कुण्डलिनी जागरण बनाम सूक्ष्मशरीर-समाधि

दोस्तो, मैं पिछली कुछ पोस्टों में ब्लैकहोलसूक्ष्मशरीर जैसे अनुभव के बारे में बात कर रहा था। थोड़ा उसका और गहराई से अध्यात्मवैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं। मुझे लगता है कि जो चीज अनंत व शून्य अंतरिक्षरूपी आत्मा से अलग भौतिक रूप में है, चाहे कितने ही छोटे कण के रूप में है, उसे हम आत्मरूप से अनुभव नहीं कर सकते। आत्मा से आत्मा ही जुड़ सकती है, अन्य कुछ नहीं। वैसे तो आत्मा की आभासी लहर भी जुड़ सकती है, कण तो बिल्कुल नहीं। वैसे तो लहर भी नहीँ जुड़ती, केवल जुड़ी हुई दिखती है। वह असली नहीँ बल्कि आभासी होती है, जैसे बंद आँखों को खोलते हुए पलकों के बालों से आसमान में बुलबुले जैसे दिखाई देते हैं। दरअसल आसमान में कोई बुलबुले नहीँ होते। यह उदाहरण मैंने योगवासिष्ठ ग्रंथ से लिया है। कण द्वैत का प्रतीक है। वह आत्म-आकाश से अलग है, आकाश-पुष्प या आकाश-उद्यान की तरह, जैसा शास्त्र कहते हैं। आकाश में बिना किसी आधार के यकायक फूल नहीँ खिल सकता। अगर हम योग समाधि से कुण्डलिनी छवि को आत्मरूप में महसूस करें तो वह अपनी आत्मा से अभिन्न उसमें तरंग रूप से अनुभव होगी, किसी पृथक भौतिक वस्तु या कण के रूप में नहीं। जो मुझे सूक्ष्म शरीर आत्मरूप में अनुभव हुआ वह तरंगरूप नहीं था। मतलब वह वैसा नहीं था जैसी सभी भौतिक चीजें मन के विचारों के रूप में लहरदार होती हैं। मतलब उनकी सत्ता या चमक घटती-बढ़ती रहती है। वह सूक्ष्मशरीर तो एकसमान कज्जली चमक वाला अंधेरा था। फिर उसके बारे में मुझे पूरा ब्यौरा कैसे महसूस हो रहा था, उससे भी ज्यादा जितना भौतिक रूपों से मिलता है। इसका मतलब है कि उसमें सूक्ष्म तरंगें थीं, जिनका अहसास नहीं हो रहा था, पर उनमें दर्ज सभी सूचनाओं का पूरा अहसास हो रहा था। ये तरंगें क्वांटम फ्लैकचूएशन या हलचल के रूप में हो सकती हैं, जिन्हें शरीर के बिना ऊर्जा नहीं मिल रही थीं, जिससे वे स्थूल तरंगों के रूप में व्यक्त नहीं हो पा रही थीं। वे सूक्ष्म तरंगें भी स्थूल तरंगों की तरह ही थीं। इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे यदि पानी के तलाब में एक पत्थर फ़ेंकने की ऊर्जा से थोड़ी देर के लिए स्थूल तरंगें बनती हैं, तब पत्थर से मिली ऊर्जा खत्म होने के बाद भी बड़ी देर तक उसी पैटर्न की सूक्ष्म तरंगें बनती रहती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि तरंगें पेंडुलम की तरह व्यवहार करती हैं, मतलब अपनी ही अंतरंग ऊर्जा से उठती गिरती रहती हैं। फिर तो मरने के बाद आदमी के सूक्ष्मशरीर के कंपन लगातार घटते रहने चाहिए और अंततः वह कंपनरहित चिदाकाश अर्थात परमात्मा बन जाना चाहिए अर्थात आदमी खुद ही मुक्त हो जाना चाहिए। कई जगह शास्त्र भी इस ओर इशारा करते हैं कि ऐसा होता है, हालांकि ऐसा स्पष्ट नहीं कहा है, पर जिसको ज्ञान न हो या जिसने आसक्ति और द्वैत से भरा जीवन जिया हो, वह उस अँधेरे से घबराकर या उससे ऊब कर जल्दी ही अपने लिए नया शरीर चुन लेता है, और शरीर उसे अपने कंपन के अनुसार ही अच्छा या बुरा मिलता है। इसका यह मतलब भी है कि इसी तरह ब्लैकहोल की सूक्ष्म तरंगें भी समय के साथ शांत हो जाती हैं, और वह निश्चल समुद्र जैसे अनंत व शून्य अंतरिक्ष से पूरी तरह एक हो जाता है। हालांकि इसमें करोड़ों साल लग सकते हैं, क्योंकि वह पानी का नहीं बल्कि शून्य अंतरिक्ष का कंपन है। पर शास्त्र यह भी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि मोक्ष अपनेआप नहीं मिलता। करोड़ों-अरबों वर्षों तक जारी रहने वाले प्रलयकाल में भी कारण शरीर से आत्मा का बंधन बना रहता है। मुझे तो लगता है कि दोनों ही बातें सही हैं, समय और परिस्थिति के अनुसार, हालांकि दूसरी बात ज्यादातर मामलों में फिट बैठती होगी।

कुण्डलिनी चित्र का हम बारबार ध्यान करते हैं, इससे वह समाधि अर्थात कुण्डलिनी जागरण के रूप में आत्मा से एकाकार हो जाता है। मतलब किसी भी चीज के बारे में ध्यान करके उसको जगा कर हम उसके बारे में पूरी तरह से सबकुछ जान जाते हैं, जैसा कि शास्त्र कहते हैं। योगवासिष्ठ में कहा गया है कि वायु से योगसमाधि से जुड़ने पर वायु की सभी शक्तियाँ मिलती हैं, जैसे आसमान में उड़ना, अदृष्य होना आदि। इसी तरह अन्य पदार्थों जैसे अग्नि, जल आदि से जुड़ने से उन-उन पदार्थोँ का संपूर्ण व प्रत्यक्ष ज्ञान होने से उनकी सभी शक्तियां मिलती हैं। सम्भवतः इन्हें पंचभूत समाधि भी कहते हैं। अब इनका वैज्ञानिक विश्लेषण तो मैं इस समय नहीँ कर सकता। पर किसी के या अपने ही सूक्ष्म शरीर को जगाने के लिए हम किसका ध्यान करेंगे। सूक्ष्मशरीर का ही करेंगे। यह नहीं पता कैसे। सम्भवतः ऐसे ही जैसे भूत का किया जाता है। गीता में कहा गया है कि देव को पूजने वाले देवता बनते हैं, और भूत को पूजने वाले भूत। तो स्वाभाविक है कि सूक्ष्म शरीर का ध्यान करने वाला सूक्ष्मशरीर ही बनेगा। क्योंकि सूक्ष्मशरीर में अँधेरे का राज है, इसलिए अंधेरा व शक्ति पैदा करने वाले मांसमदिरासंभोग जैसे पंचमकारों के साथ तांत्रिक कुण्डलिनी योग से भूत या सूक्ष्मशरीर का आत्मरूप में अनुभव होता है, ऐसा मुझे लगता है। प्रेतात्माएं लोगों से सम्पर्क करके मदद लेना और देना चाहती हैं, पर इसके लिए आदमी में प्रेतात्मा की उच्च दबाव वाली ऊर्जा का आवेश झेलने की शक्ति होना जरूरी है, जो केवल समर्पित तांत्रिक कुण्डलिनी योग से ही संभव प्रतीत होता है। कुण्डलिनी चित्र यदि उस विशेष भूत या सूक्ष्मशरीर से संबंधित हो तो ध्यान ज्यादा जल्दी सफल और प्रभावशाली हो जाता है। पर ऐसा कैसे होता है, उसके लिए थोड़ा गहराई से विश्लेषण करना होगा।

मुझे एक नई अंतर्दृष्टि मिली है। उपरोक्त समाधि का अनुभव कुण्डलिनी जागरण की तरह नहीं था। मतलब उस अनुभव में मैं परमात्मा से एकाकार नहीं हुआ, बल्कि एक अन्य जीवात्मा से एकाकार हुआ। अगर मैं परमात्मा से एकाकार हुआ होता, तो कुण्डलिनी जागरण की तरह अनंत प्रकाश, आकाश व आनंद से कुछ क्षणों के लिए सम्पन्न हो जाता। साथ में मन-मस्तिष्क में सुहाने विचार, सागर में तरंगों की तरह उमड़ते, जैसा कि मैंने पिछली एक पोस्ट में लिखा है कि मस्तिष्क एक थिएटर मेन की तरफ काम करता है, जो मूड के अनुसार दृश्य प्रस्तुत कर देता है। हालांकि कुछ क्षणों के सूक्ष्मशरीर के अनुभव के बाद मस्तिष्क उससे संबंधित विचार बनाने लगा, जैसे उनकी मृत्यु से दुखी लोग आदि। हालांकि ये अनुभव सागर में तरंग की तरह महसूस नहीँ हो रहे थे, क्योंकि मुझे उस परमात्म-सागर का अनुभव नहीँ हो रहा था, जिसमें सभी कुछ तरंगों के रूप में है। विचारों के उठने के साथ ही शुद्ध अनुभव खत्म होने लगता है। विचार एक शोर जैसा या भ्रम जैसा पैदा करते हैं। योगी को ऐसे दिव्य अनुभव इसीलिए ज्यादा होते हैं, क्योंकि वे ज्यादा देर तक निर्विचार बने रह सकते हैं। होते सभी को हैं, पर वे विचारों के शोर के कारण इतने कम समय के लिए रहते हैं कि पहचान में ही नहीँ आते। जैसा ओशो महाराज कहते हैं कि सम्भोग के दौरान वीर्यपात के अनुभव के कुछ क्षणों के दौरान सभी को समाधि का अनुभव होता है, पर वह इतने कम समय के लिए रहता है कि उसका पता ही नहीं चलता। इसलिए वे ध्यानयोग के माध्यम से उस समय को बढ़ाने को कहते हैं। कहते हैं कि जानवरों को निकट भविष्य का अंदाजा लग जाता है, क्योंकि वे आदमी से ज्यादा निर्विचार होते हैं, हालांकि अलग अर्थात अज्ञान वाले तरीके से। मेरे इस उपरोक्त अनुभव को एकाकार भी नहीँ कह सकते, क्योंकि एकाकार तो परमात्मा के साथ ही हुआ जा सकता है। इसे ऐसे कह सकते हैं कि मैं कुछ क्षणों के लिए अपने आत्मरूप को छोड़कर सूक्ष्मशरीर बन गया। यह ऐसे था कि एक ही सूक्ष्मशरीर था, पर उसे एकसाथ अनुभव करने वाली दो आत्माएं थीं। असली या होस्ट आत्मा उन दिवंगत परिचित की थी। नकली या अतिथि या घुसपैठिया आत्मा मेरी थी। सूक्ष्मशरीर से ऐसे ही सम्पर्क किया जा सकता है। भला अँधेरे व शून्य आसमान को जानने का और क्या तरीका हो सकता है। उनकी समस्या या उनका प्रश्न जानने के लिए मैं उनके सूक्ष्मशरीर से जुड़ गया। उनकी बात कानों से नहीँ सुनाई दे रही थी, पर सीधी आत्मा में महसूस हो रही थी। न उनका शरीर, न मुख और न ही शब्द। फिर भी उनके बारे में सबकुछ जान पा रहा था और उनकी हरेक बात सुन पा रहा था। मैंने उनके सूक्ष्मशरीर में रहकर उन्हींको जवाब भी दिया, जिसे उन्होंने ध्यान से सुना, पर वैसे ही आत्म-भाषा में। फिर सम्भवतः जब मैं अपना जागृति से संबंधित अनुभव याद करने के लिए अपने सूक्ष्मशरीर में आने लगा, तब मेरे मस्तिष्क में विचारों का शोर बढ़ने लगा, जिससे सम्पर्क टूट गया। पर मुख्य बात मैंने बता दी थी। शायद मकानमालिक ने घुसपैठिये को किक मारके भगा दिया था। हाहाहा। हो सकता है बहुत से कारण रहे हो पर सबसे मुख्य वजह यह डर लगता है कि कहीं मैं उनके सूक्ष्मशरीर में हमेशा के लिए कैद न हो जाऊं, और मेरे सूक्ष्मशरीर को खाली जानकर उनकी आत्मा उसपर कब्जा न कर लें। भाई पहले अपना घर बचाना था, न कि किसी की मदद करनी थी। वैसे भी अधिकांश मामलों में कोई दूसरे के सूक्ष्मशरीर में ज्यादा देर नहीँ ठहर सकता, जैसे कोई अतिथि बनकर किसीके घर पर कब्जा नहीँ कर सकता। सम्भवतः परकायाप्रवेश सिद्धि इसीका उत्कृष्ट रूप हो, जिसमें सूक्ष्मशरीर के मालिक आत्मा को भगाकर अतिथि आत्मा स्थायी तौर पर बस जाती है। कहते हैं कि आदि शंकराचार्य इसमें पारंगत थे। शास्त्रों में एक कथा आती है, जिसमें राजकुमार पुरु ने अपने वृद्ध पिता और राजा ययाति को अपनी जवानी दान दे दी थी। यह तभी हो सकता है, जब उन्होंने अपने सूक्ष्मशरीर एकदूसरे के साथ बदल दिए हों। मैंने बचपन में एक तथाकथित सत्य घटना का वर्णन पढ़ा-सुना था, जिसके अनुसार एक अंग्रेज अधिकारी कहता है कि उसने एक वृद्ध योगी बाबा को झाड़ियों के बीच में से एक नौजवान की लाश घसीटते देखा। कुछ देर के बाद वह नौजवान जिन्दा होकर किश्ती में सवार होकर नदी पार कर रहा था। मतलब साफ है कि योगी ने अपने शरीर सूक्ष्म को अपने बूढ़े शरीर से बाहर निकालकर नौजवान के मृत शरीर में प्रविष्ट करा दिया था ताकि वह लम्बे समय तक और योग कर पाता। अब पता नहीँ यह सच है कि ढोंग है कि जब किसी के शरीर में बाहरी प्रेतात्मा का कब्जा हो जाता है, जिससे उस आदमी का मन व शरीर उसके कब्जे में आ जाता है। इसे तंत्र-मंत्र आदि से ठीक करवा दिया जाता है। कुछ तो बात जरूर है, जिसे आध्यात्मिक विज्ञान ही ज्यादा अच्छे से समझ सकता है, भौतिक विज्ञान नहीं।

कुंडलिनी जागरण को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करने वाले शारीरिक चिह्न या मार्कर की खोज से ही असली आध्यात्मिक सामाजिक युग की शुरुआत हो सकती है 

दोस्तो, मैं पिछले हफ्ते की पोस्ट में बता रहा था कि कैसे जनेऊ आदमी की कुंडलिनी को संतुलित और मजबूत करता है। विभिन्न कामों के बीच में इसके बाएं बाजू की तरफ खिसकते रहने से आदमी का ध्यान इस पर जाता रहता है, और कई बार वह इसे सीधा करने का प्रयास भी करता है। इससे उसका ध्यान खुद ही कुंडलिनी की तरफ जाता रहता है, क्योंकि जनेऊ कुंडलिनी और ब्रह्म का प्रतीक ही तो है। शौच के समय इसे दाएं कान पर इसलिए लटकाया जाता है, क्योंकि उस समय इड़ा नाड़ी का प्रभाव ज्यादा होता है। इसके शरीर के दाएं तरफ आने से मस्तिष्क के बाएं हिस्से अर्थात पिंगला नाड़ी को बल मिलता है। शौच की क्रिया को भी अक्सर स्त्रीप्रधान कहा जाता है, और इड़ा नाड़ी भी स्त्री प्रधान ही होती है। इसको संतुलित करने के लिए पुरुषप्रधान पिंगला नाड़ी को सक्रिय करना पड़ता है, जो मस्तिष्क के बाएं हिस्से में होती है। जनेऊ को दाएं कान पर टांगने से यह काम हो जाता है। शौच के दौरान साफसफाई में भी बाएं हाथ का प्रयोग ज्यादा होता है, जिससे भी दाएं मस्तिष्क में स्थित इड़ा नाड़ी को बल मिलता है। वैसे तो शरीर के दाएं अंग ज्यादा क्रियाशील होते हैँ, जैसे कि दायां हाथ, दायां पैर ज्यादा मजबूत होते हैं। ये मस्तिष्क के पिंगला प्रधान बाएं हिस्से से नियंत्रित होते हैं। मस्तिष्क का यह पिंगला प्रधान बायां हिस्सा इसके इड़ा प्रधान दाएं हिस्से से ज्यादा मजबूत होता है आमतौर पर। जनेऊ के शरीर के बाएं हिस्से की तरफ खिसकते रहने से यह अप्रत्यक्ष तौर पर मस्तिष्क के दाएं हिस्से को मजबूती देता है। सीधी सी बात के तौर पर इसे यूँ समझो जैसा कि पिछली पोस्ट में बताया गया था कि शौच के समय कुंडलिनी ऊर्जा का स्रोत मूलाधार सक्रिय रहता है। उसकी ऊर्जा कुंडलिनी को तभी मिल सकती है, यदि इड़ा और पिंगला नाड़ी समान रूप से बह रही हों। इसके लिए शरीर के बाएं भाग का बल जनेऊ धागे से खींच कर दाएं कान तक और अंततः दाएं मस्तिष्क तक पहुंचाया जाता है। इससे आमतौर पर शिथिल रहने वाला दायां मस्तिष्क मज़बूत हो जाता है। इससे मस्तिष्क के दोनों भाग संतुलित होने से आध्यात्मिक अद्वैत भाव बना रहता है। वैसे भी उपरोक्तानुसार कुंडलिनी या ब्रह्म का प्रतीक होने से जनेऊ लगातार कुंडलिनी का स्मरण बना कर रखता ही है। अगर किसी कारणवश जनेऊ को शौच के समय कान पर रखना भूल जाओ, तो बाएं हाथ के अंगूठे से दाहिने कान को स्पर्श करने को कहा गया है, मतलब एकबार दाहिने कान को पकड़ने को कहा गया है। इससे बाएं शरीर को भी शक्ति मिलती है और दाएं मस्तिष्क को भी, क्योंकि बाएं शरीर की इड़ा नाड़ी दाएं मस्तिष्क में प्रविष्ट होती है। वैसे भी दायाँ कान दाएं मस्तिष्क के निकट ही है। इससे दाएं मस्तिष्क को दो तरफ से शक्ति मिलती है, जिससे वह बाएं मस्तिष्क के बराबर हो जाता है। यह अद्भुत प्रयोगात्मक आध्यात्मिक मनोविज्ञान है। मेरे यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर मुझे अपनी नजरों में एक बेहतरीन संतुलित व्यक्ति मानते थे, एक बार तो उन्होंने एक परीक्षा के दौरान ऐसा कहा भी था। सम्भवतः वे मेरे अंदर के प्रथम अर्थात स्वप्नकालिक क्षणिक जागरण के प्रभाव को भांप गए थे। सम्भवतः मेरे जनेऊ का भी मेरे संतुलित व्यक्तित्व में बहुत बड़ा हाथ हो। वैसे पढ़ाई पूरी करने के बाद एकबार मैंने इसके बाईं बाजू की तरफ खिसकने को काम में रुकावट डालने वाला समझ कर कुछ समय के लिए इसे पहनना छोड़ भी दिया था, पर अब समझ में आया कि वैसा काम में रुकावट डालने के लिए नहीं था, अपितु नाड़ियों को संतुलित करने के लिए था। कोई यदि इसे लम्बा रखकर पेंट के अंदर से टाइटली डाल के रखे, तब यह बाईं बाजू की तरफ न खिसकते हुए भी लाभ ही पहुंचाता है, क्योंकि बाएं कंधे पर टंगा होने के कारण फिर भी इसका झुकाव बाईं तरफ को ही होता है।

कुंडलिनी जागरण से परोक्ष रूप से लाभ मिलता है, प्रत्यक्ष रूप से नहीं

पिछली पोस्ट में बताए गए कुंडलिनी जागरण रूपी प्रकृति-पुरुष विवेक से मुझे कोई सीधा लाभ मिलता नहीं दिखता। इससे केवल यह अप्रत्यक्ष लाभ मिलता है कि पूर्ण व प्रकृतिमुक्त शुद्ध पुरुष के अनुभव से प्रकृति-पुरुष के मिश्रण रूपी जगत के प्रति इसी तरह आसक्ति नष्ट हो जाती है, जैसे सूर्य के सामने दीपक फीका पड़ जाता है। जैसे शुद्ध चीनी खा लेने के बाद कुछ देर तक चीनी-मिश्रित चाय में मिठास नहीं लगती, उसी तरह शुद्ध पुरुष के अनुभव के बाद कुछ वर्षो तक पुरुष-मिश्रित जगत से रुचि हट जाती है। इससे आदमी के व्यवहार में सुधार होता है, और वह प्रकृति से मुक्ति की तरफ कदम दर कदम आगे बढ़ने लगता है। मुक्ति तो उसे इस तरह की मुक्त जीवनपद्धति से लम्बा जीवन जीने के बाद ही मिलती है, एकदम नहीं। तो फिर कुंडलिनी जागरण का इंतजार ही क्यों किया जाए, क्यों न सीधे ही मुक्त लोगों की तरह जीवन जिया जाए। मुक्त जीवन जीने में वेद-पुराण या शरीरविज्ञान दर्शन पुस्तक बहुत मदद करते हैं।आदमी चाहे तो अपने ऐशोआराम का दायरा बढ़ा कर कुंडलिनी जागरण के बाद भी ऐसे मुक्त व्यवहार को नकार सकता है, क्योंकि आदमी को हमेशा स्वतंत्र इच्छा मिली हुई है, बाध्यता नहीं। यह ऐसे ही है जैसे वह चाय में ज्यादा चीनी घोलकर चीनी खाने के बाद भी चाय की मिठास हासिल कर सकता है। ऐसा करने से तो उसे भी आम जागृतिरहित आदमी की तरह कोई लाभ नहीं मिलेगा। कोई बुद्धिमान आदमी चाहे तो ऐशोआराम के बीच भी उसकी तरफ मन से अरुचि बनाए रखकर या बनावटी रुचि पैदा करके कुंडलिनी जागरण के बिना ही उससे मिलने वाले लाभ को प्राप्त कर सकता है। यह ऐसे ही है जैसे कोई व्यक्ति व्यायाम आदि से या चाय में कृत्रिम स्वीटनर डालकर नुकसानदायक चीनी से दूरी बना कर रख सकता है।

दूसरों के भीतर कुण्डलिनी प्रकाश दिखना चाहिए, उसका जनक नहीं

पिछली पोस्ट के अनुसार, लोग तांत्रिकों के आहार-विहार को देखते हैं, उनकी कुंडलिनी को नहीं। इससे वे गलतफहमी में उनका अपमान कर बैठते हैं, और दुख भोगते हैं। भगवान शिव का अपमान भी प्रजापति दक्ष ने इसी गलतफहमी में पड़कर किया था। इसी ब्लॉग की एक पोस्ट में मैंने दक्ष द्वारा शिव के अपमान और परिणामस्वरूप शिव के गणों द्वारा दक्ष यज्ञ के विध्वन्स की कथा रहस्योदघाटित की थी। कई लोगों को लग सकता है कि यह वैबसाईट हिन्दुप्रचारक है। पर दरअसल ऐसा नहीं है। यह वैबसाईट कुंडलिनी प्रचारक है। जिस किसी भी प्रसंग में कुंडलिनी दिखती है, चाहे वह किसी भी धर्म या संस्कृति से संबंधित क्यों न हो, यह वैबसाईट उसे उठा लेती है। अब क्योंकि सबसे ज्यादा कुंडलिनी-प्रसंग हिन्दु धर्म में ही हैं, इसीलिए यह वैबसाईट हिन्दु रंग से रंगी लगती है।

कुंडलिनी योगी चंचलता योगी की स्तरोन्नता से भी बनता है

इस हफ्ते मुझे एक और अंतरदृष्टि मिली। एक दिन एक आदमी मुझे परेशान जैसे कर रहा था। ऊँची-ऊँची बहस किए जा रहा था। अपनी दादागिरी जैसी दिखा रहा था। मुझे जरूरत से ज्यादा प्रभावित और मेनीपुलेट करने की कोशिश कर रहा था। स्वाभाविक था कि उसका वह व्यवहार व उसके जवाब में मेरा व्यवहार आसक्ति और द्वैत पैदा करने वाला था। हालांकि मैं शरीरविज्ञान दर्शन के स्मरण से आसक्ति और द्वैत को बढ़ने से रोक रहा था। वह दोपहर के भोजन का समय था। उससे वार्तालाप के कारण मेरा लंच का समय और दिनों की अपेक्षा आगे बढ़ रहा था, जिससे मुझे भूख भी लग रही थी। फिर वह चला गया, जिससे मुझे लंच करने का मौका मिल गया। शाम को मैं रोजमर्रा के योगाभ्यास की तरह कुंडलिनी योग करते समय अपने शरीर के चक्रोँ का नीचे की तरफ जाते हुए बारी-बारी से ध्यान कर रहा था। जब मैं मणिपुर चक्र में पहुंच कर वहाँ कुंडलिनी ध्यान करने लगा, तब दिन में बहस करने वाले उस आदमी से संबंधित घटनाएं मेरे मानस पटल पर आने लगीं। क्योंकि नाभि में स्थित मणिपुर चक्र भूख और भोजन से संबंधित होता है, इसीलिए उस आदमी से जुड़ी घटनाएं उसमें कैद हो गईं या कहो उसके साथ जुड़ गईं, क्योंकि उससे बहस करते समय मुझे भूख लगी थी। क्योंकि यह सिद्धांत है कि मन में पुरानी घटना के शुद्ध मानसिक रूप में स्पष्ट रूप में उभरने से उस घटना का बीज ही खत्म हो जाता है, और मन साफ हो जाता है, इसलिए उसके बाद मैंने मन का हल्कापन महसूस किया। प्रायश्चित और पश्चाताप को इसीलिए किसी भी पाप की सबसे बड़ी सजा कहा जाता है, क्योंकि इनसे पुरानी पाप की घटनाएं शुद्ध मानसिक रूप में उभर आती हैं, जिससे उन बुरे कर्मों का बीज ही नष्ट हो जाता है। जब कर्म का नामोनिशान ही नहीं रहेगा, तो उससे फल कैसे मिलेगा। जब पेड़ का बीज ही जल कर राख हो गया, तो कैसे उससे पेड़ उगेगा, और कैसे उस पर फल लगेगा। इसी तरह हरेक कर्म किसी न किसी चक्र से बंध जाता है। उस कर्म के समय आदमी में जिस चक्र का गुण ज्यादा प्रभावी हो, वह कर्म उसी चक्र में सबसे ज्यादा बंधता है। वैसे तो हमेशा ही आदमी में सभी चक्रोँ के गुण विद्यमान होते हैं, पर किसी एक विशेष चक्र का गुण सबसे ज्यादा प्रभावी होता है। भावनात्मक अवस्था में अनाहत चक्र ज्यादा प्रभावी होता है। यौन उत्तेजना या रोमांस में स्वाधिष्ठान चक्र ज्यादा प्रभावी होता है। मूढ़ता में मूलाधार, मधुर बोलचाल के समय विशुद्धि, बौद्धिक अवस्था में अज्ञाचक्र और ज्ञान या अद्वैत भाव की अवस्था में सहस्रार चक्र ज्यादा प्रभावी होता है। इसीलिए योग करते समय बारीबारी से सभी चक्रोँ पर कुंडलिनी ध्यान किया जाता है ताकि सबमें बंधे हुए विविध प्रकार के आसक्तिपूर्ण कर्मों के संस्कार मिट सकें। मेरा आजतक का अधिकांश जीवन रोमांस और यौन उत्तेजना के साथ बीता है, ऐसा मुझे लगता है, इसलिए मेरे अधिकांश कर्म स्वाधिष्ठान चक्र से बंधे हैं। सम्भवतः इसीलिए मुझे स्वाधिष्ठान चक्र पर कुंडलिनी ध्यान से सबसे ज्यादा राहत मिलती है। आसक्ति के कारण ही चक्र ब्लॉक हो जाते हैं, क्योंकि कुंडलिनी ऊर्जा उन पर एकत्रित होती रहती है, और ढंग से घूम नहीं पाती। तभी तो आपने देखा होगा कि जो लोग चुस्त और चंचल होते हैं, वे हरफनमौला जैसे होते हैं। हरफनमौला वे इसीलिए होते हैं क्योंकि वे किसी भी विषय से ज्यादा देर चिपके नहीं रहते, जिससे किसी भी विषय के प्रति उनमें आसक्ति पैदा नहीं होती। वे लगातार विषय बदलते रहते हैं, इसलिए वे चंचल लगते हैं। वैसे चंचलता को अध्यात्म की राह में रोड़ा माना जाता है, पर तंत्र में तो चंचलता का गुण मुझे सहायक लगता है। ऐसा लगता है कि तंत्र के प्रति कभी इतनी घृणा पैदा हुई होगी आम जनमानस में कि इससे जुड़े सभी विषयों को घृणित और अध्यात्मविरोधी माना गया। इसी चंचलता से उत्पन्न अनासक्ति से कुंडलिनी ऊर्जा के घूमते रहने से ही चंचल व्यक्ति ऊर्जावान लगता है। स्त्री स्वभाव होने के कारण चंचलता भी मुझे तंत्र के पंचमकारों का अंश ही लगती है। बौद्ध दर्शन का क्षणिकवाद भी तो चंचलता का प्रतीक ही है। मतलब कि सब कुछ क्षण भर में नष्ट हो जाता है, इसलिए किसी से मन न लगाओ। बात भी सही और वैज्ञानिक है, क्योंकि हरेक क्षण के बाद सब कुछ बदल जाता है, बेशक स्थूल नजर से वैसा न लगे। इसलिए किसी चीज से चिपके रहना मूर्खता ही लगती है। पर तार्किक लोग पूछेंगे कि फिर बुद्धिस्ट लोग ध्यान के बल से एक ही कुंडलिनी से क्यों चिपके रहते हैं उम्रभर। तो इसका जवाब है कि कुंडलिनी के इलावा अन्य सभी कुछ से अपनी चिपकाहट छुड़ाने के लिए ही वे कुंडलिनी से चिपके रहते हैं। गोंद सारा कुंडलिनी को चिपकाने में खर्च हो जाता है, बाकि दुनिया को चिपकाने के लिए बचता ही नहीं। पूर्णावस्था प्राप्त होने पर तो कुंडलिनी से भी चिपकाहट खुद ही छूट जाती है। इसीलिए मैं चंचलता को भी योग ही मानता हुँ, अनासक्ति योग। चंचलता योग भी कुंडलिनी योग की तरफ ले जाता है। जब आदमी कभी ऐसी अवस्था में पहुंचता है कि वह चंचलता योग को जारी नहीं रख पाता है, तब वह खुद ही कुंडलिनी योग की तरफ झुक जाता है। उसे अनासक्ति का चस्का लगा होता है, जो उसे चंचलता योग की बजाय कुंडलिनी योग से मिलने लगती है। चंचलता के साथ जब शरीरविज्ञान दर्शन जैसी अद्वैत भावना का तड़का लगता है, तब वह चंचलता योग बन जाती है। हैरानी नहीं होनी चाहिए यदि मैं कहूँ कि मैं चंचलता योगी से स्तरोन्नत होकर कुंडलिनी योगी बना। चंचलता योग को कर्मयोग का पर्यायवाची शब्द भी कह सकते हैं क्योंकि दोनों में कोई विशेष भेद नहीं है। कई बार कुंडलिनी योगी को डिमोट होकर फिर से चंचलता योगी भी बनना पड़ता है। यहाँ तक कि जागृत व्यक्ति की डिमोशन भी हो जाती है, बेशक दिखावे के लिए या दुनियादारी के पेचीदे धंधे चलाने के लिए ही सही। प्राचीन भारत में जागृत लोगों को अधिकांशतः संन्यासी बना दिया जाता था। सम्भवतः यह इसलिए किया जाता था ताकि हर कोई अपने को जागृत बताकर मुफ्त की सामाजिक सुरक्षाएं प्राप्त न करता। संन्यास के सारे सुखों को छोड़ने के भय से संभावित ठग अपनी जागृति का झूठा दावा पेश करने से पहले सौ बार सोचता। इसलिए मैं वैसी सुरक्षाओं को अपूर्ण मानता हुँ। क्या लाभ ऐसी सुरक्षाओं का जिसमें आदमी खुलकर सुख ही न भोग सके, यहाँ तक कि सम्भोग सुख भी। मैं तो ओशो महाराज वाले सम्पन्न संन्यास को बेहतरीन मानता हुँ, जिसमें वे सभी सुख सबसे बढ़कर भोगते थे, वह भी संन्यासी रहते हुए। सुना है कि उनके पास बेहतरीन कारों का जखीरा होता था स्वयं के ऐशोआराम के लिए। हालांकि मुझे उनकी अधिकांश प्रवचन शैली वैज्ञानिक या व्यावहारिक कम और दार्शनिक ज्यादा लगती है। वे छोटीछोटी बातों को भी जरूरत से ज्यादा गहराई और बोरियत की हद तक ले जाते थे। यह अलग बात है कि फिर भी उनके प्रवचन मनमोहक या सममोहक जैसे लगते थे कुछ देर के लिए। मैं खुद भी उनकी एक पुस्तक से उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर प्रेरित हुआ हुँ। उस पुस्तक का नाम था, तंत्र, अ सुप्रीम अंडरस्टेंडिंग। हालांकि उसे पढ़ कर ऐसा लगा कि छोटी सी बात समझने के लिए बहुत समय लगा और बहुत विस्तृत या सजावटी लेख पढ़ना पड़ा। दरअसल उनकी शैली ही ऐसी है। उनकी रचनाएं इतनी ज्यादा व्यापक और विस्तृत हैं कि उनमें से अपने काम की चीज ढूंढना उतना ही मुश्किल है, जितना भूसे में सुई ढूंढना है। यह मेरी अपनी सीमित सोच है। हो सकता है कि यह गलत हो। आज के व्यस्त युग में इतना समय किसके पास है। फिर भी उनके विस्तार में जो जीवंतता, व्याव्हारिकता और सार्थकता है, वह अन्य विस्तारों में दृष्टिगोचर नहीं होती। मैं अगली पोस्ट में इस पर थोड़ा और प्रकाश डालूंगा। सभी जागृत लोगों को विज्ञान ही ऐसा सम्पन्न संन्यास उपलब्ध करा सकता है। शरीर या मस्तिष्क में जागृति को सिद्ध करने वाला चिन्ह या मार्कर जरूर होता होगा, जिसे विज्ञान से पकड़ा जा सके। फिर वैसे मार्कर वाले को जागृत पुरुष की उपाधि और उससे जुड़ी सर्वश्रेष्ठ सुविधाएं वैसे ही दी जाएंगी, जैसे आज डॉक्टरेट की परीक्षा पास करने वाले आदमी को दी जाती हैं। फिर सभी लोग जागृति की प्राप्ति के लिए प्रेरित होंगे जिससे सही में आध्यात्मिक समाज का उदय होगा।

मैदानी क्षेत्रों में तंत्रयोग निर्मित मुलाधार में कुंडलिनी शक्ति का दबाव पहाड़ों में सहस्रार की तरफ ऊपर चढ़कर कम हो जाता है 

जिन पंचमकारों की ऊर्जा से आदमी कुंडलिनी जागरण के करीब पहुंचता है, वे कुंडलिनी जागरण में बाधक भी हो सकते हैं तांत्रिक कुंडलिनी सम्भोग को छोड़कर। दरअसल कुंडलिनी जागरण सत्वगुण की चरमावस्था से ही मिलता है। कुंडलिनी सम्भोग ही सत्वगुण को बढ़ाता है, अन्य सभी मकार रजोगुण और तमोगुण को ज्यादा बढ़ाते हैं। सतोगुण से ही कुंडलिनी सहस्रार में रहती है, और वहीं पर जागरण होता है, अन्य चक्रोँ पर नहीं। दरअसल सतोगुण से आदमी का शरीर सुस्त व ढीला व थकाथका सा रहता है। हालांकि मन और शरीर में भरपूर जोश और तेज महसूस होता है। पर वह दिखावे का ज्यादा होता है। मन और शरीर पर काम का जरा सा बोझ डालने पर भी शरीर में कंपन जैसा महसूस होता है। आनंद बना रहता है, क्योंकि सहस्रार में कुंडलिनी क्रियाशीलता बनी रहती है। यदि तमोगुण या रजोगुण का आश्रय लेकर जबरदस्ती बोझ बढ़ाया जाए, तो कुंडलिनी सहस्रार से नीचे उतर जाती है, जिससे आदमी की दिव्यता भी कम हो जाती है। फिर दुबारा से कुंडलिनी को सहस्रार में क्रियाशील करने के लिए कुछ दिनों तक समर्पित तांत्रिक योगाभ्यास करना पड़ता है। यदि साधारण योगाभ्यास किया जाए तो बहुत दिन या महीने लग सकते हैं। गुणों के संतुलित प्रयोग से तो कुंडलिनी पुरे शरीर में समान रूप से घूमती है, पर सहस्रार में उसे क्रियाशील करने के लिए सतोगुण की अधिकता चाहिए। ऐसा समझ लो कि तीनों गुणों के संतुलन से आदमी नदी में तैरता रह पाता है, और सतोगुण की अधिकता में बीचबीच में पानी में डुबकी लगाता रहता है। डुबकी तभी लगा पाएगा जब तैर रहा होगा। शांत सतोगुण से जो ऊर्जा की बचत होती है, वह कुंडलिनी को सहस्रार में बनाए रखने के काम आती है। ऊर्जा की बचत के लिए लोग साधना के लिए एकांत निवास ढूंढते हैं। गाँव देहात या पहाड़ों में इतना ज्यादा शारीरिक श्रम करना पड़ता है कि वीर्य शक्ति को ऊपर चढ़ाने के लिए ऊर्जा ही नहीं बचती। इसीलिए वहाँ तांत्रिक सम्भोग का कम बोलबाला होता है। हालांकि पहाड़ और मैदान का मिश्रण तंत्र के लिए सर्वोत्तम है। पहाड़ की प्राकृतिक शक्ति प्राप्त करने से तरोताज़ा आदमी मैदान में अच्छे से तांत्रिक योगाभ्यास कर पाता है। बाद में उस मैदानी अभ्यास के पहाड़ में ही कुंडलिनी जागरण के रूप में फलीभुत होने की ज्यादा सम्भावना होती है, क्योंकि वहाँ के विविध मनमोहक प्राकृतिक नज़ारे कुंडलिनी जागरण के लिए चिंगारी का काम करते हैं। मैदानी क्षेत्रों में तंत्रयोग निर्मित मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्रोँ से जुड़े अंगों में कुंडलिनी शक्ति का दबाव पहाड़ों में सहस्रार की तरफ ऊपर चढ़कर कम हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि पहाड़ों की गगनचुम्बी पर्वतश्रृंखलाएं कुंडलिनी को ऊपर की ओर खींचती हैं। पहाड़ों में गुरुत्वाकर्षण कम होने से भी कुंडलिनी शक्ति मूलाधार से ऊपर उठती रहती है, जबकि मैदानों में गुरुत्व बल अधिक होने से वह मूलाधार के गड्ढे में गिरते रहने की चेष्टा करती है। दरअसल कुंडलिनी शक्ति सूक्ष्म रूप में उस खून में ही तो रहती है, जो नीचे की ओर बहता है। सम्भवतः जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने पहाड़ों के इसी दिव्यगुण के कारण इन्हें चार धाम यात्रा में प्रमुखता से शामिल किया था। इसी वजह से पहाड़ पर्यटकों से भरे रहते हैं। सम्पन्न लोग तो एक घर पहाड़ में और एक घर मैदान में बनाते हैं। सम्भवतः भारत को इसीलिए कुंडलिनी राष्ट्र कहा जाता है, क्योंकि यहाँ मैदानों और पहाड़ों का अच्छा और अनुकूल अनुपात है। सादे आहारविहार वाले तो इस वजह से शक्ति अवशोषक सम्भोग को ही घृणित मानने लगते हैं। इसी वजह से तंत्र का विकास पंजाब जैसे अनुकूल भौतिक परिवेशों में ज्यादा हुआ। इसी तरह बड़े शहरों में आराम तो मिलता है, पर शांति नहीं। इससे ऊर्जा की बर्बादी होती है। इसीलिए छोटे, अच्छी तरह से प्लानड और शांत, सुविधाजनक, मनोरम व अनुकूल पर्यावरण वाले स्थानों पर स्थित, विशेषकर झील आदि विशाल जलराशि युक्त स्थानों पर स्थित शहर तंत्रयोग के लिए सर्वोत्तम हैं। राजोगुण और तमोगुण से शरीर की क्रियाशीलता पर विराम ही नहीं लगता, जिससे ऊर्जा उस पर खर्च हो जाती है, और कुंडलिनी को सहस्रार में बनाए रखने के लिए कम पड़ जाती है। बेशक दूसरे चक्रोँ पर कुंडलिनी भरपूर चमकती है, पर वहाँ जागरण नहीं होता। सम्भवतः यह अलग बात है कि एक निपुण तांत्रिक सभी पंचमकारों के साथ भी सत्त्वगुण बनाए रख सकता है। जब कुंडलिनी सहस्रार में क्रियाशील होती है तो खुद ही सतोगुण वाली चीजों की तरफ रुझान बढ़ जाता है, और रजोगुण या तमोगुण वाली चीजों के प्रति अरुचि पैदा हो जाती है। यह अलग बात है कि कुंडलिनी को सहस्रार के साथ सभी चक्रोँ में क्रियाशील करने के लिए तीनों गुणों की संतुलित अवस्था के साथ पर्याप्त ऊर्जा की उपलब्धता की महती भूमिका है। हालांकि कुंडलिनी जागरण सतोगुण की प्रचुरता वाली अवस्था में ही प्राप्त होता है।

 

कुंडलिनी ही सांख्य दर्शन का पुरुष है, जिसका समाधि रूपी कुंडलिनी जागरण के द्वारा पूर्ण व प्रकृति से पृथक रूप में अनुभव ही योग का मुख्य ध्येय है 

दोस्तो, पिछली पोस्ट में मैं कुंडलिनी के बारे में कुछ दुर्लभ रहस्य साझा कर रहा था। गुरु आदि अपने देह स्वरूप में जितने ज्यादा जीवंत और आध्यात्मिक होते हैं, कुंडलिनी के रूप में उनका मानसिक रूप भी उतना ही ज्यादा मजबूत होता है। यहाँ तक कि वह आंतरिक मानसिक रूप इतना मजबूत होता है कि उसके आगे दूसरे मानसिक रूप या विचार तो फीके पड़ते ही हैं, पर साथ में सारे बाहरी भौतिक रूप भी फीके पड़ जाते हैं। कृष्ण और राम ऐसे ही कुंडलिनी पुरुष थे, इसीलिए उन्हें अवतार माना जाता है। उनके कुंडलिनी रूप अर्थात ध्यान रूप से अनगिनत लोग संसारसागर से तर गए। युगों बीत गए, पर आज भी वे असरदार हैं। वैसे तो कुंडलिनी पुरुष में सभी मानवीय और आध्यात्मिक गुण होने चाहिए, पर निःस्वार्थ भाव, निरहंकारता, और उदारता इनमें सबसे महत्वपूर्ण गुण प्रतीत होते हैं। आप खुद ही सोचो कि अगर कोई अपने स्वार्थ, अहंकार और संकीर्णता के भाव को जरा भी प्रदर्शित करता है, तो उससे बनी-बनाई दोस्ती भी बिगड़ जाती है, प्रेम गया तेल लेने। और जहाँ प्रेम नहीं, वहाँ कुंडलिनी भी नहीं, क्योंकि कुंडलिनी प्रेमपूर्ण मानसिक चिंतन के आश्रित ही तो है। मैं एक संयुक्त और सामाजिक परिवार में पला-बढ़ा। चारों ओर प्रेमपूर्ण व्यवहार का बोलबाला होता था। थोड़ी-बहुत खटपट तो तब भी होती थी, पर तब वह गौण और निंदनीय होती थी, आजकल की तरह मुख्य और प्रशंसनीय नहीं। आज तो अगर कोई किसी के बुरे व्यवहार के बारे में शिकायत भी करे, तो भी उसे ही किनारे लगाया जाता है, उसके साथ ज्यादा से ज्यादा दिखावे की सहानुभूति प्रदर्शित करके। प्रश्नकर्ता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाया जाता है। इसलिए चुप ही रहना पड़ता है। उस समय तो बुरा वर्ताव करने वालों की समाज के द्वारा खटिया खड़ी करके रख दी जाती थी। उस समय ज्यादातर लोगों में निःस्वार्थता और उदारता भरी होती थी। आँगन में आया हुआ कोई भी आदमी हो या जानवर, भूखा-प्यासा नहीं जाता था। परिचितों या रिश्तेदारों के बीच एक-दुसरे के परिवारों और घरों में स्थायी तौर पर बस जाने का रिवाज़ आम होता था, क्योंकि एकदूसरों के ऊपर विश्वास होता था, छोटामोटा धोखा खाते रहने के बाद भी। आजकल तो लोगों के पास मेहमानों के लिए, और यहाँ तक कि अपने परिवार के लिए भी समय नहीं है। उस समय अपनों से ज्यादा दूसरों को सम्मान व सुविधाएं देने का प्रयास किया जाता था। आज तो परिवार के असली सदस्य को भी यह महसूस नहीं होता कि वह उस परिवार का सदस्य है।

पिछली पोस्ट के अनुसार, कुंडलिनी को मूलाधार चक्र में इसीलिए सोया हुआ कहते हैं, क्योंकि वह वहाँ अनभिव्यक्त होती है, नष्टभूत नहीं। आदमी नींद में अनभिव्यक्त रहता है, नष्टभूत नहीं। वह सुबह होने पर फिर जाग जाता है। जिस चीज का अस्तित्व है, वह कभी नष्ट नहीं हो सकती, केवल अनभिव्यक्त हो सकती है। समय आने पर वह अभिव्यक्त भी जरूर होगी, क्योंकि अनभिव्यक्ति से अभिव्यक्ति के बीच में रूप बदलते रहना प्रकृति का स्वभाव है। चक्र नाम भी ग्रहीय कक्षाओं से पड़ा है, ऐसा लगता है मुझे। जैसे सौरमंडल में ग्रहों की या परमाणु के अंदर इलेक्ट्रोनों की अलगलग गोलाकार कक्षाएं अलगलग ऊर्जा स्तरों को दर्शाती हैं, उसी तरह अलग-अलग कुंडलिनी चक्र भी कुंडलिनी अर्थात मन की अभिव्यक्ति रूपी ऊर्जा के अलगलग स्तरों को दर्शाते हैं। चक्र का मतलब ही पहिए के जैसा गोल घेरा होता है। कुंडलिनी के आगे से पीछे के चक्र को और पीछे से आगे के चक्र को जाते रहने को कुंडलिनी का गोलाकार घेरे में घूमना भी कह सकते हैं। यह ऐसे ही है जैसे इंजन के पिस्टन की आगे-पीछे की गति करैंक शाफ़्ट से जुड़े फ्लाइ व्हील की गोलाकार गति में बदल जाती है।

मैं यह भी बता रहा था कि कैसे हरेक जीव में, यहाँ तक कि घोरतम अन्धकारमय योनियों और अवस्थाओं में भी उसी तरह परमात्मा बसा होता है, जैसे एक छोटे से बीज में विशाल वृक्ष छिपा होता है। बेशक उन अवस्थाओं में परमात्मा सर्वाधिक अव्यक्त या अनभिव्यक्त होता है, पर पूर्णतः नहीं। इसीलिए वैदिक सांख्य दर्शन में घोरतम मूल प्रकृति को अव्यक्त या प्रधान भी कहते हैं। इसे भी परमात्मा की तरह अनादि और अनंत कहा गया है। यही शक्ति या पवित्र भूत है। यहीं से सभी जीवों की आत्मा आती है। इसीलिए तो यदि सभी जीवात्माएं एकसाथ भी मुक्त हो जाएं, तो भी नए जीव पैदा होते ही रहेंगे, क्योंकि उनकी जीवात्माओं का स्रोत मूल प्रकृति तो अविनाशी है। मुक्ति के बाद जीवात्मा फिर कभी भी मूल प्रकृति की तरफ वापिस नहीं लौटता। वह उसकी पकड़ से हमेशा के लिए छूट जाता है, क्योंकि वह परमात्मा से एकाकार हो जाता है। ऐसा शास्त्रों का कहना है। मेरा अपना छोटा सा अनुभव भी यही कहता है। मुझे सपने में केवल दस सेकंड की आत्मज्ञान जैसी अनुभूति की झलक मिली थी। उसने मुझे लम्बे समय तक दुनिया से अलगथलग सा मतलब अनासक्त बना कर रखा। मुझे पूरी तरह वापिस आने में लगभग दस साल लग गए। तो सोचिए, जब सपने में दस सेकंड के लिए परमात्मा से एकाकार जैसे होने पर (वह भी पूरी तरह से एकाकार नहीं) आदमी दुनिया के चंगुल से छूटने के करीब पहुंच जाता है, तब जो परमात्मा अनादि काल से अपने पूर्ण स्वरूप में स्थित है, वह कैसे इसके चंगुल में फंस सकता है। जीवित अवस्था में ऐसी पूर्ण अवस्था को लाखों में एक-आध लोग ही प्राप्त कर पाते होंगे, आज के भौतिक युग में तो इतने भी नहीं लगते मुझे। कुंडलिनी जागरण और पूर्ण अवस्था में तो जमीन और आसमान का फर्क है। कुंडलिनी जागरण तो सिर्फ एक शुरुवात भर है मुक्तियात्रा की। सबसे पहले जो जीवात्मा बनी, वो कहाँ से आई? यह यक्ष प्रश्न बहुत से लोग उठाते रहते हैं। उपरोक्तानुसार ऐसा भी नहीं कह सकते कि वह परमात्मा से आई। और ऐसा भी नहीं कह सकते कि वह पहले थी ही नहीं, क्योंकि जो पदार्थ असल में है ही नहीं, वह पैदा नहीं हो सकता। कोई भी वस्तु कभी पैदा नहीं हो सकती, और न ही कभी नष्ट हो सकती है, सिर्फ रूप ही बदल सकती है। विज्ञान भी तो इसी भारतीय दर्शन की पुष्टि करता है। विज्ञान में इसे द्रव्यमान और ऊर्जा के संरक्षण का सिद्धांत कहते हैं, अर्थात प्रिंसिपल ऑफ़ मास एनर्जी कंजर्वेशन। मतलब कि जो चीज हमें नष्ट होती हुई सी लगती है, वह नष्ट न होकर पहले दृश्य ऊर्जा में और फिर अदृश्य ऊर्जा या डार्क एनर्जी में रूपांतरित हो जाती है। इसी सिद्धांत से परमाणु बम बना है, जिसकी धमकी रूस बारबार युक्रेन और नाटो के खिलाफ दे रहा है। शून्य का भी अपना अस्तित्व है। इसी शून्य को विज्ञान में काली ऊर्जा अर्थात डार्क एनर्जी कहते हैं। इसलिए यही मानना पड़ेगा कि शून्यरूप मूल प्रकृति से ही पहली जीवात्मा आई। इससे प्रकृति का अनादि और अनंत रूप खुद ही सिद्ध हो जाता है। अद्वैत वेदांत दर्शन के अनुसार तो मूल प्रकृति भी परमात्मा से भिन्न नहीं है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जैसा मैं पिछली पोस्टों में बता रहा था। अब मैं यह बताता हूँ कि ‘पवित्र भूत’ यह नाम मूल प्रकृति को क्यों दिया गया है। दरअसल यह परम अव्यक्त है, मतलब कि इसमें सब कुछ पूरी तरह से और बराबर मात्रा में अव्यक्त है। इसलिए यह बच्चे या परमात्मा की तरह निष्पक्ष हुई, जिसके लिए सब कुछ बराबर है। इसीलिए इसे सांख्य दर्शन के अनुसार समगुणावस्था भी कहते हैं। यानि कि इसमें स्थूल प्रकृति के सभी गुण या स्वभाव बराबर मात्रा में हैं, हालांकि अव्यक्त रूप में। मतलब कि अगर इससे कभी कुछ व्यक्त होएगा, तो सब कुछ बराबर मात्रा में होएगा, मतलब पूरी सृष्टि इससे अभिव्यक्त होएगी। सृष्टि में कुल मिलाकर सबकुछ बराबर ही होता है, प्लस और माईनस बराबर होते हैं। है तो यह भूत की तरह अन्धकारमय ही, पर है पवित्र। जबकि साधारण भूत में बुरे काम अव्यक्त रूप में ज्यादा छिपे होते हैं। इसलिए वे दूसरों का नुकसान करते हैं, और व्यक्त होने पर या जन्म लेने पर बुरे कर्म करते हैं। साधारण भूत के अँधेरे में ज्यादातर बुरे काम ही छिपे होते हैं, जबकि पवित्र भूत के अँधेरे में सम्पूर्ण सृष्टि छिपी होती है। हालांकि साधारण भूत के रूप में अच्छे काम भी छिपे हो सकते हैं, पर वे परमात्मा की तरह सम या बराबर या निष्पक्ष या निर्लिप्त नहीं होते। उनका झुकाव किसी विशेष कर्म या प्रवृत्ति की तरफ ज्यादा होता है। इसीलिए कहते हैं कि पवित्र भूत परमात्मा की तरफ ले जाता है। यह स्वाभाविक ही है क्योंकि दोनों में उपरोक्तानुसार बहुत सी समानताएं हैं। खासकर दोनों परिवर्तनरहित, अद्वैत रूप और अनासक्त हैं। यह पुस्तक शरीरविज्ञान दर्शन में बहुत अच्छे से दिखाया गया है। यही अद्वैत तंत्र है, जो सबसे जल्दी फल देता है। तांत्रिक अद्वैतभाव के साथ पंचमकारों का सेवन करते हैं। इससे वे मूल प्रकृति की तरह अव्यक्त बन जाते हैं। फिर यौनयोग की शक्ति से एकदम से उनकी कुंडलिनी सहस्रार में प्रविष्ट हो जाती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनके मन में किसी विशेष वस्तु की चाह नहीं थी। यदि ऐसा होता तो उनकी शक्ति उस विशेष वस्तु की अभिव्यक्ति पर अटक जाती, मतलब किसी विशेष चक्र पर अटक जाती। हरेक चक्र विशेष पदार्थों व भावों का प्रतिनिधित्व करता है। जैसे कि मुलाधार चक्र सुरक्षा आदि, मणिपुर चक्र खाद्य आदि, अनाहत चक्र सामाजिक भावनात्मक संबंध आदि, विशुद्धि चक्र वाणी-व्यवहार आदि, आज्ञा चक्र बुद्धि या चतुराई आदि से जुड़े पदार्थों और भावों का प्रतिनिधित्व करता है। सहस्रार चक्र सर्वसमभाव या अद्वैत का प्रतिनिधित्व करता है। इसी वजह से ही विशेष पदार्थ या भाव से जुड़ी आसक्ति के कारण कुंडलिनी उससे संबंधित चक्र पर अटक जाती है। जिस तरह मन से उस आसक्ति को नष्ट करके उससे संबंधित चक्र खुल जाता है, और कुंडलिनी को आगे निकलने का रास्ता दे देता है, उसी तरह हठयोग क्रियाओं से उस संबंधित चक्र को खोलने से उससे जुड़ी आसक्ति खुद ही नष्ट हो जाती है। इस तरह से अद्वैत साधना और कुंडलिनी योग साधना एकदूसरे की अनुपूरक हैं। मैं एक पुस्तक में पढ़ रहा था कि एक आदमी अपने शरीर की मालिश करके अपने चक्रोँ को अर्थात मन की गांठों को खोल रहा था। वह हड्डी तक को छूती हुई गहरी तेल की मालिश करता था। दरअसल मन की आसक्तियाँ या गांठें चक्रोँ से होते हुए शरीर के विभिन्न हिस्सों में जमा हो जाती हैं। जब मालिश से उन्हें खोला जाता है, तो चक्र भी खुल जाते हैं, क्योंकि वे चक्रोँ से जुड़ी होती हैं। ऐसा ही भारी व्यायाम जैसे कि कठिन परिश्रम या कार्डीएक या साईकलिंग से भी होता है। ऐसा ही कुंडलिनी योग से भी सबसे अच्छे और वैज्ञानिक तरीके से होता है। पूरे शरीर के आसनों से चक्रोँ की मालिश तो होती ही है, साथ में सभी सुदूरस्थ नसों और नाड़ियों की मालिश भी हो जाती है, जिससे उनमें फँसी आसक्ति की गांठेँ खुल जाती हैं। मूल प्रकृति के उपरोक्त वर्णन से प्रथमदृष्टया साफ दिख रहा है कि मूल प्रकृति या मूल शक्ति से ज्यादा साधारण, व्यावहारिक, व्याख्यात्मक, जानदार और सारगर्भित शब्द पवित्र भूत या पवित्र आत्मा प्रतीत होता है।

सांख्य दर्शन में दो शाश्वत तत्त्व हैं, प्रकृति और पुरुष। इनके संयोग से जीव बनता है, जैसे वह रज और शुक्र के संयोग से बनता है। इसमें अंधकारमय या रज या यिन या जड़ भाग प्रकृति है, और प्रकाश या शुक्र या यांग या चेतन भाग पुरुष है। सभी जीवों को पुरुष इस जुड़े हुए रूप में ही महसूस होता है, शुद्ध या बिना जुड़े या मूलरूप में नहीं। मतलब उसने कभी मूल प्रकृति को तो शुद्ध रूप में अनुभव किया था, क्योंकि कभी उसने अपनी जीवनयात्रा वहीं से शुरु की थी। उस समय पुरषोत्तम रूपी परमात्मा से उसमें पुरुष रूपी बीज पड़ा था। इसीलिए परमात्मा को वीर्यबीज डालने वाला पिता और प्रकृति को सृष्टि की योनिरूप माता कहा गया है। पर एकबार जीवनयात्रा को शुरु करने के बाद वह शुद्ध मूल प्रकृति को कभी अनुभव नहीं कर पाया, क्योंकि फिर हमेशा उसमें पुरुष का अंश विद्यमान रहा, कभी कम तो कभी ज्यादा। शुद्ध पुरुष को उसने कभी भी महसूस किया ही नहीं था। उसको महसूस करके ही जीव की मुक्ति की शुरुआत होती है। कुंडलिनी रूपी पुरुष को शुद्ध रूप में अनुभव करने के लिए किए जाने वाले अभ्यास का नाम ही कुंडलिनी योग है। अभ्यास करते हुए एक समय ऐसा आता है जब कुंडलिनी का ध्यान इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि आदमी अपने आप को कुंडलिनी के साथ पूरी तरह एकाकार महसूस करता है, अतीव आनंद व अद्वैत के साथ। यही समाधि है। यही कुंडलिनी जागरण है। यही शुद्ध पुरुष का अनुभव है। यही प्रकृति पुरुष का विवेक है। इसे विवेकख्याति भी कहते हैं। मतलब कि प्रकृति और पुरुष के बीच का अंतर और उनका गठजोड़ अच्छे से समझ आ जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कुंडलिनीजागरण के अतिरिक्त आदमी का हरेक अनुभव प्रकृति और पुरुष के मिश्रण से बना होता है। आदमी का अपना रूप प्रकृति होता है, और अनुभव का रूप पुरुष होता है। इसीलिए उन अनुभवों में द्वैत भाव होता है, मतलब आदमी को अनुभव के साथ अपनी एकता महसूस नहीं होती। उसे लगता है कि वह एक दर्शक की तरह अपने से अलग अनुभव दृश्यों को अनुभव कर रहा है। पर कुंडलिनी जागरण के समय आदमी को अनुभव का रूप अपना ही रूप लगता है, अपने से जरा भी अलग नहीं, मतलब पूर्ण अद्वैत भाव होता है। उसे लगता है कि वह बेशक दर्शक है, पर दृश्य अनुभव से अलग नहीं, और अपने को ही दृश्य अनुभव के रूप में महसूस कर रहा है। इसका मतलब हुआ कि आदमी ने शुद्ध पुरुष अर्थात आत्मा का अनुभव किया। खैर ये तो थ्योरेटीकल बातें  हैं, जो सांख्य दर्शन का निर्माण करती हैं। इसका प्रेक्टिकल रूप तो समाधि का अनुभव है, जो योगदर्शन का निर्माण करता है। योग सांख्य दर्शन को वैज्ञानिक प्रयोग से प्रमाणित करता है। 

फिर मैं कह रहा था कि रूपक या रहस्यात्मक रूप में जो बात कही जाती है वह स्पष्ट बात से कहीं ज्यादा प्रभावशाली होती है, क्योंकि वह सीधे अवचेतन मन में बैठकर संस्कार बन जाती है। इसलिए मैं कभी नहीं चाहता था कि हिन्दु शास्त्रों और पुराणों का वैज्ञानिक रहस्योदघाटन करूँ। पर जब मैंने देखा कि तथाकथित छद्म हिन्दू या धर्मनिरपेक्षतावादी या आधुनिकतावादी, और अन्य हिन्दुविरोधी मानसिकता वाले लोग लगातार दुष्प्रचार करते हुए हिंदु धर्म को नष्ट करने पर ही उतारू हो गए हैं, तब मुझे ऐसा करना पड़ा। यह विशेषतः उन्हीं का मुँह बंद करने के लिए है। ऐसा तभी होगा, जब वे हिन्दु दर्शन के विज्ञान को समझकर उससे लाभ उठाएंगे। यदि अच्छी भावना के साथ उनका रहस्योद्घाटन न किया जाए तो हिन्दुविरोधी लोग बुरी भावना के साथ उनका रहस्य उजागर करेंगे, या झूठा रहस्योद्घाटन करेंगे। जैसे आजकल ज्ञानवापी मस्जिद में मिले शिवलिंग के बारे में किया जा रहा है। वैसे दरअसल न तो मैंने ऐसा कभी सोचा और न ही कुछ ऐसा किया। सब कुछ खुद ही होता गया जरूरत के अनुसार। यह मैं प्रकृति की सोच और उसके कर्म को दर्शा रहा हूँ। इसलिए इसे मेरा नहीं, प्रकृति का योगदान समझा जाए तो ही उचित है। अगर कोई मुझे पढ़ने के लिए देगा, तो मैं तो उसी रहस्यात्मक मूलरूप को पढ़ना पसंद करूंगा। इसी तरह किसी की अच्छी रचना को पढ़ना हो या उसे पसंद करना हो, तो उसमें मुख्यतः माँ शक्ति का योगदान देखना चाहिए, रचनाकार का नहीं। कई लोग अच्छी रचनाओं को इसलिए नहीं पढ़ते या इसलिए पसंद नहीं करते, क्योंकि वे उसे केवल रचनाकार की कृति मानते हैं, और कई बार तो उनका रचनाकार के प्रति पूर्वाग्रह भी होता है। यदि वे रचना को प्रकृति माता की कृति मानें, तो वे भी उस रचना से लाभ उठा सकते हैं, और रचनाकार का हौंसला भी बढ़ा सकते हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि आदमी हर किसी रचना पर ध्यान दे। पर यदि असल में उसे रचना अच्छी लग रही है, तो उसे मन मसोस कर नहीं रहना चाहिए, रचना से पूरा लाभ उठाना चाहिए। इससे रचनाकार को भी अच्छा लगेगा। आजकल मैं फेसबुक और व्हाट्सएप पर ऐसी गुटबंदी अक्सर देखता हूँ जब लोग रचना को न देखकर उस गुट को या व्यक्ति को देखते हैं, जहाँ से साहित्यिक आदि रचना आई है। अपने गुट या बड़बोले आदमी से आई छीँक पर भी ढेर सारी प्रतिक्रियाएं मिलती हैं, जबकि अगर विरोधी गुट का आदमी या ज्यादातर शांत-मौन रहने वाला व्यक्ति जन्नत से महफ़िल भी उतार दे, तब भी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती, बेशक मन में लड्डू फूट रहे हों। यह अलग बात है कि असली लेखक प्रतिक्रिया से अपेक्षा नहीं रखता, पर सच्ची प्रतिक्रिया से पाठक को ही अतिरिक्त लाभ मिलता है। ऋषियों-फकीरों ने बहुत पहले ही आदमी की इस कमी को भांप लिया था, इसलिए उन्होंने युगों पहले ही इस बारे यह दोहा बनाकर चेता दिया था, “मोल करो तलवार का, पड़ी रहने दो म्यान”। आदमी को नीरक्षीर ग्राही होना चाहिए। जैसे हँस पानी मिले दूध में से केवल दूध ही पीता है, इसी तरह आदमी को भी अच्छी चीज हर जगह से ग्रहण कर लेनी चाहिए। कई लोग स्वार्थवश रचना को पढ़ते हैं। कइयों का मकसद समाज में अपना दबदबा कायम करना होता है। कई लोग इसलिए किसीकी रचना पढ़ते हैं, ताकि बदले में वह भी उनकी रचनाएं पढ़े। मुझे तो वैसे पाठक सबसे अच्छे लगते हैं जो निस्वार्थ भाव से रचना का आकलन करते हैं। वैसे भी मुझे लेखकों से अच्छे पाठक लगते हैं। लेखक में अहंकार पैदा हो सकता है, पर पाठक में नहीं। इसीलिए रचना का लाभ लेखक से ज्यादा पाठक को मिलता है। रचना को पढ़ने और पसंद करने से पाठक को भी उत्कृष्ट रचना बनाने की प्रेरणा मिलती है। मैं बहुत सी उत्कृष्ट किताबें, कविताएं पढ़ा करता था, और उन्हें पसंद भी करा करता था। इससे क्या हुआ कि मुझे भी रचना निर्माण की शक्ति मिलती रही, जिससे मेरी रचनाओं में निरंतर सुधार होता रहा। अब मैं अपने पाठकों में बहुत से भावी उत्कृष्ट रचनाकार देखता हूँ। यह परम्परा निरंतर चलती रहती है, और समाज जागृति की ओर कदम दर कदम बढ़ता रहता है।

इसी तरह पिछले लेख में बात चली थी कि बेशक योग के दौरान कुंडलिनी चित्र का ध्यान किया जा रहा हो, पर असल में वह उस चित्र या प्रतिबिम्ब का या उसको बनाने वाले बिम्ब का नहीं होता, बल्कि साधक द्वारा अपने रूप का ध्यान हो रहा होता है। किसी के मन के जो भी चित्र या भाव हैं, वे सब मिलकर उस आदमी का अपना रूप या मन बनाते हैं। कुंडलिनी चित्र को नियमित ध्यान से सबसे मज़बूत बनाया जाता है, ताकि वह पूरे मन का नेता बन सके। भीड़ को नेता के माध्यम से ही नियंत्रित किया जा सकता है, सीधे तौर पर नहीं। मन को आप एक दरी समझ लो। विचारों और भावों को आप उस पर चिपकी धूल समझ लो। डंडे को आप कुंडलिनी चित्र समझ लो। डंडे से दरी को जोरजोर से पीटने को आप कुंडलिनी ध्यानयोग समझ लो। उससे जो धूल के कण बाहर झड़ते हैं, उन्हें आप मन में दबे हुए चेतन और अवचेतन किस्म के विचार और भाव समझ लो। बहुत गहराई से चिपके कणों को अवचेतन किस्म के विचार समझ लो। ऊपर-ऊपर से हल्के तौर पर चिपके कणों को चेतन किस्म के सतही विचार समझ लो। धूल के कण पहले बाहर निकलते हुए दिखते हैं, फिर खुले वायुमंडल में विलीन हो जाते हैं। इसी तरह मन के दबे विचार पहले महसूस होते हैं, फिर ऐसा लगता है कि कहीं शून्य में विलीन हो गए। आसपास में जैसे अधिक गति से वायु के चलने से धूल के कण ज्यादा मात्रा में बाहर निकलकर खुले गगन में गायब हो जाते हैं, उसी तरह लम्बी और गहरी साँसें लेने से मन के दबे विचार ज्यादा मात्रा में बाहर निकलकर आत्मा रूपी खुले आकाश में विलीन हो जाते हैं। यही साक्षीभाव या विपासना है। इस तरह से आत्मा की सफाई होती जाती है, और वह निर्मल से निर्मल होती रहती है। इसीको आत्मा का ध्यान कहा है, कुंडलिनी की सहायता से। जैसे मध्यम, एकसार व एक दिशा में चलने वाली हवा की गति से दरी के धूलकण ज्यादा अच्छी तरह से बाहर निकलकर गायब हो जाते हैं, वैसे ही इसी तरह की सांसों से मन के विचार ज्यादा अच्छी तरह से गायब होते हैं। जैसे हल्की हवा चलने से धूलकण दुबारा दरी पर बैठ जाते हैं, उसी तरह ठीक से सांस न लेने पर विचारों का कचरा पुनः मन पर बैठ जाता है। जैसे दरी को झाड़ने के बाद डंडे को हटा देते हैं, उसी तरह मन के पूरी तरह से साफ होने के बाद कुंडलिनी चित्र भी खुद ही गायब होने लगता है। यह अलग बात है कि नियमित योगसाधना से उसे हमेशा जिंदा रखा जाता है, ताकि मन पर लगातार जमने वाली विचारों की धूल साफ होती रहे। यह ऐसे ही है जैसे प्रतिदिन सुबह-शाम डंडे से दरी को झाड़ा जाता रहता है, और दिन में डंडे को साइड में रखा जाता है। पवित्र कुंडलिनी चित्र पिछली पोस्ट में दर्शाया गया वही फरिश्ता है, जिसे इस्लाम में सच्चा मुसलमान माना जाता है। अन्य मानसिक चित्र काफ़िर जिन्न भी हो सकते हैं, जो अल्लाह से दूर ले जाते हैं।

पिछले लेख में यह बात भी चली थी कि कुंडलिनी को एकदम से मूलाधार से सहस्रार को उठाने के लिए लोग सम्भोग की ओर आकर्षित होते हैं। पर वे उसके लिए पर्याप्त समय व शक्ति नहीं दे पाते, जिससे लाभ कम और कई बार तो नुकसान भी हो जाता है, जैसे वीर्यशक्ति का बहिर्गमन, अनचाहा गर्भ, यौन संक्रमण या प्रॉस्टेट आदि की समस्या। सम्भोग जीवन का सबसे सुखद और निर्णायक काम है। उसके लिए रात्रि का वह बचा-खुचा समय रखा गया है, जिस समय उसमें किसी भी कार्य को करने की शक्ति नहीं बची रहती, और जिस समय आदमी बेहोशी जैसी अवस्था में होता है। यह तो सम्भोग की दिव्यता है कि यह उस हालत में भी आदमी को तरोताज़ा कर देने का पर्याप्त प्रयास करता है। तब सोचो कि पहले से ही तरोताज़ा होने पर यह कितनी ज्यादा दिव्यता और कुंडलिनी शक्ति देता होगा। शास्त्रों में भी इसका वर्णन है। एक ऋषि ने एकबार अपनी कामातुर पत्नि के साथ संध्या के समय सम्भोग किया था, जिससे उसके गर्भ से दो भयानक व शक्तिशाली राक्षसों का जन्म हुआ था। यह उसी सम्भोग शक्ति से हुआ था। यह अलग बात है कि किसी वजह से वे सम्भोग शक्ति को कुंडलिनी देव को नहीं दे पाए, जिससे वह खुद ही उसके विपरीत स्वभाव वाले राक्षस को मिली। अगर कुंडलिनी देव को वह शक्ति मिलती तो सम्भवतः दो देवों का जन्म होता। मतलब कि उन्होंने सम्भोग को यौनयोग की तरह नहीं किया। सम्भवतः इसीलिए शास्त्रों में गैरवक्त में सम्भोग को वर्जित किया गया है। इतना तो इससे प्रमाणित हो ही गया है कि दिन के समय किए सम्भोग में बहुत शक्ति होती है। जिस शक्ति से राक्षस पैदा हो सकता है, उससे देवता भी पैदा हो सकता है। राक्षस सम्भवतः रूपक की तरह आसक्ति से भरी दुनियादारी को कहा गया है। देवता अर्थात कुंडलिनी फिर अनासक्ति व अद्वैत से भरी दुनियादारी हुई। आप इड़ा और पिंगला को दो राक्षस कह सकते हैं। सुषुम्ना चैनल को एकल देवता माना जा सकता है। यदि इड़ा और पिंगला की शक्ति आसक्तिपूर्ण सांसारिक भोगों के बजाय सुषुम्ना को हस्तांतरित कर दी जाए तो इड़ा और पिंगला को भी दो देवता कहा जा सकता है। इस तरह समाज के द्वारा सम्भोग को नजरन्दाज करने का मतलब है कि इसको सबसे फालतू और गैरज़रूरी काम माना गया है, जबकि सच्चाई यह है कि जीवन की सभी तरक्कियों और मुक्ति का रास्ता इसीसे होकर जाता है। दुनियादारी के बंधनों के लिए अच्छे से अच्छे समय चिन्हित किए जाते हैं, और इस शक्तिजागरण पैदा करने वाली क्रिया के लिए वह समय दिया जाता है, जब आदमी हर जगह से थकहार कर बैठ जाता है। मेरा एक हमउम्र जैसा गांव का चाचा बता रहा था कि वह जब एकबार जंगल के बीच बने रास्ते से गुजर रहा था, तो उस रास्ते के ऊपर कुछ स्थानीय महिलाएं पशुओं के लिए घास काट रही थीं। उनमें से एक महिला बाकियों को सुना रही थी कि एक तो पूरे दिनभर काम करके थक कर घर जाएं और ऊपर से वे रात को बेलन जैसे सरका दें। सभी भुक्तभोगी साथी महिलाओं ने उसकी दुख भरी दास्तान का अनुमोदन किया। अजीब विडंबना है। नारी जाति का कितना बड़ा अपमान है यह, और उसे इसे इस बात की भनक नहीं। उल्टा महिला अधिकार वाले केस कर दें ऐसी तथ्यपूर्ण बातों को लेकर। मेरा एक यूएसए का ब्लॉग मित्र भी यही अनुभवसिद्ध बात कर रहा था कि एक बार में ही लगातार काफी देर तक वीर्यनिरोधक सम्भोग करते हुए ही एक ऐसा थरेशहोल्ड या सीमाबिंदु आता है, जब मूलाधार की कुंडलिनी ऊर्जा पीठ से ऊपर चढ़ती हुई पूरे शरीर को तरोताज़ा और जागरण की ओर रूपांतरित करने लगती है। हालांकि कई बार यह ऊपर की ओर चढ़ने वाली और रूपान्तरण करने वाली ऊर्जा उस समय महसूस नहीं होती, पर एक-दो दिन बाद महसूस होने लगती है, विशेषकर कुंडलिनी योग के साथ। दरअसल यह सीधी सम्भोग की ऊर्जा नहीं होती, जैसी कि आम आदमी गलतफहमी से सोचते हैं, पर उसके रूपान्तरण से बनी आध्यात्मिक या कुंडलिनी ऊर्जा होती है। इसलिए इसके लिए हम आम बोलचाल का सम्भोग शब्द भी इस्तेमाल नहीं कर सकते। यौनयोग ज्यादा उपयुक्त शब्द लगता है। ऐसा समझ लो कि इसके लिए सभी कामधंधे छोड़कर पूर्णतः एकांत में (यहाँ तक कि इसकी कभी किसीको कानोंकान खबर न लगे, क्योंकि यौनकुंठित लोगों की इस पर बड़ी बुरी नजर लगती है, वैसे भी इसे सामाजिक नहीं कहा जा सकता, इसीलिए इसको गुह्य या गुप्त विद्या कहते हैं), बिना किसी विघ्न या व्यवधान के, समर्पित किए गए दिन के प्रातःकालीन या अन्य समय की तरोताज़ा तन-मन की अवस्था में 3-4 घंटे काफी है, इस जागरण-प्रारम्भ के लिए जरूरी सीमाबिंदु को प्राप्त करने के लिए। किसी के पास शक्ति और समय हो तो बीच-बीच में नींद की झपकियां लेते हुए जितने लम्बे समय तक चाहे कर सकता है। दुनिया में प्रेम और सुख से ज्यादा जरूरी भला क्या कामधंधा हो सकता है। पर ऐसी बातें किसीको बताना नहीं मांगता। सेक्स-कुंठित समाज में सेक्स की बात करने वाला व्यक्ति हंसी का पात्र बनता है। हाहाहा। 😄। लगता है इसी यौन कुंठा के कारण ही लोगों को पर्याप्त यौन संतुष्टि नहीं मिल रही है, जिससे समाज में महिला उत्पीड़न, व्यभिचार और बलात्कार के मामले बढ़ रहे हैं। मुझे तो लगता है कि समाज के सभी झगड़ों और समस्याओं के मूल में यही कारण है। वैसे भी बीच-2 में कुंडलिनी को यौन योग से पुनारवेशित या रिचार्ज करते रहना पड़ता है, नहीं तो यह उबाऊ या अल्प प्रभावी सा लगने लगता है। ओशो महाराज ठीक कहते थे कि सम्भोग के बारे में कभी पर्याप्त शोध हुए ही नहीं हैँ। समाज आज के तथाकथित आधुनिक युग में भी इतना उन्मुक्त नहीं हुआ है कि कोई कह दे कि वह कुछ दिनों के सम्भोग के लिए भ्रमण या आऊटिंग पर जा रहा है या काम से छुट्टी ले रहा है। आजकल तो कर्मोन्माद है हर जगह। काम, काम और बस काम। सम्भोग को तो केवल संतान पैदा करने वाली मशीनी कार्यवाही भर मान लिया गया है, लगता है। साथ में इसको फालतू और सबसे ओछे काम की तरह मान लिया गया है। परिणाम, जनसंख्या विस्फोट। ऐसी मानसिकता के साथ किए सम्भोग से जो जनसंख्या बनेगी, उसकी गुणवत्ता पर भी प्रश्नचिन्ह तो लगेगा ही। व्यक्तिगत जीवन और मुक्तिपथ का बोध ही नहीं है। इसी अंधे कर्मोन्माद से ही तो दुर्घटनाएं और युद्ध हो रहे हैं, जिनसे आम बेगुनाह लोग मारे जा रहे हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध को ही देख लो। क्या इसी के लिए दिनरात जीतोड़ मेहनत करके इतना विकास किया था। जिस अंधे काम से सदबुद्धि ही नष्ट हो जाए, उस काम से क्या लाभ। अभी चार-पांच दिन पहले दिल्ली के अवैध कारखाने में आग लगने से बीस से ज्यादा लोग जल कर मर गए और इतने ही लोग लापता हो गए। माना कि प्रशासन की लापरवाही है, पर आम जनता की भी कम नहीं है। हालांकि मासूम लोग ग़रीबी और घनी जनसंख्या से मजबूर हैं खतरे के नीचे जीवनबसर करने के लिए। सबसे ज्यादा दोषी तो वे बड़े लोग हैं, जो ज्यादा मुनाफे के लिए ऐसा अवैध काम कर रहे हैं। एक नवयुवती बालिका की चीखें यह कहते हुए कि अगर उसकी लापता बहिन नहीं मिली तो वह अपनी माँ और अन्य बहन के साथ सामूहिक आत्महत्या कर लेगी, दिल को चीर देती है। पहले भी ऐसी घटनाएं बहुत हुई हैं, पर उनसे ठीक सबक नहीं लिया, ऐसा लगता है। बस विकास, विकास और विकास। अगर जनसंख्या को नियंत्रित नहीं किया तो चाहे जितना मर्जी विकास कर लो, सब थोड़ा पड़ जाएगा। विकास भी ऐसा कि आजादी को मिले सत्तर साल से ज्यादा समय हो गया, पर बच्चों के स्कूल बैग का वजन घटने की बजाय बढ़ रहा है। एक दिन में अपने बेटे का स्कूल बैग पीठ पर लेकर उसको बाईक पर स्कूल छोड़ने गया। बैग इतना भारी लगा मुझे कि मेरे से संतुलन बिगड़ गया, और जैसे ही बाईक रोकी, वैसे ही बाईक के साथ हम दोनों एक तरफ को गिर गए। बेटे ने बैग पकड़ा हुआ था, इसलिए वह भी उसके साथ एकतरफ को झूल गया। संतुलन से संबंधित ज्यादातर बाईक की दुर्घटनाएं पीछे बैठने वाले के कारण होती हैं, इसलिए उसे ही पीछे बैठाएं, जिसे बाईक पर बैठना आता हो, या बैठना सिखा दें। हालांकि वहाँ जमीन भी समतल न होते हुए थोड़ी तिरछी थी। दरअसल आजकल के आधुनिक मोटरसाइकलों में न्यूट्रल गियर दूसरे और पहले गियर के बीच में आता है, इससे धोखा लगता है। मैंने डॉउनशिफ्ट किया तो जीरो गियर लग गया। इससे बाईक ने रेस नहीं ली। इससे संतुलन बिगड़ गया।  गनीमत यह रही कि चोट नहीं लगी और एक स्कूल बस पर्याप्त दूरी पर चल रही थी बहुत धीरे से, क्योंकि वहाँ मोड़ था और ट्रेफिक का रश था। हालांकि उसने मौके को भाम्पते हुए पहले ही बस रोक दी थी। स्कूल वालों को बच्चों की किताबें स्कूल में ही रखवाई रखनी चाहिए। यहाँ ट्रेफिक नियमों की अनदेखी भी अक्सर होती रहती है। मेरी पत्नि की एक मित्र की मित्र जो विदेश में भी जाके रहती है कह रही थी कि यहाँ की ड्राइविंग तो बड़ी विचित्र और क्रन्तिकारी या जानलेवा जैसी है। पर मुझे तो लगता है कि यहाँ के ड्राइवर बड़े सेंसिबल हैं, इसीलिए तो मूलभूत सुविधाओं के अभाव में और इतनी ज्यादा जनसंख्या होने के बावजूद भी अपेक्षाकृत कम सड़क दुर्घटनाएं होती हैं। फिर भी यहाँ रोड पर चलने वाले को काफ़ी अतिरिक्त सावधानी बरतनी पड़ती है। भगवान बचाए। ऐसा ही विकास काशी विश्वनाथ मंदिर में हुआ सत्तर सालों में। आज भी वहाँ मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा जो मंदिर गिराकर मस्जिद बनाई गई, उसका शिवलिंग उस मस्जिद के वजूखाने तलाब में एक सर्वे के द्वारा मिलना बताया जा रहा है। अयोध्या को तो अपना राम मंदिर वापिस मिल गया, पर उन हजारों मंदिरों का क्या होगा जिनको तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं। क़ुतुब मीनार में भी बहुत से मंदिरों के साक्ष्य मिले हैं। जिस ताजमहल को दुनिया के अजूबों में जगह मिली है, वह भी तेजोमहालय नाम का शिव मंदिर था, जिसकी पुष्टि बहुत से ऐतिहासिक साक्ष्य करते हुए बताए जा रहे हैं। मथुरा के मुख्य श्रीकृष्ण मंदिर की भी यही कहानी है।

कुंडलिनी तंत्र की वैज्ञानिकता को भगवान शिव स्वयं स्वीकार करते हैं

दोस्तो, शिवपुराण में आता है कि पार्वती ने जब शिव के साथ दिव्य वनों, पर्वत श्रृंखलाओं में विहार करते हुए बहुत समय बिता दिया, तो वह पूरी तरह से तृप्त और संतुष्ट हो गई। उसने शिव को धन्यवाद दिया और कहा कि वह अब संसार के सुखों से पूरी तरह तृप्त हो गई है, और अब उनके असली स्वरूप को जानकर इस संसार से पार होना चाहती है। शिव ने पार्वती को शिव की भक्ति को सर्वोत्तम उपाय बताया। उन्होंने कहा कि शिव का भक्त कभी नष्ट नहीं होता। जो शिवभक्त का अहित करता है, वे उसे अवश्य दंड देते हैं। उन्होंने शिवभक्ति का स्वरूप भी बताया। पूजा,अर्चन, प्रणाम आदि भौतिक तरीके बताए। सख्य, दास्य, समर्पण आदि मानसिक तरीके बताए। फिर कहा कि जो शिव के प्रति पूरी तरह से समर्पित है, शिव के ही आश्रित है, और हर समय उनके ध्यान में मग्न है, वह उन्हें सर्वाधिक प्रिय है। वे ऐसे भक्त की सहायता करने के लिए विवश है, फिर चाहे वह पापी और कुत्सित आचारों व विचारों वाला ही क्यों न हो। शिवभक्ति को ही उन्होंने सबसे बड़ा ज्ञान बताया है।

पार्वती का शिव के साथ घूमना जीव का आत्मा की सहायता से रमण करना है

वास्तव में जीव चित्तरूप या मनरूप ही है। जीव यहां पार्वती है, और आत्मा शिव है। मन के विचार आत्मा की शक्ति से ही चमकते हैं, ऐसा शास्त्रों में लिखा है। इसको ढंग से समझा नहीं गया है। लोग सोचते हैं कि आत्मा की शक्ति तो अनन्त है, इसलिए अगर मन ने उसकी थोड़ी सी शक्ति ले ली तो क्या फर्क पड़ेगा। पर ऐसा नहीं है। आत्मा मन को अपना प्रकाश देकर खुद अंधेरा बन जाती है। यह वैसे ही होता है, जैसे माँ अपने गर्भ में पल रहे बच्चे को अपनी ताकत देकर खुद कमजोर हो जाती है। वास्तव में ऐसा होता नहीं, पर भ्रम से जीव को ऐसा ही प्रतीत होता है। इसी वजह से पार्वती का मन शिव के साथ भोग-विलास करते हुए भ्रम से भर गया। अपनी आत्मा के घने अंधकार को अनुभव करके उसे उस अंधकार से हमेशा के लिए पार जाने की इच्छा हुई। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जब तक आदमी समस्या को प्रचंड रूप में अनुभव न करे, तब तक वह उसे ढंग से हल करने का प्रयास नहीं करता। इसीलिए तजुर्बेदार लोग कहते हैं कि संसार सागर में डूबने के बाद ही उससे पार जाने की इच्छा पैदा होती है। इसलिए यह तंत्र सम्मत सिद्धांत एक वैज्ञानिक सत्य है कि निवृत्ति के लिए प्रवृत्ति बहुत जरूरी है। प्रवृत्ति के बिना निवृत्ति का रास्ता सरलता से नहीं मिलता। इसलिए नियम-मर्यादा की डोर में बंधे रहकर दुनिया में जमकर ऐश कर लेनी चाहिए, ताकि मन इससे ऊब कर इसके आगे जाने का रास्ता ढूंढे। नहीं तो मन इसी दुनिया में उलझा रह सकता है। कई तो इतने तेज दिमाग होते हैं कि दूसरों के एशोआराम के किस्से सुनकर खुद भी उनका पूरा मजा ले लेते हैं। कइयों को वे खुद अनुभव करने पड़ते हैं।

कुंडलिनी को शिव, और कुंडलिनी योग को शिवभक्ति माना गया है

कुंडलिनी से भी यही फायदे होते हैं, जो शिव ने अपने ध्यान से बताए हैं। शिवपुराण ने कुंडलिनी न कहकर शिव इसलिए कहा है, क्योंकि यह पुराण पूरी तरह से शिव के लिए ही समर्पित है। इसलिए स्वाभाविक है कि शिवपुराण रचयिता ऋषि यही चाहेगा कि सभी लोग भगवान शिव को ही अपनी कुंडलिनी बनाए। उपरोक्त शिव वचन के अनुसार कुंडलिनी तंत्र सबसे ज्यादा वैज्ञानिक, प्रभावशाली और प्रगतिशील है। बाहर से देखने पर पापी और कुत्सित आचार-विचार तो तंत्र में भी दिखते हैं, हालांकि साथ में शक्तिशाली कुंडलिनी भी होती है। वह चकाचौंध वाली कुंडलिनी उन्हें पवित्र कर देती है। तीव्र कुंडलिनी शक्ति से शिव कृपा तो मिलती ही है, साथ में भौतिक पंचमकारों आदि से भौतिक तरक्की भी मिलती है। इससे कई लाभ एकसाथ मिलने से आध्यात्मिक विकास तेजी से होता है। शिव खुद भी बाहर से कुत्सित आचार-विचार वाले लगते हैं। प्रजापति दक्ष ने यही लांछन लगाकर ही तो शिव का महान अपमान किया था। वास्तव में शिव एक शाश्वत व्यक्तित्व हैं। जो शिव के साथ हुआ, वह आज भी उनके जैसे लोगों के साथ हो रहा है, और हमेशा होता है। शाश्वत चरित्र के निर्माण के लिए ऋषियों की सूझबूझ को दाद देनी पड़ेगी। दूसरी ओर, साधारण कुंडलिनी योग से भौतिक शक्ति की कमी रह जाती है, जिससे आध्यात्मिक विकास बहुत धीमी गति से होता है। जहाँ शक्ति रहती है वहीं शिव भी रहता है। ये हमेशा साथ रहते हैं। इसीलिए शिवपुराण में आता है कि आम मान्यता के विपरीत शिव और पार्वती (शक्ति) का कभी वियोग नहीं होता। वे कभी आपस में ज्यादा निकट सम्बन्ध बना लेते हैं, और कभी एक-दूसरे को कथाएँ सुनाते हुए थोड़ी दूरी बना कर रहते हैं। उनके निकट सम्बन्ध का मतलब आदमी की कुंडलिनी जागरण या समाधि की अवस्था है, और थोड़ी दूरी का मतलब आदमी की आम सांसारिक अवस्था है। मैंने कुंडलिनी तंत्र के ये सभी लाभ खुद अनुभव किए हैं। एकबार मेरे कान में दर्द होता था। मैंने व्यर्थ में बहुत सी दवाइयां खाईं। उनका उल्टा असर हो रहा था। फिर मैंने अपने कान का सारा उत्तरदायित्व कुंडलिनी को सौंप दिया। मैं पूरी तरह कुंडलिनी के आगे समर्पित हो गया। अगले ही दिन होम्योपैथी डॉक्टर का खुद फोन आया और मुझे छोटा सा नुस्खा बताया, जिससे दर्द गायब। और भी उस दवा से बहुत फायदे हुए। एकबार किसी गलतफहमी से मेरे बहुत से दुश्मन बन गए थे। मैं पूरी तरह कुंडलिनी के आश्रित हो गया। कुंडलिनी की कृपा से मैं तरक्की करता गया, और वे देखते रह गए। अंततः उन्हें पछतावा हुआ। पछतावा पाप की सबसे बड़ी सजा है। मेरा बेटा जन्म के बाद से ही नाजुक सा और बीमार सा रहता था। भगवान शिव की प्रेरणा से मैंने उसके स्वास्थ्य के लिए कुंडलिनी की शरण ली। कुंडलिनी को प्रसन्न करने या यूं कह लो कि कुंडलिनी को अतिरिक्त रूप से चमकाने के लिए शिव की ही प्रेरणा से कुछ छोटा मानवतापूर्ण तांत्रिक टोटका भी किया। उसके बाद मुझे अपने व्यवसाय में भी सफलता मिलने लगी और मेरा बेटा भी पूर्णिमा के चाँद की तरह उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। 

हिंदुओं के बीच में आध्यात्मिकता को लेकर कभी  विवाद नहीँ रहा

कुंडलिनी ध्यान ही कुंडलिनी भक्ति है। भक्ति से जो मन में निरंतर स्मरण बना रहता है, वही ध्यान से भी बना रहता है। अपने प्रभाव की कुंडलिनी को प्रसिद्ध करने के लिए तो विभिन्न सम्प्रदायों एवं धार्मिक मत-मतांतरों के बीच प्रारंभ से होड़ लगी रही है। शिवपुराण में भगवान शिव को भगवान विष्णु से श्रेष्ठ बताने के लिए कथा आती है कि एकबार भगवान शिव ने अपनी गौशाला में बड़ा सा सिंहासन रखवाया और उस पर भगवान विष्णु को बैठा दिया। उसके बाद भगवान शिव के परम धाम के अंदर वह गौशाला भगवान विष्णु का गौलोक बन गया। यह अपनी-2 श्रेष्ठता को सिद्ध करने वाले प्रेमपूर्ण व हास्यपूर्ण आख्यान होते थे, इनमें नफरत नहीं होती थी, मध्ययुग से चली आ रही कट्टर मानसिकता (जिहादी और अन्य बलपूर्वक धर्मपरिवर्तन कराने वाले धार्मिक समूहों की तरह) के ठीक उलट। 

सनातन धर्म की क्षीणता के लिए आंशिक आदर्शवाद भी जिम्मेदार है

आध्यात्मिक उपलब्धि के सच्चे अनुभव को जनता से साझा करने को अहंकार मान कर किनारे लगाया गया। जीवन की क्षणभंगुरता और मृत्यु के बखान से जीवन की आध्यात्मिक उपलब्धि  को ढका गया। दूसरी ओर, भौतिक तरक्की करने वाले लोग कुछ न छुपाते हुए अपनी उपलब्धि का प्रदर्शन करते रहे। लोग भी मजबूरन उनकी ही कीर्ति फैलाते रहे। इसको अहंकार नहीं माना गया। इस वजह से असली अध्यात्म सिकुड़ता गया। इस कमी का लाभ उठाने नकली आध्यात्मिक लोग आगे आए। उन्होंने अध्यात्म को भौतिकता का तड़का लगाकर पेश किया, जिसे लोगों ने स्वीकार कर लिया। वह भी लोगों को अहंकार नहीं लगा। इससे अध्यात्म और नीचे गिर  गया। ऐसे तो कोई भी अपने को आत्मज्ञानी या कुंडलिनी-जागृत बोल सकता है। यदि किसी को असल में आत्मज्ञान हुआ है, तो वह अपना स्पष्ट अनुभव हमेशा पूरी दुनिया के सामने रखे, ताकि उसका मिलान असली, शास्त्रीय, व सर्वमान्य अनुभव से किया जाए। ऐसा अनुभवकर्ता उम्रभर अपने उस अनुभव से संबंधित चर्चाएं, तर्क-वितर्क व उसकी सत्यता-सिद्धि करता रहे। साथ में, उसका आध्यात्मिक विकास भी उम्र भर होता रहे। वह उम्र भर जागृति के लिए समर्पित रहे। तभी माना जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति का अनुभव असली अनुभव है। चार दिन टिकने वाले जागृति के अनुभव तो बहुत से लोगों को होते हैं।

कुंडलिनी एक सर्वोत्तम गुरु व बिंदु के रूप में है, जो सर्वलिंगमयी देह और कुम्भक प्राणायाम के साथ बहुत पुष्ट होती है

दोस्तों, मेरी पिछली पोस्ट के कथन के सही होने का एक ओर प्रमाण मिल गया। शिवपुराण के अगले ही अध्याय में है कि अग्नि में भस्म होने के बाद संध्या नामक नारी सूर्यमंडल में प्रविष्ट हो गई। उसके वहाँ दो टुकड़े हो गए। ऊपर वाले टुकड़े से सुबह का संध्याकाल बना, और नीचे वाले भाग से शाम का सांध्यकाल बना। फिर लिखा है कि रात और सूर्योदय के बीच का दिन का समय प्रातः संध्या का होता है, और सूर्यास्त व रात्रि के बीच का समय सांयकालीन संध्या का होता है। मैंने पिछली पोस्ट में यह भी लिखा था कि कुंडलिनी कामभाव से बचा कर रखती है। इस पोस्ट में मैं यह बताऊँगा कि कुंडलिनी ऐसा कैसे करती है। 

कुन्डलिनी सेक्सुअल एनर्जी को अपनी ओर आकर्षित करती है

कुन्डलिनी शरीर की एनर्जी को खींचती है। मैंने सेक्सुअल शब्द इसलिए जोड़ा क्योंकि यही एनर्जी शरीर में सर्वाधिक प्रभावशाली है। यह एक चुम्बक की तरह काम करती है। यदि आप किसी चक्र पर कुन्डलिनी का ध्यान करते हो, तो प्राण ऊर्जा खुद ही नाड़ी लूप में घूमने लग जाएगी, और कुन्डलिनी को मजबूत बनाएगी। कई लोग प्राण ऊर्जा को पहले घुमाते हैं, कई लोग कुन्डलिनी का ध्यान चक्र पर पहले करते हैं। दोनों का निष्कर्ष एक ही निकलता है।

वीर्य का तेज कुन्डलिनी को देने से कुन्डलिनी जीवंत हो जाती है

वीर्य का तेज मूलाधार चक्र में होता है। तेज का मतलब चमक व तीखापन होता है। यह बिल्कुल पारे की तरह होता है। तभी तो पारे का शिवलिंग बहुत शक्तिशाली होता है। एक पिछली पोस्ट में मैंने बताया था कि कैसे एक पारद शिवलिंग के पास ध्यान करने से मेरी कुन्डलिनी चमक गई थी।

बिंदु व बिंदु चक्र क्या है

बिंदु उसी वीर्य की बूंद को कहते हैं। बिंदु का शाब्दिक अर्थ भी बूंद ही होता है। बिंदु चक्र सहस्रार व आज्ञा चक्र के बीच में होता है, माथे के बीच से थोड़ा ऊपर पीछे तक। इसे बिंदु चक्र इसलिए कहते हैं क्योंकि यह सबसे अधिक वीर्य शक्ति प्राप्त करता है। ब्राह्मण लोग यहाँ चोटी बांधते हैं।

ज्योतिर्लिंग की ज्योति शिव के बिंदु से ही है

हिंदुओं में बारह ज्योतिर्लिंग प्रसिद्ध हैं। ये शरीर के बारह चक्रों को इंगित करते हैं। वास्तव में 12 चक्र होते हैं। आठवां बिंदु चक्र होता है। नवां, दसवां, ग्यारवां व बारवां चक्र थोड़ी-थोड़ी ऊंचाई के अंतराल पर सिर के ऊपर होते हैं। ये ज्योतिर्लिंग चक्रों की तरह देश के भिन्न-भिन्न स्थानों पर बने हैं। वास्तव में देश भी एक शरीर की तरह काम करता है। इसका पूरा विस्तार पुस्तक शरीरविज्ञान दर्शन में है। इन स्थानों पर जो ज्योति है, वह बिंदु के तेज का प्रतीक है। वह बिंदु शिव के लिंग से उत्पन्न होता है। तभी इनका नाम ज्योतिर्लिंग है। बिंदु ने शिवलिंग को शिवचक्रों के साथ जोड़ दिया है। एक प्रकार से कह सकते हैं कि लिंग सभी चक्रों पर स्थापित हो गया है। इसे ही सर्वलिंगमय देह कहते हैं। एक सर्वलिंग स्तोत्र भी है। इसमें देश में स्थित अनगिनत प्रसिद्ध शिवलिंग स्थानों के नाम हैं। यह पूरे शरीर में बिंदु के तेज के व्याप्त होने के बारे में संकेत देता है।

चक्र कुन्डलिनी पर बिंदु तेज का आरोपण सांस रोककर नहीं करना चाहिए

बिंदु तेज के ध्यान के समय साँसें बहुत तेजी से चलने लगती हैं। रक्तचाप भी बढ़ जाता है। उस समय सम्भवतः कोई तेज शारीरिक व मानसिक क्रियाकलाप हो रहा होता है। मानसिक क्रियाकलाप तो कुन्डलिनी की चमक के रूप में प्रत्यक्ष दिखता ही है। यह ऐसे ही है, जैसे बिंदुपात के समय होता है। दिल की धड़कन भी उस समय बढ़ जाती है। यह अभ्यास साँस रोककर नहीँ करना चाहिए। साँस रोकने से हृदय को क्षति पहुंच सकती है। यह ऐसे ही है जैसे कोई बिंदुपात के समय सांस रोकने का प्रयास करे। इससे दम घुटने का और भारी थकान का अनुभव होता है। इसलिए साँस रोककर किसी चक्र पर कुन्डलिनी ध्यान करने के बाद जब सांस सामान्य हो जाए, तभी रिलैक्स होकर चक्र कुन्डलिनी पर बिंदु तेज के आरोपण का ध्यान कर सकते हैं। दिल के रोगी, श्वास रोगी, उच्च रक्तचाप के रोगी भी इस अभ्यास को न करें। यदि करें, तो कम करें, सावधानी व सलाह से करें। कुन्डलिनी चिंतन का सबसे सरल और सुरक्षित तरीका अद्वैत का चिंतन ही है।

बिंदु कुन्डलिनी-रूप ही है

बिंदु और मन आपस में जुड़े होते हैं। दोनों का स्वभाव चमकदार और शक्तिरूप है। तभी तो जब बिंदु क्रियाशील होता है, तब मन में सुंदर और चमकदार विचार आते हैं। इसी बिंदु-क्रियाशीलता के लिए ही प्राणी प्रजनन की ओर आकर्षित होते हैं। कुन्डलिनी भी उसी मन का प्रमुख हिस्सा है। इसलिए वह भी बिंदु से शक्ति प्राप्त करती है। वास्तव में मन का सर्वोच्च शिखर कुंडलिनी जागरण ही है। इसीलिए संक्षेप में कहा जाता है कि जीव कुंडलिनी जागरण के लिए ही सभी क्रियाकलाप, मुख्य रूप से कामदेव संबंधी क्रियाकलाप करता है। कुंडलिनी एक मानसिक चित्र है, जो एकप्रकार से पूरे मन का प्रतिनिधि या सैम्पल पीस है। एक मानसिक चित्र का मतलब यह नहीं कि वह एक स्थिर चित्र ही है। यदि शिव के रूप का मानसिक चित्र है, तो वह पार्वती के साथ भी घूम सकता है, तांडव नृत्य भी कर सकता है, श्मशान में साधना भी कर सकता है, और अन्य जो कुछ भी। इसे प्रतिनिधि इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि इसको वश में करने से पूरा मन वश में हो जाता है, और इसको पूरी तरह हासिल करने से पूरा मन या यूँ कहो कि सबकुछ हासिल हो जाता है। मन में ही सबकुछ है। इसको पूरी तरह हासिल करने से सब कुछ हासिल हो जाता है। कुंडलिनी जागरण या इसे पूर्ण समाधि कह लो, यही कुंडलिनी या मन का पूरी तरह से हासिल होना है। इतनी सुंदर, व्यावहारिक, वैज्ञानिक और अनुभवात्मक परिभाषा आपको कुन्डलिनी की कहीं नहीं मिलेगी। चाहे आप किसी भी पुस्तक में या अन्य प्लेटफार्म पर ढूँढ लो। मुझे भी नहीं मिली थी। इसलिए मैं अंदाजा लगाकर ही कुन्डलिनी साधना करता रहा। जब कुन्डलिनी जागरण हुआ, तब पता चला। पतंजलि के ध्यान और समाधि के बारे में पता था, उसीको लेकर अभ्यास किया। पर कुन्डलिनी के बारे में कहीं नहीं मिला। इसको रहस्य बना कर रखा हुआ था, और इसके बारे में जितने मुंह, उतनी बातें। तब पता चला कि कुन्डलिनी जागरण और पूर्ण समाधि एक ही चीज है। पतंजलि ने जो किसी देवता या गुरु के चित्र या किसी भी प्रिय वस्तु के चित्र का मन में ध्यान करने को कहा है, वह कुंडलिनी ही है।  पुराने जमाने में तो इसे रहस्य बना कर रखने की प्रथा थी, ताकि इसका दुरुपयोग न हो। आज तो मुक्त समाज है। इसी से इस समर्पित कुन्डलिनी वैबसाइट को बनाने की प्रेरणा मिली। इससे जाहिर होता है कि किस हद तक भ्रम विद्यमान है, जैसा पहले मुझे भी था।

चक्रों पर लिंग की अनुभूति

यह अनुभूति तब होती है जब आदमी ने काफी व भारी परिश्रम किया हो, और उसने पेट से योग वाली साँसें काफी ली हों। केवल पेट से साँसें लेने से ही सबकुछ नहीं हो जाता। उसके साथ यह भी ध्यान करना पड़ता है कि साँस भरते समय अंदर जाती हवा के साथ प्राण नीचे जा रहा है, और पेट के आगे की तरफ फूलने से पिछले नाभि चक्र पर जो गड्ढा बनता है, वह अपान को नीचे से ऊपर खींच रहा है। इससे मणिपुर चक्र पर प्राण और अपान आपस में टकराते हैं, और सिकुड़न के साथ संवेदना पैदा करते हैं। प्राण-अपान की टक्कर के बारे में मैंने पिछली एक पोस्ट में बताया है। बाहर जाती हुई साँसों पर ध्यान नहीं देना चाहिए, क्योंकि इससे प्राण-अपान की टक्कर कमजोर पड़ती है। वह संवेदना और सिकुड़न फिर पीठ से मस्तिष्क तक चढ़ती हुई सभी चक्रों को तरोताजा करती है। वह फिर आगे से नीचे उतरकर आगे के चक्रों, विशेषकर नीचे वाले चक्रों को तरोताजा करती है। इससे ताजगी के अहसास के साथ एक गहरी साँस अंदर जाती है, और फिर साँसें शांत हो जाती हैं। खाली धौंकनी की तरह साँसें भरेंगे, तो इससे तो थकान ही बढ़ेगी। बेशक फायदा तो होगा, पर कम होगा। वैसे भी, परिस्थिति के अनुसार ही सांसें चलती हैं। आदमी गलती करके खुद भी अच्छा सीखता रहता है। कुछ न करने से अच्छा तो गलती करते रहो, पर गलती नुकसानदेह नहीं होनी चाहिये। पर कई बार जोर-जोर की साँसें बन्द ही न होने पर आदमी इमरजेंसी हॉस्पिटल सेक्शन में इस डर से चला जाता है कि कहीं उसके फेफड़े खराब होने से ऑक्सीजन का लेवल डाऊन तो नहीँ हो रहा। मेरे साथ भी एकबार ऐसे ही हुआ था। वास्तव में वह किसी तनाव से व धौंकनी की तरह साँस लेने से होता है। ऐसा लगता है कि साँसों से संतुष्टि ही नहीं हो रही। कहीं भी कुन्डलिनी प्रकट होने पर, यदि उसके ध्यान के साथ एनर्जी लूप का भी ध्यान करो, तो जैसे ही कुन्डलिनी, लूप में घूमने लगती है, वैसे ही लूप में एनर्जी का संचार बढ़ जाता है। एनर्जी कुन्डलिनी के साथ चलती है। वास्तव में, ज्यादातर मामलोँ में थकान के लिए ऑक्सीजन की कमी जिम्मेदार नहीं होती, बल्कि प्राण ऊर्जा का एक चक्र पर इकट्ठा होना होता है। इसे ही चक्र का ब्लॉक होना भी कहते हैं। उस प्राण ऊर्जा को लूप चैनल में चलाने के लिए एक अच्छी सी गहरी सांस भी काफी होती है। एक औऱ नई बात बताऊँ। हम अंगड़ाई प्राण ऊर्जा को रिलोकेट करने और उसे गति देने के लिए ही लेते हैं। इसीलिए अंगड़ाई लेने से थकान दूर होने का अहसास होता है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि हरेक तथ्य की गहराई में जाना चाहिए। ऊपर से ही आधी-अधूरी बात समझने से लाभ की बजाय हानि भी हो सकती है। यही इस कुन्डलिनी समर्पित वेबसाइट का मकसद है। चक्र-लिंग की अनुभूति के लिए एक शर्त यह भी है कि उसका प्रतिदिन का कुन्डलिनी योगाभ्यास अनवरत जारी रहना चाहिए। यह अनुभूति तब ज्यादा बढ़ जाती है, अगर इसके साथ आनन्दमयी रतिक्रीड़ा के साथ बिंदु संरक्षण भी हो। 4-5 दिनों के आराम के बाद ऐसा करने से इस सर्वलिंगमयी अनुभूति की संभावना ज्यादा होती है। यह चक्रों पर मुख्यतः नाभि चक्र, अनाहत चक्र व विशुद्धि चक्र पर तीखी व आनन्दमयी अनुभूति होती है। यह चक्र पर एक आनन्दमयी तेज सिकुड़न की तरह प्रतीत होता है। ऐसा लगता है कि जैसे चक्रों पर बिंदुपात हो रहा हो। वास्तव में चक्र कोई भौतिक संरचना नहीँ हैं। ये शरीर में वे स्थान हैं, जहां शक्ति घनीभूत हो जाती है, और एक आनन्दमयी संवेदना प्रकट करती है। आप चक्रों को शक्ति के जमावड़े अड्डे कह सकते हैं। वैसे भी, सारा खेल संवेदना का ही तो है। साधना से संवेदना को स्थानांतरित किया जा सकता है, और किसी भी चक्र पर संवेदना को पैदा किया जा सकता है।
प्राण और अपान आपस में जितनी तेजी व शक्ति से भिड़ेंगे, उनका मिश्रण उतना ही ज्यादा मजबूत होगा। जितना ज्यादा उनका परस्पर मिलन होगा, उतना ज्यादा कुंडलिनी लाभ प्राप्त होगा। प्राण सत्त्वगुण का और अपान तमोगुण का प्रतीक है। ये दोनों गुण भी इसी तरह मिश्रित होना चाहते हैं। कुछ साल पहले की बात है। मुझे कुछ वीआईपी लोगों के साथ 1-2 दिनों के लिए रहना पड़ा। मन से तो नहीँ चाहता था, क्योंकि वे ज्यादा ही खाने-पीने वाले थे। पर मजबूरी थी। हालांकि ऐसी चीजों के सीमित व नियंत्रित प्रयोग को मैं बुरा नहीं मानता। उनके खाने-पीने के दौरान मुझे उनके साथ बैठना पड़ा। वे तो अनलिमिटेड नॉनवेज खाकर और ड्रिंक करके नशे में धुत्त थे। उससे उस समय जैसे उनकी छुपी हुई तीसरी आंख खुल गई हो। वे मेरे मुंह के बारीक से बारीक भाव को भी आसानी से पढ़ रहे थे। मेरा बुझा हुआ सा मन उन्होंने पकड़ लिया। हल्की-फुल्की बातों को भी उन्होंने अपने खिलाफ समझ लिया। उस समय तो नशे में कुछ नहीं बोले, पर वे काफी समय तक मन में उसकी टीस रखते रहे। दरअसल नशे से और नॉनवेज से आदमी के अंदर बहुत ज्यादा तमोगुण छा जाता है। ऐसे में उसको बाहर से उतना ही ज्यादा सतोगुण देना पड़ता है। उससे जब तमोगुण और सतोगुण का मिलन होता है, तो वह बहुत ज्यादा आनन्द और आध्यात्मिक उन्नति अनुभव करता है, और सतोगुण प्रदान करने वाले का हमेशा के लिए मुरीद बन जाता है। यह लाभ सतोगुण वाले आदमी को भी मिलता है, क्योंकि उसे तमोगुणी से तमोगुण मिलता है। अर्थात दोनों प्रकार के लोगों से परस्पर एकदूसरे का हित स्वयं ही होता है। इसीलिए हिंदु समाज में वर्णव्यवस्था थी। वहाँ ब्राह्मण का गुण सतोगुण होता था, क्षत्रिय का रजोगुण, वैश्य का मिलाजुला और शूद्र का तमोगुण होता था। आज तो आदमी लगातार गुण बदलता रहता है। कभी सतोगुण, कभी रजोगुण और कभी तमोगुण आवश्यकतानुसार धारण कर लेता है। इसलिए हर किसी के वास्तविक गुण के बारे में संशय रहता है। इससे गुण मिलाप अच्छे से नहीं हो पाता, जिससे आध्यात्मिक उन्नति कम होती है। एक बात दिमाग में आई है। मुझे लगता है कि गुण मिलान जैसा कि हिंदू विवाह से पहले किया जाता है, यह वही बात है। यदि दोनों के गुण एक-दूसरे के साथ मिल जाते हैं, तो एक सुखद वैवाहिक जीवन का आगमन होता है, अन्यथा गुणों के टकराव के कारण वैवाहिक जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।  यह सतोगुण रोमांचित रह के, शालीनता दिखा के, और भी सारे दैवीय गुणों का प्रदर्शन करके प्रदान किया जा सकता है। साथ में उदारता और समर्पण का मानसिक भाव भी होना चाहिए। अहंकार व संकुचित भाव नहीं होना चाहिए। इससे तो वह उल्टा ज्यादा नाराज हो जाएगा। उसे लगेगा कि यह अपना सतोगुण अपने तक ही सीमित रखना चाहता है, मेरे तमोगुण से नहीं मिलाना चाहता। इसके विपरीत, यदि उसके सामने तमोगुण वाले भाव जैसे अवसाद, अरुचि, घृणा आदि दिखाए जाएं, तो उसका तमोगुण और ज्यादा बढ़ जाएगा। इससे वह खुद भी गंभीर अवसाद में जा सकता है। उनके साथ अन्य लोग जो खा-पी कर भी झूठमूठ में ही उनके सामने सतोगुण की एक्टिंग कर रहे थे और उन्हें बढ़िया से मक्खन लगा रहे थे, उनकी बल्ले-बल्ले। ऐसा मेरे साथ कॉलेज में भी कई बार होता था। इससे जाहिर होता है कि दुनिया प्यार से व मिलजुलकर ही अच्छी चलती है। हिन्दू पौराणिक समुद्रमंथन इसका अच्छा उदाहरण है।

मैं कभी पुरुष भाव और महिला भाव दोनों को मन में संतुलित रखता था। तब पुरुष जगत ने मुझे प्रताड़ित किया। अंत में मैंने स्त्री भाव मन से हटा दिया, और विरोधियों को करारा जवाब दिया। नतीजा, मेरा आधा चला गया था। अधूरापन। शादी के बाद मुझे मेरा वो खोया हुआ आधा मिल गया। मैं खुश हूं। चिंता मत करो। आप अकेले पूर्ण हो सकते हैं, या दूसरों की मदद ले सकते हैं। चुनना आपको है। एक ही बात है। हालांकि गुणवत्ता साझाकरण पहली नज़र में अधिक कुशल तरीका प्रतीत होता है।

कुन्डलिनी सर्वोत्तम गुरु है, जो योग में दिशानिर्देशन करती है

मुझे कुम्भक प्राणायाम का किताबी ज्ञान कभी समझ नहीं आया। मुझे तो यह भी ढंग से पता नहीँ था कि सांस रोकने को कुम्भक कहते हैं। कुन्डलिनी ने ही मुझे चक्रों पर सांस रोकने के लिए बाध्य किया, क्योंकि उससे वह बहुत तेजी से चमकती थी। आनन्द छा जाता था। मन हल्का और साफ हो जाता था। मैंने एक पिछली पोस्ट में इसका वर्णन किया है, जहां मैं इसे साँस रोककर प्राण और अपान की टक्कर का नाम दे रहा हूँ। हो सकता है कि उस टक्कर का भी कोई लिटेरल नाम हो। बोलने का मतलब है कि खुद अपने हिसाब से करना चाहिए। फिर जब मैंने कुम्भक नाम को गूगल पर सर्च किया तो पहले ही सर्च पेज पर किताबी ज्ञान तो बहुत मिला, पर किसीका अपना व्यावहारिक अनुभव नहीं था। उदाहरण के लिए वहां लिखा था कि साँसों को झटके से नहीं छोड़ना चाहिए। मैंने तो ऐसा कभी नहीं सोचा। हम क्या दौड़ लगाते हुए साँसों को झटके से नहीं छोड़ते। फेफड़े इतने नाजुक भी नहीं होते। किताबी ज्ञान में कई बातें होती हैं, जिनसे भ्रम की स्थिति पैदा हो सकती है। यदि झटकों के डर से कोई कुम्भक ढंग से नहीं कर पाया, तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इसी तरह, मैं ध्यान लगाते समय जरूरत के हिसाब से हिलता डुलता भी हूँ, ताकि बैठने में आसानी हो और कुंडलिनी पर अच्छे से ध्यान लग सके। किताबी ज्ञान में तो खम्भे की तरह बिल्कुल स्थिर रहने को कहा है। हो सकता है कि कोई स्थिर न रह पाने की वजह से ध्यान ही न लगा पाता हो, यह सोचकर कि स्थिरता के बिना ध्यान हो ही नहीं सकता। ऐसी कई बातें हैं, जिनसे भ्रम पैदा हो सकता है। इसलिए पूरा और स्पष्ट लिखना या कहना जरूरी है। योग के मामले में लचीलापन होना जरूरी है। फिर भी अध्ययन से लाभ तो मिलता ही है, चाहे वह किसी भी गुणवत्ता का हो। कुछ न होने से कुछ होना बेहतर है। आज मैंने इसी सतही ज्ञान को पढ़कर योग करते हुए साँस को धीमा व गहरा किया तो बहुत लाभ मिला, बेशक समय कुछ ज्यादा लगा। निष्कर्ष यह निकलता है कि कुन्डलिनी अपने हिसाब से खुद योग सिखाती रहती है। पढ़ने को भी वही प्रेरित करती है। इसलिए यदि कुन्डलिनी का सही मतलब पता चल जाए तो आधे से अधिक योग का सफर तय हो जाता है। यही इस वेबसाइट का मूल उद्देश्य है।

कुंडलिनी साधना के लिए सन्ध्या या संगम का महत्त्व

करोल पर्वत

रति दक्ष की पुत्री और ब्रह्मा की पौत्री है

मित्रों, पिछली पोस्ट कुछ छोटी थी, इस बार लॉन्गरीड आर्टिकल पढ़ने के लिए तैयार हो जाइए। पिछली पोस्ट में मैंने रति को ब्रह्मा की पुत्री कहा था। वास्तव में वह दक्ष की पुत्री है। बात एक ही है, क्योंकि दक्ष ब्रह्मा का मानस पुत्र है। दक्ष का मतलब होता है निपुण। जब आदमी अपने मन में दुनियादारी में निपुणता अर्थात कर्मयोग का संकल्प लेकर उसे अपनाता है, तो उसके मन में एक कुंडलिनी पैदा हो जाती है। यही दक्ष के पसीने से अर्थात कर्मयोग से रति अर्थात कुंडलिनी का जन्म है। यही मैंने पिछली पोस्ट में भी लिखा है कि कुंडलिनी को पहले कर्मयोग से पैदा करके विकसित करना पड़ता है, तब जाकर ही इसका समर्पित तंत्रयोग के साथ सफलतापूर्वक गठजोड़ बनाया जा सकता है।

धर्म विवेक बुद्धि का प्रतीक है

कथा के अनुसार धर्म ने ब्रह्मा को संध्या के प्रति  कामवासना से रोकना चाहा, पर वे नहीं रुके। तब धर्म ने शिव से ब्रह्मा को रोकने के लिए गुहार लगाई। धर्म या विवेक या बुद्धि भी ब्रह्मा का मानस पुत्र ही है। है तो यह भी विचार रूप ही, बेशक बुद्धि को मन से बड़ा कहा जाता हो। यह वास्तव में अच्छे और बुरे का ज्ञान है। पर कामवासनाओं से पीड़ित आदमी अक्सर इसकी बात नहीं सुनता। जब धर्म यह देखता है कि उससे बात नहीं बन रही, तब वह कुंडलिनी रूप शिव को याद करता है। वह उसी समय प्रकट होकर आदमी को गलत काम करने से रोकता है। तभी तो कहते हैं कि ईश्वर या कुंडलिनी बुद्धि से भी परे है। जहाँ बुद्धि या दिमाग भी हार जाता है, वहाँ कुंडलिनी को याद करके लाभ मिलता है। यदि प्रतिदिन के योगाभ्यास से हमेशा ही कुंडलिनी को याद रखा जाए, तब तो कहने ही क्या।

संध्या काल अद्वैत का प्रतीक है

संध्या स्त्री संध्या काल (डस्क और डान) का ही रूपक है, इसकी ओर इशारा वहीँ एक श्लोक से किया गया है, जिसमें लिखा गया है कि कामदेव रति के साथ ऐसे सुशोभित हो रहा था, जैसे संध्या काल में बादल के साथ चमकती बिजली। संध्या शब्द संस्कृत के संधि शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है, जोड़। संध्या में सभी विपरीत भाव जुड़े होते हैं। इस तरह से संध्या ईश्वर या अद्वैत के समतुल्य है। संध्या के समय दिन-रात के संतुलित होने से आदमी भी संतुलित हो जाता है। दरअसल संध्याकाल में दिन और रात के अंश बराबर होते हैं। संध्याकाल में आदमी का बायाँ व दायाँ मस्तिष्क समान चलने लगते हैं। उसके यिन और यांग बराबर हो जाते हैं। उसके दोनों नथुनों से बराबर साँस चलने लगती है। पिछली पोस्ट में जो मैंने प्राण और अपान को जोड़ने की योग तकनीक का वर्णन किया था, वह भी संध्या के तुल्य ही है। दरअसल जहाँ भी दो परस्पर विपरीत भाव आपस में जुड़ते हैं, वहाँ संध्या बन जाता है। उस शांत स्थिति में सभी काम विशेषकर आध्यात्मिक काम ज्यादा सफल होते हैं। संध्याकाल पूजापाठ से इतना ज्यादा जुड़ा है कि पूजा करने को संध्या करना ही कहा जाता है। इसी तरह ग्रहण काल भी एक संध्या काल है। उसमें किए काम कई गुना फल देते हैं। इसलिए कहते हैं कि ग्रहण काल में अच्छे व आध्यात्मिक काम ही करने चाहिए। पुराने समय में राजा लोग एकदम से राज्य छोड़कर तप के लिए वन चले जाया करते थे। वनवास का कुछ दिनों का शुरुआती समय भी उनके लिए महान संध्या काल की तरह होता था। उस समय वे कुंडलिनी साधना करके शीघ्रता से अपनी कुंडलिनी को जगा दिया करते थे। इसी तरह योगसाधना से बने प्रकाशमान चित्त में जो तांत्रिकों के द्वारा पंचमकारों से उत्पन्न अंधकार प्रविष्ट कराया जाता है, उससे भी उत्तम कोटि का बनावटी संध्या काल बनता है। उसमें वे बहुत सी सिद्धियां प्राप्त करते हैं, कुंडलिनी जागरण भी जिनमें एक है। इलाहाबाद के संगम में गंगा और यमुना नदियां मिलती हैं। ये दोनों नदियां परस्पर विपरीत गुणों वाली हैं। इससे बहुत अच्छा संध्या स्थान बनता है। इसिलए संगम को बहुत पवित्र माना जाता है। योगी लोग योग साधना के लिए गहन पहाड़ों व वनों में इसीलिए जाते हैं क्योंकि वहाँ उन्हें संगम का आभास होता है। कई धर्मों में कन्या को इसीलिए पूजा जाता है क्योंकि कन्या में स्त्री और पुरुष दोनों का संगम होता है।

सांयकालीन संध्या के समय भ्रमण से आनन्द तो मिलता है, पर कुंडलिनी विकास केवल योगी का ही होता है

आदमी के सौंदर्य में वृद्धि हो जाने के कारण वह संध्या काल में आसानी से काम का शिकार बन सकता है। इसकी मुख्य वजह यह है कि यौन प्रेमी के मन में अपने यौन साथी के रूप की कुंडलिनी बसी होती है। संध्या के समय वह प्रबल रूप में चमकने लगती है। उस समय यदि ऐसा व्यक्ति आचारहीन लोगों की संगति में हो, तो वह यौन कुंडलिनी से प्रेरित कामवासना के प्रभाव में आकर गलत कदम उठा सकता है। उससे उसके मन की कुंडलिनी को भी भारी क्षति पहुंच सकती है। परंतु यदि वह सदाचारी मित्रों व लोगों की संगति में हो, तो उनके प्रभाव में रहते हुए वह गलत कदम उठा ही नहीं पाता। वह कुंडलिनी को वश में कर लेता है, कुंडलिनी के वश में नहीं होता। इससे उसकी कुंडलिनी उत्तरोत्तर वृद्धि करती हुई उसे कुंडलिनी जागरण या सीधे ही आत्मज्ञान तक ले जाती है। इसीलिए संध्या के समय में आध्यात्मिक माहौल में रहने के लिए कहा जाता है। वैसे भी लोग संध्या के समय मॉल पर टहलने निकलते हैं। इधर-उधर के फालतू विचार उमड़ने से आनन्द तो मिलता है, पर उससे सांसारिक द्वैत रूप भ्रम में ही वृद्धि होती है। योगी लोग ऐसे समय में आसानी से पहचाने जा सकते हैं। उनके चेहरे पर कुंडलिनी के प्रभाव से विशेष चमक और शान्ति झलकती है। संध्या के समय मस्तिष्क के दोनों गोलार्धों के बराबर व दक्षता से चलने से मानसिक शक्ति चरम पर होती है।

संध्या कालीन काम से यदि आम आदमी भ्रम में पड़ता है, तो तंत्रयोगी कुंडलिनी को मजबूत करता है

वास्तव में ब्रह्मा एक आम आदमी ही है। हरेक चीज की उत्पत्ति आदमी के मन में ही होती है। बाहर कुछ नहीं है। ये पर्वत,महासागर, चाँद, सितारे, सब मन की ही उपज हैं। इसी तरह संध्या का समय भी मन में ही बना। संध्या के समय कामभावना जागृत होने का मतलब है, संध्या के ऊपर आसक्त होना। संध्या ने बाद में लज्जा महसूस करते हुए तप करते हुए देहत्याग का विचार किया। इसका मतलब है कि वह अपने असली पवित्र काल के रूप को खोने जा रही थी। फिर ब्रह्मा, शिव आदि देवताओं ने उसकी शादी आध्यात्मिक ऋषि वसिष्ठ से करवा दी। मतलब कि संध्या काल फिर से आध्यात्मिक काम के लिए निर्धारित हो गया। तांत्रिक क्रियाएं इसमें अपवाद हैं। बेशक वे बाहर से भौतिक व सकाम लगें, पर अंदर से वे आध्यात्मिक ही होती हैं। इसीलिए तांत्रिक क्रियाएं भी ज्यादातर संध्या काल में ही की जाती हैं। कामदेव को ब्रह्मा ने भस्म होकर नष्ट हो जाने का श्राप दिया, क्योंकि उसने संध्या काल में ऋषियों और देवताओं को परेशान किया था। तो यह आम आदमी के लिए डर वाली बात है, क्योंकि वे काम के सहारे ही तो जीते हैं। वैसे भी, पूरे दिनभर के कामकाज से आदमी सन्ध्या के समय थका हुआ सा रहता है। इसी तरह सुबह उठकर नींद से पैदा हुई सुस्ती जैसी रहती है। यही संध्या को मिला शिव का वरदान है कि उसे काम परेशान नहीं करेगा। मतलब कि उस समय उनकी भौतिक कामनाएं व यौन कामनाएं नष्ट जैसी हो जाती हैं। एकप्रकार से काम थका हुआ सा होता है, पूरा नष्ट नहीं हुआ होता है। काम का पूर्ण नाश तो तंत्रयोगी ही कर पाते हैं। इसलिए तंत्रयोगियों के लिए यह काल वरदान है, क्योंकि वे अन्ततः काम को नष्ट करके ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। वे अपनी तन्त्र विद्या से पहले काम को पैदा करते हैं, फिर उससे मजबूत बनी कुंडलिनी से उसी काम को नष्ट कर देते हैं। वे काम की शक्ति अपनी कुंडलिनी को देते हैं। आम आदमी काम से उत्पन्न शक्ति को कुंडलिनी में रूपांतरित करने की तकनीक नहीं जानते, इसलिए वह शक्ति रंग-बिरंगे विचारों से भ्रम पैदा करती है। दूसरा अर्थ इससे यह निकलता है कि शिव वरदान के रूप में अपने आप को ही दे देते हैं। शिव मस्त मलंग और शून्य रूप हैं, उनके पास अपने सिवाय देने को है ही क्या। पर जब शिव मिल जाते हैं, तो सबकुछ खुद ही मिल जाता है। शिव कुंडलिनी रूप रति के रूप में हैं। इसलिए कुंडलिनी योग से काम खुद ही नष्ट हो जाता है।

कुंडलिनी काम से शक्ति लेकर अंत में काम को ही नष्ट कर देती है, फिर काम को पुनर्जीवित भी कर देती है

अब काम को ही देख लो। वह रति के प्रति इतना मोहित हो गया कि उसे अपने प्रति ब्रह्मा द्वारा दिए गए श्राप की सुध भी नहीं रही, और वह देवताओं के उकसावे में आकर रति से विवाह करने को राजी हो गया। यह उसके भस्म होने की शुरुआत थी, क्योंकि अंततः रति रूपी कुंडलिनी ने काम को नष्ट तो करना ही है। अब कुंडलिनी को ही शिव नाम दिया गया हो, तो आश्चर्य नहीं, क्योंकि शिव और शक्ति तत्त्वतः एक ही हैं। शिव ने काम को भस्म किया, मतलब कुंडलिनी ने काम को भस्म किया। अब यदि कोई कहे कि यह कैसे हो सकता है कि रति भी कुंडलिनी है और शिव भी कुंडलिनी है। तो इसका स्पष्टीकरण यह है कि रति दरअसल मन का भाव है, पर शिव वास्तविकता है। वैसे तो दोनों ही मन के भाव हो सकते हैं, पर मैं इन दोनों की आपसी सापेक्षता के हिसाब से बात कर रहा हूँ। मतलब कि सापेक्ष रूप से शिव रति की अपेक्षा ज्यादा वास्तविक है। इसी तरह रति शिव की अपेक्षा ज्यादा भावप्रधान है। यदि शिव मंदिर में रखी मूर्ति के रूप में हैं, तो रति मन में लग रहे उनके ध्यान के रूप में। रति मतलब लगाव। अब शिवपुराण में शिव से ही लगाव होगा, किसी अन्य देवता से नहीं। शिवपुराण में हर जगह शिव का ही ध्यान करने की सलाह दी गई है। इसी तरह  जब शिव-शक्ति का विवाह मतलब कुंडलिनी जागरण होता है, तब काम को पुनः जीवित हो जाने का वरदान मिला है। इसका मतलब है कि जागृति के बाद फिर से आदमी दुनिया में रम जाता है, हालाँकि ज्ञान व अनासक्ति के साथ। जागरण के बाद आदमी को कुछ पाने की चिंता तो होती नहीं, इसलिए वह खुलकर जीना शुरु करता है।

कामदेव के पुष्पबाण आदमी को प्यार-प्यार में ही घायल कर देते हैं

इस कथानक में यह वृत्तान्त रोचक है कि ब्रह्मदेव के मन से उत्पन्न कामदेव के पास पाँच फूलों के बाण या अस्त्र थे। ब्रह्मा या ब्रह्मदेव यहाँ सभी लोगों या जीवों के सामूहिक रूप का पर्याय है, और कामदेव सभी जीवों की सामूहिक कामवासनाओं का पर्याय है। तभी काम और ब्रह्मा के साथ देव शब्द लगा है। यदि एक आदमी की कामवासना की बात होती, तो सिर्फ काम ही कहते। इस तरह से तत्त्वतः तो काम और कामदेव एक ही हैं। कामदेव के ये पाँच बाण हैं, हर्षन मतलब खुश करना, रोचन मतलब पसंद करवाना, मोहन मतलब मोहित करवाना या एक के ही चक्कर में पागल बनवाना, शोषण मतलब शक्ति को सोखना, और मारण मतलब मरवाना। अब यह हैरानी की बात है कि अंतिम तीनों जानलेवा हथियार भी फूलों के ही हैं। तभी तो इन हथियारों से घायल आदमी प्यार-प्यार में ही बहुत कुछ गवां देता है, और उसे इसका आभास तक नहीँ होता।  इससे प्राचीन ऋषियों की व्यावहारिकता, दूरदर्शिता और सूक्ष्मदर्शिता का पता चलता है। इतने अच्छे रूपक बनाने वाले कोई वनवासी नहीँ हो सकते, जैसी कि आम भ्रांत धारणा है। वे दुनियादारी में सबसे ज्यादा कढ़े हुए और गढ़े हुए होते थे।

काम के साथ भावनाओं का अंबार भी चलता है, जिससे आदमी आनंदमयी मस्ती में डूबा रहता है

फिर लिखा है कि जैसे ही ब्रह्मा ने उत्तेजित होकर कामभाव से संध्या की तरफ देखा, वैसे ही उनके शरीर से उन्चास भाव पैदा हो गए। आम आदमी के साथ भी तो ऐसा ही होता है। कामोत्तेजित होने के बाद वह रंग-बिरंगे भाव दिखाने लगता है। वह यारों का यार, बापों का बाप, पुत्रों का पुत्र और पता नहीं क्या-क्या बनने लगता है। वह चारों ओर छा जाता है। ऐसे कौन से भाव हैं, जो उसके अंदर पैदा नहीं होते। मातृ भाव, भगिनी भाव, गुरु भाव, बुजुर्ग भाव, बाल भाव, नवयुवक भाव, पशु-पक्षी भाव, वृक्ष-लता भाव, पर्वत भाव आदि-आदि। ये भाव संध्या के समय ज्यादा उमड़ते हैं, क्योंकि उस समय मन में शांति छाई होती है। भावों में तो बुराई नहीं है, पर आसक्ति में बुराई है। जिस घर में संध्या योग होता है, वहाँ ये कामजनित भाव कुंडलिनी के साथ मिश्रित होकर आसक्ति और दुर्भावना को नष्ट कर देते हैं। केवल शुद्ध प्रेम बचा रहता है। कुंडलिनी और प्रेमभाव एकदूसरे को उत्तरोत्तर बढ़ाते रहते हैं। इसलिए प्रेम करने में बुराई नहीँ है, यदि उसे शुद्ध और आध्यात्मिक बनाया रखा जाए। बल्कि वह प्रेम तो सबसे बड़ा योग है। प्रेम में दीवाना होकर आदमी भावविभोर होकर आनन्दित हो जाता है। इसे आजकल हाईपर या हॉट या रंगीन होना कहते हैं। यही तो काम का आकर्षण है। इसको बहुत सुंदर शैली में व्यवहारिकता, आधुनिकता व वैज्ञानिकता के साथ समझाया गया है, पुस्तक शरीरविज्ञान दर्शन में। बहुत सुंदर रूपक कथाएँ हैं पुराणों में। मुझे लगता है कि कथा सुनाते समय मूल कथा के साथ उसमें दिए गए रूपक के रहस्य को भी डिकोड करके सुनाना चाहिए। इससे श्रोताओं को अधिक लाभ मिलेगा।

संध्या के द्वारा शिव से मांगे गए वरदान काम भाव से बचाव के लिए थे, शुद्ध प्रेमभाव से बचाव के लिए नहीं

ये मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि कई लोग काम के डर से संध्या के समय आपस में बातें भी नहीँ करते। सन्ध्या के द्वारा लज्जित होकर तप करने का अर्थ है, लंबे समय तक आध्यात्मिक लोगों द्वारा संध्या के समय आध्यात्मिक साधनाएं करना। इसकी जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि उन लोगों ने काम को अपनाया था, शुद्ध प्रेम को नहीं। शुद्ध प्रेम तो अपने आप में तप ही है। संध्या के द्वारा तीन वरदान मांगे गए, जो शिव के द्वारा पूरे किए गए। पहले वरदान, पैदा होते ही किसी जीव में कामवासना पैदा न होने का अर्थ है कि जिस घर मे संध्या वंदन होता है, उस घर मे पैदा हुए बच्चों में उच्च कोटि के आध्यात्मिक संस्कार होते हैं। उनमें जन्म से ही अपने आप ही कुंडलिनी बनी होती है। वह कुंडलिनी उन्हें कामवासना से बचा कर रखती है। या यूँ कहो कि उनकी कुंडलिनी कामभाव को प्रेमभाव में रूपांतरित करती रहती है। दरअसल संध्या के पैदा होते ही कामदेव के प्रभाव से उसपर ब्रह्मा और उनके पुत्र आसक्त हो गए थे। संध्या का समय बहुत छोटा होता है। इसका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। यह दो प्रकार के विपरीत समयों के संयोग से बनता है। इसलिए इसके बड़े और जवान होने का प्रश्न ही नहीं होता, क्योंकि यह पैदा होते ही विलीन होने लगता है। दूसरा वरदान कि मेरे कुल में कोई भी कामासक्त न होए, इसका भी यही अर्थ है कि बेशक संध्या वंदन करने वाले लोगों के घरों के सदस्य किसी कारणवश कामभाव का प्रदर्शन करें, पर वे कामासक्त नहीँ होते, मतलब कामदेव के प्रभाव में आकर किसीके ऊपर लट्टू नहीँ हो जाते। तीसरा वरदान कि मेरे कुल की सभी स्त्रियां पतिव्रता होएं, इसका अर्थ है कि जो लोग संध्यावंदन करते हैं, उनकी कुंडलिनी बहुत विकसित और मजबूत होती है। इसी कुंडलिनी के कारण ही वे अपनी पत्नियों को पूर्ण संतुष्ट रख पाते हैं। यह तो वैज्ञानिक व तांत्रिक रूप से सत्य है कि यौन संतुष्टि और यौन क्रीड़ाओं पर पूरा नियंत्रण कुंडलिनी से ही प्राप्त होता है। एक वरदान शिव ने संध्या को यह भी दिया कि जो उसकी ओर काम भाव से देखेगा, वह नपुंसक हो जाएगा और उसकी शक्ति नष्ट हो जाएगी। इसका भी यही तात्पर्य है कि जो सन्ध्या के समय भोगों को आसक्ति से या उन्हें कुंडलिनी के बिना भोगेगा, वह मोहमाया के भ्रम में पड़कर अपनी आत्मा के अंधकार को बढ़ाएगा। कुंडलिनी के प्रति रति ही कामभाव या आसक्ति भाव को नियंत्रण में रखती है। सन्ध्या शब्द यहाँ ऐसे सभी समयों के लिए इंगित किया हुआ प्रतीत होता है, जिस समय आदमी सन्तुलित होता है, उसकी इड़ा और पिंगला नाड़ी बराबर चलती है, मन की कुंडलिनी मजबूत होती है, और मन में गहरी शांति छाई होती है। 

प्रेम और काम एकदूसरे को बढ़ाते रहते हैं

हर जगह प्रेम करते रहने से काम भाव में वृद्धि होती है। वह काम भाव जीवनसाथी के साथ मिलकर परिपक्व होकर प्रेम को और अधिक बढ़ाता है। तंत्रयोगी उस कामजनित प्रेम को कुंडलिनी प्रेम में रूपांतरित करते रहते हैं। तंत्रयोगी का केवल एक ही जीवनसाथी या यौनसाथी इसलिए होता है, ताकि कामजनित प्रेम उसकी कुंडलिनी को आसानी से हासिल होता रहे। अय्याश किस्म के आदमी का कामजनित प्रेम बहुत से यौनसाथियों में विभक्त हो जाता है, जिससे वह कुंडलिनी को नहीँ मिल पाता। इसीलिए कहते हैं कि एकपत्नीव्रत सबसे बड़ा व्रत है।इसके अलावा, यह यौन ऊर्जा है जिसकी कुंडलिनी के लिए जरूरत पड़ती है, न कि शारीरिक आकर्षण। बल्कि अतिरिक्त शारीरिक आकर्षण तो व्यक्ति को ऊर्जा के वास्तविक स्रोत से विचलित कर सकता है।

कुंडलिनी ही आदमी की असली सेवियर या रक्षक है

शिव के द्वारा संध्या के ऊपर कामासक्त ब्रह्मा को रोकने का अर्थ है कि आदमी को उस समय कुंडलिनी बचा लेती है। शिव यहाँ कुंडलिनी का प्रतीक है। वैसे भी कुंडलिनी आदमी को बुरे काम करने से रोकती ही है। यदि अनजाने या बहुत मजबूरी में कभी गलत काम हो भी जाए, तो कुंडलिनी उसका प्रायश्चित या पश्चाताप भी करवाती है। शिवपुराण में सभी के लिए शिव का ध्यान करना जरूरी बताया गया है। तो स्वाभाविक है कि ब्रह्मा भी शिव का ध्यान करते थे। इससे शिव उनकी कुंडलिनी बन गए, और कुंडलिनी रूप में वे ही ब्रह्मा को गलत काम से रोकने के लिए प्रकट हुए।

शिवपुराण एक तन्त्र पुराण ही है

शिवपुराण में सभी बातें और कथाएँ तन्त्र से सम्बंधित ही हैं। यह अलग बात है कि अधिकांश लोग उन्हें समझ नहीं पाते, क्योंकि वे रूपकों के रूप में हैं। ऐसा तन्त्र के दुरुपयोग को रोकने के लिए किया गया था। पुराण वेदों से निकलते हैं। इसका मतलब है कि तन्त्र का प्राचीनतम मूल स्रोत वेद ही हैं। यद्यपि प्रत्यक्ष नियमावली के साथ व्यावहारिक तन्त्र बौद्धों में ही दिखाई देता है। ऐसा नहीं है कि हिंदुओं में तन्त्र की व्यावहारिक प्रथा लुप्त हो गई हो। अभी भी हिन्दुओं में यह प्रचलित है, पर इसे बहुत गुप्त रखा जाता है, जिससे आम लोगों को इसका पता ही नहीं चलता। बौद्धों में भी इसे छिपा कर रखा जाता था। पर आज के इस मरते ग्रह को देखकर कोई पुनर्जीवन देने वाली विद्या छिपाना मानवता के साथ धोखा होगा, ये बात उन्होंने समझ ली है।

उपरोक्त काम व प्रेम से सम्बंधित सिद्धांतों का अनुभवात्मक साक्ष्य

दोस्तों, मैं बहुत से लोगों से गहरा प्रेम करता था। कई। पर अपना जीवन मैंने संयमपूर्वक ही जिया। अब अपनी बड़ाई में ज्यादा भी क्या कहना, पर यदि इससे किसी को लाभ मिलता हो तो इसमें बुरा भी कुछ नहीं है। जैसा भी मैंने इस पोस्ट में बताया है, वह सब मेरे साथ घटित हुआ। यह सब मेरा अपना अनुभवात्मक वर्णन है, कोई पढ़ा-पढ़ाया नहीं। इन्हीं अनुभवों के बीच में मेरा वह क्षणिक आत्मज्ञान व कुंडलिनी जागरण भी शामिल था, जिसका वर्णन होमपेज पर है। बेशक ये कुछ क्षणों के अनुभव थे, पर कुछ न होने से कुछ तो होना बेहतर है। और वैसे भी आत्म जागृति के अनुभव से ज्यादा महत्त्व तो आत्मजागृति से भरी जीवन दिनचर्या का है।

कुंडलिनी योग का निरूपण करती हुई श्रीमद्भागवत गीता

श्रीकृष्णेन गीता

मित्रों, एक मित्र ने मुझे कुछ दिनों पहले व्हाट्सएप पर ऑनलाइन गीता भेजना शुरु किया। एक श्लोक सुबह और एक शाम को प्रतिदिन भेजता है। उसमें मुझे बहुत सी सामग्री मिली जो कुंडलिनी और अद्वैत से सम्बंधित थी। कुछ ऐसे बिंदु भी मिले जिनके बारे में समाज में भ्रम की स्थिति भी प्रतीत होती है। वैसे तो गीता के संस्कार मुझे बचपन से ही मिले हैं। मेरे दादाजी का नाम गीता से शुरु होता था, और वे गीता के बहुत दीवाने थे। मैंने भी गीता के ऊपर विस्तृत टीका पढ़ी थी। पर पढ़ने और कढ़ने में बहुत अंतर होता है।

गीता के चौथे अध्याय के 29वें श्लोक में तांत्रिक कुंडलिनी योग का वर्णन

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥४-२९॥

इस श्लोक की पहली पंक्ति का शाब्दिक अर्थ है कि कुछ योगी अपान वायु में प्राणवायु का हवन करते हैं। प्राण वायु शरीर में छाती से ऊपर व्याप्त होता है। अपान वायु स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार चक्र के क्षेत्रों में व्याप्त होता है। जब आज्ञा चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार चक्र पर एकसाथ ध्यान किया जाता है, तब स्वाधिष्ठान चक्र पर प्राण और अपान इकट्ठे हो जाते हैं। इससे स्वाधिष्ठान चक्र पर कुंडलिनी चमकने लगती है। योग में स्वाधिष्ठान की जगह पर मणिपुर चक्र को भी रखते हैं। फिर प्राण और अपान का हवन समान वायु में होता है। फिर भी इसे अपान में प्राण का हवन ही कहते हैं, क्योंकि अपान वहाँ से प्राण की अपेक्षा ज्यादा नजदीक होता है। कई बार एक ही चक्र का, सहस्रार का या आज्ञा चक्र का ध्यान किया जाता है। फिर हल्का सा ध्यान स्वाधिष्ठान चक्र का या मूलाधार चक्र का किया जाता है। इससे ऊपर का प्राण नीचे आ जाता है, और वह अपान बन जाता है। एक प्रकार से अपान प्राण को खा जाता है, वैसे ही जैसे अग्नि समिधा या हविष्य को खा जाती है। इसीलिए यहाँ अपान में प्राण का हवन लिखा है। राजयोगी प्रकार के लोग सांसारिक आधार को अच्छी तरह से प्राप्त करने के लिए इस भेंट को अधिक चढ़ाते हैं, क्योंकि उनके वैचारिक स्वभाव के कारण उनके शीर्ष चक्रों में बहुत ऊर्जा होती है।
इस श्लोक की दूसरी पंक्ति का शाब्दिक अर्थ है कि कुछ दूसरे लोग प्राण में अपान का हवन करते हैं। जब आज्ञा चक्र, अनाहत चक्र और मूलाधार या स्वाधिष्ठान चक्र का एकसाथ ध्यान किया जाता है, तब अनाहत चक्र पर प्राण और अपान इकट्ठे हो जाते हैं। क्योंकि आज्ञा चक्र के साथ अनाहत चक्र पर भी प्राण ही है, इसीलिए कहा जा रहा है कि अपान का हवन प्राण अग्नि में करते हैं। इसमें भी कई बार दो ही चक्रों का ध्यान किया जाता है। पहले मूलाधार या स्वाधिष्ठान चक्र का ध्यान किया जाता है। फिर हल्का सा ध्यान सहस्रार या आज्ञा चक्र की तरफ मोड़ा जाता है। इससे नीचे का अपान एकदम से ऊपर चढ़ कर प्राण में मिल जाता है। इसे ही अपान का प्राण में हवन लिखा है। ध्यान रहे कि कुंडलिनी ही प्राण या अपान के रूप में महसूस होती है। तांत्रिक प्रकार के लोग इस प्रकार की भेंट अधिक चढ़ाते हैं, क्योंकि उनके नीचे के चक्रों में बहुत ऊर्जा होती है। इससे उन्हें कुंडलिनी सक्रियण और जागरण के लिए आवश्यक मानसिक ऊर्जा प्राप्त होती है।
तीसरी और चौथी पंक्ति का शब्द है कि प्राणायाम करने वाले लोग प्राण और अपान की गति को रोककर, मतलब प्रश्वास और निश्वास को रोककर ऐसा करते हैं। योग में यह सबसे महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में यही असली और मुख्य योग है। अन्य क्रियाकलाप तो केवल इसके सहायक ही हैं। प्रश्वास अर्थात अंदर साँस भरते समय प्राण मेरुदंड से होकर ऊपर चढ़ता है। उसके साथ कुंडलिनी भी। निःश्वास अर्थात साँस बाहर छोड़ते समय प्राण आगे की नाड़ी से नीचे उतरता है, मतलब वह अपान को पुष्ट करता है। इसके साथ कुंडलिनी भी नीचे आ जाती है। फिर प्रश्वास के साथ दुबारा पीछे की नाड़ी से ऊपर चढ़ता है। यह चक्र चलता रहता है। इससे कुंडलिनी एक जगह स्थिर नहीं रह पाती, जिससे उसका सही ढंग से ध्यान नहीं हो पाता। प्राण को तो हम रोक नहीं सकते, क्योंकि यह नाड़ियों में बहने वाली सूक्ष्म शक्ति है। हाँ, हम प्राणवायु या साँस को रोक सकते हैं, जिससे प्राण जुड़ा होता है। इस तरह साँस प्राण के लिए एक हैन्डल का काम करता है। जब साँस रोकने से प्राण स्थिर हो जाता है, तब हम उसे या कुंडलिनी को ध्यान से नियंत्रित गति दे सकते हैं। साँस लेते समय हम उसे ध्यान से ज्यादा नियंत्रित नहीं कर सकते, क्योंकि साँसे उसे इधर-उधर नचाती रहती हैं। अंदर जाती हुई साँस के साथ प्राण और कुँडलिनी पीठ की नाड़ी से ऊपर चढ़ते हैं, और बाहर जाती हुई साँस के साथ आगे की नाड़ी से नीचे उतरते हैं। साँस को रोककर प्राण और कुंडलिनी दोनों रुक जाते हैं। कुंडलिनी के रुकने से मन भी स्थिर हो जाता है, क्योंकि कुंडलिनी मन का ही एक प्रायोगिक अंश जो है। पूरे मन को तो हम एकसाथ काबू नहीं कर सकते, इसीलिए कुंडलिनी के रूप में उसका एक एक्सपेरिमेंटल टुकड़ा या सैम्पल टुकड़ा लिया जाता है। इसी वजह से तो कुंडलिनी योग के बाद मन की स्थिरता व शांति के साथ आनन्द महसूस होता है। प्राण एक ही है। केवल समझाने के लिए ही जगह विशेष के कारण उसे झूठमूठ में विभक्त किया गया है, जिसे प्राण, अपान आदि। प्राण और अपान को किसी चक्र पर, कल्पना करो मणिपुर चक्र पर आपस में भिड़ाने के लिए साँस को रोककर मुख्य ध्यान मणिपुर चक्र पर रखा जाता है, और साथ में तिरछा ध्यान आज्ञा चक्र और मूलाधार पर भी रखा जाता है। इससे ऊपर का प्राण नीचे और नीचे का अपान ऊपर आकर मणिपुर चक्र पर आपस में भिड़ जाते हैं। इससे वहाँ कुंडलिनी उजागर हो जाती है। हरेक चक्र पर इन दोनों को एक बार बाहर साँस छोड़कर व वहीँ रोककर भिड़ाया जाता है, और एक बार साँस भरकर व वहीं रोककर भिड़ाया जाता है। यह ध्यान में रखना चाहिए कि साँस को अपनी सामर्थ्य से अधिक देर तक नहीं रोकना चाहिए। अपनी बर्दाश्त की सीमा को लांघने से मस्तिष्क को हानि पहुंच सकती है।

बीच वाले चक्र पर हाथ रखकर ध्यान लगाने में मदद मिलती है। इसी तरह, सिद्धासन में बैठने पर एक पैर की एड़ी के दबाव से मूलाधार पर दबाव की संवेदना महसूस होती है, और दूसरे पैर से स्वाधिष्ठान चक्र पर। इस संवेदना से भी चक्र के ध्यान में मदद मिलती है। पर याद रखो कि पूर्ण सिद्धासन से कई बार घुटने में दर्द होती है, खासकर उस टांग के घुटने में जिसकी ऐड़ी स्वाधिष्ठान चक्र को स्पर्श करती है। इसलिए ऐसी हालत में अर्ध सिद्धासन लगाना चाहिए। इसमें केवल एक टांग की एड़ी ही मूलाधार चक्र को स्पर्श करती है। दूसरी टांग पहली टांग के ऊपर नहीं बल्कि जमीन पर नीचे आराम से टिकी होती है। घुटनों के दर्द की लंबी अनदेखी से उनके खराब होने की संभावना भी बढ़ जाती है।

गीता के चौथे अध्याय के 30वें श्लोक में राजयोग का निरूपण

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।सर्वेऽप्येते यज्ञविदोयज्ञक्षपितकल्मषाः॥४-३०॥

इस श्लोक का शाब्दिक अर्थ है कि नियमित आहार-विहार वाले लोग प्राणों का प्राणों में ही हवन करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं॥30॥

नियमित आहार-विहार वाले योगी राजयोगी होते हैं। ये तांत्रिक पंचमकारों का आश्रय नहीं लेते। इसलिए इनके शरीर के निचले भागों में स्थित चक्र कमजोर होते हैं, वहाँ पर प्राणशक्ति या अपान की कमी से। ये मस्तिष्क से हृदय तक ही, शरीर के ऊपर के चक्रों में कुंडलिनी का ध्यान करते हैं। ये मुख्यतया ध्यान का त्रिभुज बनाते हैं। उस त्रिभुज का एक बिंदु सहस्रार चक्र होता है, दूसरा बिंदु आगे का आज्ञा चक्र होता है, और तीसरा बिंदु पीछे का आज्ञा चक्र होता है। इसमें एक बिंदु पर खासकर आगे के आज्ञा चक्र पर सीधा या मुख्य ध्यान लगा होता है, और बाकि दोनों चक्रों पर तिरछा या गौण ध्यान। बिंदुओं को आपस में बदल भी सकते हैं। इसी तरह त्रिभुज दूसरे चक्रों को लेकर भी बनाया जा सकता है। तीनों बिंदुओं का प्राण त्रिभुज के मुख्य ध्यान बिंदु पर इकट्ठा हो जाता है, और वहाँ कुंडलिनी चमकने लगती है। इन त्रिभुजों में टॉप का बिंदु अधिकांशतः सहस्रार चक्र ही होता है। दरअसल, त्रिभुज या खड़ी रेखा को चारों ओर से आस-पास के क्षेत्रों से प्राण को अपनी रेखाओं केंद्रित करने के लिए बनाया गया है। कोई एक साथ बड़े क्षेत्र का ध्यान नहीं कर सकता। त्रिभुज पर स्थित प्राण की अधिक सघनता के लिए इसके तीन शंक्वाकार बिन्दुओं का चयन किया जाता है। इन तीन बिन्दुओं में से एक बिंदु पर मुख्य ध्यान केन्द्रित करके प्राण को उस एक बिन्दु पर केन्द्रित किया जाता है। अंत में, हमें कुंडलिनी के साथ-साथ उस एक बिंदु पर अत्यधिक एकाग्र या सघन प्राण मिलता है, जिससे वहाँ कुंडलिनी चमकने लगती है। इसी तरह, सीधी रेखा, कल्पना करो मूलाधार, मणिपुर और आज्ञा चक्र बिंदुओं को आपस में जोड़ने वाली रेखा के साथ भी ऐसा ही होता है। पहले रेखा के चारों ओर के शरीर का प्राण रेखा पर केंद्रित किया जाता है। फिर रेखा का प्राण इन तीनों चक्र बिंदुओं पर केंद्रित किया जाता है। फिर तीनों बिंदुओं का प्राण उस चक्र बिंदु पर इकट्ठा हो जाता है, जिस पर मुख्य ध्यान लगा होता है। अन्य दोनों बिंदुओं पर गौण या तिरछा ध्यान लगा होता है। यह एक अद्भुत आध्यात्मिक मनोविज्ञान है।

ईसाई धर्म में प्राण-अपान संघ

जीवित यीशु ने उत्तर दिया और कहा: “धन्य है वह मनुष्य जिसने इन बातों को जाना। वह स्वर्ग को नीचे ले आया, उसने पृथ्वी को उठा लिया और उसे स्वर्ग में भेज दिया, और वह बीच का बन गया, क्योंकि यह कुछ भी नहीं है। मुझे लगता है कि स्वर्ग प्राण है जिसे ऊपर वर्णित अनुसार नीचे लाया गया है। इसी तरह, पृथ्वी अपान है जो ऊपर उठाया गया है। मध्य दोनों का मिलन है। वहां उत्पादित “कुछ भी नहीं” कुंडलिनी ध्यान से उत्पन्न मन की स्थिरता ही है, जो अद्वैत के साथ आती है। अद्वैत के साथ मन की स्थिरता “कुछ भी नहीं” के बराबर ही है। प्राण को स्वर्ग इसलिए कहा गया है क्योंकि यह शरीर के ऊपरी चक्रों में व्याप्त रहता है, और ऊपरी चक्रों का स्वभाव स्वर्गिक लोकों के जैसा ही है, और ऐसा ही अनेक स्थानों पर निरूपित भी किया जाता है। इसी तरह अपान को पृथ्वी इसलिए कहा है क्योंकि यह शरीर के निचले चक्रों विशेषकर मूलाधार में व्याप्त रहता है। इन निचले चक्रों को घटिया या नारकीय लोकों की संज्ञा भी दी गई है। मूलाधार को पृथ्वी की उपमा दी गई है, क्योंकि इसके ध्यान से आदमी अच्छी तरह से जमीन या भौतिक आयाम से जुड़ जाता है, अर्थात यह आदमी को आधार प्रदान करता है। इसीलिए इसका नाम मूल और आधार शब्दों को जोड़कर बना है। धरती भी जीने के लिए और खड़े रहने के लिए सबसे बड़ा आधार प्रदान करती है। इस कोडेक्स के स्रोत तक निम्नलिखित लिंक पर पहुँचा जा सकता है-

The Gaian Mysteries Of Gnosis – The Bruce Codex

कुंडलिनी के लिए वामपंथी तंत्र के यौगिक पंचमकारों की संभावित अहमियत, जिनसे प्रकृति के तीनों गुण संतुलित रहते हैं

मित्रो, पिछले हफ्ते हमने पंचमकार और उनसे उत्पन्न तमोगुण के बारे में बताया था। पंचमकारों का वर्णन हमने पुरानी पोस्टों में भी किया है। दरअसल पंचमकार वामपंथी तांत्रिक के प्रमुख हथियार हैं, कुंडलिनी का शिकार करने के लिए। ये पांच चीजें हैं, जिनके नाम अक्षर म से शुरु होते हैं। ये हैं, मैथुन, माँस, मद्य, मत्स्य एवं मुद्रा। पांचवा पंचमकार, मुद्रा वास्तव में कुंडलिनी योग ही है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि पंचमकार को लेकर इन भौतिक चीजों या भावनाओं के सांसारिक रूपों के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए। ये केवल तभी पंचमकार बनती हैं, जब ये पूरी तरह से एक योग्य गुरु के मार्गदर्शन में आध्यात्मिक भावना व साधना के साथ होती हैं, और अधिकतम आध्यात्मिक लाभ के लिए न्यूनतम राशि में उपयोग की जाती हैं। ऐसा नहीं करने पर, पंचमकार हानिकारक भी हो सकते हैं। पंचमकार शुरू में द्वंद्व या द्वैत पैदा करते हैं। फिर इसे विभिन्न ध्यान तकनीकों और वेदों-पुराणों या शरीरविज्ञान दर्शन जैसे अद्वैतमयी दर्शन-सिद्धांतों के साथ अद्वैत में परिवर्तित किया जा सकता है। दरअसल, अद्वैत का अपना अलग अस्तित्व नहीं है। यह केवल द्वैत का निषेध है। यह द्वैत है, जिसका अपना अस्तित्व है। इसलिए, हम सांसारिक भागीदारी के माध्यम से केवल द्वैत को ही पैदा कर सकते हैं। हम अद्वैत का उत्पादन सीधे नहीं कर सकते हैं, लेकिन केवल द्वैत के निषेध के माध्यम से ही कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, द्वैत सबसे पहले प्राप्त होने वाली आधार वस्तु है। यदि हमारे पास द्वैत नहीं है, तो हम नकारात्मक शब्द ‘अ’ को उस पर कैसे लागू करेंगे। अद्वैत के संबंध में व्यापक गलतफहमी दिखाई देती है। हम द्वैत की पूर्ण उपेक्षा करते हुए अद्वैतमयी नहीं बने रह सकते हैं। ये दोनों भावनाएँ साथ-साथ चलती हैं। हम इस पोस्ट में किसी चीज या जीवन के किसी  विशेष तौर-तरीके की वकालत नहीं कर रहे हैं। हम केवल वैज्ञानिक सत्य को पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं।

दुनिया की नजरों में पंचमकारों को पापपूर्ण माना जाता है

इसका एक कारण यही है, जो पिछली पोस्ट में बताया था। ये तमोगुण पैदा करते हैं। दूसरा कारण यह है कि इसमें हिंसा कर्म छुपा होता है। कर्म का फल तो मिलता ही है। पर वह कर्म के हिसाब से ही मिलता है, मनमर्जी से नहीँ। शास्त्रीय मिथक कथाओं के अनुसार अधिकांश लोग समझ लेते हैं कि उससे मृत्युदंड मिल जाएगा अथवा भयानक नरकों में घोर यातनाएं झेलनी पड़ेंगी, क्योंकि सभी पाप या हिंसाएं बराबर हैं। पर ऐसा नहीं होता। ये सिर्फ आध्यात्मिक उक्ति ही है, भौतिक या व्यावहारिक नहीं। छुटपुट पापकर्म के छुटपुट फल मिलते रहते हैं, जो आम प्रगतिशील या मेहनतकश जनजीवन में वैसे भी देखे जाते हैं, जैसे बीमार होना, पैर फिसलना, मोच आना, हादसे की संभावना बढ़ जाना आदि। पर ज्यादातर मामलों में बचाव हो जाता है। पंचमकारों से मिली शक्ति से आदमी दुनियादारी के कामों में ज्यादा निमग्न रहने लगता है। इससे स्वाभाविक रूप से जो छुटपुट बीमारियाँ, शारीरिक कष्ट व मानसिक कष्ट पैदा होते हैं, वे ही उनके पाप के फल के रूप में होते हैं। उनसे पंचमकारों का पाप नष्ट होता रहता है, और दुनिया के काम धंधे भी तरक्की करते रहते हैं। इसलिए ऊर्जा का अधिक से अधिक सदुपयोग इस तरह से करना चाहिए कि उसके लिए कम से कम पाप करना पड़े। यही कर्म प्रबंधन है। यही योग है।

आजकल पंचमकारों के बिना कुंडलिनी योग करना मुश्किल प्रतीत होता है

मैं एक ब्लॉग में एक युवक के योग अनुभव के बारे में पढ़ रहा था। वह उसके लिए शुद्ध शाकाहारी बन गया था। एक बार संभवतः वह ऐमजॉन के जंगल में अपने किसी जाने पहचाने व्यक्ति के पास रहने लगता है। वहाँ वह मछली से परहेज करके चावल की ढेरी में एक गड्ढा सा बनाकर उसमें डालने के लिए दाल की मांग करता है। उसके परिचित की हंसी रुकने का नाम ही नहीं लेती। इससे शर्मिंदा होकर वह नॉनवेज योगी बन जाता है। इसका मतलब है कि जैसा देश, वैसा भेष। संतुलित आहार लेना योगी के लिए बहुत जरूरी है, क्योंकि योग के लिए ऊर्जा की सख्त जरूरत होती है। योग का दूसरा नाम संतुलन या संतुलित जीवन भी है। इससे जीवन में संतुलित आहार की अहमियत का पता चलता है। हम भोजन के संतुलन को केवल पोषक तत्त्वों के संतुलन तक ही सीमित समझते हैं। पर वास्तव में यह संतुलन भोजन की प्रकृति के गुणों तक भी एक्सटेंड होना चाहिए। एक आदमी को शाकाहार से सभी जरूरी पोषक तत्त्व मिल सकते हैं, पर उसे प्रकृति का तमोगुण मांसाहार से ही मिलेगा। कोई चाहे तो स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाए बिना सीमित मदिरा का प्रयोग भी आवश्यक तमोगुण की प्राप्ति के लिए कर सकता है। यह सभी को मालूम है और जैसा कि इस ब्लॉग की पिछली पोस्टों में सिद्ध किया गया है कि जीवन के संतुलन के लिए मन के अंदर प्रकृति के तीनों गुण संतुलन में होने चाहिए। ये गुण एक दूसरे के पूरक तभी बनते हैं, जब संतुलन में होते हैं, अन्यथा ये एक दूसरे के अवरोधक बन जाते हैं। ये सभी जानते हैं कि आहार से ही मन बनता है। एक प्रसिद्ध लोकोक्ति भी है कि “जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन”। इससे आहार में प्रकृति के तीनों गुणों के संतुलित मात्रा में होने की अहमियत का पता चलता है। तभी कहते हैं कि बिन खाए भजन न हो गोपाला। आयुर्वेद के वात, पित्त और कफ भी प्रकृति के क्रमशः सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण हैं। इनके संतुलन से स्वास्थ्य अच्छा बना रहता है। पतंजलि ने यम और नियम में जो अहिंसा शब्द डाला है, उसका मतलब है कि बिना उच्च प्रयोजन के हिंसा न हो। यदि शरीर को पुष्ट व नीरोग रखने के लिए हल्की-फुल्की हिंसा के रूप में हल्का-फुल्का हेल्दी नॉनवेज जैसे कि मछली, अंडा न लिया जाए तो यह भी शरीर के प्रति हिंसा होगी। उससे भी योग का यम और नियम कहाँ सिद्ध हो पाएगा। मानव शरीर के प्रति हिंसा तो सबसे बड़ी हिंसा होती है। पतंजलि बहुत लम्बी सोच रखते थे, इसलिए शाकाहार-मांसाहार के झमेले में पड़ने की बजाय उन्होंने अहिंसा शब्द जोड़ दिया। समझने वालों के लिए यह बहुत है। अब यदि विज्ञान के हिसाब से शरीर की जरूरत को आंका जाए तो एक आदमी को हफ्ते में केवल दो ही दिन और एक दिन में करीब 70-100 ग्राम मांस की जरूरत होती है। इससे ज्यादा हानिकारक हो सकता है। इससे कम से शरीर को हानि पहुंच सकती है। मैंने बहुत से योगी लोग देखे हैं, जिन्हें 15 दिन बाद, कइयों को 1 महीने बाद, तो कइयों को 3 महीने बाद जरूरत महसूस होती है। कईयों को तो छः महीने के अंतराल पर नानवेज की जरूरत महसूस होती है। अब बताइए कि इससे पोषक तत्त्वों की क्या कमी पूरी होगी। इससे जाहिर है कि उससे आदमी के मन के तमोगुण की कमी पूरी होती है। इससे, अपने अंधकार प्रकार के आंतरिक स्वभाव से उसे भरपूर व ताजगी प्रदान करने वाली नींद भी आती है, जिससे उसके शरीर व मन की अच्छी मुरम्मत हो जाती है, और उससे वह स्वस्थ हो जाता है। शरीर अपनी जरूरत खुद बताता है। इसकी जरूरत होने पर योग में ध्यान कम लगने लगता है, चुस्ती कम हो जाती है, भूख घट जाती है, पाचन प्रणाली गड़बड़ाने लगती है, शरीर में कम्पन पैदा होने लगते हैं। व्यवहार में गुस्सा व चिड़चिड़ापन आ जाता है, अद्वैतभाव बना कर रखना मुश्किल हो जाता है, मन द्वैत के भंवर के अंदर भटकने लगता है, अवसाद जैसा हो जाता है, शरीर रोगी होने लगता है, डर सा लगने लगता है, सेक्स के प्रति रुचि नहीं रहती आदि बहुत से लक्षण पैदा हो जाते हैं। मन में सही तरीके से अद्वैत भाव बनाए रखने के लिए प्रकृति के तीनों गुणों का संतुलन बहुत जरूरी है। फिर यह सबको पता है कि जहां अद्वैत है, वहाँ कुंडलिनी भी है। वास्तव में आहार की कमी से शरीर और मन के हरेक हिस्से में कुछ न कुछ दुष्प्रभाव जरूर पैदा होता है। बहुत से लोग इन्हें नजरन्दाज करते हैं और बहुत से लोगों को इसका आभास ही नहीँ होता। नॉनवेज की खुराक पूरी होने से ये सभी खराब लक्षण एकदम से गायब हो जाते हैं। वैसे भी मछ्ली को सर्वश्रेष्ठ आमिष आहार माना गया है, क्योंकि इसमें बहुत से स्वास्थ्यवर्धक गुण हैं, और इसके कोई दुष्प्रभाव भी नहीँ हैं। तभी तो इसे पंचमकारों में विशेष रूप से शामिल किया गया है। इसके सेवन से पापकर्म भी बहुत कम होता है। वैज्ञानिक शोध से भी यह बात सामने आई है कि मछली को दर्द नहीं होता। यह उन्हें जालिम कुदरत से बचने के लिए कुदरत का ही दिया तोहफा है। वैसे तो सभी चीजों व भावों में प्रकृति के तीनों गुण विद्यमान होते हैं, पर किसी विशेष चीज में कोई विशेष गुण ज्यादा बलवान होता है। पंचमकारों को ही लें, तो मैथुन व मत्स्य में रजोगुण, मांस व मदिरा में तमोगुण, और मुद्रा में सतोगुण की अधिकता होती है। आजकल के प्रदूषण और अति भौतिकता के युग में शरीर की ऊर्जा की मांग बहुत ज़्यादा बढ़ गई है। ऐसे में सम्भवतः यौगिक पंचमकार ही मानव जाति का सही दिशानिर्देशन कर सकते हैं।

कुंडलिनी ही शिव को भीतर से सत्त्वगुणी बनाती है, बेशक वे बाहर से तमोगुणी प्रतीत होते हों


दोस्तो, भगवान शिव के बारे में सुना जाता है कि वे तमोगुणी हैं। तमोगुण मतलब अंधेरे वाला गुण। शिव भूतों के साथ श्मशान में रमण करते हैं। अपने ऊपर उन्होंने चिता की भस्म को मला होता है। साथ में यह भी कहा जाता है कि भगवान शिव परम सतोगुण स्वरूप हैं। सतोगुण मतलब प्रकाश वाला गुण। इस तरह दोनों विरोधी गुण शिव के अंदर दिखाए जाते हैं। फिर इसको जस्टिफाई करने के लिए कहा जाता है कि शिव बाहर से तमोगुणी हैं, पर भीतर से सतोगुणी हैं। आज हम इसे तांत्रिक कुंडलिनी योग के माध्यम से स्पष्ट करेंगे।

कुंडलिनी ही शिव के सत्त्वगुण का मूल स्रोत है

दरअसल शिव तन्त्र के अधिष्ठाता देव हैं। उन्हें हम सृष्टि के पहले तांत्रिक भी कह सकते हैं। यदि हम तांत्रिक योगी के आचरण का बारीकी से अध्ययन करें, तो शिव के संबंध में उठ रही शंका भी निर्मूल हो जाएगी। वामपंथी तांत्रिक को ही आमतौर पर असली तांत्रिक माना जाता है। वे पाँच मकारों का सेवन भी करते हैं। बेशक शिव पंचमकारी नहीँ हैं, पर तमोगुण तो उनके साथ वैसे ही रहता है, जैसे पंचमकारी तांत्रिक के साथ। दुनिया के आम आदमी के अंदर इनके सेवन से तमोगुण उत्पन्न होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे इससे उत्पन्न ऊर्जा को संभाल नहीं पाते और उसके आवेश में गलत काम कर बैठते हैं। वे गलत काम तमोगुण को और अधिक बढ़ा देते हैं। पंचमकार खुद भी गुणों में तेज हलचल पैदा करते हैं, जिससे स्वाभाविक तौर पर तमोगुण भी उत्पन्न हो जाता है, आम दुनिया के अधिकांश लोग जिसके प्रभाव में आकर निम्न हरकत कर बैठते हैं। परन्तु एक तंत्रयोगी गुणों की हलचल को अपने कुंडलिनी योग की बदौलत हासिल अद्वैत भाव से शांत कर देते हैं। इससे उन्हें बहुत अधिक कुंडलिनी लाभ मिलता है, क्योंकि अद्वैत के साथ कुंडलिनी अक्सर रहती ही है। इससे कुंडलिनी तेजी से चमकने लगती है। तमोगुण से दबी हुई प्राण शक्ति और नाड़ी शक्ति जब कुंडलिनी को लगती है, तो वह जीवंत होने लगती है। यह वैसे ही होता है जैसे अंधेरे में दीपक या चिंगारी अच्छे से चमकते हैं। तभी तो भगवान शिव की तरह श्मशान में किया गया कुंडलिनी योगाभ्यास शीघ्रता से फलीभूत होता है। वैसे भी देखने में आता है कि तमोगुण की अधिकता में मस्तिष्क में विचारों की हलचल रुक सी जाती है। ऐसा किसी भय से, उदासी से, हादसे के नजदीक गुजरने से, तनाव से, अवसाद से, नशे से, तमोगुणी आमिषादि भोजन से, काम आदि से मन व शरीर की थकान से, आदि अनेक कारणों से हो सकता है। ऐसे समय में मस्तिष्क में न्यूरोनल एनर्जी का संग्रहण हो रहा होता है। इसमें जो बीच-बीच में इक्का-दुक्का विचार उठते हैं, वे बहुत शक्तिशाली और चमकीले होते हैं, क्योंकि उन्हें घनीभूत न्यूरोनल एनर्जी मिल रही होती है। योगी लोग इन्हीं विचारों को कुंडलिनी विचार में तब्दील करते रहते हैं। इससे सारी न्यूरोनल एनर्जी कुंडलिनी को मिलती रहती है। बुरे समय में भगवान या कुंडलिनी को याद करने से उत्पन्न महान लाभ के पीछे यही सिद्धांत काम करता है। इस तमोगुण के दौर के बाद सतोगुण व रजोगुण का दौर आता है। यह विचारों के प्रकाश से भरा होता है। दरअसल संग्रहीत न्यूरोनल एनर्जी बाहर निकल रही होती है। इसमें चमकीले विचारों की बाढ़ सी आती है। आम आदमी तो इनमें न्यूरोनल एनर्जी को बर्बाद कर देता है, पर योगी उन विचारों को कुंडलिनी मेँ तब्दील करके सारी एनर्जी कुंडलिनी को दे रहा होता है। योगी ऐसा करने के लिए अक्सर किसी अद्वैत शास्त्र की मदद लेता है। अद्वैत शास्त्रों में देवता संबंधी दार्शनिक पुस्तकें होती हैं, जैसे कि पुराण, स्तोत्र आदि। शरीरविज्ञान दर्शन भी एक उत्तम कोटि का आधुनिक अद्वैत शास्त्र है। वह अद्वैतशास्त्र को अपनी वर्तमान गुणों से भरपूर अवस्था के ऊपर पिरोता रहता है। वह इस सच्चाई को समझता रहता है कि उसके जैसी सभी अवस्थाएँ हर जगह व हर किसी में विद्यमान हैं। इससे शान्ति और आनन्द के साथ कुंडलिनी चमकने लगती है। वह कुंडलिनी, योग के माध्यम से सभी चक्रों पर भ्रमण करते हुए सभी को स्वस्थ और मजबूत करती है। पूरा तन और मन आनन्द व प्रकाश से भर जाता है। इस प्रकार जिन चीजों से आम आदमी के भीतर तमोगुण उत्पन्न होता है, उनसे तन्त्रयोगी के भीतर सतोगुण उत्पन्न हो जाता है। सम्भवतः यही वजह है कि दुनिया वालों को भगवान शिव बाहर से तमोगुणी दिखते हैं, पर असल में वे भीतर से सतोगुणी होते हैं। इससे यिन और यांग का मिलन भी हो जाता है, जिससे ज्ञान पैदा होता है। यिन तमोगुण है, और यांग सतोगुण।

कुण्डलिनी जागरण के लिए पंचमकारों (मदिरा, माँस, मैथुन, मत्स्य व मुद्रा) का प्रयोग

कुण्डलिनी के लिए पंचमकारों का प्रयोग एक विवादित विषय रहा है। हम न तो इसकी अनुशंसा करते हैं, और न ही इसका खंडन। हम केवल इसके आध्यात्मिक मनोवैज्ञानिक पहलू पर विचार कर रहे हैं।

पंचमकारों से अद्वैत भाव को विकसित करने का अवसर प्राप्त होता है

वैसे तो पंचमकारों से द्वैतभाव में ही वृद्धि होती है। मदिरा को ही लें। इससे आदमी अंधकार व प्रकाश में बंट जाता है। इसी तरह से, माँस से हिंसा/क्रोध व अहिंसा/शान्ति में विभक्त हो जाता है। मैथुन से वह रोमांच व अवसाद के बीच में झूलने लगता है। मुद्रा किसी विशेष आसन, चिन्ह आदि के साथ लम्बे समय तक बैठने को कहते हैं। इससे आदमी आलस या निकम्मेपन और मेहनत की स्थिति के बीच में बंट जाता है। यह निर्विवादित सत्य है कि द्वैत में ही अद्वैत पनप सकता है। समुद्र की गंभीरता उसकी लहरों के ही आश्रित है। यदि समुद्र में लहरें गगनचुंबी हिचकोले न मारा करतीं, तो कौन कहता कि आज समुद्र शांत या निश्चल है। इसलिए अद्वैत द्वैत के ही आश्रित है। यदि मूल भाव द्वैत ही नहीं होगा, तो उसको नकारने वाला “अ” अक्षर हम उसके साथ कैसे जोड़ पाएंगे। जो चीज है ही नहीं, उसे हम कैसे नकार सकते हैं। यदि द्वैत ही नहीं होता, तो हम उसे कैसे नकार पाते। इसलिए पंचमकारों से दो प्रकार के प्रभाव पैदा होते हैं। जो आदमी उनसे पैदा हुए द्वैत को पूर्णतः स्वीकार करके उसी में रम जाते हैं, वो अपनी कुण्डलिनी को भूल जाते हैं। जो लोग पंचमकारों से उत्पन्न द्वैत को शुरु में स्वीकार करके उसे चालाकी से अद्वैत में रूपांतरित करते रहते हैं, वे कुण्डलिनी योगी बन कर अपनी कुण्डलिनी को मजबूत करते हैं। यह निर्विवादित व सबके द्वारा अनुभूत तथ्य है कि कुण्डलिनी और अद्वैत सदैव साथ रहते हैं। दोनों में से एक चीज को बढ़ाने पर दूसरी चीज खुद ही बढ़ जाती है।

वास्तव में अद्वैत केवल द्वैत के साथ ही रह सकता है, अकेले में नहीं। इसलिए “अद्वैत” का असली अर्थ “द्वैताद्वैत” है।

पंचमकारों का पूजन

सेवन से पहले पंचमकारों का विधिवत पूजन किया जाता है। यह बुद्धिस्ट तंत्र और हिंदु वाममार्गी आध्यात्मिक प्रणाली में आज भी आम प्रचलित है। पंचमकारों में कुण्डलिनी का ध्यान किया जाता है, और उन्हें बहुत सम्मान दिया जाता है। उनके सेवन के समय भी जितना हो सके, कुण्डलिनी व अद्वैत का ध्यान किया जाता है। जब तक शरीर पर पंचमकारों का प्रभाव रहे, तब तक कोशिश करनी चाहिए कि कुंडलिनी व अद्वैत का ध्यान बना रहे। इससे क्या होता है कि जब दैनिक जीवन में उन पंचमकारों का प्रभाव पैदा होता है या यूँ कहें कि जब उनका फल मिलता है, तब कुण्डलिनी स्वयं ही विवर्धित रूप में ध्यानपटल पर आ जाती है। यह ऐसे ही होता है, जैसे कि पैसा जमा करने पर वह ब्याज जुड़ने से बढ़ता रहता है।

पंचमकारों का प्रयोग न्यूनतम मात्रा के साथ अधिकतम कुण्डलिनी लाभ के लिए किया जा सकता है

आम बोलचाल की भाषा में पंचमकार पाप रूप ही हैं। इसलिए इनसे दुखदायी फल भी अवश्य मिलता है, क्योंकि कर्म का फल तो मिल कर ही रहता है। उस बुरे फल से अपने शरीर व मन को बचाने के लिए इनका न्यूनतम सेवन किया जा सकता है। इनको अधिकतम कुण्डलिनी या अद्वैत भाव से जोड़कर अधिकतम आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। जो लोग पहले से ही पंचमकारों का प्रयोग गलत तरीके से करते हैं, वो अपना तरीका सुधार सकते हैं। जो लोग इसे शुरु करना चाहते हैं, हम उन्हें योग्य गुरु के मार्गदर्शन में ही ऐसा करने की सलाह देते हैं। 

एक पुस्तक जो पंचमकारों से उत्पन्न द्वैत भाव को जादुई तरीके से अद्वैतभाव में रूपांतरित कर देती है

वह पुस्तक है “शरीरविज्ञान दर्शन- एक आधुनिक कुण्डलिनी तंत्र (एक योगी की प्रेमकथा)”। इस पुस्तक को एमेजॉन की एक गुणवत्तापूर्ण समीक्षा में फाइव स्टार के साथ सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्कृष्ट व सबके द्वारा पढ़ा जाने योग्य आंकलित किया गया है। इसमें चिकित्सा विज्ञान के अनुसार हमारे अपने शरीर में संपूर्ण ब्रम्हांड को दर्शाया गया है। इसको पढ़ने से सारा द्वैतभाव अद्वैतभाव में रूपांतरित हो जाता है, और आनंद के साथ कुंडलिनी परिपुष्ट हो जाती है। योगसाधना से तो अतिरिक्त लाभ मिलता ही है। पंचमकारिक तंत्र को “सब कुछ” या “कुछ नहीं” साधना भी कहते हैं। इससे यदि कुंडलिनी जागरण मिल गया तो सब कुछ मिल गया, अगर नहीं मिला तो कुछ नहीं मिला और यहां तक कि नर्क भी जाना पड़ सकता है।