कई बार आदमी मन-पतंग में इतना डूब जाता है कि उसे यह एहसास ही नहीं रहता कि वह उसके शरीर से जुड़ी है। न धागा दिखता है, न उसको खींचने वाला, सिर्फ पतंग दिखती है। सम्भवतः यही अज्ञान है। इसमें ऐसा लगता है कि मन के दृश्यों का अपना पृथक अस्तित्व है, और हम उन्हें बनावटी भूत बनाकर उनसे डरने लगते हैं। वैसे तो कुण्डलिनीयोग में भी ध्यानचित्र ही दिखता है, पर वह एक ही होता है, और उसे अपने रूप में और अपने शरीर के अंदर देखा जाता है। साथ में, ज्यादातर मामलों में उसका भौतिक अस्तित्व नहीं होता या उसके भौतिक अस्तित्व को नकार दिया जाता है। उदाहरण के लिए अगर कोई देवता, पूर्वज, दिवंगत या पूर्णतः बिछड़ा प्रेमी ध्यान चित्र के रूप में है, तब तो उसके प्रति भौतिक सत्यता की बुद्धि खुद ही नहीं होगी। पर अगर कुण्डलिनी चित्र किसी जीवित प्रेमी, गुरु या अन्य भौतिक वस्तु के रूप में है, तो उसके भौतिक रूप से अनासक्ति रखनी पड़ती है, और उसके साथ अद्वैतमय व्यवहार रखना पड़ता है। वैसे ऐसा स्वभाव व व्यवहार कुण्डलिनी योग से खुद ही बनने लगता है। जैसा कि मैंने एक पिछली पोस्ट में बताया था कि कुण्डलिनी योग से कैसे महसूस होता है कि अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष सब आपस में जुड़े हैं। इससे यह विश्वास पक्का बना रहता है कि कुण्डलिनी चित्र अपने मन के ही अंदर है, अपने ही देहसंघात का हिस्सा है, अपना ही स्वरूप है, कोई बाहरी पृथक भौतिक वस्तु नहीं। यह स्वयं आदमी की अनासक्ति और अद्वैत की प्रकृति को बढ़ाता है। क्योंकि अपने आप से किसी को आसक्ति नहीं हो सकती है, और न ही अपने आप में किसीको द्वैत महसूस हो सकता है। किसी को नहीँ लगता कि वह एक आदमी नहीं बल्कि दो आदमियों का मिश्रण है। अपने कर्म का फल उसी अकेले आदमी को भोगना पड़ता है, कोई दूसरा नहीं आता। अगर कोई दिनरात भी आईने में बनता-ठनता रहे तो भी वह किसी दूसरे के या ईश्वर के प्रेम में पड़कर करता है, अपने लिए नहीं। प्रेम के लिए दो का होना जरूरी है। अकेले में प्रेम नहीं होता। आसक्ति और प्रेम में सैद्धांतिक अंतर नहीं है केवल स्तर, व्यवहार व दृष्टिकोण का ही अंतर है। इसी मनोवैज्ञानिक सिद्धांत के अनुसार कुण्डलिनी चित्र के प्रति स्वयं ही हो रही आत्मभावना से आत्मा शुद्ध होती रहती है। मतलब कि कुण्डलिनी चित्र को अपने पूर्ण आत्मरूप को जानने के लिए सहारे के रूप में अपनाया जाता है। मुझे तो लगता है कि जब कुंडलिनी ध्यान एक विशेष महत्वपूर्ण या शीर्ष बिंदु तक पहुँचता है, तब यह आत्मा को अस्तित्वगत स्व-अभिव्यक्ति की इतनी अधिक शक्ति देता है कि वह उस बिंदु से परे अव्यक्त रहने में अस्मर्थ हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप कुंडलिनी जागरण होता है। सम्भवतः आत्मरूप को जानने की कुदरती चेष्ठा के रूप में ही मन में विचार आते हैं। पर उन विचारों को समझने का और अपनाने का तरीका उल्टा होता है। हम उन्हें अपना आत्मरूप न समझकर बाहरी, पराया, स्थूल और भौतिक समझने लगते हैं। इससे उन विचारों से आत्मरूप को शक्ति मिलने की बजाय उनसे संसार की उलझनें और भी आगे से आगे बढ़ती रहती हैं। मतलब कि आत्मा शुद्ध होने की बजाय ज्यादा से ज्यादा अशुद्ध होता जाता है। सम्भवतः यही मोहमाया है। कुण्डलिनी योग इस तरीके को सीधा करने की कोशिश करता है। इससे आदमी का रोजाना का व्यवहार भी सकारात्मक रूप से रूपान्तरित होने लगता है। उसके जीवन में अनासक्ति और अद्वैत का प्रभाव बढ़ने लगता है। इससे स्वाभाविक है कि उसके मन की उलझनें सुलझने लगती हैं। मन स्वस्थ रहने से शरीर भी स्वस्थ रहने लगता है। व्यक्तिगत स्वास्थ्य से सामाजिक स्वास्थ्य में भी सुधार होता है। सामाजिक स्वास्थ्य से समाज के सभी लोग भी अपने अच्छे स्वास्थ्य को महसूस करते हैं। इस तरह समाज से व्यक्ति में और व्यक्ति से समाज में सुधार एक चेन रिएक्शन की तरह आगे से आगे बढ़ता हुआ पूरे विश्व में फैल जाता है, जिसे युग परिवर्तन भी कहते हैं।
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कुंडलिनी योग ही असली एकेश्वरवाद है, जो दुनिया के सभी धर्मों और सम्प्रदायों का मूल सारतत्त्व है
दोस्तो, मैं पिछली पोस्ट में जिन्न और कुंडलिनी की समतुल्यता के बारे में बात कर रहा था कि जब जिन्न मेरे साहसरार चक्र में जीवंत जैसा होकर मेरे से एकरूप हो गया, मतलब जब देखने वाला मैं और दिखने वाला जिन्न, दोनों अभेद हो गए, तब वही कुंडलिनी जागरण कहलाया। शास्त्रों में भी समाधि या कुंडलिनी जागरण की यही परिभाषा है।क्यों न हम जिन्न की बजाय फरिश्ता कहें, क्योंकि यह मुझे ज्यादा उपयुक्त लग रहा है। क्योंकि वह असली जिन्न न होकर उसका दर्पण-प्रतिबिम्ब था। मतलब उसमें अपनी स्वतंत्र इच्छा नहीं थी, वह ईश्वर की इच्छानुसार अच्छाई की तरफ ही चलता था। फरिश्ता भी ऐसा ही होता है। जिन्न का क्योंकि अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है, इसलिए वह किसी भी दिशा में ले जा सकता है। इसे यूँ समझ सकते हैं कि जिन्न किसी संसारचक्र में भटकते हुए जीव या मनुष्य का मानसिक चित्र है, जैसे किसी आदमी की याद मन में बसी होती है। वह आदमी वर्तमान में कहीं जीवित अवस्था में भी हो सकता है, और मृत्यु के बाद की पारलौकिक प्रेत अवस्था में या किसी अन्य योनि में भी। इसका मतलब है कि वह जो इच्छा या कर्म करेगा, वह टेलीपेथी आदि के माध्यम से उसके चित्र तक प्रसारित हो जाएंगे, जो उसको मन में धारण करने वाले साधक को जरूर परेशान करेंगे। साथ में, उसकी याद के साथ उसके आसक्ति आदि दुर्गुण भी तो मन में बसे ही होंगे। साधक को अपनी दृढ इच्छाशक्ति से उन्हें दबाना पड़ता है। इसीलिए कहते हैं कि जिन्न को सही रास्ते पर लगाए रखने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। पर इसके विपरीत फरिश्ता किसी ऐसे व्यक्ति का मानसिक चित्र होता है, जो यदि जीवित है, तो जीवन्मुक्त की तरह इच्छारहित होता है, और यदि मृत है, तो भी या तो मुक्त होता है, या किसी दिव्यलोक में होता है, किसी जीव-योनि में नहीं जन्मा होता है। साथ में, उसकी याद के साथ उसके अनासक्ति आदि दिव्य गुण भी मन में खुद ही बसे होते हैं। इसलिए फरिश्ता हमेशा तटस्थ और अछूता रहता है। इसलिए वह साधक की साधना में व्यवधान न डालकर साधना में एकप्रकार से मदद ही करता है। इसीलिए कहते हैं कि गुरु या आध्यात्मिक प्रबुद्ध या मुक्त व्यक्ति या देवता का ध्यान करना चाहिए। फिर कहते हैं कि फरिश्ता प्रकाश से बना होता है, जिन्न की तरह आग से नहीं। वैसे भी प्रकाश आग से ज्यादा दिव्य, शांत, सूक्ष्म, सतोगुण युक्त और तेजस्वी होता है। आसक्ति और अद्वैत जैसे आध्यात्मिक गुणों से भरा व्यक्ति पहले से ही सूक्ष्म होता है, इसलिए स्वाभाविक है कि उसका मानसिक चित्र तो और भी ज्यादा सूक्ष्म होगा। इसीलिए फ़रिश्ते को प्रकाश कहा है। दूसरी ओर, जिन्न ज्यादातर भड़कीले और सेक्सी लोगों के चित्र होते हैं। इसलिए वे ज्यादा स्थूल होते हैं, आग की तरह। इसीलिए दुनिया में सेक्सी लोगों का ज्यादा बोलबाला रहता है। दुनिया में फँसे लोगों को फ़रिश्ते बनने वाले साधु लोग कहाँ पसंद आने वाले। मुझे साधु और स्वादू एकसाथ प्राप्त हुए थे, इसलिए मैं साधु से ऊबा नहीं। स्वादू मतलब सेक्सी लोगों ने साधु के प्रति आकर्षण बना के रखा, क्योंकि सम्भवतः साधु और स्वादू के बीच अच्छी आपसी ट्यूनिंग थी। यह ऐसे ही था जैसे चीनी के साथ कड़वी दवा भी मीठी लगने लगती है।इसीलिए तो मेरे मन में एक जिन्न, और एक फरिश्ता, दोनों एकसाथ स्थायी तौर पर बस गए, जैसा कि मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था। यह एक अच्छी टेक्टिक साबित हो सकती है। जिन्न ज्यादातर प्रणय प्रेम वाली आग से बने होते हैं। जब असफल प्रेम संबंध आदि के कारण सैक्स की आग मन में लम्बे समय तक दबी रहती है, तब वह जिन्न बन जाती है , इसीलिए तो जिन्न सम्भोग के भूखे होते हैं। मुझे तो लगता है कि बिना धुएं की आग वज्र की यौन संवेदना को ही कहा गया है, क्योंकि वह आग की तरह प्रकाश और गर्मी से भरी होती है, और उसमें धुआँ भी नहीं होता। जिंग यौन-संवेदना की ऊर्जा को कहते हैं। हो सकता है कि जिंग से ही जिन्न शब्द बना हो। ये दोनों शब्द एक ही बिरादरी के हैं। एकसाथ कई मतलब भी हो सकते हैं इसके। जिन्न को अच्छा बनाना पड़ता है, पर फरिश्ता स्वभाव से ही अच्छा होता है। फरिश्ता जिन्न के बुरे स्वभाव पर लगाम लगा कर रखता है। अच्छे जिन्न और फरिश्ते के स्वभाव में ज्यादा अंतर नहीं होता है। अच्छा जिन्न साधना या संस्कार की कमी से बिगड़ भी सकता है, पर फरिश्ता नहीं बिगड़ता। सम्भोग से फरिश्ते भी शक्ति प्राप्त करते हैं, पर वे उस शक्ति से आदमी को कुंडलिनी जागरण की तरफ ले जाते हैं, जबकि जिन्न अधिकांशतः दुनियादारी की तरफ ले जाते हैं। साथ में मैं बता रहा था कि कैसे कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी का रुझान लेखन की तरफ बढ़ता है। दरअसल लेखन भी एक कुंडलिनी योग ही है, एक साक्षीभाव योग या विपासना योग। लिखने से पुरानी बातें मानसपटल पर अनासक्ति के साथ उभर कर विलीन होने लगती हैं, जिससे अन्तःकरण स्वच्छ होता जाता है। कुंडलिनी योग में भी ऐसा ही होता है। कुंडलिनीजागरण या कुंडलिनी ध्यान की शक्ति से चित्रविचित्र नए-पुराने विचार मन में साक्षीभाव या अनासक्तिभाव से उभरते हुए इसी तरह विलीन होते रहते हैं। जब तक पुरानी घटनाओं को मन में पुनः न उभारा जाए, तब तक वे वैसी ही मन में दबी रहती हैं, और आदमी को आगे बढ़ने से रोकती हैं। मैं यह भी बता रहा था कि जिन्न आदि सूक्ष्म या आकाशीय प्राणी केवल मन में होते हैं, बाहर कहीं नहीं। इसका मतलब है कि दरअसल वे होते तो किसी भौतिक पुरुष या स्त्री के चित्ररूप ही हैं, पर उनसे पूरी तरह अलग होते हैं। आप अपना चेहरा दर्पण में देख लो। आप खुद कहोगे कि मैं यह नहीं हूँ। आदमी का असली रूप उसका मन होता है, चेहरा नहीं। आदमी अपने मस्तिष्क में बने उस मानसिक चित्र के साथ अपनी भावनाएं जोड़ देता है, अपना मन जोड़ देता है, अपनी मान्यताएं जोड़ देता है, अपनी धारणाएं जोड़ देता है। इसीलिए कहते हैं कि दुनिया हमें वैसी ही दिखती है, जैसी इसे हम देखना चाहते हैं, या जैसा हमारा अपना स्वभाव है, दुनिया का अपना कोई रूप नहीं। आप अपने गुरु का ध्यान वर्षो तक करो, उससे कुंडलिनी जागरण भी प्राप्त कर लो, फिर अगर उनसे अचानक मिलो, तो वे आपको पहचान भी नहीं पाएंगे। आपने गुरु के बाहरी रूप का ध्यान किया, उनके मन का नहीं। किसीके मन का ध्यान कोई नहीं कर सकता, क्योंकि वह दिखता नहीं। मेरे कॉलेज टाइम का एक नवयुवक एक लड़की को बहुत चाहता था। जब वह कई वर्षों बाद उससे मिला, तो उसने उसे पहचानने से भी इंकार कर दिया। वह इस गम को बर्दाश्त न कर सका, और उसने नजदीक बने पुल से नदी में छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली। वैसे तो वह पहले भी आत्महत्या का प्रयास कर चुका था, अवसादग्रस्त की तरह था, और कुछ हद तक शराब की लत के अधीन भी था। दरअसल वह यौनप्रेम के वशीभूत होकर लड़की के बाहरी रूपरंग का ही ध्यान करता था, उसके मन अर्थात उसके असली स्वरूप का तो नहीं। अपने मन में बने उसके चित्र को उसने अपना स्वरूप दिया हुआ था। एकप्रकार से वह अपने से ही प्यार करता था। वस्तुतः हर कोई अपने से ही प्यार करता है, पर वह उसे किसी बाहरी व्यक्ति पर झूठमूठ ही आरोपित करता है, और फँसता है। कई चालाक लोग मीठी-मीठी बातें बनाकर इस झूठ को मनवा भी देते हैं, जिससे कई बार प्रेमिका उनके जाल में फँस भी जाती है। इसीलिए पतंजलि योग में उस चीज के चित्र को ध्यान का आलम्बन कहा है, जिसका मन में ध्यान किया जाता है। दरअसल ध्यान अपना ही होता है, इसीलिए मानसिक चित्र को ध्यान के लिए सहारा कहा है, असली ध्यान की वस्तु नहीं। इसीलिए ध्यान को आत्मानुसन्धान भी कहा जाता है, कुंडलिनी अनुसन्धान या जगत अनुसन्धान नहीं। दरअसल कुंडलिनी ध्यान या कुंडलिनी जागरण आत्मानुसन्धान का एक जरिया है, असली आत्मानुसन्धान नहीं। आपने फिल्म मुन्नाभाई एमबीबीएस में भी देखा होगा कि मुन्नाभाई को मन में दिखने वाला गाँधी उसे वही बात बताता था जो बात उसको खुद को पता होती थी। जो उसे खुद पता नहीं होता था, उसे उसका गाँधी भी नहीं बता पाता था। दरअसल गाँधी के बारे में किताब पढ़ कर उसका मन गाँधी जैसा बन गया था, पर उसके मन ने उसे इस भ्रम में डाल दिया कि गाँधी खुद उसके अंदर बस गए हैं। ये बनावटी तरीका बढ़िया है कि सुबह-शाम एक विशिष्ट मानसिक चित्र का ध्यान कर लो, और जिंदगी मजे से जीते रहो। इससे सब कुछ किया या भोगा हुआ उस चित्र के द्वारा किया और भोगा हुआ माना जाएगा। आदमी खुद सब चीजों से अछूता रहेगा, अनासक्त रहेगा, जल में पड़े कमलपत्र की तरह। ऐसे ही जैसे मुन्नाभाई के लिए सबकुछ गाँधी कर रहा था, जबकि दरअसल वह खुद ही सबकुछ कर रहा था। यही दैनिक कुंडलिनी योग है। यही दैनिक पूजा-अराधना है। यही दैनिक संध्या-वंदन है। यह एक आश्चर्यजनक आध्यात्मिक मनोविज्ञान है, जो मुक्ति की ओर ले जाता है।
ईसाई धर्म में ये मान्यता है कि गिरे हुए फ़रिश्ते ने औरतों के साथ सम्भोग करके मानव जाति को आगे बढ़ाया। ऐसे बहुत से पुराने चित्र या शिलालेख हैं जिनमें राक्षस को औरत के साथ सम्भोगरत दिखाया गया है। इसीलिए पुराने समय में औरतों को ज्यादा सजधज कर खुले में बाहर घूमने की ज्यादा छूट नहीं होती थी। गिरा हुआ फरिश्ता दरअसल गिरा हुआ मन या गिरी हुई कुंडलिनी है, क्योंकि कुंडलिनी चित्र मन का प्रतिनिधि है। वही कुंडलिनी चित्र फरिश्ता है। कुंडलिनी कभी सहसरार में होती थी। आदमी की बदनीयती और बदमिजाज से वह नीचे गिरती रही, और सभी चक्रोँ को बेधते हुए मूलाधार चक्र रूपी अंधकूप में गिर गई। वहाँ से फिर ऊपर उठने के लिए वह सम्भोग का सहारा लेती है। फरिश्ते, शाश्वत फरिश्ते या आरकेंजल, और पवित्र आत्मा के बीच आपसी संबंध के बारे में भी लोगों के बीच भ्रम सा बना रहता है। दरअसल तीनों एक ही चीज है तत्त्वतः। एक ही शक्ति तत्त्व को समझाने के लिए तीन तत्वों में विभाजित किया गया है। पवित्र आत्मा को परमात्मा का अनादि सहचर और उससे अभिन्न माना गया है, जैसे सूर्यरश्मि सूर्य से अभिन्न है। शिव की शक्ति भी बिल्कुल ऐसी ही है। इसका मतलब कि अनादि शक्ति ही पवित्र आत्मा या हॉली स्पिरिट है। साधारण फरिश्ते को अस्थायी और नश्वर कहा गया है। लोगों के व्यक्तिगत आध्यात्मिक गुरु भी ऐसे ही होते हैं, जैसा मैंने अपने फरिश्ते बने गुरु के बारे में भी बताया है। वे सबके अलग-अलग हो सकते हैं, और अपने शिष्य तक ही सीमित रहते हैं। शाश्वत फ़रिश्ते या आरकेंजल हमारे शाश्वत वैदिक देवता हैं, जैसे गणेश, दुर्गा, शिव आदि। इनके ध्यानरूप मानसिक चित्र हर युग में लोगों को मुक्ति की तरफ ले जाते रहते हैं। मुझे लगता है कि बहुत से लोग इनमें मनमाना अंतर ढूंढ कर आपस में झगड़ा करते रहते हैं, और असली चीज से वँचित रह जाते हैं।
पिछली पोस्ट में मैं यह भी बता रहा था कि बहुईश्वरवादियों और एकेश्वरवादियों के बीच किस तरह वैरविरोध चलता रहता है। धर्म से इन विचारधाराओं का कोई लेनादेना नहीं है, क्योंकि ये किसी भी धर्म में हो सकती हैं। दरअसल ये व्यक्ति के मानसिक या आध्यात्मिक स्तर पर निर्भर करता है कि वह किस विचारधारा को मानता है। कोई व्यक्ति बहुईश्वरवादी धर्म से ताल्लुक रखता हुआ भी एकेश्वरवादी हो सकता है। इसी तरह कोई शख्स एकेश्वरवादी धर्म से ताल्लुक रखने पर भी बहुईश्वरवाद अर्थात द्वैतवाद से ग्रस्त हो सकता है। असली व अध्यात्म वैज्ञानिक विचारधारा तो एकेश्वरवादी ही है। कुंडलिनी योग भी एकेश्वरवादी ही है। कुंडलिनी योग एकाग्रता से प्राप्त होता है। एकाग्रता मतलब एकाग्र ध्यान का शाब्दिक अर्थ है, एक अग्र अर्थात एक चीज आगे, बाकि सब पीछे। वही सबसे आगे रहने वाली चीज ही कुंडलिनी है। दरअसल कोई भी धर्म बहुईश्वरवादी नहीं है, केवल भ्रम से ऐसा लगता है। कोई धार्मिक संप्रदाय यदि गणपति की आराधना करता है, तो केवल गणपति की ही करता है, किसी दूसरे देवता की नहीं। इसी तरह कोई शाक्त संप्रदाय यदि केवल दुर्गा की पूजा करता है, तो वह बहुईश्वरवाद कैसे हुआ। मतलब कि साम्प्रदायिक स्तर पर कोई भी धर्म बहुईश्वरवादी नहीं है। यह भी मैंने पिछली पोस्ट में बताया था कि कैसे देवमूर्ति आदि की पूजा से यिनयांग गठबंधन के बनने से मन की एकमात्र कुंडलिनी क्रियाशील हो जाती है। यदि कोई विविध प्रकार की देवमूर्तियों की पूजा भी करे, तो भी वह बहुईश्वरवादी नहीं है, क्योंकि सभी से यिन-यांग गठबंधन बनता है, जिससे एकमात्र कुंडलिनी को ही बल मिलता है, अन्य किसी को नहीं। इसके विपरीत, एकेश्वरवादी धर्म को मानने वाला व्यक्ति यदि कुंडलिनी और योग को न माने, तो वह बहुईश्वरवाद या द्वैत से भरा हुआ व्यक्ति है। जब उसके मन में कोई एकमात्र चीज अर्थात कुंडलिनी स्थायी तौर पर हमेशा स्थिर नहीं रहेगी, तो स्वाभाविक है कि उसका मन विविधता से भरे हुए द्वैतपूर्ण संसार में भटका रहेगा। फिर ऐसे द्वैतपूर्ण व्यक्ति को एकेश्वरवादी कैसे माना जा सकता है। दरअसल कुंडलिनी ही वह ईश्वर है, जिसकी हम ध्यान के रूप में पूजा कर सकते हैं। वह खुद पूर्ण परब्रह्म ईश्वर तक ले जाती है। सीधे तौर पर तो हम निराकार ब्रह्म को न तो देख सकते हैं और न ही अनुभव कर सकते हैं, फिर उसकी पूजा कैसे की जा सकती है। अगर पूजा करने की कोशिश की जाए, तो कमोबेश कुंडलिनी ही उस पूजा को स्वीकार करने के लिए मन में प्रकट होने लगती है, हालांकि उतनी नहीं जितनी सीधे कुंडलिनी ध्यान से प्रकट होती है। फिर क्यों न सीधे ही कुंडलिनी ध्यान अर्थात कुंडलिनी योग किया जाए। यदि निराकार ईश्वर की पूजा करने वाला एकेश्वरवादी मन में पैदा हो रही एकमात्र कुंडलिनी का बलपूर्वक विरोध करेगा, तब तो मानसिक ऊर्जा के पास विविधता से भरे संसार के रूप में उजागर होने के सिवाय कोई चारा नहीं बचेगा। मतलब कि ब्रह्म अर्थात एकेश्वर उपासक का मन द्वैत से भरे संसार से भर जाएगा। फिर वह एकेश्वरवादी कहाँ रहा। इसीलिए कहते हैं कि जैसा दावा किया जाता है या जैसा दिखता है, हमेशा वैसा नहीं होता, बल्कि कई बार बिल्कुल विपरीत होता है। सच्चाई को जानने के लिए मनोवैज्ञानिक खोजबीन करनी पड़ती है।
जो शक्ति शरीर के अंदर है, वही बाहर भी है। अंदर भी वह शिव से मिलना चाहती है इसलिए पीठ से होकर ऊपर चढ़ती है। वैसे तो वह अव्यक्त अर्थात निराकार है पर खुद को अभिव्यक्त करने के लिए मन के संसार का निर्माण करती है। कुंडलिनी चित्र उस मन का सबसे प्रभावशाली अंश होता है। शक्ति उसीके रूप में जागृत होकर शिव से एकाकार होती है। शक्ति या ऊर्जा का अपना कोई रूप नहीं होता। वह किसी संवेदना के रूप में ही अनुभव हो सकती है। संवेदनाओं में भी मानसिक चित्र में सबसे अधिक संवेदना छुपी होती है, उनमें भी व्यक्तिविशेष के चित्रों में, उनमें भी चिरपरिचित के चित्रों में, और उनमें भी गुरु या देव या पूर्वज के चित्र में सबसे अधिक संवेदना छिपी होती है। वैसे सैद्धांतिक रूप से देव -छाया में सबसे अधिक संवेदना छुपी होती है, अर्थात देवछाया के रूप में शक्ति सर्वाधिक अभिव्यक्त होकर सबसे आसानी से जागृत हो सकती है। देव मतलब अद्वैत, और देवछाया मतलब अद्वैत भाव की सहायता से मन में बनने वाला पवित्र व स्थायी चित्र। इससे जाहिर होता है कि जागृति के लिए सबसे जरूरी दो चीजें हैं, शक्ति और देवछाया। देवछाया को हम कुंडलिनी चित्र या संक्षेप में कुंडलिनी या पवित्र भूत या जिन्न या फरिश्ता भी कह सकते हैं, जैसा कि पिछली पोस्ट में बताया गया है। बाहर भी वह शक्ति इसी तरह विविध स्थूल संसार का निर्माण करती है। उस संसार में कुछ विशेष क्षेत्र भी होते हैं, जैसे भारत देश, उसमें भी हरिद्वार या काशी, या अन्य विशेष व सुन्दर पर्यटन स्थल आदि। उन विशेष क्षेत्रों के रूप में शक्ति सबसे ज्यादा अभिव्यक्त होती है। तभी तो वैसे क्षेत्रों में जागृति की सम्भावना ज्यादा होती है। इसीलिए आदमी ऐसे सुन्दर क्षेत्रों के निर्माण में लगा रहता है, जहाँ उसका मन प्रफुल्लित होकर चरम रूप में अभिव्यक्त हो जाए। मन की या कुंडलिनी शक्ति की चरम अभिव्यक्ति को ही तो कुंडलिनी जागरण कहते हैं। वैसे तो प्रकृति या समष्टि शक्ति भी ऐसे सुन्दर क्षेत्रों के निर्माण में लगी रहती है, पर जीव विशेषकर मनुष्य के रूप में व्यष्टि शक्ति इसे तेजी प्रदान करने और उसमें चार चाँद लगाने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पर आजकल आदमी प्रकृति के साथ जरूरत से ज्यादा छेड़छाड़ करके उसके कार्य में बाधा डाल रहा है, जो उसके अस्तित्व के लिए ठीक नहीं है।
व्यष्टि और समष्टि शक्ति में अभिन्नता का मतलब है कि शरीर के अंदर शक्ति साधना से आदमी कुछ हद तक बाहरी स्थूल शक्ति पर नियंत्रण हासिल कर सकता है। उदाहरण के लिए, कल्पना करो कि कोई आदमी बाहरी बुरी शक्ति के प्रभाव में आकर किसी दुर्घटना का शिकार होने वाला होता है। आदमी को इसका आभास हो जाता है और वह कुंडलिनी का ध्यान करते हुए अतिरिक्त सतर्क हो जाता है। कुंडलिनी के ध्यान से उसके मन का अंधेरा छंट जाता है, जिससे प्रभावित होकर बाहरी शक्ति का अंधेरा भी कुछ हद तक छंट जाता है, जिससे वह बाहर भी उसे बचाने के लिए विशेष प्रयास करती है, जैसे बचने के लिए सुरक्षित जगह या सामान मिल जाना। यह कुछ हद तक ही होता है, इसलिए केवल इसके सहारे भी नहीं रहा जा सकता, पर यह कुछ न कुछ मदद जरूर करती है। यह बहुत दूर से या प्रार्थना से भी हो सकता है, क्योंकि शक्ति सर्वव्यापी है। होता क्या है कि किसी विपत्ति में फंसे व्यक्ति को मारने आई बुरी या काली शक्ति उसके परिचित व्यक्ति को देशांतर में भी महसूस हो सकती है। वह यदि कुंडलिनी ध्यान से उसे शांत कर दे, तो वह उस विपत्ति में पड़े व्यक्ति के लिए शांत हो सकती है। सम्भवतः यही प्रार्थना का रहस्य है।
जिसको शरीर में अपनी इच्छानुसार शक्ति को घुमाना आ गया, लगता है उसे बहुत कुछ आ गया। अशिक्षित लोग उसके लिए यौन क्रीड़ा का इस्तेमाल करते थे। इससे संवेदना रूपी शक्ति के शरीर के निचले हिस्सों में महसूस होने से, उस शक्ति को बल देने के लिए मस्तिष्क की शक्ति आगे से होते हुए नीचे उतरती थी, जिससे मस्तिष्क भी हल्का हो जाता था, और नीचे के सारे चक्र भी शक्ति से तृप्त हो जाते थे, जिससे पूरा शरीर तृप्त हो जाता था। हालांकि उन्हें कम और अल्पकालिक लाभ मिलता था, क्योंकि वे केवल संवेदना से जुड़े द्वैत से भरे संसार को ही अनुभव करते थे, उससे जुड़ी कुंडलिनी को नहीं, क्योंकि उनके मन में कोई स्थाई कुंडलिनी चित्र नहीं होता था। इससे उन्हें संवेदना वाले मूलाधार से जुड़े अंगों पर तो संवेदना के रूप में शक्ति महसूस होती थी, पर बीच वाले चक्रोँ पर नहीं। जैसे कि अनाहत चक्र, मणिपुर चक्र आदि पर। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि अधिकांशतः इन बीच वाले चक्रोँ पर तो कुंडलिनी चित्र ही शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है, इन पर संवेदना नहीं होती, और न ही द्वैतपूर्ण संसार। द्वैतपूर्ण संसार तो केवल मस्तिष्क में ही रहता है। कुंडलिनी चित्र ही चक्रोँ पर मांसपेशी की सिकुड़न पैदा करता है, जिससे हल्की सी संवेदना पैदा होती है। कुंडलिनी योगी ने इस प्रक्रिया को कृत्रिम, वैज्ञानिक और ज्यादा प्रभावशाली बनाया। उसने सिद्धासन या अर्धसिद्धासन के दौरान पैर की ऐड़ी से मुलाधार चक्र को दबा कर वहाँ बनावटी संवेदना पैदा की। साथ में उसने संवेदना के ऊपर कुंडलिनी चित्र को आरोपित किया, ताकि शक्ति को खींचने के लिए अधिक आकर्षण बने, और कम संवेदना पैदा होने पर भी कुंडलिनी चित्र के माध्यम से शक्ति को आकर्षित किया जा सके। बाकि कुंडलिनी से मिलने वाले मुक्तिलाभ को तो सब जानते ही हैं। इसीलिए कहते हैं कि योग से तन-मन भी स्वस्थ रहता है, और आत्मा भी।
शक्ति का कोई स्थायी आधार या आश्रय भी जरूर होना चाहिए। यह किसी कला, विद्या, रुचि या हॉबी आदि के रूप में हो सकता है। जैसे मेरी शक्ति का आधार लेखन और कविता रचना है। इससे मेरी व्यर्थ में नष्ट होने वाली शक्ति लेखन और कविता निर्माण में व्यय हो जाती है। एकबार किसी आदमी ने मेरा नुकसान कर दिया। उससे मेरे अंदर उससे लड़ने के लिए एक शक्ति से भरा जोश पैदा हो गया। फिर मैंने बुद्धि से निर्णय लिया कि लड़ाई से कोई लाभ नहीं, नुकसान ही है। मेरे अंदर जो शक्ति पैदा हुई थी, उसे मैंने कविता रचना की ओर मोड़ दिया, जिससे एक सुंदर सी कविता बन कर तैयार हो गई। मतलब कि मैंने शक्ति को रूपांतरित या दिग्दर्शित किया। शिवपुराण में भी एक कथा ऐसी ही आती है। इंद्र के द्वारा किए अपमान से जब शिव बहुत ज्यादा क्रोधित हो गए, तो वे उसे भस्म करने को आतुर हो गए। फिर ब्रह्मा आदि देवों ने शिव को बड़ी मुश्किल से मनाया। पर शिव का गुस्सा शांत ही नहीं हो रहा था। इसलिए देवताओं ने शिव के गुस्से को माथे से बाहर निकाला और उसे समुद्र में डलवा दिया, जिससे जलंधर नाम का दैत्य पैदा हुआ। जलंधर कथा को हम अगली पोस्ट में रहस्योदघाटित करेंगे। काश कि युक्रेन, रूस और नाटो की शक्ति को भी ऐसा ही दिग्दर्शन मिलता। मूलाधार चक्र शक्ति का सबसे बड़ा सिंक या अवशोषक या आकर्षणकर्ता होता है। कुंडलिनी योग में इसीलिए तो ऐड़ी को मूलाधार चक्र पर रखा जाता है। दरअसल ऐड़ी के दबाव से बनी संवेदना से मस्तिष्क की शक्ति नीचे उतरते हुए सभी चक्रोँ में बराबर बंट जाती है, पर खिंचाव तो मुलाधार ने ही पैदा किया न। यह ऐसे ही है कि जैसे छत की टंकी से सबसे निचली मंजिल पर पानी पहुंचाने से बीच वाली मंजिलों में भी पानी खुद ही पहुंच जाता है। यदि किसी बीच की मंजिल को ही पानी दिया जाए, तो उससे नीचे की मंजिलें बिना पानी के रह जाएंगी। यौन योग से तन-मन की अतिरिक्त शक्ति या तनावहीनता मूलाधार को मिल रहे वज्र के अतिरिक्त सहयोग से प्राप्त होती है। मूलाधार पर शक्ति सबसे ज्यादा अव्यक्त या अनभिव्यक्त रूप में रहती है, घुप्प अँधेरे की तरह। इसीलिए तो ऐसी अन्धकारपूर्ण मानसिक अवस्था में आदमी का मन सम्भोग की तरफ भागता है। सम्भोग का स्थान मूलाधार है। इसीलिए कहते हैं कि शक्ति का मूल निवासस्थान मूलाधार है। आदमी सबसे ज्यादा अनभिव्यक्त या शिथिल अवस्था में अपने घर पर होता है। काम धंधे के लिए बाहर निकलने पर उसकी अभिव्यक्ति बढ़ती जाती है। कुंडलिनी भी इसी तरह अभिव्यक्त होने के लिए अपने घर मूलाधार से बाहर निकलना चाहती है। जल्दी से जल्दी अधिकतम अभिव्यक्ति के लिए वह सम्भोग का सहारा लेती है। सम्भोग से वह सीधी आज्ञा चक्र और सहसरार चक्र में पहुंच जाती है। अन्यथा सामान्य लौकिक रीति से सभी चक्रोँ को क्रमवार भेदते हुए धीरेधीरे ऊपर चढ़ते हुए ज्यादा से ज्यादा अभिव्यक्त होती जाती है। बेशक चढ़ती तो वह पीठ से ही है, पर पीठ के हरेक चक्र की शक्ति आगे वाले संबंधित मुख्य चक्र तक भी रिसती रहती है। सहसरार पर वह सबसे ज्यादा अभिव्यक्त हो जाती है। वहाँ भी अभिव्यक्ति के चरम को छूने पर वह जागृत होकर शिव में मिल जाती है। मनुष्य ही शक्ति की इस चरम अभिव्यक्ति को प्राप्त कर सकता है। अन्य प्राणी अलग -अलग स्तर तक ही शक्ति को अभिव्यक्त कर सकते हैं, पूर्ण अभिव्यक्ति को छोड़कर। इस तरह से ऊर्जा या शक्ति के अनगिनत स्तर हैं। जो जीव या योनि इस विकास श्रृंखला में जितने ज्यादा निचले पायदान पर है, उसमें शक्ति की अभिव्यक्ति उतनी ही कम है। भूतप्रेत का भी अपना एक विशिष्ट ऊर्जा स्तर होता है, इसीलिए वह भी एक जीवयोनि है। इसी तरह कीड़ों मकोड़ों का ऊर्जा स्तर भी बहुत नीचे होता है। हालांकि इनमें उतनी ही शक्ति होती है, जितनी किसी मनुष्य, देवता या भगवान में होती है, बेशक वह अभिव्यक्त नहीं होती। मतलब कि वे भी अपनी अभिव्यक्ति बढ़ाते हुए कभी न कभी शिव तक जरूर पहुंचेंगे। इसीलिए तो कहते हैं कि सभी को समान समझते हुए सभी में अपनी आत्मा के दर्शन करने चाहिए। इस विचार क्षेत्र से जो आश्चर्यजनक बात निकलती है, वह यह है कि जिन निर्जीव चीजों को हम निर्जीव कहते हैं, वे भी जीवित हैं, उनमें शक्ति की अभिव्यक्ति सबसे कम है। इसीलिए हिंदू धर्म में हर चीज की पूजा की जाती है, यहां तक कि पत्थर, नदी, पहाड़ की भी। दुनिया की कुछ अन्य संस्कृतियों में भी जैसे कि विलुप्तप्राय प्राचीन सैल्टिक संस्कृति में ऐसी ही प्रकृति-पूजन की मान्यता है। भगवान शिव ने भी इसीलिए भूतों को अपने बराबर का दर्जा देकर उन्हें अपना गण बनाया है। ‘अहिंसा परमो धर्म:’, यह प्रसिद्ध उक्ति भी इसी सिद्धांत से बनी है। नाजायज जीवहिंसा का समर्थन दुनिया के किसी भी धर्म में नहीं किया गया है।
कुंडलिनी और इस्लाम~कुंडलिनी जिन्न, सलत या नमाज योग, अल्लादीन योगी, चिराग आज्ञा चक्र, व शरीर बोतल है, और आँखें आदि इन्द्रियां उस बोतल का ढक्कन हैं
मित्रो, मैं पिछले लेख में बता रहा था कि कैसे अच्छे लेखक के लिए अनुभवी होना बहुत जरूरी है। अनुभव की पराकाष्ठा जागृति में है। इसलिये हम कह सकते हैं कि एक जागृत व्यक्ति सबसे काबिल लेखक बन सकता है। होता क्या है कि जागृत व्यक्ति का पिछला जीवन जल्दी ही खत्म होने वाला होता है, तेजी से चल रहे रूपाँतरण के कारण। इसलिये उसमें खुद ही एक नेचुरल इंस्टिन्कट पैदा हो जाती है कि वह अपने पुराने जीवन को शीघ्रता से लिखकर सुरक्षित कर ले, ताकि जरूरत पड़ने पर वह उसे पढ़ कर अपने पुराने जीवन को याद कर ले। इससे उसे रूपान्तरण का सदमा नहीं लगता। इस इंस्टिनकट या आत्मप्रेरणा की दूसरी वजह यह होती है कि लोगों को जागृति के लिए प्रेरणा मिले और उन्हें यह पता चल सके कि जागृति के लिए कैसा जीवन जरूरी होता है। अगर उसे खुद भी फिर से कभी जागृति की जरूरत पड़े, तो वह उससे लाभ उठा सके। वेदों और पुराणों को लिखने वाले लोग जागृत हुआ करते थे। उन्हें ऋषि कहते हैं। यह उनकी रचनाओं को पढ़ने से स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। उन्हें पढ़ने से लगता है कि वे जीवन के सभी अनुभवों से भरे होते थे। उनका लेखन मानव के हरेक पहलू को छूता है। साथ में मैं अपना ही एक अनुभव साझा कर रहा था कि कैसे मुझे अपने ही लेख ने प्रेरित किया। अन्य अधिकांश लोग तो दूसरों के लेखों से प्रेरित होते हैं। मुझे अपना ही लेख अचंभित करता था। उसमें मुझे अनेकों अर्थ दिखते थे, कभी कुछ तो कभी कुछ, और कभी कुछ नहीं। यह आदमी का मानसिक स्वभाव है कि सस्पेंस या संदेह और थ्रिल या रोमांच से भरी बात के बारे में वह बार-बार सोचता है। इसी वजह से वह लेख मेरे मन में हमेशा खुद ही बैठा रहता था, और मुझे ऐसा लगता था कि वह मुझे जीवन में दिशानिर्देशित कर रहा था। दरअसल अगर कोई चीज मन में लगातार बैठी रहे, तो वह कुंडलिनी का रूप ले लेती है। कई लोग उसे झेल नहीं पाते और अवसाद का शिकार हो जाते हैं। इसीलिए तो लोग कहते हैं कि फलां आदमी फलां चीज के बारे में लगातार सोच-सोच कर पागल हो गया। दरअसल वैसा ऊर्जा की कमी से होता है। कुंडलिनी शरीर की ऊर्जा का अवशोषण करती है। यदि कोई अतिरिक्त ऊर्जा को न ले तो स्वाभाविक है कि उसमें शक्तिहीनता जैसी घर कर जाएगी। इससे उसका मन अपनी रोज की साफसफाई के लिए भी नहीं करेगा। अवसाद की परिभाषा भी यही है कि आदमी अपने शरीर की देखरेख भी ढंग से नहीं कर पाता, बाकि काम तो छोड़ो। मेरा एक सहकर्मी जो अवसाद की दवाइयां भी खाता था, कई-कई दिनों तक न तो नहाता था और न खाना बनाता था। कुंडलिनी, ऊर्जा और शक्ति एकदूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं, लगभग। अवसाद में आदमी अकेलेपन में इसलिए रहने लगता है क्योंकि वह व्यर्थ के झमेलों से बचकर अपनी ऊर्जा बचाना चाहता है। पर इससे कई बार उसका अवसाद बढ़ जाता है, क्योंकि उसे प्रेमभरी सहानुभूति देने वाला कोई नहीं रहता। पर यदि कुंडलिनी के लिए अतिरिक्त ऊर्जा या शक्ति की आपूर्ति हो जाए, और उससे आदमी के काम कुप्रभावित न हों, तो कुंडलिनी चमत्कार करते हुए आदमी को मुक्ति की ओर ले जाती है। कई बार अवसाद के मरीज में ऊर्जा तो पर्याप्त होती है, पर वह ऊर्जा दिग्भ्रमित होती है। कुंडलिनी योग से यदि ऊर्जा को सही दिशा देते हुए उसे कुंडलिनी को प्रदान किया जाए, तो अवसाद समाप्त हो जाता है। मुझे भी ऐसा ही अवसाद होता था, जो कुंडलिनी योग से समाप्त हो गया। मेरे उन लेखों में यौनवासना का बल भी था, तंत्र के रूप में। क्योंकि आपने देखा होगा कि लगभग हरेक फिल्म में रोमांस होता है। यह रोचकता प्रदान करने के लिए होता है। कोई चीज हमें तभी रोचक लगती है जब वह कुंडलिनी शक्ति से हमारे मन में ढंग से बैठती है। मतलब साफ है कि फ़िल्म में प्रणय संबंधों का तड़का इसीलिए लगाया जाता है, ताकि उससे मूलाधार-निवासिनी कुंडलिनी शक्ति सक्रिय हो जाए, जिससे पूरी फ़िल्म अच्छे से मन में बैठ जाए और लोग एकदूसरे से चर्चा करते हुए उसका खूब प्रचार करे, और वह ब्लॉकबस्टर बने। इसीलिए यदि ऐतिहासिक दस्तावेज पर भी फ़िल्म बनी हो, तो भी उसमें रोमांस जोड़ दिया जाता है, सच्चा न मिले तो झूठा ही सही। इसीलिए कई बार ऐसी फिल्मों का विरोध भी होता है। इसी विरोध के कारण ही फ़िल्म पद्मावती (स्त्रीलिंग) का नाम बदलकर पद्मावत (पुलिंग) रखना पड़ा था। यह फ़िल्म उद्योग का मनोविज्ञान है। ऐसा लग रहा था कि वे लेख मैंने नहीं, बल्कि मेरी कुंडलिनी ने लिखे थे। मेरा मन दो हिस्सों में विभाजित जैसा था, एक हिस्सा कुंडलिनी पुरुष या गुरु या उपदेशक के रूप में था, और दूसरे हिस्से में मेरा पूरा व्यक्तित्व एक शिष्य या श्रोता के रूप में था। कुंडलिनी का यह लाभ भी काबिलेगौर है। वैसे आम आदमी तो अपने लिखे या शत्रु द्वारा लिखे लेख से ज्यादा लाभ नहीं उठा सकता, पर कुंडलिनी को धारण करने वाला व्यक्ति उनसे भी पूरा लाभ उठा लेता है, क्योंकि उसे लगता है कि वे कुंडलिनी ने लिखे हैं। सम्भवतः इसीलिये कुंडलिनी को सबसे बड़ा गुरु या मार्गदर्शक कहते हैं। एक लेख से मुझे अपने लिए खतरा भी महसूस होता था, क्योंकि उसमें धर्म के बारे में कुछ सत्य और चुभने वाली बातें भी थीं। हालांकि गलत कुछ नहीं लिखा था। उस बारे मुझे कुछ धमकी भरी चेतावनियाँ भी मिली थीं। उसकी वजह मुझे यह भी लगती है कि उससे कुछ बड़े-बुजुर्गों और तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के अहंकार को चोट लगी होगी कि एक साधारण सा कम उम्र का लड़का धर्म, तंत्र व आध्यात्मिक विज्ञान के बारे में कुछ कैसे लिख सकता था। हो सकता है कि उन्हें यह भी लगा हो कि उन लेखों में एक जगह गुरु का अपमान झलकता था। हालाँकि लगता है कि वे बाद में समझ गए थे कि वैसा कुछ नहीं था, और वे लेख अनगिनत अर्थों से भरे थे, ताकि हर किस्म के लोगों को पसंद आते। वैसे उन्हें यह सवाल पत्रिका के लिए लेख के चयनकर्ताओं से पूछना चाहिए था कि उन्होंने मेरे लेखों को क्या देखकर चयनित किया था। मुझे उन लेखों से पैदा हुए भय से लाभ भी मिला। भय से एक तो हमेशा उन लेखों पर ध्यान जाता रहा, और दूसरा लेखन की बारीकियों की समझ विकसित हुई। मेरे लेखन को मेरे परिवार के एक या दो बड़े लोगों ने भी पढ़ा था। उन्हें भी उससे अपने लेखन में कुछ सुधार महसूस हुआ था। साथ में, मैं बता रहा था कि कैसे पुरातन चीजों के साथ संस्कार जुड़े होते हैं। इसी मनोवैज्ञानिक सिद्धांत से प्रेरित होकर ही पुराणों के ऋषियों ने अपने लेखन में कभी सीमित काल नहीं जोड़ा है। केवल ‘बहुत पुरानी बात’ लिखा होता है। इससे पाठक के अवचेतन मन में यह दर्ज हो जाता है कि ये अनादि काल पहले की बातें हैं। इससे सर्वाधिक काल-संभव संस्कार खुद ही प्राप्त हो जाता है। इसी तरह यदि कहीं कालगणना की जाती है, तो बहुत दूरपार की, लाखों -करोड़ों वर्षों या युगों की। इसीलिए हिंदू धर्म को ज्यादातर लोग सनातन धर्म कहना पसंद करते हैं।
अब शिव पुराण की आगे की कथा को समझते हैं। हाथी का सिर जोड़कर गणेश को गजानन बना दिया गया। मतलब कि भगवान शिव पार्वती की कुंडलिनी तो वापिस नहीं ला पाए, पर उन्होंने कुंडलिनी सहायक के रूप में गजानन को पैदा किया। हाथी वाला भाग यिन का प्रतीक है, और मनुष्य वाला भाग यांग का। यिन-यांग गठजोड़ के बारे में एक पिछली पोस्ट में भी बताया है। उसे देखकर पार्वती के मन में अद्वैतभावना पैदा हुई, जिससे उसे अपनी कुंडलिनी अर्थात अपने असली पुराने गणेश की याद वापिस आ गई, और वह हमेशा उसके मन में बस गया। इसलिए गजानन उसे बहुत प्यारा लगा और उसे ही उसने अपना पुत्र मान लिया। उसे आशीर्वाद भी दिया कि हर जगह सबसे पहले उसी की पूजा होगी। अगर उसकी पूजा नहीं की जाएगी, तो सभी देवताओं की पूजा निष्फल हो जाएगी। वास्तव में गजानन की पूजा से अद्वैतमयी कुंडलिनी शक्ति उजागर हो जाती है। वही फिर अन्य देवताओं की पूजा के साथ वृद्धि को प्राप्त करती है। देवताओं की पूजा का असली उद्देश्य कुंडलिनी ही तो है। यदि गजानन की पूजा से वह उजागर ही नहीं होगी, तो कैसे वृध्दि को प्राप्त होगी। अगर होगी, तो बहुत कम।
फिर शिव-पार्वती अपने दोनों पुत्रों कार्तिकेय और गणेश के विवाह की योजना बनाते हैं। वे कहते हैं कि जो सबसे पहले समस्त ब्रह्मांड की परिक्रमा करके उनके पास वापिस लौट आएगा, उसीका विवाह पहले होगा। कार्तिकेय मोर पर सवार होकर उड़ जाता है, अभियान को पूरा करने के लिए। उधर गणेश के पास चूहा ही एकमात्र वाहन है, जिसपर बैठकर ब्रह्मांड की परिक्रमा करना असंभव है। इसलिए वह माता पिता के चारों तरफ घूमकर परिक्रमा कर लेता है। वह कहता है कि मातापिता के शरीर में संपूर्ण ब्रह्मांड बसा है, और वे ही ईश्वर हैं। बात ठीक भी है, और शरीरविज्ञान दर्शन के अनुसार ही है। सवारी के रूप में चूहे का मतलब है कि गणेश अर्थात यिन-यांग गठजोड़ ज्यादा क्रियाशील नहीं होता। यह शरीर में कुंडलिनी की तरह नहीं घूमता। शरीर मतलब ब्रह्मांड। कार्तिकेय अर्थात कुण्डलिनी का शरीर में चारों ओर घूमना ही पूरे ब्रह्मांड की परिक्रमा है। इसीलिए उसे तीव्र वेग से उड़ने वाले मोर की सवारी कहा गया है। गणेश तो भौतिक मूर्ति के रूप में शरीर के बाहर जड़वत स्थित रहता है। इसीलिए मन्द चाल चलने वाले चूहे को उसका वाहन कहा गया है। वह खुद नहीं घूमता, पर शरीर के अंदर घूमने वाले कुंडलिनी पुरुष को शक्ति देता है। यदि उसका मानसिक चित्र घूमता है, तो वास्तविक कुंडलिनी पुरुष की अपेक्षा बहुत धीमी गति से। वह तो यिन-यांग का मिश्रण है। माता-पिता या शिवपार्वती भी यिन-यांग का मिश्रण है। दोनों के इसी समान गुण के कारण उसके द्वारा मातापिता की परिक्रमा कही गई है। क्योंकि यिन-यांग गठजोड़ से, बिना कुंडलिनी योग के, सीधे ही भी जागृति मिल सकती है, इसीलिए उसके द्वारा बड़ी आसानी से परमात्मा शिव या ब्रह्मांड की प्राप्ति या परिक्रमा होना बताया गया है। यिन-याँग के बारे में बात चली है, तो मैं इसे और ज्यादा स्पष्ट कर देता हूँ। मांस मृत्यु या यिन है, और उसे जला रही अग्नि जीवन या याँग है। इसीलिए श्मशान में कुंडलिनी ज्ञान प्राप्त होता है। शिव इसी वजह से श्मशान में साधना करते हैं। धुएं के साथ उसकी गंध अतिरिक्त प्रभाव पैदा करती है। सम्भवतः इसी यिनयांग से आकर्षित होकर लोग तंदूरी चिकन आदि का —–। मैंने अपने कुछ बड़े-बुजुर्गों से सुना है कि वैदिक काल के लोग जिंदा भैंसों या बैलों और बकरों को यज्ञकुंड की धधकती आग में डाल दिया करते थे, जिससे यज्ञ के देवता प्रसन्न होकर हरप्रकार से कल्याण करते थे। आजकल भी पूर्वी भारत में ऐसा कभीकभार देखा जा सकता है। आदर्शवादी कहते हैं कि शाकाहार संपूर्ण आहार है। यदि ऐसा होता तो दुनिया से जानवरों की अधिकांश किस्में विलुप्त न हो गई होतीँ, क्योंकि आदमी के द्वारा अधिकांशतः उनका इस्तेमाल भोजन के रूप में ही हुआ। कहते हैं कि एक यज्ञ तो ऐसा भी है, जिसमें गाय को काटा जाता है, जबकि गाय को हिन्दु धर्म में अति पवित्र माना जाता है। यज्ञ की हिंसा को हल्का दिखाने वाले कई लोग यह अवैज्ञानिक तर्क भी देते हैं कि पुराने समय के ऋषि यज्ञ में मरने वाले पशु को अपनी शक्ति से पुनर्जीवित कर देते थे, पर आजकल किसी में ऐसी शक्ति नहीं है, इसलिए आजकल ऐसे यज्ञ आम प्रचलन में नहीं हैं। कई दार्शनिक किस्म के लोग कहते हैं कि यज्ञ में बलि लगे हुए पशु को स्वर्ग प्राप्त होता है। जब बुद्धिस्ट जैसे लोगों द्वारा उनसे यह सवाल किया जाता है कि तब वे स्वर्ग की प्राप्ति कराने के लिए यज्ञ में पशु के स्थान पर अपने पिता की बलि क्यों नहीं लगाते, तब वे चुप हो जाते हैं। सम्भवतः वे यज्ञ देवता कुंडलिनी के रूप में ही होते थे। ऐसा जरूर होता होगा, क्योंकि ऐसे हिंसक यज्ञ-यागों का वर्णन वेदों में है। काले तंत्र या काले जादू में इसी तरह मांस के हवन से कुंडलिनी शक्ति पैदा की जाती है, जिसे जिन्न भी कहते हैं। हम यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम नाजायज पशु हिंसा के सख्त खिलाफ हैं, और यहाँ प्रकरणवश ही तथ्यों को सामने रखा जा रहा है, किसी जीवन-पद्धति की वकालत के लिए नहीं। इमरान खान ने बुशरा बेगम से बहुत काला जादू कराया, पर बात नहीं बनी। इससे जुड़ी एक बात मुझे याद आ रही है। मेरा एक दोस्त मुझे एकबार बता रहा था कि मृत पशु के व्यवसाय से जुड़े किसी विशेष समुदाय के लोगों का एक शक्तिशाली देवता होता है। उसे वे गड्ढा कहते हैं। दरअसल हरवर्ष एक कटे हुए मृत बकरे को उस गड्ढे में दबा दिया जाता है। जिससे उसमें बहुत खतरनाक मांसखोर जीवाणु पनपे रहते हैं। यदि किसीका बुरा करना हो, तो उस गड्ढे की मिट्टी की मुट्ठी शत्रु के घर के ऊपर फ़ेंक दी जाती है। जल्दी ही उस घर का कोई सदस्य या तो मर जाता है, या गंभीर रूप से बीमार हो जाता है। विज्ञान के अनुसार तो उस मिट्टी से जीवाणु-संक्रमण फैलता है। पर मुझे इसके पीछे कोई घातक मनोवैज्ञानिक वजह भी लगती है। जिन्न क्या है, कुंडलिनी ही है। चीज एक ही है। यह तो साधक पर निर्भर करता है कि वह उसे किस तरीके से पैदा कर रहा है, और किस उद्देश्य के लिए प्रयोग में लाएगा। यदि यह सात्विक विधि से पैदा की गई है, और आत्मकल्याण या जगकल्याण के लिए है, तब उसे शक्ति या कुंडलिनी या होली घोस्ट या पवित्र भूत कहेंगे। यदि उसे तामसिक तरीके से पैदा किया है, हालांकि उसे आत्मकल्याण और जगकल्याण के प्रयोग में लाया जाता है, तब इसे तांत्रिक कुंडलिनी कहेंगे। यदि इसे तामसिक या काले तरीके से पैदा किया जाता है, और इससे अपने क्षणिक स्वार्थ के लिए जगत के लोगों का नुकसान किया जाता है, तब इसे जिन्न या भूत या डेमन कहेंगे। अब्राहमिक धर्म वाले कई लोग जो कुंडलिनी को डेमन या शैतान कहते हैं, वे अपने हिसाब से ठीक ही कहते हैं। मैं ऐसा नहीं बोल रहा हूँ कि सभी लोग ऐसा कहते हैं। आपको हरेक धर्म में हर किस्म के लोग मिल जाएंगे। हमारे लिए सभी धर्म समान हैं। इस वैबसाईट में धार्मिक वैमनस्य के लिए कोई जगह नहीं ह। कुंडलिनी योग से जो शरीर में कंपन, सिकुड़न, नाड़ी-चालन आदि विविध लक्षण प्रकट होने लगते हैं, उसे वे शैतान का शरीर पर कब्जा होना कहते हैं। पर मैं उसे देवता का शरीर पर कब्जा होना कहूंगा। शैतान और देवता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनके पास कुंडलिनी को वश में करने वाली युक्तियां व संस्कार नहीं हैं, इसलिये उनसे वह हिंसा, नुकसान, दंगे, जिहाद, धर्म परिवर्तन आदि करवाती है। हाल ही में जो देशभर में कई स्थानों पर रामनवमी के जुलूसों पर विधर्मियों के द्वारा हिंसक पथराव हुआ है, वह शक्ति से ही हुआ है। उस पर उन्हें कोई पछतावा नहीं, क्योंकि इसको उन्होंने महान मानवता का काम माना हुआ है, लिखित रूप में भी और सामूहिक तौर पर भी। हम मानते हैं कि कुंडलिनी शक्ति मानवता के लिए काम करती है, ये भी ऐसा ही मानते हैं, पर इन्होंने कुंडलिनी को धोखे में डाला हुआ है, मानवता को विकृत ढंग से परिभाषित करके। यह ऐसे ही है कि एक सांप घर के अंदर घुसा था चूहे का शिकार करने, पर शिकार सोया हुआ आदमी बन गया, क्योंकि चूहा सांप से बचने के लिए उसके बिस्तर में घुस गया। गजब का मनोविज्ञान है लगता है यह, जिस पर यदि ढंग से शोध किए जाएं, तो समाज में व्याप्त परस्पर वैरभाव समाप्त हो सकता है। शक्ति कुंडलिनी का ही पर्याय है, या यूँ कहो कि शक्ति कुंडलिनी से ही मिलती है, बेशक वह किसी को महसूस होए या न। उनके लिए तो कुंडलिनी शैतान ही कही जाएगी। पर हिन्दु धर्म में गुरु परम्परा, संस्कार आदि अनेकों युक्तियों से कुंडलिनी को वश में कर के उससे मानवता, सेवा, जगकल्याण, और मोक्ष संबंधी काम कराए जाते हैं। इसलिए हिन्दुओं के लिए वही कुंडलिनी देवता बन जाती है। ऐसा होने पर भी, हिन्दु धर्म में भी बहुत से लोग कई बार कुंडलिनी के आवेश को सहन नहीं कर पाते। मैं एकबार ऊँचे हिमालयी क्षेत्रों में किसी प्रसंगवश रहता था। हम कुछ साथियों का मकान-मालिक बहुत अच्छा इंसान था। देवता पर बहुत ज्यादा आस्था रखने वाला था। हमेशा देवपूजा में शामिल होता था। उसके पूरे परिवार के संस्कार ऐसे ही पवित्र थे। मेरे एक रूममेट के साथ अक्सर उठता-बैठता था। एकबार उस मकान मालिक की कुंडलिनी शक्ति को पता नहीं क्या हुआ, वह ज्यादा ही खानेपीने लग गया, जिससे वह सम्भवतः कुंडलिनी को नियंत्रित नहीं कर पा रहा था। वह रोज मेरे रूममेट को साथ लेकर शराब पीता और पूरे दिन उसके साथ और कुछ अन्य लोगों के साथ ताश खेलता रहता। समझाने पर भी न समझे। उसकी बड़ी-बड़ी और लाली लिए आँखें जैसे शून्यता को ढूंढती रहती। वह अजीब सा और डरावना सा लगता। ऐसा लगता कि जैसे उस पर देवता की छाया पड़ गई हो, पर उल्टे रूप में। मेरा रूममेट भी बड़ा परेशान। वह किसी के काबू नहीं आया पुलिस के सिवाय। बाद में माफी माँगने लगा। अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हुआ। शराब तो उसने बिल्कुल छोड़ दी, और वह पहले से भी ज्यादा नेक इंसान बन गया। इससे जाहिर होता है कि वह देवता या कुंडलिनी के वश में था। इसीलिए वह मारपीट आदि नहीं कर रहा था। यदि मारपीट आदि बवाल मचाता, तो मानते कि वह भूतरूपी कुंडलिनी के वश में होता। उसकी कुंडलिनी को जरूरत से ज्यादा तांत्रिक ऊर्जा मिल रही थी, जिससे वह उसे नियंत्रित नहीं कर पा रहा था। यदि वह अपनी मर्जी से कर रहा होता तो बाद में माफी न मांगता, बहुत शर्मिंदा न होता, और प्रायश्चित न करता। ऐसे मैंने बहुत से अच्छे लोग देखे हैं, जिन्हे पता नहीं एकदम से क्या हो जाता है। वे तो खातेपीते भी नहीं। बिल्कुल सात्विक जीवन होता है उनका। लगता है कुंडलिनी को पर्याप्त ऊर्जा न मिलने से भी ऐसा होता है। यदि उनकी ऊर्जा की कमी को उच्च ऊर्जा वाली चीजों विशेषकर ननवेज या विशेष टॉनिक से पूरा किया जाए, तो वे एकदम से ठीक हो जाते हैं। इसीलिए कहते हैं कि शक्ति खून की प्यासी होती है। माँ काली के एक हाथमें खड़ग और दूसरे हाथ में खून से भरा कटोरा होता है। अगर ऊर्जा की कमी से कुंडलिनी रुष्ट होती है, तो ऊर्जा की अधिकता से भी। इसीलिए योग में संतुलित आहार व विहार पर बल दिया गया है। अपने व्यवसाय की खातिर मैं कुछ समय के लिए एक जंगली जैसे क्षेत्र में भी रहा था। वहां एक गांव में मैंने देखा था कि एक बुजुर्ग आदमी को प्रतिदिन मांस चाहिए होता था खाने को, बेशक थोड़ा सा ही। अगर उसे किसी दिन मांस नहीं मिलता था, तो उसमें भूत का आवेश आ जाता था, और वह अजीबोग़रीब हरकतें करने लगता था, गुस्सा करता, बर्तन इधरधर फ़ेंकता, और परिवार वालों को परेशान करता, अन्यथा वह दैवीय गुणों से भरा रहता था। कुछ तो इसमें मनोवैज्ञानिक कारण भी होता होगा, पर सारा नहीं। बहुत से लोग यह मानते हैं कि शक्ति से केवल लड़ाई-झगड़े जैसे राक्षसी गुण ही पनपते हैं, दैवीय गुण नहीं। पर सच्चाई यह है कि दया, प्रेम, नम्रता, सहनशीलता जैसे दैवीय गुणों के लिए भी शक्ति की जरूरत पड़ती है। अगर विष्ठा को ढोने के लिए ताकत की जरूरत होती है, तो अमृत को ढोने के लिए भी ताकत की जरूरत पड़ती है। यह अलग बात है कि शक्ति का स्रोत क्या है। पर यह भी सत्य है कि शक्ति का सबसे उत्कृष्ट स्रोत संतुलित आहार ही है, और वह ननवेज के बिना पूरा नहीं होता। हम यहाँ निष्पक्ष रूप से वैज्ञानिक तथ्य सामने रख रहे हैं, न कि किसी की जीवनपद्धति। भारत-विभाजन के कारण लाखों निर्दोष लोग मारे गए। विभाजन भी बड़ा अजीब और बेढंगा किया गया था। देश को तोड़ना और जोड़ना जैसे एक गुड्डे-गुडिया का खेल बना दिया गया। उसके लिए तथाकथित जिम्मेदार लोग तो बहुत उच्च जीवन-आदर्श वाले और अहिंसक थे। फिर सामाजिक न्याय, धार्मिक न्याय, बराबरी, हित-अहित, कूटनीति और निकट भविष्य में आने वाली समस्याओं का आकलन वे क्यों नहीं कर पाए। प्रथमदृष्टया तो ऐसा लगता है कि उनमें ऊर्जा की कमी रही होगी, और उनके विरोधी ऊर्जा से भरे रहे होंगे। तब ऐसे आदर्शवाद और अहिंसा धर्म से क्या लाभ। इससे अच्छा तो तब होता अगर वो अपनी ऊर्जा के लिए छुटपुट मानवीय हिंसा को अपनाकर उस भयानक मानवघातिनी हिंसा को रोक पाते, और भविष्य को भी हमेशा के लिए सुरक्षित कर देते। समझदारों के लिए इशारा ही काफी होता है। इस बारे ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है। हम किसी की आलोचना नहीं कर रहे हैं, पर तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं। विरोध नीतियों, विचारों और कामों का होता है, व्यक्तियों का नहीं। हम आदर्शवाद की तरफ भी कोई अंगुली नहीं उठा रहे हैं। आदर्शवाद उच्च व्यक्तित्व का आधारस्तम्भ है। यह एक अच्छी और मानवीय आदत है। कुंडलिनी जागरण की प्राप्ति कराने वाले कारकों में यह मूलभूत कारक प्रतीत होता है। हमारा कहने का यही तात्पर्य है कि दुनिया में, खासकर आज के कलियुग में अधिकांश लोग मौकापरस्त होते हैं और आदर्शवादी का नाजायज फायदा उठाने के लिए तैयार रहते हैं। इसलिए आदर्शवाद के साथ अतिरिक्त सतर्कता की जरूरत होती है। दक्षिण भारत में मछली उत्पादन बहुत होता है, समुद्रतटीय क्षेत्र होने के कारण। इसलिए वहाँ अधिकांश लोग मांसाहारी होते हैं। फिर भी वहाँ हिन्दु संस्कृति को बहुत मान-सम्मान मिलता है। इसकी झलक दक्षिण की फिल्मों में खूब मिलती है। मुख्यतः इसी वजह से आजकल वहाँ की फिल्में पूरी दुनिया में धूम मचा रही हैं। सम्भवतः उपरोक्त वृद्ध व्यक्ति की कुंडलिनी शक्ति ऊर्जा की कमी से ढंग से अभिव्यक्त न होकर भूत जैसी बन जाती थी। एकप्रकार से संतुलित आहार से उसके मन को शक्ति मिलती थी, क्योंकि कुंडलिनी मन ही है, मन का एक विशिष्ट, स्थायी, व मज़बूत भाव या चित्र है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जिससे मन को शक्ति मिलती है, उससे कुंडलिनी को भी खुद ही शक्ति मिलती है। कुंडलिनी को ही सबसे ज्यादा शक्ति मिलती है, क्योंकि कुंडलिनी ही मन का सबसे प्रभावशाली हिस्सा है। इसीलिए योग में संक्षेप में कहते हैं कि कुंडलिनी को शक्ति मिली, मन की बात नहीं होती। योग में कुंडलिनी से मतलब है, बाकि विस्तृत मन से कोई विशेष प्रयोजन नहीं। आप आदिवासियों के झुण्ड के सरदार को आसानी से वश में कर सकते हो, पूरे झुंड को नहीं। जैसे सरदार को वश में करने से पूरा झुंड वश में हो जाता है, उसी तरह कुंडलिनी को वश में करने से पूरा मन वश में हो जाता है। यूँ कह सकते हैं कि कुंडलिनी ही मन का मर्म है। अगर किसी की कुंडलिनी को पकड़ लिया, तो उसके पूरे मन को पकड़ लिया। तभी तो हरेक आदमी अपनी कुंडलिनी के बारे में छुपाता है। साम्प्रदायिक हिंसा ऐसे ही धार्मिक आवेश में होती है, और उसके लिए मन से पछतावा होने पर भी कोई माफी नहीं मांगता, क्योंकि धर्म में ही ऐसा लिखा होता है कि यह अच्छा काम है और जन्नत को देने वाला है। देवता तो उसे लाभ देना चाह रहा था, पर वह लाभ नहीं ले पा रहा था। उसका तनमन देवता के आवेश को सहन नहीं कर पा रहा था। इसलिये देवता उसके लिए भूत या डेमन बन गया था। इसी से बचने के लिए ही हठयोग के अभ्यास से तनमन को स्वस्थ करना पड़ता है, तभी कोई देव-कुंडलिनी को सहन और नियंत्रित करने की सामर्थ्य पाता है। यदि बंदर के हाथ उस्तरा लग जाए, तो दोष उस्तरे का नहीं है, दोष बंदर का है। इसी तरह, मैंने एकबार देखा कि एक देवता के सामने एक गुर (विशेष व्यक्ति जिस पर देवता की छाया पड़ती हो) जब ढोल की आवाज से हिंगरने या नाचने लगा, तो उसकी दिल के दौरे से मौत हो गई। लोगों ने कहा कि उसके ऊपर देवता की बजाय भूत की छाया पड़ी। दरअसल उसका निर्बल शरीर देवता रूप कुंडलिनी के आवेश को सहन नहीं कर पाया होगा। इसीलिए कुंडलिनी योग के लिए उत्तम स्वास्थ्य का होना बहुत जरूरी है। योग की क्रिया स्वयं भी उत्तम स्वास्थ्य का निर्माण करती है। मेरे दादाजी पर भी देवता की छाया उतारी जाती थी। छाया या साया चित्र को भी कहते हैं। यिन-याँग गठजोड़ ही देवता है। उससे जो मन में कुंडलिनी चित्र बनता है, उसे ही देवता की छाया कहते हैं। जब ढोल की आवाज से देवता उनके अंदर नाचता था, तब उनकी साँसे एकदम से तेज हो जाती थीं। उनकी पीठ एकदम सीधी और कड़ी हो जाती थी, सिर भी सीधा, और वे अपने आसन पर ऊपर-नीचे की ओर जोर-जोर से हिलते थे। उस समय उनके दोनों हाथ अगले स्वधिष्ठान चक्र पर जुड़े हुए और मुट्ठीबंद होते थे। ऐसा लगता है कि उनकी कुंडलिनी ऊर्जा मूलाधार से पीठ से होते हुए ऊपर चढ़ रही होती थी। मैंने कभी उनसे पूछा नहीं, अगर मौका मिला तो जरूर पूछूंगा। उस समय कुछ पूछने पर वे हांफते हुए कुछ अस्पष्ट से शब्दों में बोलते थे, जिसे देवता की सच्ची आवाज समझा जाता था। उससे बहुत से काम सिद्ध किए जाते थे, और बहुत से विवादों को निपटाया जाता था। देवता के आदेश का पालन लोग तहेदिल से करते थे, क्योंकि वह आदेश हमेशा ही शुभ और सामाजिक होता था। 5-10 मिनट में देवता की छाया उतरने के बाद वे शांत, तनावमुक्त और प्रकाशमान जैसे दिखते थे। कई बार उसकी थकान के कारण वे दिन में ही नींद की झपकी भी ले लेते थे। कई बार वह देवछाया थोड़ी देर के लिए और हल्की आती थी। कई बार ज्यादा देर के लिए और बहुत शक्तिशाली आती थी। कई बार नाममात्र की आती थी। कुछेक बार तो बिल्कुल भी नहीं आती थी। फिर कुछ दिनों बाद वह प्रक्रिया दुबारा करनी पड़ती थी, जिसे स्थानीय भाषा में नमाला कहते हैं। साल में इसे 1-2 बार करना पड़ता था, खासकर नई फसल के दौरान। कई बार तात्कालिक विवाद को मिटाने के लिए इमरजेंसी अर्थात आपात परिस्थिति में भी देवता को बुलाना पड़ता था। देव-छाया जितनी मजबूत आती थी, उसे उतना ही शुभ माना जाता था।
वैसे जिन्न अच्छे भी हो सकते हैं, जो किसीका नुकसान नहीं करते, फायदा ही करते हैं। यह उपरोक्तानुसार संस्कारों पर और जिन्न को हैंडल करने के तरीके पर निर्भर करता है। यदि कुंडलिनी जैसी दिव्य शक्ति हमेशा शैतान हुआ करती, तो जिन्न कभी अच्छे न हुआ करते। इसका मतलब है कि कुंडलिनी शक्ति के हैंडलर पर काफ़ी निर्भर करता है कि वह क्या गुल खिलाएगी। सलत या नमाज ही कुंडलिनी योग है। इसमें भी वज्रासन में घुटनों के बल बैठा जाता है। कुछ अल्लाह का ध्यान किया जाता है, जिससे स्वाभाविक है कि माथे पर आज्ञा चक्र क्रियाशील हो जाएगा। तब आगे को झुककर माथे को अर्थात उस पर स्थित आज्ञा चक्र को जमीन पर छुआया या रगड़ा जाता है। उससे अज्ञाचक्र पर कुंडलिनी या अल्लाह का ध्यान ज्यादा मज़बूत होकर शरीर में चारों तरफ एक ऊर्जा प्रवाह के रूप में घूमने लगता है। फिर पीठ को ऊपर उठाकर आदमी फिर से सीधा कर लेता है, और आँखें बंद रखता है। इससे वह घूमती हुई ऊर्जा बोतलनुमा शरीर में बंद होकर बाहर नहीं निकल पाती, क्योंकि आँख रूपी बोतल का ढक्क्न भी बंद कर दिया जाता है। जरूरत पड़ने पर जब आदमी दुनियादारी में काम करने लगता है, तो वह कुण्डलीनिनुमा ध्यान बाहर आकर बाहरी दुनिया में दिखने लग जाता है, और उसे सहानुभूति देकर उसकी काम में मदद करता है, और उसे तनाव पैदा नहीं होने देता। फिर अगले सलत के समय ध्यान के बल से वह ध्यान चित्र फिर शरीर के अंदर घुस जाता है, जिसे वहाँ पूर्ववत फिर बंद कर दिया जाता है। आप समझ ही गए होंगे कि इसका क्या मतलब है। फिर भी मैं बता देता हूँ। सलत ही कुंडलिनी योग है। वज्रासन ही योगासन है। अज्ञाचक्र या माथा ही चिराग है। जमीन पर माथा रखना या आज्ञाचक्र के साथ मूलाधार चक्र का ध्यान ही चिराग को जमीन पर रगड़ना है। वैसे भी मूलाधार को जमीनी चक्र अर्थात जमीन से जोड़ने वाला चक्र कहा जाता है। दरअसल माथे को जमीन पर छुआने से आज्ञा चक्र और मुलाधार चक्र के बीच का परिपथ पूरा होने से दोनों आपस में जुड़ जाते हैं, मतलब यांग और यिन एक हो जाते हैं। उससे मन में अद्वैत और उससे प्रकाशमान कुंडलिनी चित्र का पैदा होना ही चिराग से चमकते जिन्न का निकलना है। पीठ और सिर का ऊपर की ओर बिल्कुल सीधा करके उसका शरीर में अंदर ही अंदर ध्यान करना ही उसको बोतल में भरना है। शरीर ही बोतल है। आँखों को बंद करना अर्थात इन्द्रियों के दरवाजों को बंद करना अर्थात इन्द्रियों का प्रत्याहार ही बोतल का मुँह ढक्कन लगाकर बंद करना है। ध्यान चित्र इन्द्रियों से ही बाहर निकलता है और बाहरी जगत की चीजों के ऊपर आरोपित हो जाता है। इसे बोतलनुमा शरीर में कैद रखा जाता है, अर्थात इसे चक्रोँ पर गोलगोल घुमाया जाता है, और जरूरत के अनुसार बाहर भी लाया जाता रहता है। बाहर आकर यह दुनियावी व्यवहारों व कामों में अद्वैतभाव और अनासक्ति भाव पैदा करता है, जिससे मोक्ष मिलता है। साथ में, भौतिक उपलब्धियां तो मिलती ही हैं। मोक्ष के प्राप्त होने को ही सबकुछ प्राप्त होना कह सकते है। इसीलिए कहते हैं कि जिन्न सबकुछ देता हैं, या मनचाही वस्तुएँ प्रदान करता है। पवित्र कुरान शरीफ में साफ लिखा है कि बिना धुएं की आग से जिन्न पैदा हुआ। हिन्दु धर्म भी तो यही कहता है कि जब यज्ञ की अग्नि चमकीली, भड़कीली और बिना धुएं की हो जाती है, तब उसमें डाली हुई आहुति से यज्ञ का देवता अर्थात कुंडलिनी प्रकट होकर उसे ग्रहण करती है, और तृप्त होती है। मैंने खुद ऐसा कई बार महसूस किया है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि जिन्न और कुंडलिनी एक ही चीज के दो नाम हैं। बुरे जिन्न से बचने के लिए अच्छे जिन्न को बढ़ावा देना चाहिए। अल्लाह या भगवान के ध्यान से और योग से अच्छा जिन्न साथ देता है, नहीं तो बुरा जिन्न हावी हो जाता है। मेरे साथ भी ऐसी ही दुविधा होती थी। मेरे ऊपर दो किस्म के जिन्न हावी रहते थे। एक जिन्न तो देवतुल्य, ऋषितुल्य, वयोवृद्ध, तेजस्वी, अध्यात्मवादी, कर्मयोगी, और पुलिंग प्रकार का था। दूसरा जिन्न भी हालांकि भूतिया नहीं था, पर भड़कीला, अति भौतिकवादी, विज्ञानवादी, प्रगतिशील, खूबसूरत, जवान और स्त्रीलिंग प्रकार का था। उसमें एक ही कमी थी। वह कई बार भयानक क्रोध करता था, पर मन से साफ और मासूम था, किसी का बुरा नहीं करता था। मैंने दोनों किस्म के जिन्नों से भरपूर लाभ उठाया। दोनों ने मुझे भरपूर भौतिक समृद्धि के साथ जागृति उपलब्ध करवाई। समय और स्थान के अनुसार कभी मेरे अंदर पहले वाला जिन्न ज्यादा हावी हो जाता था, कभी दूसरे वाला। अब मेरी उम्र भी ज्यादा हो गई है, इसलिए मैं अब दूसरे वाले जिन्न का आवेश सहन नहीं कर पाता। इसलिए मुझे अब कुंडलिनी ध्यानयोग की सहायता से पहले वाले जिन्न को ज्यादा बलवान बना कर रखना पड़ता है। मेरा अनुभव इसी इस्लामिक मान्यता के अनुसार है कि लोगों की तरह ही जिन्न की जिंदगियां होती हैं। उनके लिंग, परिवार, स्वभाव आदि वैसे ही भिन्न-भिन्न होते हैं। उनकी उम्र होती है, शरीर की विविध अवस्थाएं होती हैं। वे वैसे ही पैदा होते हैं, बढ़ते हैं, और अंत में मर जाते हैं। मैंने दोनों जिन्नों को बढ़ते हुए महसूस किया, हालांकि धीमी रप्तार से। अब तो मुझे लगता है कि पहले वाले जिन्न की उम्र पूरी होने वाली है। हालांकि मैं ऐसा नहीं चाहता। उसके बिना मुझे बुरा लगेगा। फिर मुझे किसी नए जिन्न से दोस्ती करनी पड़ेगी, जो आसान काम नहीं है। दोनों जिन्न मेरे सम्भोग से शक्ति प्राप्त करते थे। कुंडलिनी भी इसी तरह तांत्रिक सम्भोग से शक्ति प्राप्त करती है। कई बार तो वे खुद भी मेरे साथ यौनसंबंध बनाते थे। सीधा यौनसंबंध बनाते थे, ऐसा भी नहीं कह सकते, पर मुझे किसीसे यौनसंबंध बनाने के लिए प्रेरित करते थे, ताकि वे उससे शक्ति प्राप्त कर सकते। यदि यौन संबंध से यौन साथी को शक्ति न मिले पर उन जिन्नों को शक्ति मिले, तो यही कहा जाएगा कि जिन्नों से यौन संबंध बनाया, भौतिक यौनसाथी से नहीं। सामाजिक रूप में ऐसा कहते हुए संकोच और शर्म महसूस होती है, पर यह सत्य है। दूसरे वाले जिन्न से मुझे एकसाथ ही हर किस्म का रिश्ता महसूस होता था। एकबार तो पहले वाले जिन्न ने मुझे समलैंगिकता और दूसरे वाले जिन्न ने बलात्कार की तरफ भी धकेल दिया था, पर मैं बालबाल बच गया था। उस समय यौन शक्ति से छाए हुए वे मुझे मन की आँखों से बिल्कुल स्पष्ट महसूस होते थे, और कई दिनों तक मुझे आनंदित करते रहते थे। पहले वाला जिन्न जब मेरे अद्वैतपूर्ण जीवन, कर्मयोग और सम्भोग की शक्ति से अपने उत्कर्ष के चरम पर पहुंचा, तो मेरे मन में कुछ क्षणों के लिए जीवंत हो गया, जो कुंडलिनी जागरण कहलाया। दूसरे वाला जिन्न तो मेरे साथ काफी समय तक पत्नी की तरह भी रहा, उससे बच्चे भी हुए, फिर उसकी उम्र ज्यादा हो जाने से उसने मेरे साथ सम्भोग करना लगभग बंद ही कर दिया। कई बार तो ऐसा लगता था कि वे दोनों जिन्न पति-पत्नि या प्रेमी-प्रेमिका के रूप में थे, हालांकि तलाकशुदा की तरह एकदूसरे से नाराज जैसे लगते थे, और एकदूसरे की ज्यादतियों से बचाने के लिए मेरे पास बारीबारी से आते-जाते थे। इससे मैं संतुलित हो जाया करता था। यह सब मनोवैज्ञानिक अनुभव है, मन के अंदर है, बाहर भौतिक रूप से कुछ नहीं है। उन्होंने मुझसे कभी सम्पर्क नहीं किया। वे मेरे मन में ऐसे रहते थे जैसे किसी पुराने परिचित या दोस्त की याद मन में बसी रहती है। मुझे लगता है कि वे असली जिन्न नहीं थे, बल्कि जिन्न की छाया मात्र थे, अर्थात दर्पण में बने प्रतिबिम्ब की तरह। अगर असली होते, तो उनमें अपना अहंकार होता, जिससे वे मुझे परेशान भी कर सकते थे, और मेरी योगसाधना में विघ्न भी डाल सकते थे। इसका मतलब है कि जिन्न या देवता की छाया ही योगसाधना में मदद करती है, उनका असली रूप नहीं। इसलिए यही कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति में देवता की छाया प्रविष्ट हुई है, असली देवता नहीं। यह अनुभव भी इस्लामिक मान्यता के अनुसार ही है। हिन्दु मान्यता भी ऐसी ही है, क्योंकि चीज एक ही है, केवल नाम में अंतर हो सकता है। हिन्दू मान्यता के अनुसार भूत होते हैं। जैसा यह भौतिक लोक है, वैसा ही एक सूक्ष्म लोक है। जैसे जैसे लोग भौतिक लोक में होते हैं, बिल्कुल वैसे ही सूक्ष्म लोक में भी होते हैं। जैसे-जैसे क्रियाकलाप इस स्थूल भौतिक लोक में होते हैं, बिल्कुल वैसे-वैसे ही सूक्ष्म आध्यात्मिक लोक में भी होते हैं। एकसमान समारोह, मित्रता, वैर, रोजगार, पशु-पक्षी और अन्य सबकुछ बिल्कुल एक जैसा। उस सूक्ष्म लोक के निवासियों को ही भूत कहते हैं। वे आपस में टेलीपेथी से सम्पर्क बनाकर रखते हैं। वे सबको महसूस नहीं होते। उन्हें या तो योगी महसूस कर सकते हैं, या फिर वे जिन पर उन भूतों का आवेश आ जाए। तांत्रिक योगी तो उन्हें वश में कर सकते हैं, पर साधारण आदमी को वे अपने वश में कर लेते हैं। योगी उन्हें वश में करके उन्हें योगसाधना के बल से देवता या कुंडलिनी में रूपान्तरित कर देते हैं। इसी को भूतसिद्धि कहते हैं। बुरे लोग उनसे नुकसान भी करवा सकते हैं।
यह भी लगता है कि अल्लादिन की कहानी शिवतंत्र या उस जैसी तांत्रिक मान्यता से निकली है। जिसने यह कहानी बनाई, वह गजब का ज्ञानी, तांत्रिक और जागृत व्यक्ति लगता है। सम्भवतः उसे यौन तंत्र को स्पष्ट रूप में सामने रखने में मृत्यु का भय रहा होगा, क्योंकि पुराने जमाने की तानाशाही व्यवस्था में, खासकर इस्लामिक व्यवस्था में क्या पता कौन कब इसका गलत मतलब समझ लेता, और जान का दुश्मन बन जाता। इसलिए उसने रूपक कथा के माध्यम से तंत्र को अप्रत्यक्ष रूप से लोगों के अवचेतन मन में डालने का प्रयास किया होगा, और आशा की होगी कि भविष्य में इसे डिकोड करके इसके हकदार लोग इससे लाभ उठाएंगे। एक प्रकार से उसने गुप्त गुफा में खजाने को सुरक्षित कर लिया, और रूपक कथा के रूप में उस ज्ञान -गुफा का नक्शा भूलभूलैया वाली पहेली के रूप में छोड़ दिया। फिल्मों में दिखाए जाने वाले ऐसे मिथकीय खोजी अभियान इसी रहस्यात्मक तंत्र विज्ञान को अभिव्यक्त करने वाली मनोवैज्ञानिक चेष्ठा है। इसीलिए वैसी फिल्में बहुत लोकप्रिय होती हैं। वज्र पर जहाँ यौन संवेदना पैदा होती है, उस बिंदु को चिराग कहा गया है, क्योंकि वहाँ पर योनि-रुपी जमीन से रगड़ खाने पर उसमें संवेदना-रूपी प्रकाशमान ज्योति प्रज्वलित हो जाती है। उस प्रकाशमान ज्योति पर कुंडलिनी रूपी जिन्न पैदा हो जाता है। बोतल चिराग के साथ ही रखी होती है। इससे वह कुंडलिनी-जिन्न बोतल के अंदर प्रविष्ट हो जाता है। नाड़ी-छल्ला ही वह बोतल है, जो वज्रशिखा की सतह पर संवेदना-बिंदु से शुरु होकर मुलाधार से होता हुआ पीठ में ऊपर चढ़ता है, और आगे के नाड़ी चैनल से होता हुआ नीचे आकर फिर से उस संवेदना-बिंदु से जुड़ जाता है। वज्र का वीर्यनिकासी-द्वार ही उस बोतल का मुँह है। तांत्रिक विधि से वीर्यपतन को रोककर वीर्यशक्ति को ऊपर चढ़ाना ही जिन्न को बोतल में भरना है। वीर्यपात रोकने को ही बोतल के मुंह को ढक्क्न से बंद करना कहा गया है। साँसों की शक्ति के दबाव से ही जिन्न बोतल के अंदर घूमता है। अंदर को जाने वाली सांस से वह बोतल के पिछले हिस्से से ऊपर चढ़ता है, और बाहर आने वाली सांस से बोतल की अगली दीवार को छूता हुआ नीचे उतरता है। अगर मूलाधार से लेकर सहसरार तक के पूरे शरीर को बोतल माना जाए, तो पीठ को बोतल की पिछली दीवार, और शरीर के आगे के हिस्से को बोतल की अगली दीवार कह सकते हैं। चक्रोँ को जोड़ने वाली मध्य रेखा को बोतल की दोनों मुख्य दीवारों की अंदरूनी सतह पर स्थित एक विशिष्ट राजमार्ग कह सकते हैं, जिस पर जिन्न दौड़ता है। चक्रोँ को जिन्न के विश्रामगृह कह सकते हैं। वज्र को बोतल की गर्दन कह सकते हैं। आश्चर्यजनक समानता रखने वाला रूपक है यह। इस बोतल-रूपक के सामने तो मुझे हिन्दुओं का नाग-रूपक भी फीका लग रहा है। पर नाग-रूपक इसलिए ज्यादा विशेष प्रभावशाली हो सकता है, क्योंकि नाग जीवित प्राणी और कुदरती है, उसका जमीन वाला चौड़, चौड़ा फन, दोनों को जोड़ने वाला बीच वाला पतला भाग, और कमर का गड्ढा बिल्कुल मानव-शरीर की बनावट की तरह है। जब जैसा रूपक उपयुक्त लगे, वैसे का ही ध्यान किया जा सकता है, कोई रोकटोक नहीं।
बोतल का ढक्क्न खोलकर जिन्न को बाहर निकलने देने का मतलब है कि नियंत्रित और तांत्रिक तरीके से वीर्यपात किया। जिन्न के द्वारा ‘क्या हुक्म मेरे आका’ कहने का मतलब है, जिन्न या कुंडलिनी का बाहरी जगत में स्पष्ट रूप में दृष्टिगोचर होना। हालांकि जिन्न मन में ही होता है, पर वीर्य शक्ति के साथ बाहर गया हुआ महसूस होता है। फिर जिन्न के द्वारा आदमी के सभी कामों में मदद करने का अर्थ है, जिन्न का सभी कामों के दौरान एक विश्वासपात्र मित्र के रूप में अनुभव होते रहना। इससे दुनिया में अद्वैत और अनासक्ति का भाव बना रहता है, जिससे भौतिक सुखों के साथ आध्यात्मिक मुक्ति भी मिलती है। कुण्डलिनी रूपी जिन्न को शरीररूपी बोतल के अंदर कुण्डलिनी-योग-ध्यान की खुराक से लगातार पालते रहना पड़ता है। इससे वह शक्ति का संचय करता रहता है, और बाहर खुले में छोड़े जाने पर योगसाधक के बहुत से काम बनाता है। यह ऐसे ही है जैसे राजा लोग अपने अस्तबल में घोड़ों का पालन-पोषण बड़े समर्पण और प्यार से करवाते थे। उससे बलवान बने घोड़े जब बाहर खुले में निकाले जाते थे, तो बड़ी निष्ठा और समर्पण से राजा के काम करते और करवाते थे, शिकार करवाते थे, रथ खींचते थे, युद्ध में मदद करते थे, भ्रमण करवाते थे आदि।
पानी यिन है, और तनाव व भागदौड़ से भरा मनुष्य का तनमन याँग है। इसीलिए झील आदि के पास शांति मिलती है। वृक्ष का जड़ अर्थात अचेतन आकार यिन है, और उसमें जीवन याँग है। इसीलिए वृक्ष को देवता कहते हैं, और लोग अपने घरों के आसपास सुंदर वृक्ष लगाते हैं। मुलाधार यिन है, आज्ञा या सहस्रार चक्र यांग है। पत्थर आदि की चित्रविचित्र जड़ या मृत प्रतिमाऐं और मूर्तियां यिन है, और उनमें चेतन या जीवित देवता का ध्यान याँग है। यिनयांग की सहायता से सिद्ध होने वाला दुनियादारी वाला व्यावहारिक योग ही क्रियाशील कुंडलिनीयोग है। दूसरी ओर, कई बार बैठक वाले कुंडलिनी योगी की कुंडलिनी उम्रभर घुमती रहती है, पर वह जागृत नहीं हो पाती, और अगर होती है, तो बड़ी देर से होती है। इसीको इस तरह से कहा गया है कि गणेश ने ब्रह्मांड की परिक्रमा पहले कर ली। गणेश का विवाह कर दिया गया। उसको सिद्धि और बुद्धि नाम की दो कन्याएँ पत्नियों के रूप में प्रदान कर दी गईं। इनसे उसे क्षेम और लाभ नाम के दो पुत्र प्राप्त होते हैं। दरअसल यिन-यांग गठजोड़ दुनियादारी से सम्बंधित है। यह अनेक प्रकार के विरोधी गुणों वाले लोगों को साथ लेकर चलने की कला है। नेतृत्व की कला है। इससे प्रेमपूर्ण भौतिक सम्बंध बनते हैं, दुनिया में तरक्की मिलती है। नए-नए अनुभव मिलते हैं। इन्हीं दुनियावी उपलब्धियों को सिद्धि और बुद्धि कहा गया है। जबकि बैठक वाला कुंडलिनी योगी दुनिया से विरक्त की तरह रहता है। इससे उसे दुनियावी भौतिक लाभ नहीं मिलते। इसीको कार्तिकेय का अविवाहित होकर रहना बताया गया है। ऐसा उसने नारद मुनि की बातों में आकर नाराज होकर किया। नारद मुनि ने उसके कान भरे कि शिवपार्वती ने उसके साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है, और उसे गणेश की तुलना में बहुत कम आंका है। इससे वह नाराज होकर अपने मातापिता के निवासस्थान कैलाश पर्वत को छोड़कर क्रौंच पर्वत को चला जाता है, और वहीँ स्थायी रूप से निवास करने लगता है। आज भी उत्तराखंड स्थित क्रौंच पर्वत पर कार्तिकेय का रमणीय मंदिर है। शिवपार्वती आज भी प्रेम के वशीभूत होकर साल में एकबार उससे मिलने आते हैं। तब वहाँ मेला लगता है। वास्तव में कुंडलिनी योगी का मन ही नारद मुनि है। जब वह देखता है कि तांत्रिक किस्म के शरीरविज्ञान-दार्शनिक लोग दुनिया में हर किस्म का सुख, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष एकसाथ प्राप्त कर रहे हैं, पर उसे न तो माया मिल रही है और न ही राम, तब वह अपनी तीव्र कुंडलिनी योगसाधना कम कर देता है। इस प्रकार से हम गणेश जैसे स्वभाव वाले लोगों को तांत्रिक कर्मयोगी भी कह सकते हैं। इसीलिए गणेश चतुर व्यापारियों का मुख्य देवता होता है। आपने भी अधिकांश व्यापार-प्रचारक वार्षिक कैलेंडरों पर गणेश का चित्र बना देखा ही होगा। और उनमें साथ में लिखा होता है, ‘शुभ लाभ’। प्राचीन सभ्यताओं में इसीलिए देवीदेवताओं के प्रति भरपूर आस्था होती थी। पर बहुत से अब्रहामिक एकेश्वरवादियों ने उनका विरोध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आज भी आदिवासी जनजातियों में यह देवपूजन प्रथा विद्यमान है। हरेक कबीले का अपना खास देवता होता है। हिमालय के उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में मैंने खुद यह शक्तिशाली अद्वैत व कर्मयोग पैदा करने वाली प्रथा देखी है। हिमाचल का कुल्लू जिले का मलाणा गाँव तो इस मामले में विश्वविख्यात है। वहाँ सिर्फ देवता का प्रशासन काम करता है, किसी सरकारी या अन्य तंत्र का नहीं। उपरोक्तानुसार पत्थर आदि की चित्रविचित्र जड़ प्रतिमाऐं और मूर्तियां यिन है, और उनमें चेतन देवता का ध्यान याँग है। इस यिन -यांग के मिश्रण से ही सभी भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियाँ मिलती हैं, हालांकि मिलती हैं कुंडलिनी के माध्यम से ही, पर रास्ता कर्मयोग व दुनियादारी वाला है। मतलब कि बैठक वाला कुंडलिनी योगी ज्यादा समय दुनिया से दूर नहीं रह सकता। वह जल्दी ही हतोत्साहित होकर अपनी कुंडलिनी को सहस्रार से आज्ञा चक्र को उतार देता है। वहाँ वह बुद्धिपूर्वक भौतिक जीवन जीने लगता है, हालांकि यिन-यांग गठजोड़ अर्थात शिवपार्वती से दूर रहकर, क्योंकि उसे दुनियादारी की आदत नहीं है। साथ में, वह ज्यादा ही आदर्शवादी बनता है। यही उसका शिवपार्वती अर्थात परमात्मा से नाराज होना है। दरअसल शिवपार्वती गठजोड़ ही असली परमात्मा हैं। अकेले शिव भी पूर्ण परमात्मा नहीं, और अकेली पार्वती भी नहीं। सहस्रार ही कैलाश और आज्ञाचक्र ही क्रौंच पर्वत है, जैसा कि एक पिछली पोस्ट में बताया गया है। शिव परमात्मा उसे अपनी तरफ आकर्षित करते रहते हैं, पुत्र-प्रेम के कारण। वैसे भी जीव शिव परमात्मा का पुत्र ही तो है। कई बार अल्प जागृति के रूप में उससे मिल भी लेते हैं। यही शिवपार्वती का प्रतिवर्ष उससे मिलने आना कहा गया है।
कुंडलिनी चिंतन ~ गुप्त रहस्य जो अक्सर नजरअंदाज किए जाते हैं
इस पोस्ट में मुख्यतः शिवबिन्दु-ध्यान, स्नान-ध्यान, विपासना से कुंडलिनी बेहतर, कुंडलिनी जागरण की गोपनीयता, सर्वोत्तम जागृति, मूलाधार में कुण्डलिनी निवास, प्राण-ऊर्जा संचरण का अनुभव, असली याद, हठयोग राजयोग के सहयोगी के रूप में, साँस रोकना, सुषुम्ना में ऊर्जा-संचरण, तांत्रिक शब्दों की गोपनीयता, व महामानव का वर्णन है।
दोस्तो, पिछले हफ्ते मुझे कुछ राईटर ब्लॉक महसूस हुआ। कुछ लिखने को मन नहीं किया। थोड़ा-बहुत लिख पाया, तो उसे पोस्ट के रूप में संकलित नहीं कर पाया। इस पोस्ट में वे मन में बिखरे अनुभवात्मक विचार इकट्ठे हुए। फिर सभी रहस्यात्मक विचारों के कीवर्ड्स को मिलाकर एक सबटाइटल बनाया।
जब मन में आई कुंडलिनी को शिवबिन्दु का रूप दिया जाता है तब पीठ से चढ़ती ऊर्जा के अनुभव के साथ आज्ञा चक्र पर खुद ही संकुचन बनता है। इससे मस्तिष्क में कुंडलिनी सीधी होकर सहस्रार से आज्ञा चक्र तक सीधी रेखा में फैल जाती है। हमारी इतनी छोटी औकात है कि हम शिव के बिंदु का ही चिंतन कर सकते हैं, अन्य कुछ नहीं। शिव तो बहुत दूर हैं। वो सबसे बड़े हैं। वो साक्षात पूर्ण ब्रह्म हैं। शिव बिंदु ही हमें शिव तक ले जाएगा।
बाहर से सभी शिव की नकल करना चाहते हैं पर अंदर से कोई नहीं करता। वे अंदर से कुंडलिनी के ध्यान में मग्न रहते हैं। इसलिए उनकी असली नकल तभी होगी जब किसी का ध्यान होता रहेगा, बेशक उन्हीके रूप की कुंडलिनी का।
नहाते समय ऊर्जा की गश या थ्रिल बड़ी अच्छी अनुभव होती है। यह मस्तिष्क में बड़ी अच्छी महसूस होती है। इससे ताजगी और माइंडफुलनेस का एहसास होता है। इसीलिए रोज नहाने की सलाह दी जाती है, और नहाते समय मंत्रोच्चार के लिए बोला जाता है, ताकि मन में कुंडलिनी प्रभावी रहे, और ऊर्जा का लाभ कुंडलिनी को मिल सके। शायद यह थ्रिल तभी ज्यादा और अनुभव लायक होती है, अगर प्रतिदिन योग अभ्यास किया जाता रहे। योगाभ्यास के समय बेशक ऊर्जा की थरथराहट महसूस न होए, पर इससे ऊर्जा ढंग से एलाइन हो जाती है, जिससे दिन में कभी भी उपयुक्त माहौल मिलने पर एनर्जी सर्ज महसूस हो सकती है, जैसे कि नहाते समय। यही वजह है कि शौच और स्नान के बाद योग करना अधिक प्रभावशाली माना जाता है।
विपासना से मन के विचारों की शक्ति बनी रहती है। जिन विचारों के प्रति साक्षीभाव रखा जाता है, वे तो कुछ समय के लिए दब जाते हैं, पर साक्षीविचार का भाव हटते ही वही या दूसरे विचार दुगुनी शक्ति से कौंधते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमने विचारों को तो कुंद कर दिया होता है, पर विचारों की शक्ति कम होने की बजाय बढ़ती है। वह इसलिए क्योंकि विचारों की शक्ति खर्च होने पर रोक लगती है। साथ में एक विशेष चित्र भी मन में नहीं बनाया होता है, जो लगातार फालतू विचारों की शक्ति को सोखता रहे। इसके विपरीत, कुंडलिनी ध्यान में विचारों की शक्ति पर रोक नहीं लगती, पर उसे विचारों से हटा कर कुंडलिनी पर लगाया जाता है। इससे लंबे समय तक विचारों से छुटकारा मिलता है। यदि विचार आने भी लगे तो उनकी शक्ति कुंडलिनी को लगती है, और वे शांत हो जाते हैं, क्योंकि हमें वैसा करने की आदत होती है। कुंडलिनी के साथ विपासना से तो ऐसा ज्यादा होता है, क्योंकि दो प्रकार से एकसाथ साधना होती है। पर कुंडलिनी के बिना विपासना तो बहुत कमजोर और अस्थायी तरीका प्रतीत होता है। इसीलिए कुंडलिनी को अध्यात्म का मूलभूत आधार कहते हैं।
मैं बता रहा था कि वह जागृति सर्वोत्तम है जो कुंडलिनी से शुरु हो। इसकी एक और वजह है। इससे कुंडलनी योग पूरी तरह वैज्ञानिक बन जाता है, और अपने नियंत्रण में आ जाता है। आदमी को पता लग जाता है कि हम अपने प्रयासों से भी जागृति प्राप्त कर सकते हैं, केवल संयोग से ही नहीं। इससे आदमी औरों को भी यह तरीका सिखा सकता है, जिससे बड़े पैमाने पर जागृति संभव हो सकती है। दुर्लभता से होने वाले संयोग से तो सभी को जागृति नहीं मिल सकती न। संयोग से होने वाली जागृति तो बिना प्रयास के ही होती है ज्यादातर। अगर प्रयास हो भी तो वह सामान्य व हल्का प्रयास होता है, जैसे कि अद्वैत व अनासक्ति से भरा हुआ जीवन, व अन्य आध्यात्मिक क्रियाकलाप। वह प्रयास कुंडलनी योग जैसा वैज्ञानिक, मजबूत व समर्पित प्रयास नहीं होता। जिसको संयोगवश जागरण मिला हो, वह खुद भी उसे अपने प्रयास से दुबारा प्राप्त करना नहीं जानता, औरों को क्या समझाएगा। बेशक जिसने कुंडलनी योग के प्रयास से खुद कुंडलिनी जागरण प्राप्त किया हो, वह उस प्रयास से उसे दुबारा प्राप्त करने के बारे में कई बार सोचेगा, क्योंकि इसमें सुनियोजित ढंग से बहुत मेहनत करनी पड़ती है। पर कम से कम उसे तरीके का तो पता है, जिससे वह औरों का खासकर होनहार, जिज्ञासु, और शक्तिपूर्ण प्रकार के सुयोग्य लोगों का मार्गदर्शन कर सकता है।
अद्वैत के साथ लौकिक कर्मों से मूलाधार क्रियाशील होता है। यह इसलिए होता है क्योंकि अद्वैत से मन में जो कुंडलिनी बनती है, उसके लिए मूलाधार से एनर्जी की सप्लाई शुरु हो जाती है, क्योंकि वह कुंडलिनी के लिए जरूरी होती है। कुंडलिनी के इलावा जो भी मस्तिष्क के काम हैं उनके लिए तो मस्तिष्क की अपनी ऊर्जा बहुत होती है, मूलाधार की अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसीलिए तो कहा जाता है कि कुंडलिनी मूलाधार चक्र में निवास करती है। द्वैतवादियों का मूलाधार इसीलिए सक्रिय नहीं होता, क्योंकि उनमें कुंडलिनी ही नहीं होती, अगर पिछले जन्म के प्रभाव से होती है तो बहुत कमजोर या नाममात्र की।
पीठ से मस्तिष्क को जाती हुई गश या थ्रिल हमेशा महसूस नहीं होती। जब मस्तिष्क को ऊर्जा की ज्यादा जरूरत हो, तभी महसूस होती है। मेरा आजकल रूपांतरण का दौर चल रहा है। इस दौर में मस्तिष्क में नए न्यूरोनल कनेक्शन बनते हैं और पुराने टूटते हैं। मतलब पिछ्ली यादें मिटती हैं, और नई बनती हैं। इसके लिए मस्तिष्क को बहुत ऊर्जा चाहिए होती है। जब मेरे अंदर पुराना जीवन हावी होने लगता है, तब यह थ्रिल बड़ी जोरदार व आनन्द वाली महसूस होती है। एक बच्चे की तरह एकदम ताजगी और नयापन सा महसूस होता है। पर आप योगा करते रहिए, क्योंकि बिना महसूस हुए भी योग से ऊर्जा ऊपर चढ़ती रहती है। आपके ऊपर भी जब कभी भावनाओं का दबाव ज्यादा होगा, तब यह थ्रिल महसूस होगा। रचनात्मक या नया काम होगा, तो भी एनर्जी थ्रिल बढ़ेगा। कुंडलनी साधना को शक्ति साधना के साथ जोड़कर करना चाहिए। तभी दोनों सहस्रार में एकसाथ जुड़ पाते हैं, अन्यथा शंका है।
योग करते हुए यदि कोई क्रिएटिव विचार आए तो उसे मन में ही रहने दो, उसे नोट करने या एनालाइज करने न लगो, इससे कुंडलनी ऊर्जा की गति में बाधा पहुंच सकती है। पर यदि क्रिएटिव विचार बहुत जरूरी हो, और आप उसे बाद में भूल सकते हो, तो नोट कर भी सकते हो।
यह जो कुंडलिनी को छिपाने की प्रथा थी, वह मुझे असफल लोगों द्वारा अपनी शर्मिंदगी से बचने के लिए बढ़ाई गई लगती हैl हर किसी को अपना अहंकार प्यारा होता है। यदि कोई महान साधक या गुरु कुण्डलिनी जागरण न प्राप्त कर पाए, पर उसका एक निम्न और दुश्मन पड़ौसी कर दे, तो उसके लिए शर्म के कारण सच्चाई को बर्दाश्त करना मुश्किल तो होगा ही न। दूसरी वजह यह भी रही होगी कि कहीं तथाकथित निम्न बिरादरी के आदमी को सम्मान या श्रेय न देना पड़ जाए। क्योंकि यदि ऐसे तथाकथित नीच की कुंडलिनी जागृत हो जाए, तो सामाजिक दबाव के आगे झुकते हुए उसे अपेक्षित सम्मान व श्रेय देना पड़ेगा। इसलिए तथाकथित विद्वान वर्ग ने समाज में यह भ्रम फैला दिया होगा कि अपने कुंडलिनी जागरण को किसीके सामने प्रकट नहीं करना चाहिए, ताकि न बांस रहे और न ही बजे बाँसुरी।
जब साँस रोककर योगासन करते हैं तो शरीर की खुद ही ऊर्जा को घुमाने की इंस्टिंक्ट शुरु हो जाती है ताकि पूरे शरीर को ऑक्सीजन पर्याप्त मिल सके। हाँ, यह भी एक वजह है। दूसरी वजह मैंने पहले भी बताई थी कि साँस भरकर रोकने से ऊर्जा की गति की दिशा खुद ही ऊपर की तरफ रहती है।
जागरण और कुंडलिनी जागरण में कोई अंतर नहीं है। दोनों में पूर्ण आत्मा की अनुभूति होती है। कुंडलिनी जागरण में वह अनुभूति कुंडलिनी के माध्यम से कुंडलिनी से शुरु होती है। दूसरे किस्म का जागरण विपासना से, सदमे से आदि से हो सकता है। यह मुश्किल होता है। क्योंकि मन को शून्य करना पड़ता है। कुंडलिनी वाला जागरण आसान होता है, क्योंकि इसमें मन को शून्य करने की जरूरत नहीं होती। इसमें कुंडलिनी को ही इतना मजबूत बना दिया जाता है कि वह आत्मा के साथ जुड़कर उसे प्रकट कर देती है। वैसे भी दुनिया में रहकर कुंडलिनी वाला तरीका ही सर्वोत्तम है, क्योंकि दुनिया में आदमी का झुकाव प्रवृत्ति की तरफ ही तो होता है, निवृत्ति की तरफ नहीं।
संस्कृत पुराणों के हिंदी अनुवाद में निजी या अंतरंग ज्ञान छुपाया होता है। इसका मतलब है कि संस्कृत भाषा ज्यादा परिपक्व है। संस्कृत में स्पष्ट रूप से रेताः लिखा है शिवपुराण में, जिसे हिंदी अनुवाद में कामवासना लिखा गया है। वैसे इसका मतलब वीर्य होता है। रेताश्चतुर्बिंदु:, मतलब वीर्य की 4 बूंदें। आजकल हरेक किस्म का ज्ञान इंटरनेट पर उपलब्ध है। इसलिए कुण्डलिनी ज्ञान को भी गुप्त रखने की जरूरत नहीं है। यदि इसको गुप्त रखा गया, तो लोग इधर-उधर का भड़काऊ ज्ञान इकट्ठा करते हुए अपना नुकसान ही करेंगे।
लोग बोलते हैं कि पुरानी याद सताती है। दरअसल वह ऊपर-ऊपर की होती है। वह असली याद नहीं होती। यह बाहर-बाहर की व आसक्तिपूर्ण याद होती है। असली याद तो भावों की होती है। उसमें आसक्ति नहीं होती। यह गहन चिंतन के अभ्यास या ध्यान योग के अभ्यास से उत्पन्न होती है।
राजयोग के बिना हठयोग बहुत कम प्रभावी है। पहले मन में कुण्डलिनी राजयोग या साधारण ध्यान से परिपक्व हो जाए, तभी उसको अतिरिक्त बल देने के लिए हठयोग की जरूरत पड़ेगी। यदि पहले से कुण्डलिनी नहीं होगी, तो हठयोग से कुण्डलिनी केवल सतही रूप में ही अभिव्यक्त हो पाएगी, उसे अतिरिक्त बल नहीं मिल पाएगा। जागरण तो ध्यान चित्र का ही होता है। उच्चतम ध्यान को ही जागरण कहते हैं। इसे कुंडलिनी नाम इसको यौन ऊर्जा से जोड़ने से मिला है। यौन ऊर्जा मूलाधार चक्र में रहती है। यह ऊर्जा वहीँ उत्पन्न होकर वहीं पर नष्ट भी होती रहती है। इसीको नागिन के द्वारा अपनी पूंछ को मुंह में दबाना कहते हैं। मतलब कि नागिन की पूंछ से उत्पन्न ऊर्जा (वज्रशिखा पर उत्पन्न सूक्ष्म बिंदु-ऊर्जा) चलकर उसके मुंह में पहुंचती है, जिसको वह पूँछ के पास ही उगल भी देती है। यह वीर्य उत्सर्जन की तरह है। यह नागिन एक नाड़ी है जो अढ़ाई चक्कर पूरे करके कुंडली सी लगाई होती है। यह अढाई चक्कर का रहस्य जब पूरा और ढंग से समझ लूँगा, तब आपको बताऊंगा। वैसे जब आगे के और पीछे के स्वाधिष्ठान चक्रों को जोड़ने वाले घेरे का ध्यान साथ में किया जाता है, तो कुंडलिनी ऊर्जा सुषुम्ना में ज्यादा अच्छी तरह से चढ़ती है। यह अढ़ाई का फेर भी समझ ही लूंगा। इसीलिए इसमें बह रही ऊर्जा और ध्यान चित्र के मेल को ही कुंडलिनी कहते हैं। कुंडलिनी बनने से नागिन की कुण्डलिनी खुलकर वह ऊपर की ओर खड़ी होने लगती है। मतलब टॉप (मस्तिष्क) और बॉटम (मूलाधार) एक हो जाते हैं। इसका अर्थ है, प्राण ऊर्जा को मूलाधार से ऊपर सुषुम्ना के रास्ते से सहस्रार तक ले जाना। यह एक प्रकार से बिंदु संरक्षण ही है।
मानव मस्तिष्क के ऊपर चेतना विकास का भौतिक माध्यम कुछ नहीं है। फिर तो आत्मा ही है, अनंत चेतना का भंडार। ये जो फिल्मों, उपन्यासों या कॉमिक्स में महामानव दिखाए जाते हैं, ये दरअसल कुंडलिनीजागरण से युक्त व्यक्ति के ही भौतिक विकल्प हैं। क्योंकि कुंडलिनी शक्ति को भौतिक रूप में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, इसलिए ऐसे महामानवों को कल्पित करना पड़ता है। ऐसा आज ही नहीं, पहले भी होता था। उदाहरण के लिए, हनुमान, नारद, भीम जैसे पौराणिक चरित्र कुंडलिनी-महामानव का भौतिक अभिव्यक्तिकरण ही तो है।
यह जो आता है कि प्राण ऊर्जा के सुषुम्ना में चलने के समय ही कुंडलिनी जागरण होता है, यह सही है। उसमें प्राण से बायाँ और दायाँ मस्तिष्क, दोनों बराबर सक्रिय हो जाते हैं। बाएँ मस्तिष्क से सांसारिक कर्म होते हैं, और दाएं से शून्य पर नजर रहती है। दोनों के योग से शक्तिशाली अद्वैत पैदा होता है। उससे कुंडलिनी तेजी से अभिव्यक्त होती है। सुषुम्ना में तो बीच-बीच में प्राण चलता ही रहता है। उससे अद्वैत व कुण्डलिनी का आभास होता रहता है। जागरण तो तभी होता है जब इसे साथ में तांत्रिक यौनबल भी मिलता है। इसमें पूरा मस्तिष्क एकसमान कम्पायमान हो जाता है।
कई लोगों को कुंडलिनी ऊर्जा शरीर में इधर-उधर अटकी हुई महसूस होती है, जैसे कि कंधों में आदि में। इससे उन्हें बेचैनी महसूस होती है। दरअसल यह पीठ में इड़ा या पिंगला नाड़ी से ऊर्जा के चढ़ने से होता है। बाएँ भाग व बाएँ कंधे से इड़ा और दाएँ कंधे से पिंगला गुजरती है। ऊर्जा को नहीँ छेड़ना चाहिए। जहाँ जाती हो, वहाँ जाने दो। यह ऊर्जा की कमी से जूझ रहे भाग की ऊर्जा की जरूरत पूरी करके फिर से केंद्रीय नाड़ी में आकर घूमने लगती है। इसमें जल्दी लाने के लिए आज्ञा चक्र, तालु से जीभ के स्पर्श, स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार संकुचन का एकसाथ ध्यान करना चाहिए या इनमें से जितने बिंदुओं का हो सके, ध्यान करते रहना चाहिए। एक बिंदु से दूसरे बिंदु को भी ध्यान स्थानांतरित करते रह सकते हैं, सुविधा के अनुसार। दरअसल ये पॉइंटस कुंडलिनी के मार्ग के रूप में सीधी रेखा बनाने के लिए एक फुट रूलर का काम करते हैं। साथ में, कुंडलिनी ऊर्जा पर भी ध्यान बना रहना चाहिए। घूमती हुई कुंडलिनी ऊर्जा ही अच्छी होती है, एक जगह पर खड़ी नहीं।
यह जो योग से वजन घटता है, उसकी मुख्य वजह कुंडलिनी ध्यान ही है, न कि भौतिक व्यायाम। टाँगों आदि को मोड़कर रखने से तो बहुत कम ऊर्जा खर्च होती है। चक्र पर कुंडलिनी ध्यान से पैदा हुई मांसपेशियों की सिकुड़न से ही शरीर की अतिरिक्त जमा चर्बी घुलती है, जिससे वजन घटता है। अभ्यास हो जाने पर तो यह कुंडलिनी सिकुड़न दिनभर बनने लगती है।
गले मिलने से जो प्यार बढ़ता है, वह एकदूसरे के साथ अपनी-2 कुंडलिनी के साझा होने से ही बढ़ता है। सभीको अपनी कुण्डलिनी ही सबसे प्यारी होती है। जब कोई किसी के नजदीकी संपर्क में आता है, तो एक अधूरे यब-युम की तरह काल्पनिक पोज बन जाता है, जिसमें कुण्डलिनी एक शरीर से चढ़ती है, और दूसरे शरीर से उतरती है। इस तरह से दोनों शरीरों को कवर करते हुए एक कुण्डलिनी ऊर्जा लूप जैसा बन जाता है। ऐसा ही देवपूजा, सूर्यपूजा आदि के समय भी होता है।
कुंडलिनी इंजिन के ईंधन और ऊर्जा स्पार्क प्लग की चिंगारी की तरह है, जो जागृति-विस्फोट पैदा करते हैं
इन कुंडलिनी-विस्फोट घटकों के लिए ध्यान, शिवबिन्दु, मानवरूप देवमूर्ति, शिवलिंग, ज्योतिर्लिंग, साँस रोकने, मस्तिष्क दबाव, स्वयं शिक्षा, सकारात्मक सोच,अनवरत अभ्यास, निष्कामता, लगन, धैर्य, व व्यवस्थित दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण है।
मित्रो, पिछली पोस्ट में मैं कुंडलिनी जागरण और उसमें अनुभव होने वाले जुड़ाव के बारे में बात कर रहा था। वह जुड़ाव कुंडलिनी से शुरु होना चाहिये। इसका अर्थ है कि आदमी को सर्वप्रथम कुंडलिनी के साथ अपना पूर्ण जुड़ाव महसूस होना चाहिए, पूर्ण आनन्द व अद्वैत के साथ। उस पैदा हुए अद्वैत से तो फिर सभी चीजों के साथ अपना जुड़ाव महसूस होगा। हालाँकि यह जुड़ाव सेकंडरी होगा, प्राथमिक तो कुंडलिनी के साथ ही माना जाएगा। ऐसा होने से ही कुंडलिनी चित्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण बन पाएगा, और स्थाई तौर पर क्रियाशील रहेगा। इसका मतलब आप यह समझो कि ऊर्जा साधना/चक्र साधना/नाड़ी साधना आप करते रहो, क्योंकि ये साधनाएं वक्त पड़ने पर कुंडलिनी के काम आएँगी। पर जगाने का प्रयास मानवरूप कुंडलिनी का ही करो। ऊर्जा को कुंडलिनी के पीछे चलना चाहिए, कुंडलिनी को ऊर्जा के पीछे नहीं। इस बारे में मैं अपना अनुभव बताता हूँ। मैं प्रतिदिन कुंडलिनी ध्यान के साथ ऊर्जा साधना करता था। एकदिन अच्छा अवसर मिलते ही मुझे एकदम से अचानक ही कुंडलिनी की बहुत तेज याद आई, और मैं उसमें खोने लगा। तभी मेरी ऊर्जा भी कुंडलिनी का साथ देने के लिए मूलाधार से पीठ से होकर ऊपर चढ़ी और मस्तिष्क में पहुंच गई। मुझे ऐसा लगा क्योंकि मेरा मूलाधार क्षेत्र पूरी तरह से शिथिल हो गया था, हालांकि वह ऊर्जा इतनी तेजी से ऊपर चढ़ी कि उसे महसूस करने का मौका ही नहीं मिला। इसलिए भी मैं ऊर्जा के पीठ से ऊपर चढ़ने का अंदाजा लगा रहा हूँ, क्योंकि मैं लगभग एक महीने से तांत्रिक विधि से कुंडलिनी को पीठ से ऊपर चढ़ाने का अच्छा अभ्यास कर रहा था। इसलिए भी क्योंकि उस समय वहाँ पर महिलाओं का नाच गाना हो रहा था। उससे भी मूलाधार की ऊर्जा उद्दीप्त हुई। यौन माध्यम से उद्दीप्त ऊर्जा पीठ से ही ऊपर चढ़ती है। वह ऊर्जा मस्तिष्क में पहुंच कर कुंडलिनी से जुड़ गई जिससे कुंडलिनी जागरण हो गया। बोलने का मतलब है कि कुंडलिनी तो खुद ही जागृत होने जा रही थी। उसे केवल ऊर्जा की अतिरिक्त आपूर्ति चाहिए थी। यह इसी तरह है जैसे कि गैस इंजन में पहुंच गई थी, बस उसे धमाका करने के लिए स्पार्क प्लग से एक चिंगारी की जरूरत थी। यदि चिंगारी न मिले तो इंजन में शक्ति का धमाका न होए। इसी तरह, यदि मैं ऊर्जा साधना न कर रहा होता तो कुंडलिनी को ऊर्जा न मिलती, और वह बिना जागृत हुए ही मस्तिष्क से नीचे लौट आती। ऐसा कुंडलिनी का ऊपर-नीचे आने-जाने का चक्र सबके अंदर चलता रहता है, बस ऊर्जा की चिंगारी नहीं दे पाते अधिकांश लोग। कइयों के साथ ऐसा होता है कि ऊर्जा की नदी तो मस्तिष्क में पहुंच जाती है, पर वहाँ कुंडलिनी नहीं होती। उससे मन में बहुत स्पष्टता के साथ चित्र कौंधते हैं, पर जागते नहीं। यह ऐसे ही है कि इंजन में गैस नहीं है, पर स्पार्क लगातार मिल रहे हैं। उससे चिंगारी की थोड़ी चमक तो पैदा होएगी, पर धमाके जितनी विशाल चमक नहीं। इसलिए मुख्य लक्ष्य कुंडलिनी को ही बनाओ, पर ऊर्जा साधना भी करते रहो। यह ऐसा है कि आपने कुंडलिनी की इतनी गहरी याद पैदा करनी है कि आप उसमें कुछ पलों के लिए खो जाओ। यही कुंडलिनी जागरण है। ऐसा समझो कि गुरु या देवता की याद इतनी गहरी पैदा करनी है, जितनी गहरी एक प्रणय प्रेम में डूबे हुए एक प्रेमी को अपनी प्रेमिका की खुद ही पैदा हो जाती है। पर गुरु या देवता की गहरी याद आपके अंदर खुद पैदा नहीं होगी, क्योंकि वहां पर यौन आकर्षण नहीं है। इसलिए आपको यौन आकर्षण जैसा मजबूत आकर्षण पैदा करने के लिए तांत्रिक तकनीकों का सहारा लेना पड़ेगा। इसके लिए उपरोक्त ऊर्जा साधनाएं आपके काम आएँगी। फिर आप कहेंगे कि फिर यौन प्रेमी को ही क्यों न कुंडलिनी बना लिया जाए। पर यह श्रेष्ठ तरीका नहीं है। पहली बात, यौन विकार के कारण यौन कुंडलिनी को जगाना असम्भव के समान है। दूसरी बात, कोई नहीं चाहेगा कि अगला जन्म स्त्री का मिले, क्योंकि स्त्री को पुरुष से ज्यादा कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। आदमी जैसा सोचता है, वह अगले जन्म में वैसा ही बन सकता है। यह अलग बात है कि आजकल के वैज्ञानिक युग में स्त्री व पुरुष समान हैं, बल्कि कई जगह तो स्त्री पुरुष से ज्यादा मजे में है। पर ऐसा युग हमेशा नहीं रहेगा। आज के जैसी वैज्ञानिक सुविधाओं का युग तो असीमित काल का मात्र एक नगण्य जैसा अंश प्रतीत होता है। ये सुविधाएं भी हर जगह उपलब्ध नहीं होतीं। ये दृश्य सत्य पर आधारित मेरे अपने अनुभवात्मक विचार हैं, इसमें लैंगिक भेदभाव वाली कोई बात नहीं है, और न होनी चाहिए। ये पर्सनल ब्लॉग है, ख्याति या पैसे के लिए नहीं। वैसे भी, दुनिया में नजर भी आता है और तंत्र सम्प्रदायों में भी यह मान्यता है कि स्त्री केवल पुरुष की सहायता ही कर सकती है कुन्डलिनी जागरण में, स्वयं जागृत नहीं हो सकती। यदि वह यह सहायता करती है, तो अगले जन्म में वह पुरुष बन कर जागृत हो जाती है। वैसे तो तन्त्र सम्प्रदायों में भी बहुत सी महान तांत्रिक महिलाएं हुई हैं, जिन्होनें अपने पुरुष साथी को भी जागृत किया है, और वे खुद भी जागृत हुई हैं। विशेष प्रयास करने वाले अपवाद के मामले तो हर जगह ही मिल जाते हैं। देवी माता का ध्यान तो बहुत से योगी करते ही आए हैं। योगी रामकृष्ण परमहंस माँ काली के उपासक थे। उन्हें ध्यान में काली माता स्पष्ट भौतिक रूप में दिखती थीं। वे उनसे खेलते, बातें करते। पर एक साधारण स्त्री और देवी स्त्री में फर्क है। शायद इसीलिए स्त्री को गुरु बनाए जाने के बारे में शास्त्रों में बहुत कम बताया गया है। वैसे परिवर्तन व विभिन्नता संसार का नियम है। आदमी को जैसे भी उपयुक्त लगे, वैसे ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। साथ में कहा था कि संयोगवश या शक्तिपात आदि से जो बिना प्रयासों के जागृति प्राप्त होती है, वह अल्प व अस्थायी होती है। अल्प का मतलब कि उससे पूर्ण संतुष्टि नहीं मिलती। ऐसा मन करता है कि एकबार और जागृति मिल जाए। उससे बना कुण्डलिनी चित्र भी कुछ वर्षों के बाद मिटने लगता है। हालांकि ऐसी जागृति आदमी को पूर्ण जागृति को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। इससे आदमी योग अभ्यास करने लगता है।
बिंदु शक्ति मूलाधार से सहस्रार की तरफ निर्देशित की जाती है
कुंडलिनी को बिंदु की शक्ति मूलाधार से स्वयं ही मिलती है। यदि किसी को बिंदु नाम से कुंडलिनी का अपमान लगे, तो शिवबिन्दु व ज्योतिर्लिंग या शिवलिंग नाम से ध्यान किया जा सकता है। इससे कुंडलिनी का अपमान भी नहीं होगा, और आदमी को शिव का स्वरूप भी मिलेगा। एकसाथ दो लाभ। एक और बढ़िया तरीका है कि अद्वैत के चिंतन को ही शिवबिंदु का नाम दे दो। इससे जैसे ही कुंडलिनी मन में आएगी, उसे एकदम से बिंदु की शक्ति मिल जाएगी। वैसे भी इस अद्वैतपूर्ण शरीर का मालिक शिव ही है। आदमी तो झूठमूठ का अहंकार करके इसका मालिक बन जाता है। इस तथ्य को शरीरविज्ञान दर्शन पुस्तक में वैज्ञानिक रूप से सिद्ध किया गया है। कुंडलिनी चक्रों पर शिवबिन्दु के ध्यान से सभी 12 चक्र शिव के बारह ज्योतिर्लिंग बन जाते हैं। ज्योतिर्लिंग शब्द में ज्योति का अर्थ कुंडलिनी की चमक से है। यही 12 ज्योतिर्लिंगों का आध्यात्मिक रहस्य है। इसीलिए मूलाधार को संकुचित करते रहने व वहाँ सिद्धासन में पैर की ऐड़ी का दबाव देने को कहते हैं। दरअसल बिंदु शक्ति को ले जाने वाली वज्र नाड़ी स्वाधिष्ठान चक्र व मूलाधार चक्र से होकर पीठ के बीचोंबीच ऊपर चढ़ती है। वह जननांग से शुरु होती है। इसका वर्णन मैंने एक पुरानी पोस्ट में किया है कि कैसे उस कुन्डलिनी नाड़ी को कुंडली लगाए नागिन की तरह दिखाया गया है, और कैसे वह कुन्डली खोलकर खड़ी हो जाती है। दरअसल कुन्डलिनी नागिन के आकार में नहीं है, जैसा कई लोग समझते हैं। यह कुन्डलिनी शक्ति को ले जाने वाली नाड़ी है। कुन्डलिनी नाम इसलिये पड़ा है, क्योंकि वह कुंडली लगाई हुई नागिन के जैसी नाड़ी में कैद रहती है। यह संस्कृत शब्द है। मूलाधार पर दबाव से वह नाड़ी क्रियाशील हो जाती है। इससे जाहिर है कि मूलाधार में जो शक्ति का निवास बताया गया है, वह बिंदु रूप में ही है। उसी बिंदु शक्ति को सहस्रार तक ले जाना होता है जागरण के लिए। वह धीरे धीरे करके रास्ते के सभी चक्रों को जागृत करते हुए भी वहाँ पहुंच सकती है, और सीधी भी। यह अभ्यास के प्रकार पर निर्भर करता है। साधारण अभ्यास से वह धीरे धीरे ऊपर पहुंचती है, पर तांत्रिक अभ्यास से एकदम सीधी सहस्रार में। उस बिंदु शक्ति को केवल आदमी ही ऊपर चढ़ा सकता है, अन्य जीव नहीं। क्योंकि केवल आदमी ही योगाभ्यास कर सकता है। साथ में, विशाल बिंदु शक्ति को झेलने लायक मस्तिष्क केवल आदमी के पास ही है, अन्य जीवों के पास नहीं।
साँस रोकने के बहुत से लाभ हैं
योगा वाली साँसों पर भी पिछली पोस्ट में व्यावहारिक चर्चा कर रहा था। दरअसल जो ड्रैगन को साँसों की आग उगलते हुए दिखाया गया है, वह कुंडलिनी की आग का ही प्रतीक है। उस साँस से जो कुंडलिनी नाड़ी लूप में घूमते हुए चमकती है, उसीको रहस्यात्मक आग के रूप में दर्शाया गया है। आदमी का वास्तविक आकार भी एक ड्रैगन के रूप जैसा ही है। यदि हम रीढ़ की हड्डी और मस्तिष्क को लें, तो एक नाग या ड्रैगन जैसा आकार बनता है। आदमी का असली रूप रीढ़ की हड्डी और मस्तिष्क में ही समाया हुआ है। बाहर के अन्य अंग तो मात्र बाहरी छिलकों की तरह है। इसका वर्णन मैंने एक पुरानी पोस्ट में किया था। यह मैंने कहीं पढ़ा नहीं और न ही इसका प्रमाण है मेरे पास, जो नीचे लिखा है। ऐसा लगता है कि साँस रोकने से रक्त वाहिनियों की दीवारों का लचीलापन बढ़ता है। क्योंकि उनकी मांसपेशियों को मजबूती मिलती है। खुद भी महसूस होता है, जब साँस रोकने से दिमाग की नसों में भारीपन व कड़ापन सा महसूस होता है। पर ऐसा सावधानी से करना चाहिए। बहुत ज्यादा या बहुत देर तक नहीँ। इसीलिए जिन आसनों में पेट अंदर को दबता है, उन्हें साँस बाहर निकालकर रोककर करने को कहते हैं। जैसे कि शीर्षासन, सर्वांगासन, हलासन, नौकासन आदि। जिनमें पेट बाहर को फूलता है, उनमें साँस अंदर भरकर रोकने को कहते हैं। जैसे कि शलभासन, मकरासन, भुजंगासन आदि। वैसे नियंत्रित अवस्था में तो किसी भी आसन में सांस को भरकर या बाहर निकालकर अपनी रुचि के अनुसार रोककर रख सकते हैं। शीर्षासन, सर्वांगासन व हलासन में विशेष ध्यान रखना पड़ता है, क्योंकि उनमें मस्तिष्क में बहुत दबाव पैदा होता है। अगर साँस रोकने से विशेषकर योग के दौरान खून की नसों का लचीलापन बढ़ता है, तो इससे जाहिर है कि इससे स्ट्रोक, व दिल के रोगों से कुछ राहत मिल सकती है। जब तक रिसर्च से प्रूव नहीं होता, तब तक ऐसा विश्वास करके श्वास रोककर योग करते रहने में कोई बुराई नहीं है। वैसे भी यह तो वैज्ञानिक प्रयोगों से स्पष्ट हो चुका है कि साँस रोकने से दिमाग में ऑक्सीजन का स्तर बदलता रहता है। इसका सीधा सा मतलब है कि खून की नसें सिकुड़ती और फैलती रहती हैं। जाहिर है कि उनके सिकुड़ने से ऑक्सीजन का स्तर घटेगा, और फैलने से बढ़ेगा। कुंडलिनी जागरण के समय मस्तिष्क में काफी दबाव महसूस होता है। उस दबाव को सहने के लिए भी इससे दिमाग की नसें तैयार रहती हैं।
सिर का दबाव ऐसा लगता है कि माथे के किनारों वाली दिमाग की नसें फूली हुई हैं। ऐसे आसन जिसमें सिर शरीर से नीचे हो, उनमें ऐसा ज्यादा लगता है। अभी हाल ही में मेरे एक रिश्तेदार लड़के की ब्रेन हेमरेज से मृत्यु हुई। वह सिर्फ 30 साल का था। अंतर्मुखी, लाडला, परिवार पर ज्यादा ही निर्भर और परिवार के इलावा दूसरों से कम घुलने-मिलने वाला था। कुछ दिनों से उसके सिर में हल्का सा दर्द रह रहा था, और खून की उल्टी के साथ बेहोशी से आधा घण्टे पहले वह सिर की नसों को छूकर बता रहा था कि उसे लग रहा था कि उसकी दिमाग की नसें फूल रही थीं। उसकी माँ को तो हाथ से छूने पर वैसा कुछ नहीं लगा। इसलिए उसे सोकर आराम करने को कहा। आईसीयू में डॉक्टरों ने उसके बचने के सिर्फ 5% चांस बताए। उसका मस्तिष्क बहते और जमे खून के दबाव से पत्थर की तरह सख्त हो गया था। वह सिर्फ डेढ़ दिन ही आईसीयू में जिंदा रह सका। उसे 5 दिन पहले कोरोना वैक्सीन, एस्ट्रोजेनिका आधारित कोविशील्ड भी लगा था। डॉक्टरों ने कहा कि उसे ज्यादा ही इम्मयूनिटी पैदा हो गई थी। इससे डरने की जरूरत नहीं। इससे डरकर वैक्सीन लगाना बन्द नहीं करना चाहिए, जब तक कोई बेहतर वैक्सीन नहीं आ जाती। इससे बहुत सी जानें बची हैं। इसकी तुलना में तो साईड इफेक्ट नगण्य ही हैं। हाँ, सावधान रहकर हर स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए। अगर साइड इफेक्ट लगे, तो डॉक्टर से सम्पर्क में रहना चाहिए। ऐसे जीवनघातक दुष्प्रभाव की संभावना लाखों में केवल 1-2 को ही होती है। अब तो यह भी सामने आया है कि यदि गलती से इंजेक्शन माँस की बजाय खून की नस में लगे, तो भी खून में क्लॉट बन सकते हैं। मैं यह इसलिए बता रहा हूँ कि अगर योग, व्यायाम आदि से उसके दिमाग की नसों में ज्यादा फुलाव को झेलने की शक्ति होती, तो शायद रक्तस्राव न होता या कम रक्तस्राव होता, या एमरजेंसी ट्रीटमेंट से जान बच जाती।
बिंदु का अर्थ एक सुई की नोक जितना स्थान भी होता है
इसे अंग्रेजी में पॉइंट कहते हैं। यह पैन को एक स्थान पर रखकर उसकी स्याही का निशान लगाने से बनता है। पिछली पोस्ट में मैंने बताया था कि बिंदु का अर्थ बूँद होता है। पर इसका दूसरा अर्थ पॉइंट भी होता है। कुंडलिनी भी वास्तव में असीमित क्षेत्र के मन का एक सूक्ष्म स्थान होता है। यदि कागज के एक पृष्ठ या पूरी पुस्तक पर लिखे लेख को मन मान लिया जाए, तो कुंडलिनी सिर्फ एक पॉइंट जितने स्थान में आ जाएगी। एक पॉइंट से पूरे लेख के बारे में जानकारी मिल जाती है कि कौन सा पैन इस्तेमाल हुआ है, और कौन सी स्याही। यहाँ तक भी पता चल सकता है कि लेखक का हस्तलेख कैसा है। इसी तरह एक कुंडलिनी से पूरे मन के स्वभाव का अनुमान लग जाता है। जैसे एक बिंदु के पूर्ण ज्ञान से पूरा लेख नियंत्रित किया जा सकता है, इसी तरह एक कुंडलिनी के संपूर्ण ज्ञान से पूरा मन नियंत्रित हो जाता है। मैं यह उपमा दोनों के बीच में बाहरी सादृश्यता को देखकर दे रहा हूँ, भीतरी को नहीं।
योग सीखने की चीज नहीं, अभ्यास की चीज है
मुझे कई लोग बोलते हैं कि मुझे योग सिखा दो। जिसे 20 सालों को करते हुए मैं थोड़ा सा सीखा हूँ, उसे किसीको एकदम से कैसे सिखा सकता हूँ। योग वास्तव में कोई एक विशेष क्षेत्र की विद्या नहीं है, जिसे एकदम से सिखाया जा सके। यह एक विचारधारा है, एक जीवन दर्शन है, एक लाइफस्टाइल है। यह मन की एक अद्वैतमयी सोच है। इसे आप सकारात्मक सोच भी कह सकते हैं। उस सोच को बना कर रखने और बढ़ाने के लिए आप जो मर्जी तरीका चुन सकते हैं। बहुत से तरीकों का भी एकसाथ इस्तेमाल कर सकते हैं। इसलिए पहले सोच पैदा करना जरूरी है। जिसके अंदर सोच ही नहीं है, वह उसे बना के क्या रखेगा, और उसे बढ़ाएगा क्या। सोच तो आदमी के अपने वश में है। इसीलिए प्रकृति ने आदमी को फ्री विल उन्मुक्त चिंतन शक्ति दी है। योग कोई सोच जबरदस्ती नहीं पैदा कर सकता। योग का सहारा उस सोच को बढ़ाने के लिए लिया जा सकता है। जिसके अंदर यह सोच है, उसे कुछ सिखाने की जरूरत ही नहीं। सोच अपना रास्ता खुद ढूंढती है। उन्हें सोच बनाने के लिए मैं शरीरविज्ञान दर्शन पुस्तक पढ़ने को कहता हूँ। उसके बाद उनकी तरफ से कोई संदेश ही नहीं आता। यदि संदेश आता, तो मैं उन्हें कहता कि अब इस सोच को पक्का करने के लिए कुछ सालों तक इस सोच के साथ कर्मयोग के रास्ते पर चलो। सोच को आप कुंडलिनी भी मान सकते हो, क्योंकि दोनों ही मन के विचार हैं। फिर जब कुछ वर्षों के बाद उनका संदेश आता तो मैं उन्हें कुंडलिनी योग के बारे में बताता, व उसके बारे में व्यावहारिक पुस्तकें सुझाता, बेशक वे मेरी लिखी हुई ही हों। यही असली तरीका है योग सीखने का। मैं भी ऐसे ही सीखा हूँ। यदि कोई व्यायाम की तरह का शारीरिक योग ही सीखना चाहे, तो उसके लिए आज बहुत से साधन हर जगह उपलब्ध हैं, ऑनलाइन भी और ऑफलाइन भी। असली योग सीखने में समय लगता है, पूरी उम्र भी लग सकती है।
आर्यसभ्यता की देवमूर्ति परम्परा से कुन्डलिनी साधना
आर्यन सभ्यता की रीति रिवाजों को देखकर उस समय की महान आध्यात्मिक वैज्ञानिकता वाली सोच का पता चलता है। शिव, गणेश आदि देवता बिल्कुल स्थाई व अजर अमर बना दिए गए थे। मूर्ति कला अपने चरम पर थी। इतनी जीवंत व आकर्षक मूर्तियां बनती थीं, जिनके आगे असली आदमी लज्जित हो जाते थे। असली आदमी, गुरु या प्रेमी से अधिक आसान तो देव मूर्तियों पर ध्यान लगाना होता था। उदाहरण के लिए यदि किसी के मन में शिव मूर्ति का रूप जागृत हो जाए, तो वह कभी नहीं भूल सकता था। वह इसलिए क्योंकि वह मूर्ति विशेष सहेज कर मन्दिर में हमेशा के लिए रखी जाती थी। वैसे भी देश के हरेक स्थान पर शिव मंदिर होने से शिव रूपी कुंडलिनी का कभी विस्मरण नहीं होता था। असली आदमी का तो सीमित जीवन होता है, पर ये देवमूर्तियाँ तो धर्म परंपरा से जुड़कर शाश्वत हो गई हैं। असली आदमी का तो वियोग भी हो सकता है। फिर ध्यान कैसे लगाए। देवमूर्तियां तो हर जगह और हर समय विद्यमान हैं। इसीलिए इनको बहुत सुंदर बनाया जाता था। स्वर्णमूर्ति सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी। क्योंकि वह सबसे आकर्षक, चमकदार और दीर्घजीवी होती थी। मैंने कई इतनी सुंदर मूर्तियां इतने जीवंत और सुंदर रूप में देखी हैं, कि आजतक मेरे मन में जीवंत हो जाती हैं। सोचो, जब एक बार देखने पर ही वे मन पर इतनी गहरी छाप छोड़ सकती हैं, तो बार बार उनका ध्यान करने से वे क्यों मन में जागृत नहीं होएंगी। यदि न भी जागृत होए, तो भी वे आदमी को अनासक्ति व अद्वैत के साथ जीना सिखाती हैं। वे हर हाल में फायदा ही करती हैं। वैसे भी देव मूर्ति तभी अस्तित्व में आई जब किसीने सबसे पहले उसको मन में जागृत किया और उसे दुनिया के सामने रखा।
कुंडलिनी वाला भला केवल मानसिक कुन्डलिनी ही कर सकती है, कोई स्थूल भौतिक रूप नहीं
आदमी का भला करना तो कुंडलिनी का स्वभाव है, चाहे वह पत्थर के रूप वाली ही क्यों न हो। इसीलिए यह कहावत बनी है कि मानो तो पत्थर में भी भगवान मिल जाते हैं। पर इसका श्रेय कुंडलिनी को न दिया जाकर देवता को दिया जाने लगा। इससे लोगों के मन में देवताओं के प्रति विश्वास बढ़ता गया, जो आज तक है। हालांकि वैज्ञानिक तौर पर मानव भलाई के सारे काम कुंडलिनी कर रही थी। देवताओं को श्रेय दिया जाना उचित भी है, क्योंकि वे वैसे भी भौतिक रूप से भी लोगों का भला करते रहते हैं। जैसे सूर्यदेव रौशनी देते हैं, और जलदेव पानी। हालांकि कुंडलिनी वाला भला तो कुंडलिनी ही कर रही है, देवता नहीं। दोनों प्रकार की भलाई को अपने अपने असली रूप में देखना चाहिए, इकट्ठे जोड़कर नहीं, तभी कुंडलिनी के बारे में भ्रम दूर होगा। इसी तरह, एक आदमी का भला प्रेमी के रूप से बनी उसके मन की कुंडलिनी करती है, उसका प्रेमी नहीं। अगर प्रेमी ही भला कर रहा होता, तो शादी के बाद परस्पर आकर्षण खत्म या कम न होकर बढ़ता। पर होता उल्टा है। दरअसल शादी के बाद जब प्रेमी का भौतिक रूप हर वक्त उपलब्ध हो जाता है, तब मन में उसके रूप की बनी हुई कुंडलिनी मिटने लगती है। इससे कुंडलिनी वाले लाभ खत्म हो जाते हैं। पर आदमी दोष देता है प्रेमी को। प्रेमी तो जैसा पहले था, वैसा ही होता है। इसीलिए भगवान कृष्ण कहते हैं कि राधा उनकी सबसे प्रिय है। राधा से विवाह नहीं, सिर्फ उनका प्रेम ही होता है। बात स्पष्ट है कि कृष्ण के मन में राधा के रूप से बनी शाश्वत कुंडलिनी के कारण ही कृष्ण को राधा सबसे प्रिय है। यदि दोनों का विवाह हो जाता, तो शायद वैसा न होता। क्योंकि भौतिक रूप से तो उनकी पत्नी रुक्मिणी सबसे सुंदर हैं। दरअसल असली और सच्चा प्यार सिर्फ और सिर्फ कुंडलिनी से ही होता है, किसी भौतिक वस्तु से नहीं। “किसीकी याद के सहारे जीना” भी इसी कुंडलिनी के द्वारा किए जाने वाले भले का उदाहरण है। भला सुखी जीवन से बड़ा भला और क्या हो सकता है। शिव का दूसरा रूप पर्वत भी है, जो मैंने एक कविता पोस्ट में सिद्ध किया है। पर्वत आदमी का बहुत भला करते हैं। ये पानी, हवा, ठंडक, फल आदि देते हैं। इसलिए लोगों का देवताओं पर आसानी से ध्यान जम जाता है। इसीलिए ज्यादातर मामलों में देवताओं को ध्यान कुंडलिनी बनाया जाता था। इससे संसार में मानवता भी पनपी रहती थी। वैसे भी कुंडलिनी ही भगवान तक ले जाती है। भगवान तक पहुंचने के लिए सीधी उड़ान सेवा नहीं दिखाई देती। लगता यह अजीब है, पर यह सत्य है। यह मूर्ति विज्ञान है, जिसे जो नहीं समझेगा, वह तो दुष्प्रचार करेगा ही।
कुंडलिनी के लिए ही विभिन्न देवता विभिन्न व्यक्तित्वों के सांचों के रूप में हैं
मित्रो, मुझे कभी कोई देवता अधिक पसंद आता है, कभी कोई। बहुत पहले मुझे देवी माता रानी सर्वाधिक पसंद थी। अब मुझे भगवान शिव सबसे अच्छे लगते हैं। एक बार मैं जब मुंबई घूमने गया था, तब मुझे भगवान गणेश सबसे अच्छे लगे थे। देवताओं से हमेशा ही मेरी कुंडलिनी उजागर हो जाती थी। बात स्पष्ट है कि जो देवता कुंडलिनी को सबसे ज्यादा उजागर करता है, वही देवता सबसे अच्छा लगता है। इसका मतलब है कि असली आनन्द तो कुंडलिनी में ही है। देवता तो कुंडलिनी को उजागर करने में मददगार होते हैं।
एक विशेष देवता का स्वरूप एक विशेष व्यक्तित्व के स्वरूप का साँचा होता है
वास्तव में विभिन्न देवताओं का अस्तित्व विभिन्न व्यक्तित्वों के बोधक के रूप में है। भगवान शिव एक तांत्रिक, मस्त, अकिंचन, भोले, निस्पृह, प्रकृति-प्रेमी, शीघ्र नाराज व प्रसन्न होने वाले, अनासक्त व उच्च कोटि के आत्मगौरव के अहसास वाले व्यक्तित्व के बोधक हैं। यदि किसी को ऐसा व्यक्तित्व व ऐसे व्यक्तित्व वाला कोई आदमी पसंद है, तो उसे शिव आराधना से लाभ मिल सकता है। शिव का ध्यान करते रहने से ऐसे व्यक्तित्व वाले व्यक्ति की छवि उसके मन मन्दिर में प्रकट होती रहती है, और फिर धीरे-धीरे कुंडलिनी का रूप ले लेती है। जीवन में कोई किसी के साथ भौतिक रूप से तो लगातार नहीं बना रह सकता। परन्तु मानसिक रूप में जरूर हमेशा बना रह सकता है। किसी प्रेमी व्यक्ति के मानसिक चित्र को लगातार बनाए रखने के लिए ही उसके जैसे देवता को चुना जाता है। देवता को मूर्ति, चित्र, प्रतिमा आदि के रूप में पूजा जाता है। इससे प्रेमी का मानसिक चित्र मजबूत होता रहता है। कई बार उल्टा भी घटित होता है। जिस व्यक्तित्व के देवता की अराधना की जाती है, उस व्यक्तित्व वाले आदमी से प्यार होने लगता है। इससे फिर कुंडलिनी का विकास होता है। पुराने युग में योगी किसी प्रेमी व्यक्ति के बिना ही खाली देवता की मूर्ति को भी कुंडलिनी बना लेते थे। परंतु आजकल यह असंभव सा ही लगता है। क्योंकि आजकल का समाज देवप्रधान या मूर्तिप्रधान न होकर व्यक्तिप्रधान है। इसी तरह किसी को भगवान गणेश का व्यक्तित्व रुचिकर लग सकता है, तो किसी को मां काली का। पसंद अपनी-अपनी। सभी की रुचि के अनुसार देवता विद्यमान हैं। जहाँ तक मेरे अपने अनुभव की बात है, तो मेरी कुंडलिनी के रूप में शिव जैसा व्यक्तित्व था। किसी दिव्य घटनाक्रम से एकबार मेरा झुकाव एकदम से भगवान शिव के प्रति बन गया था। मैं पूरी तरह हर तरफ से हारकर अपने आप को उनके प्रति समर्पित महसूस कर रहा था। इससे मुझे विविध अनुकूल परिस्थितियों के साथ अनजाने में ही तंत्रयोग की प्रेरणा मिली, जिससे मेरी कुंडलिनी जल्दी से जागृत हो गई।
देवता भावरूप में हमेशा विद्यमान रहते हैं
उदाहरण के लिए यदि किसी देश-काल में पैदा हुए विशेष तांत्रिक या कहो भैरवनाथ को तन्त्र का देवता माना जाता, तो आजकल के अधिकांश लोगों की उन पर श्रद्धा न होती। ऐसा इसलिए होता, क्योंकि भैरवनाथ एक असली मनुष्य थे, जो बहुत पुराने समय में पैदा हुए थे, और आज नहीं हैं। उनके समय की जीवन-परिस्थितियां आज की जीवन-परिस्थितियों से सर्वथा भिन्न थीं। इस प्रकार लोगों के मन में उमड़ रहा तांत्रिक भाव बाबा भैरव की तरह ही नष्टप्राय हो जाता। परंतु इसके विपरीत भगवान शिव शाश्वत हैं। वे आज भी वैसे ही हैं, जैसे हजारों वर्ष पहले थे। वे आगे भी हमेशा वैसे ही रहेंगे। वास्तव में वे कोई नाशवान व्यक्ति नहीं, अपितु व्यक्तित्व या भाव के रूप में हैं। उनके व्यक्तित्व को ओढ़ने वाले अनगिनत लोग हो चुके हैं। इसलिए उन पर हमेशा विश्वास और इंटरस्ट बना रहता है। उससे तंत्र पर भी विश्वास बना रहता है, और उसके प्रति रुचि भी।
देवता हमेशा ही कुंडलिनी को शक्ति देते हैं
यदि कोई देवता रुचिकर हो या न हो, वह हमेशा ही कुंडलिनी लाभ देता है। देवता वास्तव में सजीव (यांग/शिव/पुरुष) और निर्जीव (यिन/शक्ति/प्रकृति) के मिश्रण की तरह है। सजीव का गुण उसमें मनुष्य की तरह ही सभी क्रियाकलाप करने के रूप में है। निर्जीव का गुण उनमें निर्जीव वस्तुओं जैसे कि हवा, पानी, आग, सूर्य आदि के रूप में होना है। देवता में सजीव व निर्जीव का मिश्रण तभी संभव हो सकता है, यदि देवता अद्वैतमयी और अनासक्त हों। अद्वैत व अनासक्ति से देवता के सभी क्रियाकलाप उसके मन में शांत हो जाते हैं। हालांकि देवता द्वारा बाहर-बाहर से वे होते रहते हैं। यदि देवता पूरी तरह से सजीव होता, तो एक जीवित मनुष्य की तरह प्रत्यक्ष होता, और दुनिया के बंधन में डूबा रहता। यदि देवता पूरी तरह निर्जीव होता, तो मृतप्राय होता, जो सृष्टि को क़भी भी न चला पाता। और तो और, उसकी पूजा से लाभ की बजाय हानि होती। देवता के इसी अद्वैत रूप के कारण ही उसकी पूजा करने से आदमी के मन में अद्वैत छा जाता है, जिससे कुंडलिनी उजागर हो जाती है। इसीलिए ही वेद-शास्त्रों में लिखा गया है कि देवता की अराधना से दुनिया के सुख-साधनों के साथ मुक्ति की भी प्राप्ति होती है।
कुंडलिनी के लिए ही भगवान शिव काशी में पार्वती के साथ विहार करने के लिए सभी जिम्मेदारियों से मुक्त बने रहते हैं
सभी मित्रों को पावन शिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं
मित्रो, मैंने पिछली पोस्टों में बताया था कि भगवान शिव मस्त-मलंग तांत्रिक की तरह रहते हैं। उनके पास कुछ अति जरूरी चीजों के सिवाय कुछ अतिरिक्त नहीं रहता। उनमें से माता पार्वती भी एक हैं, जिनके साथ वे काशी में स्वच्छन्द रूप से विचरण करते रहते हैं।
तंत्रसिद्धि के लिए दुनियादारी के झंझटों से दूर रहना जरूरी है
शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव ने दुनियादारी के झमेले से दूर रहने के लिए भगवान विष्णु की उत्पत्ति की। उन्होंने उन्हें दुनिया के पालन और रक्षण की जिम्मेदारियां सौंपी। स्वयं वे पार्वती के साथ सुखपूर्वक योगसाधना करने के लिए काशी में विहार करने लगे। कहते हैं कि वे आज भी वहाँ विचरण करते रहते हैं।
प्रेमयोगी वज्र का एकांत-विहार का अपना निजी अनुभव
प्रेमयोगी वज्र भी भगवान शिव की तरह दुनियादारी के झमेले में फंसा हुआ था। उसने लगभग 20 वर्षों तक कठिन परिश्रम किया, और विकास के अनेक कारनामे स्थापित किए। हालाँकि उसका रुझान तांत्रिक जीवन की तरफ भी रहता था। इससे वह अद्वैत भाव में स्थित रह पाता था। उससे वह थकान महसूस करने लगता था। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि अद्वैत भाव या कुण्डलिनी को बनाए रखने के लिए भी कुछ अतिरिक्त शक्ति खर्च होती रहती है। शक्ति के बिना कुछ भी संभव नहीं, भगवान भी नहीं। तभी तो शक्ति को शिव का अभिन्न हिस्सा समझा जाता है। हालांकि कभी-कभार के तांत्रिक खान-पान व रहन-सहन से उस शक्ति की आपूर्ति आसानी से हो जाती थी। आग उसे भी जलाती है, जो उसके बारे में जानता है; और उसे भी उतना ही जलाती है, जो उसके बारे में नहीं जानता। इसी तरह दुनियादारी के झंझट सभी के अंदर2अज्ञान का अंधेरा पैदा कर देते हैं। यह अलग बात है कि अद्वैतयुक्त ज्ञानी में वह अंधेरा कम घना होता है। यह ऐसे ही है जैसे आग के बारे में जानने वाला आदमी उससे बचने का प्रयास करता है, जिससे वह कम जलन प्राप्त करता है। उसी दौरान किसी अचिंत्य परिस्थिति के कारण उसका शिव के प्रति प्रेम जागा था। फिर वैसी ही दिव्य परिस्थितियों के कारण उसे घर से अति दूर सपरिवार एकांत से भरे स्थान में रहने का अवसर मिला। उससे वह पुराना जीवन लगभग भूल सा गया। एक प्रकार से भगवान शिव ने उसे अपनी तरह दुनियादारी के झंझटों से मुक्त कर दिया। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि जो दुनिया में उलझा हो, उसे ही त्याग का फल मिलता है। जो पहले से ही सोया हुआ हो, उसे सो कर कोई लाभ नहीं मिलता। तभी तो शिवपुराण में लिखा है कि दुनियादारी के झंझटों को संभालने के लिए शिव ने विष्णु को नियुक्त किया और स्वयं संसार को त्याग कर काशी चले गए। एक अधिकारी अपने मातहत को उन्हीं जिम्मेदारियों को सौंप सकता है, जिनके बारे में वह खुद बखूबी जानता हो और जिन्हें निभाने का उसे लंबा अनुभव हो। यदि भगवान शिव ने दुनिया को लम्बे समय तक न चलाया होता, तो वे विष्णु को अपनी जगह पर कैसे प्रतिनियुक्त कर पाते। जो दुनिया को पुरजोर तरीक़ेसे नहीं स्वीकारते, उन्हें दुनिया के त्याग का फल भी नहीं मिलता। इसलिए जब तक दुनिया में रहो, पूरी तरह डूब के रहो, पर होश संभाल कर रखो। आज विज्ञान भी इस बात को स्वीकारता है कि जब मन की चेतनायुक्त क्रियाशीलता एकदम से 50 प्रतिशत से ज्यादा गिर जाए, तब आत्मजागृति की संभावना काफी बढ़ जाती है। इसीलिए पुराने समय में राजा लोग एकदम से राज्य का त्याग करके तप के लिए वनवास को चले जाया करते थे। चार आश्रम भी इसीलिए बने थे। गृहस्थ आश्रम के झमेले को निभा कर आदमी एकांत में स्थित वानप्रस्थ आश्रम जाया करते थे, जहाँ उन्हें बहुत शान्ति मिलती थी। उस एकांत में प्रेमयोगी वज्र शिव की तरह ही पूर्ण तंत्रमयी जीवन बिताते हुए अपने तांत्रिक साथी के साथ मनोरम व धार्मिक स्थानों पर विहार करने लगा। उससे उसकी कुण्डलिनी क्रियाशील हो गई, और दो वर्षों के अंदर ही जागृत हो गई।
शिव के के द्वारा भाँग का सेवन
भगवान शिव के बेफिक्री, मस्ती, आनन्दपूर्णता, अद्वैत व भोलेपन आदि गुणों को ही उनके द्वारा भाँग का नशा किए जाने के रूप में दिखाया गया है। लोग इन्हीं गुणों की प्राप्ति के लिए ही नशा करते हैं। पर ज्यादातर लोग सफल नहीं हो पाते, क्योंकि ये गुण आत्मा के आश्रित हैं, नशे के नहीं। यदि तांत्रिक विधि से व गुरु की देखरेख में हल्का नशा किया जाए, तो वह इन गुणों की झलक दिखाकर इनकी स्थायी प्राप्ति के लिए प्रेरित कर सकता है। इन गुणों की वास्तविक व स्थायी प्राप्ति तो आत्मबल से ही सम्भव है।
भगवान शिव के ऊपर दुग्ध व भाँग मिश्रित जल चढ़ाने के पीछे छिपा आध्यात्मिक मनोवैज्ञानिक रहस्य
मैं आज सुबह सपरिवार एक शिवमंदिर घूम कर आया। पैदल ही 4 किलोमीटर का सफर तय किया। मौसम बड़ा सुहाना था। चारों ओर प्रकृति की छटा बिखरी हुई थी। आम के पीले पुष्प गुच्छों पर भौंरे गुंजायमान हो रहे थे। लोगबाग मंदिर आ-जा रहे थे। रास्ते में कुछ पिल्ले हमारे साथ-साथ चलने लगे, फिर कुछ सूंघ कर रुक गए और इधर-उधर देखने लगे। कुछ पुराने और बड़े पेडों पर लताएँ ऐसे घनीभूत होकर लिपटी हुई थीं, जैसे कि कोई प्रियतमा अपने प्रेमी से या माता अपने शिशु से अपना लगाव दिखा रही हो। एक सूखा पेड़ आधा नीचे झुका हुआ था, और एक जिंदगी से थक कर झुके एक बूढ़े इंसान की तरह लग रहा था। वास्तव में अधिकांश समय हम देखकर भी कुछ नहीं देखते। उस रास्ते से मैं कई बार गुजरा हूँ, पर ये चीजें मुझे पहली बार नजर आईं। इसलिए आँखों के साथ दिमाग और मन भी खुले रखने चाहिए। मंदिर से आते हुए रास्ते से कुछ भाँग के पत्ते भी तोड़कर साथ ले आया। घर में उनको करीब 20 मिनट तक शिव के मंत्र के जाप के साथ बारीक पीस। फिर उसे थोड़े पानी, उतने ही दूध और कुछ शहद के साथ मिश्रित किया। उस घोल को मैं लगभ 25 मिनट तक शिव मन्त्र के जाप के साथ फैंटता रह। फिर उस घोल को छान कर साफ किया। उस से थोड़ा सा घोल लेकर मैं पास के दूसरे मंदिर सपत्नीक चला गया। वहां उसे लोटे के जल मैं मिश्रित कर दिया और उससे शिवलिंग का अभिषेक करने लगा। लगभग 15 मिनट तक मैं थोड़ा-थोड़ा करके उस जल को शिवलिंग के ऊपर गिराता रहा। उस जल का रंग कुछ दूधिया और हरा था। एक अन्य दंपत्ति भी नजदीक ही बैठे थे, और शिव की पूजा के साथ शिव की आरती गा रहे थे। जैसे ही शिवलिंग पर मेरा जल गिरता था, मेरी कुण्डलिनी शक्ति प्राप्त करके वहाँ चमकने लगती थी। मन भी कुछ रोमांटिक मूड में जैसा आ गया था। वास्तव में वह जल भगवान शिव का यौन द्रव्य बन गया था। दूध से उसका रंग सफेद हो गया था, और भाँग से उसमें यौनता का नशा चढ़ गया था। एक बार पारद शिवलिंग के दर्शन के समय भी मुझे वैसी ही अनुभूति हुई थी। जब मैंने गूगल पर सर्च किया तो पता चला कि तरल पारे को एक विशेष प्राचीन हर्बल तकनीक से ठोस बनाया जाता है। वह एक प्रकार से भगवान शिव की ठोस बन गया यौन द्रव्य ही है। इससे अवचेतन में यह संदेश भी जाता है कि भटकते हुए तरल मन को ठोस बना कर शांत करना चाहिए। मैं घर वापिस आया और भगवान शिव के नाम से उस द्रव्य का आधा गिलास पी गया।
कुण्डलिनी-लिङ्गों में मूलाधार चक्र ही सर्वश्रेष्ठ लिङ्ग है
दोस्तों, शिवपुराण में भगवान शिव के ध्यान पर ही अधिकांश जोर दिया गया है। उसमें भगवान शिव को ही कुंडलिनी माना गया है। पूरे पुराण में लिंग का बहुतायत में वर्णन है। जब लिंग के ऊपर शिव (कुंडलिनी) का ध्यान किया जाता है, तब वह शिवलिंग या कुंडलिनी-लिंग बन जाता है। शिवलिंग ही शिवपुराण की धुरी है, जिसके चारों ओर पूरा पुराण घूम रहा है।
कुण्डलिनी के साथ जुड़े हुए चिन्ह को ही कुंडलिनी लिंग या शिवलिंग कहते हैं
वास्तव में मुख्य वस्तु के साथ जुड़े हुए चिन्ह को ही उस वस्तु का लिंग कहते हैं। जैसे कि पुरुष के साथ जुड़े हुए पौरुषत्व के चिन्ह को पुलिंग और स्त्री के साथ जुड़े हुए स्त्रीत्व के चिन्ह को स्त्रीलिंग कहते हैं। लिंग के बिना मुख्य वस्तु में कुछ कमी आ सकती है, परंतु वह समाप्त नहीं हो जाती। यदि पुरुष से पुरुष के चिन्ह समाप्त हो जाएं, तो पुरुष के स्वभाव में कुछ कमी आ सकती है, परंतु पुरुष वैसा ही रहेगा। इस हिसाब से तो छिपकली की पूँछ को भी छिपकली का लिंग कह सकते हैं। जब वह उसे गिराती है, तो उससे उसे अपना संतुलन बनाने में कुछ कठिनाई आ सकती है, परंतु छिपकली वैसी ही रहती है। इसी तरह, अध्यात्म में मुख्य वस्तु कुंडलिनी ही है। किसी मूर्ति आदि के चिन्ह से जोड़ने पर कुंडलिनी को अतिरिक्त बल मिलता है। यदि उस चिन्ह या लिंग को हटा दिया जाए, तो कुंडलिनी ध्यान में कुछ कमी आ सकती है, परंतु कुंडलिनी तब भी मन में बनी रहती है।
कुंडलिनी योग चर लिंग के अंतर्गत आता है
शिवपुराण में अनेक प्रकार के लिंगों का वर्णन आता है। चर लिंग कुंडलिनी योगी के लिए विशेष महत्त्व का है। इसमें मूल संवेदना को लिंग माना गया है। शरीर के विभिन्न चक्र उस लिंग के बदलते हुए स्थान हैं। वह संवेदना निचले चक्रों पर उत्पन्न होती रहती है, और अन्य सभी चक्रों से होती हुई चक्राकार घूमती रहती है।
सबसे स्थायी लिंग के रूप में हमारा अपना शरीर
अन्य प्रकार के लिंग अचर होते हैं। उनमें पर्वत या पत्थर से बने लिंग भी शामिल हैं। पर्वत से बने लिंग स्थायी होते हैं। पत्थर से बने लिंग अस्थायी होते हैं। पत्थर से बने लिंग स्त्रियों के लिए बेहतर बताए गए हैं। अन्य प्रकार के लिंग सूक्ष्म लिंग होते हैं। मंत्र लिंग इनमें मुख्य हैं। मंत्रलिंग में मंत्र के ऊपर कुंडलिनी का ध्यान किया जाता है। ॐ भी एक उत्तम प्रकार का मंत्र लिंग है। सूक्ष्म लिंग सन्यासियों के लिए बेहतर बताए गए हैं। पर्वत को इसीलिए स्थायी लिंग कहा गया है, क्योंकि वे लाखों वर्षों तक वैसे ही बने रहते हैं। इस हिसाब से तो हमारा अपना शरीर सबसे स्थायी लिंग हुआ, क्योंकि वह हमें हर जन्म में मिलता ही रहेगा, जब तक हमें मुक्ति नहीं मिल जाती। इसका सीधा सा अर्थ है कि कुंडलिनी योग साधना सर्वश्रेष्ठ साधना है। वास्तव में लिंग का दूसरा अर्थ अनुभूति भी है, जो हमें विभिन्न प्रकार के पदार्थों और भावों की सहायता से प्राप्त होती है। उसी अनुभूति पर कुंडलिनी को आरोपित किया जाता है। क्योंकि सबसे तीखी और मीठी संवेदना की अनुभूति हमें अपने ही शरीर से प्राप्त होती है, कहीं बाहर से नहीं, इसलिए शरीर के अंदर का लिंग ही सर्वश्रेष्ठ लिंग है। यही सिद्धांत तंत्रयोग का मूल सिद्धांत है। “शरीरविज्ञान दर्शन- एक आधुनिक कुंडलिनी तंत्र (एक योगी की प्रेमकथा)” नामक पुस्तक में इस बात को पुरजोर सिद्ध करके दिखाया गया है।
कुंडलिनी के लिए शिवलिंग के रूप वाले गुम्बदाकार या शंक्वाकार पर्वत का महत्त्व: वर्ष 2020 की अंतिम ब्लॉग पोस्ट
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नया साल चमक और आशा से भरा हो ताकि अंधेरा और उदासी आप से दूर रहें। नववर्ष 2021 की शुभकामना!
दोस्तों, करोल पहाड़ हिमालय का एक बेहद आकर्षक पहाड़ है। यह शिवलिंग के जैसे आकार का है। मैदानी क्षेत्रों से ऊपर चढ़ते समय यह ऊंचे पहाड़ों के प्रवेशद्वार पर स्थित प्रतीत होता है। मेरी कुंडलिनी से जुड़े इसके योगदान पर वैज्ञानिक चर्चा हम आज इस पोस्ट में करेंगे।
करोल पहाड़ के साथ मेरा आजन्म रिश्ता
मैं इसी पहाड़ की नजर में पैदा हुआ, और इसीके सामने बड़ा हुआ। यह आसपास के क्षेत्र में सबसे ऊंचा पहाड़ एक साक्षी की तरह हर समय मेरे सामने खड़ा रहा। यह हमेशा मेरे कर्मों की गवाही देता रहा, और मुझे सन्मार्ग पर प्रेरित करता रहा। इसने मुझे कभी अहंकार नहीं करने दिया। जैसे ही मुझे कभी थोड़ा सा भी अहंकार होने लगता था, तो वह कहता था, “मैं तो सबसे बड़ा और ऊँचा हूँ, फिर भी मैं कभी अहंकार नहीं करता; फिर तू मेरे सामने कीड़े जितना छोटा होकर भी क्यों अहंकार कर रहा है”। उसके इस ताने से मेरा अहंकार समाप्त हो जाता था। उससे मेरे मन की कुंडलिनी चमकने लग जाती थी। इस पहाड़ पर मेरा आना-जाना लगा रहता था, क्योंकि मेरे ज्यादातर मित्र, रिश्तेदार व आजीविका के साधन इसी पहाड़ पर होते थे। प्रतिदिन सुबह जब मैं सूर्य को जल चढ़ा रहा होता था, तब वह इसी पहाड़ के पीछे से उग रहा होता था। इससे वह पूजा का जल उस पहाड़ को भी स्वयं ही लग जाता था। इससे अनजाने में ही वह पहाड़ मेरा इष्ट देवता और मित्र बन गया था।
समय के साथ करोल पहाड़ के साथ मेरी कुंडलिनी मजबूती से जुड़ती गई
सूर्य को जल देते समय मेरे मन में उमड़ने वाली कुण्डलिनी करोल पहाड़ के साथ स्वयं ही जुड़ती गई। सूर्य की तरफ तो सीधा देखा नहीं जा सकता, और न ही सूर्य देव दिनभर नजरों के सामने रहते हैं। परन्तु वह पहाड़ तो हमेशा नजरों के सामने रहता था। उसकी तरफ देर तक सीधी नजर से भी देखा जा सकता था। काम करते हुए जरा सा सिर ऊपर उठाता, तो वह पहाड़ अनायास ही दृष्टिपटल पर आ जाता था, और उसके साथ ही उससे जुड़ी हुई मेरी कुंडलिनी भी। इस तरह से मेरी कुण्डलिनी मेरे जीवनभर मेरे साथ लगातार बनी रही, और उत्तरोत्तर बढ़ती रही। परिणामस्वरूप, मुझे गुरुकृपा से क्षणिक आत्मज्ञान भी उसी खूबसूरत पहाड़ के नजारे के साथ मिला, और कुंडलिनी जागरण भी उसीके चरणों की छत्रछाया में जाकर मिला।
करोल पहाड़ का शिवलिंग के जैसा आकार भी मेरी तांत्रिक कुंडलिनी के विकास में सहायक बना
शिवपुराण में शिवलिंग की आकृति का बहुत ज्यादा आध्यात्मिक महत्त्व बताया गया है। वहाँ शिवलिंग की पूजा को सबसे श्रेष्ठ माना गया है। जरा सोचो कि जब छोटे से घरेलू आकार के शिवलिंग का इतना ज्यादा महत्त्व है, तब शिवलिंग के आकार वाले पहाड़ का महत्त्व क्योंकर नहीं होगा। इससे तो महत्त्व कई गुना बढ़ जाएगा, क्योंकि पहाड़ की विशालता, अचलता, अमरता, और अहंकारविहीनता के कारण उसके प्रति आदरबुद्धि वैसे भी ज्यादा होती है। तभी तो पहाड़ को देवता भी माना जाता है। इसी वजह से ही लोग साधना के लिए सुरम्य पहाड़ों की ओर जाते हैं। वैसे तो विभिन्न कोणों से देखने पर वह पहाड़ विभिन्न आकृतियों में दिखाई देता था, यद्यपि उसकी शिवलिंग के जैसी सुंदर आकृति तो मेरे घर व आसपास के क्षेत्र से ही ज्यादा दिखाई देती थी। इसका मतलब है कि वास्तविक आकृति का उतना महत्त्व नहीं है, जितना कि आकृति के भान होने का है। शिवलिंग के सूक्ष्म तांत्रिक महत्त्व के कारण ही मंदिर के शिखर कुछ शंक्वाकार या गुम्बदाकार लिए होते हैं। यह आकार वास्तव में मूलाधार से जुड़ा होता है, और उसी की शक्ति लिए होता है। कैलाश पर्वत का रूप भी ऐसा ही है, और संभवतः तंत्र के सर्वाधिक अनुरूप है। तभी तो यहाँ पर साक्षात शिव का निवास बताया गया है। इसी वजह से बहुत से लोग करोल पहाड़ को मिनी कैलाश कहकर भी संबोधित करते हैं।
पहाड़ एक साधना में लीन मनुष्य की तरह होता है
इसी वजह से तो पहाड़ के रूप को भगवान शिव के रूप के साथ जोड़ा गया है। उसकी वनस्पति शिव की जटाएं हैं। उससे निकलते नदी-नाले व झरने शिव की जटा से निकलती गंगा नदी है। उस पर उगता चाँद शिव के मस्तक का खूबसूरत अर्धचंद्र है। उसके अंदर बसने वाले लोग व वन्य जीवजंतु शिव के ऊपर लिपटे नाग के रूप में हैं। उसका वनस्पतिविहीन व पथरीला भूभाग शिव के शरीर के नग्न भाग के रूप में है।
पहाड़ का अपना स्वरूप कुंडलिनी जागरण के दौरान की अवस्था है
यह अवस्था भाव, अभाव, व पूर्णभाव का मिश्रित रूप है। नशे आदि की अवस्था में भी भाव व अभाव दोनों एकसाथ होते हैं, परंतु उसमें पूर्णभाव नहीं होता। पर्वत की आत्मा में अभाव की अवस्था अद्वैत व जजमेंट से रहित चेतना के रूप में है, भाव की अवस्था अस्तित्व के आनंद के रूप में है, और पूर्णभाव की अवस्था पूर्ण अस्तित्व के परमानन्द के रूप में है। यह पूर्णभाव सर्वोच्च अनुभव के रूप में है। इसे भावाभावहीनता (न भाव, न अभाव) के रूप में भी जाना जा सकता है। पर्वत की ही तरह अन्य सभी निर्जीव पदार्थ भी जागती हुई कुण्डलिनी के रूप में पूर्णजीवन के रूप में हैं, निर्जीव नहीं। तभी तो कुंडलिनी जागरण के दौरान सभी कुछ अपने जैसा और एकसमान लगता है। भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत के इसी सर्वव्यापी रूप को समझा था, इसीलिए वे इंद्र देवता के कोप से बच पाए और व्रज के ग्रामीणों को भी बचा पाए। ग्रामीण तो गोवर्धन पर्वत को अपना स्थानीय देवता मानते थे, जो सीमित व अलग-थलग रूप वाला था। यह कथा मुझे एक रूपक की तरह भी लगती है। इंद्र विकास व संसाधनों के अहंकार से युक्त शहरवासियों व मैदानी भूभाग में रहने वाले लोगों का प्रतीक है। गोवर्धन पर्वत गांव की हरी-भरी वादियों का प्रतीक है। व्रजवासी एक अनपढ़, ग्रामीण, पहाड़ी, पिछड़े, अन्धविश्वासी व संकुचित सोच के अहंकारी आदमी का प्रतीक है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि अहंकार शहरवासी और ग्रामवासी, दोनों में है। यद्यपिशहरी में उच्चता व कृत्रिमता का अहंकार है, और ग्रामीण में निम्नता व प्रकृति का। ये दोनों प्रकार के अहंकार आपस में टकराते हैं। इन दोनों प्रकार के अहंकारों से रहित आदमी ज्ञानी कृष्ण की तरह है, जो इन दोनों प्रकार के लोगों के साथ मिश्रित होकर भी उनके दुष्प्रभावों से अछूता रहता है।
कुंडलिनी जागरण के लिए भगवान शिव लिंग को मूर्ति से अधिक श्रेष्ठ मानते हैं
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इससे भगवान शिव की तथाकथित तन्त्रेश्वरता स्पष्ट जाती है। वे अपने लिंग को अपना निर्गुण रूप और अपनी मूर्ति को सगुण रूप मानते हैं। लिंग उस विराट स्तंभ का लघु रूप है, जो अधोलोकों को ऊर्ध्वलोकों से जोड़ता है। ब्रह्मा और विष्णु इसका आदि-अंत नहीं ढूंढ सके थे। इसी तरह लिंग भी मूलाधार को सहस्रार से जोड़ता है। यौनतंत्र का सारा रहस्य शिवपुराण के इसी कथानक में छिपा है। यदि शिव की मूर्ति पर या मस्तिष्क में बने शिव के चित्र पर सीधा ध्यान लगाया जाएगा, तो वह ज्यादा प्रभावी नहीं होगा। परंतु यदि वज्र पर शिव के चित्र का ध्यान किया जाएगा, तो वह वहाँ से सीधा मस्तिष्क या सहस्रार में पहुंचेगा, और तुलनात्मक रूप में वहाँ बहुत ज्यादा प्रभावी व स्थायी बना रहेगा। शिव का चित्र यहां कुंडलिनी का प्रतीक है। कुंडलिनी के रूप में अन्य कुछ भी चित्र या संवेदना हो सकती है। वैसे तो भगवान शिव ने अपने लिंग और मूर्ति, दोनों की एकसाथ आराधना करने को कहा है, परन्तु अधिक श्रेष्ठ लिंग को माना है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न सनातन धार्मिक परंपराओं से कुंडलिनी का विकास ही हो पाता है, परंतु उसके जागरण के लिए तंत्र का सहारा लेना ही पड़ता है। ऐसा इसीलिए है, क्योंकि यदि शिव के मानवीय रूप-आकार का पता ही नहीं होगा, तो लिंग पर भी उसका ध्यान कैसे हो पाएगा। शिव के मानवीय रूपाकार का पता तो उसकी मूर्ति से ही चलता है। इसीलिए अधिकांश मंदिरों में मूर्तियों के साथ शिवलिंग भी जरूर होता है। इसी तरह एक असली तांत्रिक सनातन धार्मिक परंपराओं का विरोधी नहीं, अपितु सहयोगी होता है।
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