गया है, उस स्तर पर सभी गुण संतुलन में आते हैं। न वे बढ़ते हैं, न घटते हैं। वे वही रहते हैं। वास्तव में, यह विचारशील मस्तिष्क है जो प्रकृति के गुणों को बढ़ाने और घटाने के लिए लहरें प्रदान करता है। यह एक साधारण बात है कि जब मस्तिष्क ही मृत हो गया है, तो गुणों को विचारों का झटका कौन देगा। अज्ञानी लोग मूल प्रकृति  जितना ही दूर जा पाते हैं। इस प्रकार के लोग बार-बार जन्म और मृत्यु के रूप में आगे-पीछे आते रहते हैं। शास्त्रों के अनुसार प्रबुद्ध एक कदम आगे बढ़ सकता है। उसके मामले में प्रकृति पुरुष में विलीन हो जाती है। पुरुष पूर्ण और प्रकाशस्वरूप है। उसमें गुण नहीं होते। वह निर्गुण है। वहाँ से पुनर्जन्म नहीं होता।

कुण्डलिनी योगी को देवराज इंद्र परेशान कर सकते हैं

मित्रो, मैंने पिछले हफ्ते की पोस्ट में बताया कि सभी प्रकार के योगों को एकसाथ अपनाने से ही योग में सफलता प्राप्त होती है। आज हम इस तथ्य की कुछ विस्तारपूर्वक अनुभवात्मक विवेचना करेंगे।

कर्मयोग सभी योगों की प्रारंभिक सीढ़ी के रूप में

ऐसा इसलिए है, क्योंकि कर्मयोग सबसे आसान है। इससे दुनिया में रमा हुआ आदमी भी ऐसे ही शांत व दुनिया से दूर बना रहता है, जैसे कमल का पत्ता पानी में डूबा रहकर भी पानी की पहुंच से दूर रहता है, और सूखा ही बना रहता है। कर्मयोग तो जिंदगी में हमेशा ही बना रहना चाहिए। परंतु यह किशोरों व युवाओं के लिए विशेष महत्त्व का है, क्योंकि इसी उम्र में कर्म तेजी से किए जाते हैं। कर्म की मात्रा जितनी ज्यादा हो, कर्मयोग भी उतना ही ज्यादा प्रभावशाली होता है। कर्मयोग को अद्वैत भाव या अनासक्ति भाव भी कहते हैं। मेरे घर पर शुरु से ही योग का प्रभुत्व होने से मुझे कर्मयोग के संस्कार विरासत में मिले। वैसा मेरा कर्मयोग तभी चरम पर पहुंचा, जब उसमें किसी अज्ञात ईश्वरीय प्रेरणा से तंत्र भी सम्मिलित हुआ। इसी से मुझे आत्मजागृति को दो बार अनुभव करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वास्तव में तंत्र से कर्म करने की शक्ति बढ़ जाती है, जिससे कर्मयोग भी बढ़ जाता है। फिर किसी दिव्य प्रेरणा से मैंने शरीरविज्ञान दर्शन की रचना की। यह एक व्यवहारिक दर्शन है, और दुनिया के झमेले में फंसे एक व्यक्ति के लिए रामबाण ओषधि है। इस दर्शन से मुझे बहुत बल मिला। इससे मुझे चहुँमुखी भौतिक तरक्की के साथ आध्यात्मिक तरक्की भी मिली। इसको बनाने के करीब 4-5 वर्ष पहले मुझे एक आत्मज्ञान की झलक भी मिली थी। उससे मैं विशेष हो गया था। मैं पूरी तरह से अद्वैत सागर में डूब गया था। दुनिया वालों को मैं मंगल ग्रह से आए आदमी की तरह लगने लगा, जिससे वे मुझे हीन सा समझने लगे और मुझे अलग-थलग सा रखने लगे। वे अपनी जगह पर सही भी थे। वे मुझे पारलौकिक आयाम में प्रविष्ट नहीं होने देना चाहते थे। हालांकि वह आयाम सर्वश्रेष्ठ होता है, पर उस आयाम में रहकर दुनियादारी के काम ढंग से नहीं हो पाते। देवता आदमी को उस आयाम में जाने से रोकते हैं, क्योंकि यदि सभी लोग उस आयाम में चले गए, तो उनकी रची हुई दुनिया कैसे चल पाएगी। तभी तो प्राचीन काल में देवताओं का राजा इंद्र योगियों की तपस्या भंग करने आ जाता था। इंद्र को डर होता था कि यदि कोई आदमी योगबल से अपनी ओर दुनिया के लोगों को आकर्षित करेगा, तो उसे कोई नहीं पूछेगा। इंद्र को एकप्रकार से अपने प्रभुत्व की राजगद्दी के खो जाने का डर सताता रहता था। इसी खतरे के मद्देनजर ही मैं योगसाधना को सावधानी से करता हूँ। जैसे ही मैं पारलौकिक आयाम में प्रविष्ट होने लगता हूं, और मुझे देवताओं से खतरे का आभास होने लगता है, मैं तुरंत कुछ तांत्रिक टोटका अपनाकर उस आयाम से बाहर निकल आता हूं। सूत्रों के अनुसार योगी श्री साधुगुरु भी ऐसा ही कहते हैं, और सम्भवतः करते भी हैं। वास्तव में, देवताओं से मधुर संबंध बना कर ही आदमी उनकी बनाई दुनिया से ऊपर उठ सकता है।

उपरोक्त आध्यात्मिक अलगाव के कारण मेरे लिए दुनिया के बीच खुलकर सम्मिलित होना मुश्किल हो गया था। इससे मुझे कर्महीनता और बोरियत सी सताने लगी। इसीको कुंडलिनी का विपरीत चैनल में चढ़ना कहते हैं। एक इड़ा चैनेल है, और एक पिंगला। एक भावनात्मक है, और एक कर्मात्मक। मैं भावनात्मक ज्यादा हो गया था। चित्र-विचित्र अनुभवों में और पुरानी यादों में डूबा रहता था। इससे कर्म करने की शक्ति का ह्रास होता था। इसी वजह से मुझे उस समय यौन साथी की बहुत जरूरत महसूस होती थी। यौनबल से कुण्डलिनी बीच वाले सुषुम्ना चैनल में चढ़कर सहस्रार तक पहुंच जाती है। इससे आदमी का जीवन संतुलित हो जाता है। यौन साथी का तो नहीं, पर शरीरविज्ञान दर्शन का साथ मुझे जरूर मिला। इससे उत्पन्न अद्वैत से मेरे फालतू के विचारों पर लगाम लग गई। इससे जो शक्ति की बचत हुई, उससे मेरी कुंडलिनी सुषुम्ना चैनल से होकर सहस्रार में प्रविष्ट हुई। फिर मेरी कुंडलिनी को यौनबल के बिना ही उछालें मारते देखकर संभावित यौन साथी भी मेरी ओर नजरें घुमाने लगे। जिस समय मुझे यौनबल की जरूरत थी, उस समय तो कहीं कोई नजर नहीं आया, पर जब मैंने अपना यौनबल खुद ही निर्मित कर लिया, तब वे  भी उसके प्रति उत्साहित होने लगे। वास्तव में जो कुछ हुआ, वह ठीक ही हुआ। अगर मुझे यौनबल समय से पहले मिल गया होता, तो मैं अपना स्वयं का दार्शनिक यौनबल पैदा करना न सीख पाता, और न ही मुझे आत्मजागृति की दूसरी झलक मिल पाती।

थोड़ी उम्र बढ़ने पर मेरा ज्यादा झुकाव ज्ञानयोग व हठयोग की तरफ हो गया

हालाँकि कर्मयोग भी चला हुआ था। एकबार तो आत्मज्ञान के एकदम बाद मेरा भक्तियोग भी काफी बढ़ गया था। दरअसल जब भौतिक साथियों से धोखा खाकर मैं पूरी तरह निरुत्साहित हो गया था, तभी मुझे आत्मज्ञान अर्थात ईश्वर दर्शन की झलक मिली थी। उससे मुझे संतुष्ट व सुखी रहने के लिए भरपूर सहारा मिला। मैं अपने को ईश्वर का विशेष कृपापात्र समझने लगा। मैं उसके प्रति बार बार आभार प्रकट करता था, और विभिन्न स्तुतियों से उसे धन्यवाद देता था। यही तो ईश्वर भक्ति है। इससे जाहिर होता है कि सभी प्रकार के योग एकसाथ चलते रहने चाहिए। समय के अनुसार उनके आपसी अनुपात में बदलाव करते रहना चाहिए। ऐसा करने पर आत्म जागृति की प्राप्ति को कोई नहीं रोक सकता।

कुंडलिनी सहस्रार चक्र में जबकि कुंडलिनी शक्ति मूलाधार चक्र में निवास करती है

मित्रो, कुंडलिनी और कुण्डलिनी शक्ति के बीच में अंतर को लेकर दुनिया में अक्सर भ्रम देखा जाता रहता है। कई लोग कुंडलिनी को कुंडलिनी शक्ति समझ लेते हैं, और दूसरे कई लोग कुण्डलिनी शक्ति को कुंडलिनी समझ लेते हैं। आज हम इस बारे में अनुभवात्मक चर्चा करेंगे।

कुण्डलिनी शक्ति का मूल निवासस्थान मूलाधार चक्र है, जबकि कुण्डलिनी का मूल निवासस्थान सहस्रार है

शक्ति मूलाधार में उत्पन्न होती रहती है। वह सहस्रार तक जाकर कुण्डलिनी को पुष्ट करती है। इससे ऐसा लगता है कि कुण्डलिनी मूलाधार में पैदा हो रही है। सहस्रार से शक्ति आज्ञाचक्र से होकर नीचे उतरती है, और शरीर के सभी चक्रों में फैल जाती है। इससे ऐसा आभास होता है कि सभी चक्रों पर कुंडलिनी घूम रही है। वास्तव में वह शक्ति घूम रही होती है। शक्ति को प्राण या प्राणशक्ति भी कहते हैं।यदि चक्रों पर ही कुण्डलिनी हुआ करती, तो वह वहाँ पर जागृत भी होती। पर कुंडलिनी तो सहस्रार में ही जागृत होती है।

शरीर में अनुभव का स्थान मस्तिष्क ही है, कोई अन्य स्थान नहीं

शरीर के किसी भी भाग की चमड़ी में यदि खुजली हो, तो उसकी अनुभूति मस्तिष्क में ही होती है। हालांकि हमें ऐसा लगता है कि खुजली वाले स्थान पर संवेदना की अनुभूति होती है।कुण्डलिनी के साथ भी वैसा ही होता है। चाहे हम किसी भी चक्र पर कुण्डलिनी का ध्यान करें, उसकी अनुभूति मस्तिष्क में ही होगी। परन्तु लगता ऐसा है कि चक्र पर कुण्डलिनी है। यदि मस्तिष्क को दवा आदि से बेहोश किया जाए, तो शरीर के चक्रों पर भी संवेदना या कुण्डलिनी की अनुभूति नहीं होगी। इसी तरह जब सुषुम्ना नाड़ी पीठ में एक चमकती हुई लकीर के रूप में अनुभव होती है, तो वह अनुभूति भी मस्तिष्क में ही हो रही होती है।

मस्तिष्क से फ्रंट चैनेल के रास्ते उतरता हुआ प्राण कुंडलिनी के आभासिक चित्र को भी अपने साथ नीचे ले आता है

यह इस बात से सिद्ध होता है कि जब मस्तिष्क में कुंडलिनी का ध्यान हो रहा होता है, उस समय यदि जीभ को तालु से लगा कर प्राण को मस्तिष्क से नीचे उतारा जाए, तो कुंडलिनी भी उसके साथ उतरकर सभी चक्रों को भेदते हुए मूलाधार तक पहुंच जाती है। कुंडलिनी का चित्र तो लगातार मस्तिष्क में ही बन रहा होता है, पर उसका आभासिक अनुभव विभिन्न चक्रों पर होता है। इसी तरह, पीठ से ऊपर चढ़ता हुआ प्राण कुंडलिनी को भी वापिस ऊपर ले जाता हुआ प्रतीत होता है। हालांकि कुण्डलिनी कुण्डलिनी मस्तिष्क में ही होती है। इसका मतलब है कि जब प्राण कुण्डलिनी को अपने साथ चलाता है, तो कुण्डलिनी भी प्राण को अपने साथ चलाती है, क्योंकि दोनों आपस में जुड़े होते हैं। तांत्रिक हठयोग में प्राण को कुंडलिनी का हैन्डल बनाया जाता है, जबकि राजयोग में कुंडलिनी को प्राण का हैंडल बनाया जाता है। मिश्रित योग में दोनों ही तरीकों का इस्तेमाल होता है, इसलिए यह सबसे ज्यादा प्रभावी है।

मस्तिष्क के विभिन्न विचार भी जब प्राण के साथ नीचे उतरते हैं, तो वे कुंडलिनी बन जाते हैं

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि योगी को कुण्डलिनी के चिंतन की आदत पड़ी होती है। इसलिए कुंडलिनी विचार सबसे प्रिय होता है। तभी तो प्रिय व्यक्ति के लिए कहते हैं कि वह तो मेरे दिल का टुकड़ा है। माँ बेटे के लिए अपनी कोख का हवाला देती है। जब प्राण किसी चक्र पर केंद्रित हो, तब मस्तिष्क में विचारों के लिए बहुत कम प्राण बचा होता है। उतने कम प्राण में तो कुण्डलिनी चित्र को ही बना के रखा जा सकता है, क्योंकि रोज के योगाभ्यास के बल से मस्तिष्क को उसको आसानी से और कम प्राण ऊर्जा से बनाने की आदत पड़ी होती है। इसी तरह, योगाभ्यास के समय जब मन विचारशून्य सा होता है, तो मूलाधार से सहस्रार को चढ़ने वाली शक्ति से कुंडलिनी ही उजागर होती है। यह इसलिए क्योंकि कुंडलिनी की लिए सोचकर ध्यान लगाने की जरूरत नहीं होती। वह रोज के अभ्यास से खुद ही ध्यानपटल पर बनी रहती है। इसी तरह, योगाभ्यास के दौरान जब साँसे प्राणों से भरपूर होती हैं, तब भी कुण्डलिनी ही पुष्ट होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कुण्डलिनी चित्र ही उन साँसों के प्राणों का सबसे अधिक फायदा उठाते हुए सबसे तेजी से चमक सकती हैं। ऐसा रोज के कुंडलिनी अभ्यास से ही होता है।

अनुभूति का स्थान सहस्रार चक्र ही है, इसीलिए कहा जाता है कि आत्मा सहस्रार में निवास करती है

मुझे तो कुण्डलिनी जागरण की अनुभूति पूरे मस्तिष्क में हुई। ऐसा लगा कि मस्तिष्क का हरेक कण कम्पायमान या जागृत हो रहा था। यद्यपि कुण्डलिनी मस्तिष्क के सबसे ऊपरी हिस्से में महसूस हो रही थी। उसे ही क्राऊन चक्र भी कहते हैं। जब जागरण की अनुभूति समाप्त हुई, तब कुण्डलिनी आज्ञा चक्र में महसूस हुई। सहस्रार से जागरण की शुरुआत इसलिए होती है क्योंकि मूलाधार से ऊपर चढ़ने वाली प्राणशक्ति सीधी सहस्रार में प्रविष्ट होकर वहाँ पर कुंडलिनी को चमकाती है। हो सकता है कि अनुभव केवल सहस्रार चक्र में ही होती हो, और अन्य मस्तिष्कीय केंद्रों में अनुभूति सहस्रार से ही रेफर्ड होकर आई हो। हालांकि मेरा यह अनुमान वैज्ञानिक प्रयोगों के विरुद्ध है, जिसमें मस्तिष्क में बहुत से अनुभूति के केंद्र बताए गए हैं। वैसे तो चिकित्सा विज्ञान अभी तक चक्रों और नाड़ियों की पहेली को नहीं सुलझा पाया है। इसी तरह, आज्ञा चक्र और उससे निचले चक्रों की तरह मस्तिष्क व शरीर के सभी बिंदुओं पर महसूस होने वाली संवेदनाएं रेफर्ड ही हैं। संवेदनाओं का मूल स्थान तो सहस्रार ही है। सहस्रार में जागरण के एकदम बाद कुंडलिनी आज्ञा चक्र पर आ जाती है। इससे जाहिर होता है कि निचला चक्र अपने ऊपर वाले चक्र से कम ऊर्जा स्तर का होता है। मतलब यह है कि सहस्रार की प्राणऊर्जा के विभिन्न स्तर विभिन्न चक्रों के रूप में अभिव्यक्त होते हैं। जागरण के समय ऊर्जा स्तर टॉप मोस्ट लेवल पर होता है। ऊर्जा स्तर के एक निश्चित सीमा के नीचे गिरने से जागरण की अनुभूति समाप्त हो जाती है। उस समय भी कुण्डलिनी रहती तो सहस्रार में ही है, पर वह आज्ञा चक्र में प्रतीत होती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि सहस्रार से प्राण आज्ञा चक्र तक उतर गया होता है। यदि कुण्डलिनी प्राण के साथ न चला करती, तो जागरण के एकदम बाद किसी भी चक्र पर महसूस हुआ करती। उसके बाद जैसे-जैसे प्राण नीचे उतरता है, कुण्डलिनी भी उसके साथ उतरती महसूस होती है। यह ऐसे ही होता है, जैसे जब किसी अंग में बहुत तेज दर्द होता है, तो वह सहस्रार में महसूस होता है, और आदमी कहता है कि उसका सिर फटा जा रहा है। इससे ऐसी कहावत भी बनी है कि”इतनी दर्द हुई कि चोटी खड़ी हो गई”। दरअसल बालों की चोटी सहस्रार के निकट बँधी होती है। छोटी मोटी दर्द तो प्रभावित अंग के स्थानीय क्षेत्र में ही लोकेलाइज्ड महसूस होती है। यदि बिना सुन्न किए दाँत उखाड़ा जाए, तो सहस्रार में बहुत तेज दर्द होता है। आदमी बोलता है कि उससे बड़ा दर्द कोई नहीं हो सकता। कुंडलिनी जागरण के अनुभव के बाद भी तो आदमी यही बोलता है कि इससे बड़ा अनुभव नहीं हो सकता। वास्तव में कुंडलिनी जागरण ही दुनिया की सबसे बड़ी अनुभूति है। अगर कोई है, तो वह आत्मज्ञान या ईश्वर ही है। उसमें अद्वैत और आनंद की अनुभूति पूर्ण रूप में होती है। अद्वैत और आनन्द तो दाँत उखाड़ने के बाद भी महसूस होता है, पर पूर्णरूप में नहीं। इससे भी जाहिर होता है कि अनुभूति का स्थान सहस्रार ही है। दाँत निकालने के दर्द की अनुभूति की जागरण की अनुभूति से समानता की बात बहुत से योगियों ने की है। मैंने भी ऐसा दाँत निकालने का उच्चतम स्तर का दर्द एकबार महसूस किया था। सुन्न करने वाली दवा अपना असर नहीं दिखा पाई थी। उससे मुझे अपना मस्तिष्क फटता हुआ सा इसलिए महसूस हुआ, क्योंकि मेरे शरीर का सारा प्राण दर्द का पीछा करते हुए सहस्रार में घुस गया था। उसके बाद मुझे 3 साल पहले हुए आत्मज्ञान का स्मरण हो आया, क्योंकि वह अवस्था उसीके जैसी आध्यात्मिक थी। वह प्राणोत्थान की अवस्था लग रही थी। इसमें पूरे शरीर का प्राण सहस्रार में केंद्रित होता है। इसका वर्णन मैंने एक पुरानी पोस्ट में किया है। सम्भवतः दुःख या दर्द से पाप का नष्ट होना इससे पैदा हुई इस योग भावना से ही होता है। इससे इस बात की भी पुष्टि हो जाती है कि योग से पाप क्षीण होते हैं। अब कुण्डलिनी के अनुभव को तो दर्द के अनुभव की तरह पैदा नहीं किया जा सकता है। अगर ऐसा होता तो आदमी सावधानी से अपने बाहरी अंगों में संवेदना पैदा करके कुण्डलिनी को महसूस किया करता। कुण्डलिनी का ध्यान तो मस्तिष्क में ही किया जा सकता है। ऐसा करना आम आदमी के लिए कठिन है। इसलिए प्राण को कुंडलिनी के हैंडल के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। तांत्रिक हठयोग से प्राण को सहस्रार तक चढ़ाया जाता है। उससे वहां खुद ही कुण्डलिनी प्रकट होकर मजबूत होती रहती है। इससे जाहिर होता है कि हठयोग राजयोग की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक, व्यावहारिक व आसान है। वैसे समयानुसार दोनों का मिश्रित प्रयोग मुझे ज्यादा कारगर लगा। उपरोक्तानुसार जब दर्द के साथ प्राण सहस्रार तक पहुंचता है, तो उससे कुण्डलिनी भी अनुभव होने लगती है। परंतु ज्यादा कुण्डलिनी लाभ नहीं मिलता, क्योंकि अधिकांश प्राण को दर्द की अनुभूति खा जाती है। हालांकि कई जगह स्पर्श की अनुभूति का कुण्डलिनी के लिए प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए, जीभ और तालु के आपसी स्पर्श के अनुभव से कुण्डलिनी और प्राण मस्तिष्क से वहां तक उतर जाते हैं, और फ्रंट चैनल से नीचे चले जाते हैं।उपरोक्तानुसार ही, जैसे सहस्रार में बनने वाले चित्र ही चक्रों पर बने हुए प्रतीत होते हैं, उसी तरह बाहरी दुनिया में बनने वाले सूर्य, नदी, पर्वत वगैरह के चित्र भी सहस्रार में ही बन रहे होते हैं, पर उनकी अनुभूति दूर बाहर होती है। यह ट्रिक मस्तिष्क ने क्रमिक जीवविकास के दौरान सीखी है। यदि सभी कुछ अंदर ही महसूस हुआ करता, तो बाहर की तरफ दौड़ न होती, और जीवविकास न होता।जितनी तेज अनुभूति होती है, वह उतनी ही ज्यादा आत्मा से चिपकती है। उसे ही समाधि भी कहते हैं। ऐसी तेज अनुभूति सहस्रार में ही होती है। तभी तो आदमी यौन प्रेमी को कभी भूल नहीं पाता। दरअसल मूलाधार से उठ रही अनुभूति सीधी सहस्रार में जा बैठती है और वहाँ प्रेमी के चित्र को मजबूत करती है। इसी वजह से कई लोग प्रेम में पागल होकर साधु बन जाते हैं।सहस्रार चक्र की इसी सार्वभौमिकता के कारण उसे एक हजार पंखुड़ियां दी गई हैं। इसका मतलब है कि यह शरीर के हरेक बिंदु से जुड़ा होता है। अन्य चक्रों में दो, तीन या चार पंखुड़ियां होती हैं, मतलब कि वे आसपास के कुछेक चक्रों से ही जुड़े होते हैं। इसका वर्णन मैंने एक पुरानी पोस्ट में किया है। शिवपुराण के अनुसार कुण्डलिनी ही शिव है, और शिव ही कुंडलिनी है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उसमें शिव ही का ध्यान लगाने को कहा गया है। उसीके अनुसार वह शिव सहस्रार में निवास करते हैं। शक्ति उनसे मिलने के लिए मूलाधार से ऊपर चढ़ती रहती है। जब शक्ति का आवेग एक निश्चित सीमा से ऊपर उठ जाता है, तब उसका शिव के साथ मिलन का कामोन्माद चरम पर पहुंच जाता है। उससे शिव-शक्ति का मिलन पूर्ण हो जाता है, जो कुण्डलिनी जागरण के रूप में प्रकट होता है।

मिश्रित योग सबसे अधिक कारगर होता है, इस उपरोक्त कथन की पुष्टि के लिए मैं अपने साथ घटित घटना का एक उदाहरण देता हूँ। मैं उस समय प्राणोत्थान की अवस्था में था। प्रतिदिन योगाभ्यास कर रहा था। एक दिन मेरे अचानक मिले पुराने मित्र के कारण मुझे कुण्डलिनी का तेज स्मरण हो आया। मैं उसमें खो गया। तभी अचानक मेरे प्राण भी उस कुंडलिनी का साथ देने के लिए मूलाधार से उठकर पीठ के रास्ते मस्तिष्क को चढ़ गए। इससे वह कुण्डलिनी जागृत हो गई। इसका विस्तृत विवरण इस वेबसाइट के होमपेज पर है। प्राण इसीलिए ऊपर चढ़ पाए, क्योंकि मैं प्रतिदिन तांत्रिक हठयोग का अभ्यास कर रहा था, और मुझे प्राण को ऊपर चढ़ाने की आदत बनी हुई थी। यदि वह आदत न होती, तो कुंडलिनी का स्मरण तो मस्तिष्क में तेजी से होता पर वह जागृत न होती, क्योंकि उसे मूलाधार की प्राणशक्ति न मिलती। जागरण कराने वाली असली प्राणशक्ति तो मूलाधार चक्र में ही रहती है। इससे पूर्वकथित इस बात की भी पुष्टि हो जाती है कि प्राण कुंडलिनी का पीछा करता है, और जहाँ कुंडलिनी जाती है, वहाँ प्राण भी चला जाता है। कुण्डलिनी के स्मरण को आप राजयोग कह सकते हैं, और मूलाधार से प्राण को ऊपर चढ़ाने को हठयोग कहते हैं। इससे सिद्ध होता है कि सभी प्रकार के योग मिलजुल कर काम करते हैं, और सभी एक ही महायोग के विभिन्न हिस्से हैं।

कुंडलिनी ही जादूगर का वह तोता है, जिसमें उसकी जान बसती है

दोस्तों, रशिया में एक कहावत है कि जादूगर की जान उसके तोते में बसती है। यह बात पूर्णतः सत्य न भी हो, तो भी इसका मैटाफोरक महत्त्व है। कुंडलिनी ही वह तोता है, जिससे जादूगर को शक्ति मिलती रहती है।

किसी भी चीज को कुंडलिनी बनाया जा सकता है

जादूगर एक तोते को कुंडलिनी बनाता है। तोता रंगीन व सुंदर होता है, इसलिए आसानी से ध्यानालम्बन या ध्यान-कुंडलिनी बन जाता है। तोता एक मैटाफोर भी हो सकता है। तोते का अर्थ कोई सुंदर रूप वाली चीज भी हो सकता है। जैसे कि प्रेमी, गुरु या कोई अन्य सुंदर चीज। सुंदर चीज से आसानी से प्यार हो जाता है और वह मन में बस जाती है। जादूगर योगी का मैटाफोर भी हो सकता है। जैसे योगी की शक्तियां उसकी कुंडलिनी के कारण होती हैं, वैसे ही जादूगर की शक्तियां उसके तोते के आश्रित होती हैं।


जादूगर/योगी अपने तोते/कुंडलिनी की सहायता से ही भ्रमजाल फैलाता है


जैसे योगी अपनी कुंडलिनी से अद्वैत को प्राप्त करता है, वैसे ही जादूगर अपने तोते से अद्वैत प्राप्त करता है। जादूगर जब भ्रम के जादू को फैलाता है, तब अद्वैत की शक्ति से ही वह भ्रम के जाल में नहीं फंसता। वैसा ही योगी भी करता है। आम लोग योगी की दुनियावी लीलाओं से भ्रमित होते रहते हैं, परंतु वह स्वयं भ्रम से अछूता रहता है।


तोते/कुंडलिनी के मरने से जादूगर/योगी निष्क्रिय सा हो जाता है


इसीसे भावनात्मक सदमा लगता है, जैसा कि मैंने पिछली पोस्टों में बयान किया है। वास्तव में, तोते/कुंडलिनी के साथ जादूगर/योगी का पूरा जीवनक्रम जुड़ा होता है। तोते/कुंडलिनी के नष्ट होने से उससे जुड़ी सारी घटनाएं, यादें व मनोवृत्तियां नष्ट सी हो जाती हैं। इससे वह घने अंधेरे में पूरी तरह से शांत सा हो जाता है। इसे भावनात्मक सदमा कहते हैं। इसे ही पतंजलि की असम्प्रज्ञात समाधि भी कहते हैं। इसी परिस्थिति में कुंडलिनी जागरण हो सकता है। यदि इसे कुछ लंबे समय तक धारण किया जाए, तो आत्मज्ञान भी प्राप्त हो सकता है। औसतन लगभग छः महीने के अंदर आत्मज्ञान हो सकता है। इस स्थिति को संभालने के लिए यदि योग्य गुरु का सहयोग मिले, तो भावनात्मक सुरक्षा मिलती है।

ईश्वर सबसे बड़ा जादूगर है, जो तोते/कुंडलिनी से इस दुनिया के जादू को चलाता रहता है

हिंदु समेत विभिन्न धर्मों में ईश्वर को एक जादूगर या ऐंद्रजालिक माना गया है, जो अपने जादू या इंद्रजाल को खुले आसमान में फैलाता है। उससे यह दुनिया बन जाती है। वह पूर्ण अद्वैतशील है। इससे स्वयं सिद्ध हो जाता है कि उसके साथ उसकी कुंडलिनी (तोता) भी रहती है। उसी तोते को मायाशक्ति कहा गया है।

कुंडलिनी योग के लिए बच्चों के द्वारा अंगूठा चूसना- एक अद्भुत आध्यात्मिक मनोविज्ञान

दोस्तों, जैसा कि मैंने पिछली पोस्टों में भी बताया कि मुख (ओरल केविटी) एक कुण्डलिनी स्विच की तरह काम करता है। जैसे ही ओरल केविटी की छत इसके फर्श के साथ सीधे संपर्क में आती है, वैसे ही वह स्विच ऑन हो जाता है। खाना खाते समय जब मुंह भोजन से भरा होता है, तब दोनों सतहों के बीच में संपर्क बन जाता है। इसी तरह, मुंह के पानी से भरे होने पर भी बहुत अच्छा संपर्क बनता है। तभी तो खाना खाने के बाद और पानी पीने के बाद बहुत रिलीफ मिलता है। यहाँ तक कि किसिंग से भी ऐसा ही होता है। उसमें भी मुंह की लार संपर्क बनाने का काम करती है। योगी लोगों ने इस सिद्धांत का पूरा फायदा उठाने के लिए जीभ को तालू से छुआने की तकनीक बनाई। साथ में, उस तकनीक के साथ उन्होंने कुण्डलिनी को भी जोड़ दिया।

बच्चे कुदरती तौर पर सबसे बड़े योगी होते हैं

मैंने ऐसा पहले भी लिखा था। बच्चों से ही योग की शुरुआत हुई। बच्चों से ही लोगों ने योग सीखा। बहुत से ऐसे योगियों के उदाहरण हैं, जो उम्र में बच्चे थे। शुकदेव, बाबा बालक नाथ ऐसे ही योगी-बच्चों के उदाहरण हैं, जिनकी योग-साधना का आजतक लोग लोहा मानते हैं। वास्तव में योग की नींव बच्चे में पेट के अन्दर ही पड़ जाती है।

बच्चों में कुण्डलिनी स्विच को ओन करने की प्रवृत्ति नैसर्गिक होती है

बच्चे माँ के पेट में ही अपना अंगूठा चूसने लग जाते हैं। जाहिर है कि पेट में उन्हें बहुत परेशानी होती है। छोटी सी जगह में कैद होकर वे अपने विचारों में बेबस होकर उलझे रहते हैं। इससे उन्हें क्रोध, भय, अवसाद आदि मानसिक विकारों का लगातार सामना करना पड़ता है। उसी से बचने के लिए वे अंगूठा चूसते हैं। अंगूठा मुंह की दोनों सतहों को आपस में जोड़ देता है। साथ में, लार भी यह काम करती है। यह प्रवृत्ति 4 साल की उम्र तक तो बच्चों में ठीक है, पर इसके बाद उससे मुंह की बनावट बिगड़ सकती है। तभी बहुत से लोग कहते हैं की बड़े बच्चों को डांटकर नहीं, बल्कि योग सिखा कर इस आदत को मिटाया जा सकता है।

एनेर्जी स्विच के ऑन होने से कुण्डलिनी लाभ कैसे मिलता है

मुंह के एनेर्जी स्विच के ऑन होने से दिमाग का बोझ नीचे उतर जाता है। तभी तो कहते हैं कि बोझ उतर गया, यह नहीं कहते कि बोझ चढ़ गया। इससे दिमाग के विचारों से आसक्ति हट जाती है। इससे मन में अद्वैत की शान्ति छा जाती है। शान्ति से मन में बनने वाली खाली जगह को भरने के लिए कुण्डलिनी खुद ही प्रकट हो जाती है। योगी कुण्डलिनी के व नाड़ी चैनलों के बलपूर्वक ध्यान से आम लोगों से अधिक कुण्डलिनी लाभ प्राप्त करते हैं।

गुस्से को कैसे घूँटा जा सकता है

आमतौर पर लोग कहते हैं कि मैं गुस्से को पी गया या उसने गुस्से को घूँट लिया। कई लोग गुस्से के समय कुछ घूंटने का प्रयास करते हैं। उससे दिमाग का बोझ लार के माध्यम से गले के नीचे उतर जाता है। वैसे भी गुस्से के समय लोग दांत भींचते हैं, ताकि वे गुस्से को काबु में करके अच्छी तरह से लड़ सकें। कई लोग लड़ाई से दूर हटने के लिए ऐसा करते हैं। ऐसा करने से मुंह की दोनों सतहें जीभ के माध्यम से टाईट होकर आपस में जुड़ जाती हैं।

मौन व्रत से कुण्डलिनी स्विच कैसे ऑन रहता है

मौन धर्म के पीछे भी यही कुण्डलिनी स्विच का सिद्धांत काम करता है। चुप रहने से दांत टाईट जुड़े होते हैं, और मुंह के अन्दर भी गैप नहीं रहता। बोलने से वह गैप बढ़ जाता है, और दिमाग का बोझ नीचे उतरकर दिमाग को नुकसान नहीं पहुंचा पाता है। मुझे खुद मौन रहने से अपना आत्मज्ञान व कुण्डलिनी जागरण पुनः याद आ जाता था। बिना अवेयरनेस के बोलने से मैं उन्हें भूल जाता था। जीभ खुद ही दांतों के पीछे तालू से टच रहती है।  

कोरोना लोकडाऊन के दौरान मजदूरों के पैदल पलायन के समय उनके साथ भटक रहे मासूम बालकों को देखकर निराशा होती है।