कुंडलिनी तंत्र पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली में ज्यादा अच्छा फलता फूलता है

दोस्तों, पिछली पोस्ट में हम देख रहे थे कि कैसे आजकल आदमी जितनी भौतिक तरक्की कर रहा है, उसके आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक दुख भी बढ़ते जा रहे हैं। मन के सभी दोष चरम के करीब हैं, और राक्षस बनकर आदमी को निगलने को तैयार हैं। यह भी कि कुंडलिनी शक्ति से ही उस राक्षस को मारा जा सकता है। मतलब साफ़ है कि मानव सभ्यता आज उस मोड़ पर खड़ी है, जहां उसे केवल कुंडलिनी योग ही बचा सकता है। मैं हाल ही में पहाड़ों के भ्रमण पर गया था। जहां मैदानों में ऐसी और कूलर चले हुए था, वहां पहाड़ों में लोग रजाई कंबल ओढ़ कर सो रहे थे, और आग जला कर सेंक रहे थे। एक दिन के भीतर ही सालभर के सारे मौसम देखने को मिल जाते हैं। अद्भुत नजारा देखा। वहां एक स्थानीय परिचित भी मिले। उनके पास नदी की गहराई से लेकर पहाड़ के शिखर तक के रास्ते पर हरेक प्राइम लोकेशन पर जमीन है। वे उस रास्ते को टूरिस्ट ट्रेकिंग रूट की तरह इस्तेमाल करने की और बीच के प्राइम पॉइंट्स पर झोंपड़ीनुमा टूरिस्ट कमरों व फुलवारियों की कल्पना को साकार करना चाह रहे थे। हालंकि उसके लिए प्रारंभिक निवेश व मैनपावर की जरूरत होती है, पर वे सस्ते में व प्राकृतिक तरीके से ऐसा करना चाहते थे, ताकि कम से कम कृत्रिम संसाधन लगे, और बिजनेस में जोखिम को दूर किया जा सके, क्योंकि वे आर्थिक रूप से मुझे ज्यादा समृद्ध नहीं लगे। अक्सर ऐसा ही होता है। करने वाले के पास पैसा नहीं होता और पैसे वाले कर नहीं पाते। वे होम्योपैथी व नेचरोपेथी की प्रेक्टिस भी करते हैं। उनका कहना था कि उनके पास प्रतिदिन ऐसे मरीज व अन्य लोग आते हैं, जो 2 किलो वजन कम करने के लिए गोवा जैसी दूरपार की व महंगी जगह जाकर चार लाख तक खर्च करते हैं। तो वे कहते हैं कि वे उनके नजदीक में ही और उससे बहुत कम समय व पैसे में चार किलो वजन कम कर सकते हैं। पर वही बात है न कि लोगों को शतप्रतिशत कुदरती भी पसंद नहीं आता, आकर्षण पैदा करने के लिए कुछ न कुछ कृत्रिम निर्माण तो करना ही पड़ता है। आजकल लोगों में प्रकृति के बीच रहने की जबरदस्त भूख है, क्योंकि हर जगह कृत्रिमता की अंधाधुंध भरमार है। बस उस भूख को शान्त करने के लिए ढंग से परोसने वालों की कमी है। फिर भी मन के घोड़ों को तो उड़ा ही सकते हैं। सबसे बड़ी समस्या है, दिन पर दिन पर्यटकों में शिष्टाचार व अनुशासन का घटता ग्राफ, असामाजिक तत्त्वों का डर अलग से लगा रहता है। वैसे तो उन्हें सही ढंग से गाइड व सर्व करने वाले पर्यटन संबंधी निपुण कर्मचारियों की भी कमी है। पहाड़ों के कुदरती जंगलों की जगह कंक्रीट के जंगल लेते जा रहे हैं। बढ़ती आबादी पर कम व अपर्याप्त नियंत्रण लगता दिख रहा है। मुझे तो कंक्रीट की विशाल, भव्य खूबसूरत हवेली छोड़कर एक छोटे से, शान्त क्षेत्र में बने, पुराने और जीर्णशीर्ण से, कुदरती हवापानी और धूप को अंदर प्रविष्ट कराने वाले और प्यारे हानिरहित सूक्ष्म जंतुओं जैसे चींटी, छिपकली, कोकरोच, लकड़ी और मिट्टी खाने वाले कीड़ों आदि का सामना करवाने वाले मकान में ही अपनी तांत्रिक योगसाधना सफल होते हुए दिखी। ध्यानस्थ शिव के चारों ओर भी तो सांप बिच्छू रहते हैं। हालांकि यह हम इंसानों के मामले में घातक चरम स्थिति है। बेशक मेरे पुराने घर में भी दो या तीन बार चमगादड़ और चूहे घुसे। चमगादड़ को बड़ी मुश्किल से खिड़की से भगाया क्योंकि उन्हें दिखता नहीं। फिर दीवारों के छेदों, दरारों आदि को लिफाफों आदि की पैकिंग से बंद किया, क्योंकि वे छोटी सी खाली जगह से भी घुस जाते हैं। इसी तरह चूहों को भी सांप के डर से मार भगाना पड़ा। उसकी छत आरसीसी की नहीं थी, बल्कि आरसीसी की पतली कड़ियां अंतरालों पर बिछी हुई थी। अंतरालों के बीच की खाली जगह पर टाइलें लगी थीं, जो दोनों साइड की कड़ियों पर टिकी हुई थीं। टाइलों के उपर चिकनी जैसी मिट्टी की खूब मोटी परत थी। मिट्टी के ऊपर फिर टाइलें आपस में जोड़ के लगी थीं, ताकि बारिश का पानी अंदर न घुसे। थोड़े बहुत रिसाव को तो मिट्टी शोषित कर के बाहर उड़ा देती होगी। इससे छत धूप से ज्यादा तपता भी नहीं था, और ठंड में ज्यादा ठंडा भी नहीं होता था। देखो, बातें आगे से आगे खुलती हैं। अंधेरे जैसी परिस्थितियां मूलाधार की प्रतीक हैं। ऐसे माहौल के प्रभाव से शक्ति आसानी से सहस्रार को चढ़ती है, बशर्ते अगर समुचित साधना की जाए। इसीलिए शिव श्मशान में रहते हैं। शायद यह उसी भव्यता के सूक्ष्म व अप्रत्यक्ष बल से ही बाद में हुआ, क्योंकि रात के बाद ही दिन अच्छा लगता है। वैसे भी भवन, गाड़ी आदि पर सामर्थ्य से ज्यादा खर्च करने पर या उन्हें बेवजह विस्तार देने से आदमी उनकी चिंता में, रखरखाव में उलझा रहता है, जिससे योगसाधना को पर्याप्त समय व प्राणशक्ति नहीं दे पाता। सोचो, एक औसत भव्य मकान कम से कम पचास लाख रुपए में बनता है। इतने पैसे पेंशन स्कीम में डालकर पचास हजार की पेंशन हर महीने बनती है, पूरी उम्र के लिए, और मूलधन पचास लाख वैसा ही सुरक्षित खड़ा रहता है। सारी उम्र कमाई की चिन्ता करने की जरूरत नहीं। आराम से झोंपड़ीनुमा पर्यावरणमित्र व स्वास्थ्यमित्र मकान में रहते हुए आनंदमय जीवन के साथ योगसाधना करते रहो और गिटार बजाते रहो। गिटार बजाना भी एक उच्चकोटि की साधना है, साक्षीभाव साधना है। कई लोग बैंक से लोन लेते हैं, तो किश्तें चुकाते चुकाते वह मकान दुगुनी मतलब एक करोड़ के लगभग की कीमत में पड़ जाता है। कई चतुर लोग ब्याज से बचने के लिए रिश्तेदारों या मित्रों से पैसा उधार ले लेते हैं। भोलेभाले लोग उनको उधार दे भी देते हैं, पर उनसे ब्याज तो छोड़ो, मूलधन की उगाही भी नहीं कर पाते। उससे फिर रिश्ते और दोस्ती में दरार पड़ जाती है। कई लोग तो अपने बच्चों को भी उधार की चक्की में पिसवा देते हैं। बेफजूल के मकान का शौक बहुत महंगा पड़ता है। भव्यता से अहंकार भी बढ़ता है, और उसके नष्ट होने से वह भी नष्ट हो जाता है। वैसे भी पुराना और कच्चा कंक्रीट फिर भी जीवित और कुछ सांस लेता लगता है, पक्के और नए कंक्रीट में तो दम सा घुटता लगता है। असली जान तो मिट्टी वाले घर में होती है, इसीलिए आजकल मडहाउस की तरफ़ लोगों का क्रेज बढ़ रहा है। यह भूकंपरोधी भी होता है। आजकल कई लोग पिलरस और लेंटर को आरसीसी का भूकंपरोधी जाल की तरह बना कर दीवारें कूटी हुई मिट्टी की और खूब चौड़ी रख रहे हैं, और लेंटर या लोहे की चद्दर की छत के नीचे लकड़ी के फट्टों की सीलिंग लगा रहे हैं। इससे मजबूती और कुदरतीपने का दोहरा फायदा मिल रहा है। अंदर फर्श पर और दो या तीन फुट की धरातल की दीवार पर कुदरती लगने वाली, चौड़ी और सांस लेने वाली टाइलें भी लगाई जा सकती हैं। कमरों के बीच पार्टिशन ईंट की बजाय मिट्टी की पतली या मोटी दीवार जगह के अनुसार या लकड़ी की भी दी जा सकती है। रसोई और वाशरूम कम टॉयलेट भी इसी तरह मिट्टी के प्राकृतिक रखे जा सकते हैं, बशर्ते फर्श पर और कुछ हाईट तक वर्किंग दीवार और शेल्फ पर टाइलें फिक्स की जाएं। मैं इस तरह की अंग्रजों के समय की बनी आलीशान व पूरी तरह से कुदरती, मिट्टी पत्थर से बनी, सीलिंग तक लगभग बीस फीट ऊंचाई वाली पर्यावरण मित्र कोठी मतलब बंगले में कई सालों तक सुकून से रहा हूं, देखने में लगभग ऐसी ही जैसी इस पोस्ट की हेडर इमेज में दिखाई गई है। बेशक उसमें टाइलें वगैरह बाद में जोड़ी गई हों। उसकी लकड़ी के फट्टों के ऊपर लोहे की चद्दर की छत थी। बोलते हैं कि वह भी उसी पुराने जमाने की है, नई नहीं डाली है। मिट्टी की दीवारों पर बिजली की फिटिंग भी नायाब थी। ऐसा लगता था कि वे नीचे गिर सकती है, पर हमने उसपे झूलना थोड़े ही है। जिस घर की दीवारें भी सांस लेती हों, उसमें प्राणायाम योग आदि करने का मन तो खुद ही करेगा। मिट्टी भी लचीली होती है, और योग में भी लचीलापन होता है। मिट्टी में धरती की आधारशक्ति होती है। यह मूलाधार चक्र का काम करते हुए आदमी को संतुलित व नियंत्रित व व्यवहारिक बनाए रखती है। भूकंप का खतरा तो हर पल बना ही रहता है। आज फिर से भूकंप के हल्के झटके महसूस हुए। लम्बे अरसे से ये झटके लगातार आ रहे हैं, जो किसी अनहोनी की ओर इशारा भी हो सकते हैं। परमात्मा से करबद्ध प्रार्थना है कि ऐसा न हो, अगर वे चाहें तो बेशक धरती की अतिरिक्त व विनाशकारी ऊर्जा छोटेछोटे झटकों से ही खत्म हो जाए। यह पता नहीं लोग भूकंप को बहुत ज्यादा नजरंदाज क्यों करते हैं। वे ऐसा क्यों मान लेते हैं कि उनके होते हुए भूकंप आ ही नहीं सकता। वे गृहनिर्माण के समय हर चीज का ध्यान रखते हैं पर भूकंप का नहीं। शायद भूकंप की बात करने वाले को सभी मूर्ख और डरपोक समझते हैं। शायद यह ऐसे ही है, जैसे मृत्यु सत्य है, पर उसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहता। इसकी एक वजह मुझे यह भी लगती है कि आजकल लोग पहले से ही दुनिया में बहुत दुखी और परेशान जैसे हैं, शायद वे भूकंप को अवचेतन मन में मतलब अनजाने में ही सभी समस्याओं का हल समझ लेते हों, पर व्यवहार में उसे नजरंदाज करने का रूप दे देते हों। घर के गुणों का प्रभाव उसमें रहने वाले आदमी पर जरूर पड़ता है। मुझे जितना पक्का और मजबूत मकान दिखता है, उसमें रहने वाले लोगों का अहंकार भी मुझे उतना ही पक्का और मजबूत दिखता है। मिट्टी लचीली और जमीन से जुड़ी होती है, इसीलिए उसमें रहने वाले लोगों का अहंकार कच्चा और लचीला होता है, और वे जमीन से जुड़े हुए, मनमौजी और साधारण सभ्य इंसान प्रतीत होते हैं मुझे। इसका मतलब है कि आजकल के आदमी के पतन में आधुनिक मकानों का भी बहुत बड़ा योगदान है। ये वातावरण को बहुत ज्यादा प्रदूषित करते हैं। माना जा रहा है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में सीमेंट मुख्य भूमिका निभाता है। वास्तव में सीमेंट बहुत कच्चा होता है। इसे सरिए आदि के मिश्रण से ही ताकत मिलती है। बड़ी इमारतों व शहरों के लिए या बड़े पुलों, फ्लाईओवरों, पुलों, बांधों और अन्य जल भंडारण संरचनाओं के लिए माना कि सिमेंटिड स्ट्रक्चर जरूरी भी है, पर गांव देहात या विरली अबादी वाले स्थानों के आम घरों के लिए इसकी क्या जरूरत है, क्योंकि वहां ज्यादा मजबूती की जरूरत नहीं। वहां ये भेड़चाल या फैशन सिंबल की तरह अपनाया जा रहा है। इसमें बिजली पानी की भी ज्यादा खपत होती है। स्विट्जरलैंड में जब पहली बार इसका प्रयोग बहुत बड़े डैम बनाने में हुआ, तो इसे राष्ट्रीय गर्व मान लिया गया, और इसे अजर अमर समझ लिया गया। पर बाद मैं पता चला कि कंक्रीट की अधिकतम उम्र सिर्फ सौ साल है। जहां पर जमीन की उपलब्धता में कोई बाधा नहीं है, वहां एकमंजिला मकान काफी होता है। वह सुंदर भी लगता है, और जमीन से भी जुड़ा होता है। मुझे लगता है कि पहाड़ों में एक से ज्यादा मंजिल उंचाई का भवन बनाने से देवता का अपमान होता है, क्योंकि ऊंचे पहाड़ देवता का रूप होते हैं। वैसे भी वहां पर पेड़ पौधे और अन्य प्राकृतिक नजारे ऊंचे अर्थात मुख्यरूप से दिखने चाहिए, भवन आदि मानवनिर्मित कृत्रिम संरचनाएं नहीं। वास्तुशास्त्र का एक सिद्धांत भी खुद ही मेरे अनुभव में आया है, मैंने कहीं पढ़ा नहीं है। खुले व हवादार जैसे स्थान में ऐसा चौराहा जहां आमने सामने के रास्ते लगभग बराबर जैसी रचनाओं को धारण करते हैं, वहां कुंडलिनी क्रियाशील होने लगती है। दरअसल ऐसा चौराहा स्वस्तिक जैसा चिह्न बनाता है।