मित्रो, पहाड़ों का अपना एक अलग ही आकर्षण है। वहां पर मन प्रफुल्लित, साफ, हल्का, शांत व आनंदित हो जाता है। पुराना जीवन रंग-बिरंगे विचारों के रूप में मस्तिष्क में उमड़ने लगता है, जिससे बड़ा ही आनंद महसूस होता है। चिंता, अवसाद व तनाव दूर होने लगते हैं। गत जीवन के मानसिक जख्म भरने लगते हैं। प्रेमयोगी वज्र को भी अपने व्यावसायिक उत्तरदायित्वों के कारण कुछ वर्षों तक ऊंचे पहाड़ों में रहने का मौक़ा मिला था। उसे वहां के लोगों से व प्राकृतिक परिवेश से भरपूर प्यार, सहयोग व सम्मान मिला।
पहाड़ों में अपने आप विपासना साधना होती रहती है
उपरोक्त तथ्यों से जाहिर है कि पहाड़ों में विपासना के लिए सर्वाधिक अनुकूल परिस्थितियाँ मौजूद होती हैं। यदि आदमी योग आदि के माध्यम से अपना बल भी लगाए, तब तो शीघ्र ही आध्यात्मिक सफलता मिलती है। प्रेमयोगी वज्र को भी उपरोक्त मानसिक सद्प्रभावों का अनुभव पहाड़ों के इसी गुण के कारण हुआ।
कुण्डलिनी ही पहाड़ों में स्वयम्भूत विपासना को पैदा करती है
आश्चर्य की बात है कि प्रेमयोगी वज्र की मानसिक कुण्डलिनी, जो पहले दब जैसी गई थी, वह पहाड़ों में बहुत मजबूत हो गई थी। वह तांत्रिक कुण्डलिनी थी, और उसकी मानसिक प्रेमिका के रूप में थी। उसके साथ ही उसकी मानसिक गुरु के रूप वाली कुण्डलिनी भी वहां पर ज्यादा चमकदार बन गई थी। पर उसने देखा कि पहाड़ों के लोग प्रेमिका के रूप वाली कुण्डलिनी को बहुत ज्यादा महत्त्व दे रहे थे, गुरु के रूप वाली कुण्डलिनी की अपेक्षा। गुरु के रूप वाली कुण्डलिनी को वहां के पंडित वर्ग के आध्यात्मिक लोग ज्यादा महत्त्व दे रहे थे, यद्यपि प्रेमिका की कुण्डलिनी के साथ ही, अकेली गुरु के रूप वाली कुण्डलिनी को नहीं। इसका कारण यह है कि पहाड़ मन के काम-रस या श्रृंगार-रस को उत्तेजित करते हैं। इसी वजह से तो काम शास्त्रों में ऊंचे पहाड़ों का सुन्दर वर्णन बहुतायत में पाया जाता है। उदाहरण के लिए विश्वप्रसिद्ध साहित्यिक रचना “मेघदूत”।
दूसरा प्रमाण यह है कि मैदानी भागों में कुण्डलिनी योग साधना के बाद जब प्रेमयोगी वज्र पर्वत-भ्रमण पर गया, तब पहाड़ों में उसकी कुण्डलिनी प्रचंड होकर जागृत हो गई, जैसा कि इस वैबसाईट के “गृह-2” वैबपेज पर वर्णित किया गया है। इसके अतिरिक्त, प्रेमयोगी वज्र को क्षणिक आत्मज्ञान का अनुभव भी पहाड़ों में ही हुआ था, जो उसने इस वैबसाईट के “गृह-2” वेबपेज पर वर्णित किया है । इसी वजह से तो अनादिकाल से लेकर योग साधक शीघ्र सिद्धि के लिए मैदानों से पहाड़ों की तरफ पलायन करते आए हैं।
पहाड़ों में कुण्डलिनी क्यों चमकने लगती है?
वास्तव में, पहाड़ देवता की मूर्ति की तरह काम करते हैं। तभी तो कई धर्मों में पहाड़ को देवता माना गया है। एक प्रकार से देवता की मूर्ति पहाड़ के रूप में प्रतिक्षण आँखों के सामने विद्यमान रहती है। पहाड़ मैं विद्यमान अद्वैत तत्त्व आदमी के मन में भी अद्वैतभाव पैदा कर देता है। उस अद्वैत के प्रभाव से कुण्डलिनी मन-मंदिर में छा जाती है।
यदि किसी के मन में कुण्डलिनी न भी हो, तो भी अद्वैतभाव से बहुत से आध्यात्मिक लाभ मिलते हैं। साथ में, उससे धीरे-२ कुण्डलिनी भी बनना शुरू हो जाती है।
यह बात इस वैबसाईट में पहले भी सिद्ध की जा चुकी है कि सृष्टि के कण-कण में अद्वैत तत्त्व विद्यमान है। वास्तव में, वही भगवान् है। इसे समझने के लिए सबसे बढ़िया पुस्तक “शरीरविज्ञान दर्शन” है।
मौन, ध्यान एवं जप आदि कार्यों के लिए एकांत की जरूरत होती है और इसके लिए पहाड़ों से अच्छा कोई स्थान नहीं हो सकता।
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