कुंडलिनी योग सबसे बड़े झूठ का पर्दाफाश करता है

दोस्तों, पिछली पोस्ट में सीमेंट के पर्यावरणीय दुष्प्रभाव बारे बात हो रही थी। वो तो वो, पर जो इसका इस्तेमाल भी करते हैं, वे भी ढंग से कहां करते हैं। सबसे ज्यादा ढिलाई इसमें पानी की सिंचाई रूपी उस क्योरिंग की रखी जाती है, विशेषकर सरकारी और ठेकेदारी कामों में, जो इसकी मजबूती के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है। इससे संसाधन बर्बाद होते हैं, और हादसों से जानमाल के भारी नुकसान का अंदेशा बना रहता है। खैर, हम इन तकनीकी मामलों में न जाकर मूल विषय से भटकना नहीं चाहते। इस पर मेरी एक अन्य पुस्तक है, “बहुतकनीकी जैविक खेती एवम वर्षाजल संग्रहण के मूलभूत आधारस्तम्भ”। इस पोस्ट में हम सबसे बड़े झूठ पर चर्चा करेंगे।

विचारों का शांतिपूर्वक अवलोकन करने का अर्थ है कि हम उनकी सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं। यथार्थ सत्ता को। सूक्ष्म सत्ता को। आध्यात्मिक सत्ता को। मानसिक सत्ता को। अस्वतंत्र सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं। किसी पर आधारित सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं। अपूर्ण सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं। बुझे मन से उनकी सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं। इससे जब विचार गायब होगा, तो हमें अभाव का अंधेरा महसूस नहीं होगा या कम महसूस होगा। साथ में अप्रत्यक्ष रूप से यह भी सिद्ध या विश्वास हो जाएगा कि जिस अभाव को हम अंधेरा समझते हैं, वह प्रकाश है, क्योंकि वहीं से ये विचार पैदा होकर उसी में विलीन होते रहते हैं। इससे आत्मा धीरेधीरे साफ होकर मुक्ति की तरफ़ चली जाएगी। अगर हम उनके वेग में बह जाएं, तो उसका मतलब होगा कि हम उनकी अयथार्थ सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं। भौतिक सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं। स्थूल सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं। शारीरिक सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं। स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं। पूर्ण सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं। इससे जब विचार गायब होगा, तो हमें अंधेरा सा महसूस होगा। अगर हम उन्हें नकारने या हटाने की कोशिश करें, तो उसका मतलब होगा कि हम उनकी सत्ता को नकार रहे हैं। इसका भी अप्रत्यक्ष मतलब यह बनेगा कि हम अंधेरे की सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं। इससे जीवन अंधेरे की ओर जाएगा ही।  मतलब साक्षीभाव सबसे बड़ी अध्यात्मवैज्ञानिक साधना है। यह बौद्धों का सर्वोत्तम मध्यमार्ग है। साक्षीभाव में इसीलिए आत्मा से आंनद प्राप्त होता है। विचारों को भगा कर भी नुकसान और गले लगाकर भी नुकसान। इसलिए अपनी सांसों और अपने शरीर पर ध्यान देते रहो, और विचारों को आतेजाते रहने दो।
बोलने की बात है कि साक्षीभाव ही सबकुछ है, योग आदि कुछ और करने की जरूरत नहीं। यह तो ऐसे कहना हुआ कि फल ही सबकुछ है, पेड़ आदि की कोई जरूरत नहीं। असली साक्षीभाव साधना तो योगसाधना के दौरान ही होती है। उस समय विचार मस्तिष्क में आ रहे होते हैं, और ध्यान और दृष्टि मूलाधार आदि शरीर के निचले हिस्सों या चक्रों पर होते हैं। इससे दो काम एकसाथ होते हैं। एक तो यिन मतलब निचला हिस्सा और यांग मतलब मस्तिष्क वाला हिस्सा आपस में जुड़ते हैं, और दूसरा यह कि मस्तिष्क के विचार आते हुए भी नजरंदाज से रहते हैं, जिससे उत्तम साक्षीभाव होता है। विचारों का बिनबुलाए मेहमानों की तरह स्वागत किया करो। जैसे हम बिन बुलाए मेहमान का स्वागत करते हुऐ भी उससे तटस्थ से रहते हैं, ऐसे ही विचारों के प्रति भी रहना चाहिए। मेन बात यह है कि आदमी 4के सिग्नल से बने दृष्यों को देखना ही पसंद करते हैं, एसडी के सिग्नल वाले दृष्यों को नहीं। योग के दौरान मस्तिष्क में बनने वाले सिग्नल को 4k वाला समझो, और आम दुनियादारी में एसडी वाला या ज्यादा से ज्यादा एचडी वाला। इसीलिए योग के दौरान सबसे ज्यादा साक्षीभाव अर्थात मूकदर्शक भाव पैदा होता है। आम दुनियावी हालत में तो हम मानसिक दृष्यों के अनुरूप प्रतिक्रिया भी दे सकते हैं, पर योग के दौरान कैसे देंगे, क्योंकि मानसिक दृष्य के इलावा स्थूल रूप में कुछ भी नहीं होता। इसलिए मजबूरन शान्त होकर नजारा देखते रहना पड़ता है। इसीलिए कई लोग दूरदर्शन को भी अच्छा साक्षीभाव साधक कहते हैं, क्योंकि उसके लिए भी हम कोई प्रतिक्रिया नहीं दे सकते। इसीलिए काल्पनिक सी फिल्में सत्य घटनाओं पर आधारित फिल्मों से भी ज्यादा मजा देती हैं। क्योंकि जहां ऐसे दृष्यों के प्रति सत्यत्व बुद्धि जागी, वहां आत्म आनंद में खलल तो पड़ेगा ही।

साक्षीभाव साधना मतलब योगसधना दिन में तीन बार की जा सकती है। दिन में तो लगता है सबसे जरूरी है शायद। उस समय शरीर की ऊर्जा शिखर पर होती है, जिससे दबे विचार खूब उभर सकते हैं, जिन पे अच्छे से साक्षीभाव हो सकता है। अगर जगह आदि की कमी हो तो कम से कम प्राणायाम तो किया ही जा सकता है। अगर बैठने की भी दिक्कत हो तो यह तो कुर्सी पर भी किया जा सकता है। चक्रों पर सांसें रोककर गहरा कुंडलिनी ध्यान लगाने से सिरदर्द भी हो सकता है, इसलिए दिन में प्राणायाम ही काफी है। सुबह और शाम की संध्या के समय जब मस्तिष्क को मूलाधार से अतिरिक्त शक्ति मिलती है, वह समय ध्यान के लिए सर्वोत्तम है। उस समय दुनियावी कामों का बोझ भी कुछ हटा जैसा होता है। शायद इसीलिए पुराने समय में त्रिकाल संध्या का काफी प्रचलन था। हर कोई तो हर समय आत्मजागरूकता में नहीं रह सकता, क्योंकि कइयों का काम विचित्र और जटिल सा होता है। जिनको लंबा अभ्यास है या जिन्हें सत्संग सुलभ है, वे रह भी लेते हैं। कर्मयोगी भी हर समय आत्मजागरूक रहता है, पर कर्मयोग भी आसान नहीं है। इसीलिए आम आदमी के लाभ के लिए दिन में केवल तीन बार साधना का प्रावधान है, बाकि समय यथेच्छ व्यावहारिक काम करते रहो, साधना को रखो मेज पर।

समस्या तब होती है जब आदमी यथार्थ नहीं देखता। सत्य नहीं देखता। देखने में बुराई नहीं है। सच्ची चीज देखने में कोई बुराई नहीं है। बुराई है झूठी चीज देखने में। विचारो को सूक्ष्म रूप में देखना सत्यदर्शन है, पर उन्हें स्थूल और भौतिक रूप में देखना असत्यदर्शन है। विचारों को अपने शरीर या मन के अंदर देखना सत्यदर्शन है, पर उन्हें अपने से बाहर देखना असत्यदर्शन है। विचारो को अपने रूप में मतलब अद्वैतरूप व आत्मरूप में देखना सत्यदर्शन है, पर उन्हें पराए रूप में मतलब द्वैतरूप व अनात्मरूप में देखना असत्यदर्शन है। ऐसा नहीं कि ये सिर्फ दार्शनिक बातें हैं। यह वैज्ञानिक सत्य है। दरअसल दुनियादारी पूरी तरह झूठ पर टिकी हुई है। सूक्ष्म विचारों को झूठा स्थूल रूप दिया जाता है। आध्यात्मिक (चिदाकाश आत्मरूप) विचारों को झूठा भौतिक (आत्मा के बिल्कुल उल्टा) रूप दिया जाता है। शरीर के अंदर स्थित विचारों को झूठमूठ में शरीर के बाहर समझा जाता है। अगर हम विचारों को उनके सच्चे रूप में मानें तो दुनिया गायब और हर जगह आत्मा ही आत्मा है। बड़ी बात है कि योग करते समय बिना प्रयत्न के यह दृष्टि बनी रहती है, क्योंकि उस समय शरीर और सांस के रूप में प्राण की क्रियाशीलता के अनुसार विचारों की क्रियाशीलता भी तेजी से बदलती रहती है, जिससे इन सबके आपस में जुड़े होने का विश्वास खुद ही, अवचेतन में ही बना रहता है। मन या मस्तिष्क की बजाय शरीर इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि विभिन्न विचार अलग अलग ऊर्जा स्तर को लिए होते हैं, इसलिए शरीर के अलग अलग चक्रों पर फिट बैठते हैं। ज्यादा उर्जा वाले विचार सहस्रार की तरफ होते हैं तो कम ऊर्जा वाले मूलाधार की तरफ़। विचारों की ऊर्जा से छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए, नहीं तो मस्तिष्क पर बोझ बढ़ेगा जिससे सिरदर्द भी हो सकती है। इसीलिए आदमी का असली रूप कोई मन या मस्तिष्क नहीं है, जैसा आमतौर पर समझा जाता है, पर सहस्रार चक्र से लेकर मूलाधार चक्र तक का फ्रंट चैनल दंड और उसपर स्थित चक्रों का समूह है। ऐसा समझ लो कि यह सात गांठों वाला बांस का डंडा है। जरूरी नहीं कि वे विचार चक्रों से ही चिपके हों, वे चक्रों की उंचाई के स्तर पर किसी भी लंबी दूरी तक महसूस हो सकते हैं। शायद सहस्रार के विचार आकाश की तरफ़ की सारी दूरी कवर करते हैं, और मूलाधार के विचार पाताल की ओर की सारी दूरी। जहां भी विचार महसूस होए, वहीं उनका स्वागत करना चाहिए, पर उनके असली सूक्ष्म व आध्यात्मिक रूप में, झूठे स्थूल व भौतिक रूप में नहीं। साथ में योग के दौरान विचारों को उनके सच्चे रूप में देखने से वे एकदम से गायब नहीं होते आम दुनियावी अवस्था की तरह, बल्कि आत्मा को आनन्द प्रदान करते हुए आराम से गायब होते हैं, क्योंकि योग करते समय ऊर्जा का स्तर ऊंचा होता है। साथ में सांसों के स्तंभन आदि विभिन्न तकनीकी प्रयोगों अर्थात प्रणायामों से योग के समय मन की चंचलता भी कम हो जाती है। इससे आत्मा भलीभांति तृप्त होते हुए महसूस होती है। आम अवस्था में वे आत्मा को समुचित आंनद मुहैया कराने से पहले ही गायब हो जाते हैं, क्योंकि ऊर्जा का स्तर नीचा होता है, जिससे आत्मा प्यासी सी ही बनी रहती है। अगर हम विचारों को उनके झूठे रूप में मानें तो आत्मा गायब और हर जगह दुनिया ही दुनिया है। सीधी सी बात है कि योग से विचार इतना ज्यादा स्पष्ट बनते हैं, जितने आम भौतिक दुनियादारी की हालत में भी नहीं बनते। इससे उनका सच्चा सूक्ष्म स्वरूप अपनेआप सामने आ जाता है। मतलब कुंडलिनी योग ही सबसे बड़े झूठ का सबसे बड़ा पर्दाफाश करता है। वैसे भी आत्मा को उजागर होने के लिए इसी पर्दाफाश से बल मिलता है। अगर झूठ नहीं होगा, तो पर्दाफाश भी नहीं होगा। इसका मतलब यह है कि झूठ और उसका पर्दाफाश साथसाथ चलता रहना चाहिए। मतलब कि भौतकवाद और अध्यात्मवाद संतुलित रूप में साथसाथ चलते रहने चाहिए। संतुलित का मतलब यह है कि इतनी भौतिकता भी नहीं होनी चाहिए कि आदमी की जान पर ही बन आए या जीवनदायिनी धरती ही नष्ट होने लगे। पशु में झूठ भी कम होता है, इसलिए उसके पर्दाफाश की संभावना भी कम होती है, जिससे उसका आत्मविकास भी बहुत कम या धीमा होता है। इसी सबसे बड़े झूठ को अध्यात्म की भाषा में अज्ञान कहते हैं, और इसके पर्दाफाश को ज्ञान। जो अध्यात्म के साथ दुनियादारी जोड़ते हुए पैसे ऐंठने की कोशिश करे तो उनसे सावधान, क्योंकि जिस समय वे पैसे वाले दुनियावी मोड में होते हैं, उस समय आध्यात्मिक मोड नहीं रहता। योगी व लेखक श्री ओम स्वामी का कहना ठीक है कि योगी आर्थिक रूप से स्वावलंबी तो होना ही चाहिए, साथ में उद्योगपति भी होना चाहिए जो समाज को भी आर्थिक सहारा दे सके। वह भी क्या योगी जो अपने लिए भी मांगता फिरे।

मुझे तो लगता है कि शुरुआती कुछ साधना ही समूह आदि में ज्यादा अच्छी तरह से कर सकते हैं, संभवतः ज्यादातर मामलों में बाद की उच्च अवस्था की साधना तो एकांत में ही फलीभूत होती है, भीड़ में नहीं। वैसे भी भीड़ में करने योग्य साधना कर्मयोग ही होता है, नाक पकड़कर योग करना नहीं। चलो, कोई बात नहीं, जमाने के साथ बहते चलो। इसमें कोई जबरदस्ती नहीं। जिसको अच्छा व अपने लिए उपयुक्त लगे, वह करे। यह प्रचार उनके लिए है जो इसके हकदार हैं, पर संकोच आदि विभिन्न वजहों से इसकी आदत न डाल पा रहे हों। किसी फिल्म के प्रचार का यह मतलब नहीं होता कि उसे सब देख लें, पर यह कि जिज्ञासु और जरूरतमंद आदमी तक उसकी पहुंच बन पाए। वेलेंटाइन डे का ये मतलब नहीं कि इस दिन सभी लोग जोड़ा बनाकर आपस में प्यार करने लग जाएं, पर यह कि जिसको इसकी जरूरत और गुंजाईश लगती है, पर संकोच आदि से न कर पा रहा हो, उसे करने का मौका मिले। सभी को विश्व योग दिवस सप्ताह की हार्दिक शुभकामनाएं।