मित्राें, पिछली पोस्ट में सच्चे व समर्पित प्यार से उपजे चमत्कार को हमने देखा। अगर इसका उल्टा हो जाए, तो क्या होगा, आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं। लवजिहाद में यही उल्टा खेल चल रहा है। ऐसे ही भयानक संक्रामक रोगों के कारण सदियों से स्त्री और पुरुष के बीच अविश्वास की खाई बनी हुई है। यह आज से नहीं, बल्कि सदियों से न्यूनाधिक रूप से, इस नाम से या उस नाम से चल रहा है। आज तो यह ढंग से दुनिया के सामने आ रहा है। विश्वास बनाने में वर्षों लग जाते हैं, पर तोड़ने में कुछ ही पल। बल से शरीर को तो जीता जा सकता है, पर दिल को तो प्रेम और विश्वास से ही जीता जा सकता है। इसी पर बनी हुई लाजवाब फिल्म “केरला स्टोरी” आजकल अन्तर्राष्ट्रीय चर्चा व आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। पर यह इस ब्लॉग का विषय नहीं है, यह तो ऐसे ही पोस्ट के संबंध में बात चली थी, तो यह वर्तमानकालिक मुद्दा खुद ही जुड़ गया।
जब किसी मूर्ति आदि पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, तब भटकते विचारों की शक्ति वहाँ केंद्रित हो जाती है। विचारों की शक्ति को प्रकट होने का एक ही रास्ता बचता है, ध्यानचित्र के रूप में प्रकट होने का। योगी मूर्ति की बजाय अपने शरीर के चक्रोँ पर ध्यान केंद्रित करते है। उससे भी वैसा ही होता है। साथ में शरीर भी स्वस्थ रहता है। जो इनको नहीं मानते, वे आसमान पर या उसमें रहने वाले किसी अदृश्य भगवान पर ध्यान केंद्रित करते हैं। उससे भी वैसा ही होता है। मतलब साफ है कि कोई भी काफ़िर नहीं है।
साथ में, नदी, पर्वत, वृक्ष पर ध्यान लगाने से अर्थात उनकी पूजा करने से वे सभी भी शरीर के चक्रों की तरह स्वस्थ रहते हैं, क्योंकि फिर चक्रों की तरह ही आदमी की प्राणशक्ति उनको भी लगती है। पर्यावरण की सुरक्षा इसी मूलमंत्र में छुपी हुई है।
अवयरनेस मेडिटेशन अर्थात जागरूकता ध्यान पर भी यही सिद्धांत लागू होता है। कहते हैं कि एवयरनेस मेडिटेशन से बहुत लाभ मिलता है। मुझे हाल ही में एक नए मित्र से मिलने का मौका मिला। वे होम्योपैथिक मेडिसिन की अच्छी प्रेक्टिस भी करते हैं। वैसे भी होम्योपेथी भारतीय ऋषि परम्परा से बहुत मेल खाती है। इसी सिलसिले में वहाँ गया था तो थोड़ा परिचय हो गया। उनके साहित्य व अध्यात्म के शौक को जानकर मैं भी अध्यात्म की बातें करने लग गया। कहते हैं कि जौहरी को ही हीरा दिखाना चाहिए, आम आदमी तो उसे पत्थर समझकर नाले में फैक देगा। मैं उनकी इस बात से बहुत प्रभावित हुआ कि हर समय अवेयरनेस के साथ रहना चाहिए। ओशो महाराज भी बिल्कुल यही कहते हैं कि हरेक काम अवेयरनेस के साथ करो। वे खुद भी ओशो के अनुयायी लगे मुझे। सतसंग से लाभ तो मिलता ही है, जैसा मुझे मिला। मैं इसके मनोवैज्ञानिक सिद्धांत की तह तक पहुंच सका। मुझे लगता है कि जब हम वर्तमान के रियल टाइम में शरीर को महसूस हो रही किसी भी संवेदना पर ध्यान दे रहे होते हैं, तब मनोमय कोष, अन्नमय कोष और प्राणमय कोष आपस में मिश्रित हो रहे होते हैं, जैसा मैंने पिछली कुछ पोस्टों में विस्तृत रूप से वर्णन किया था। वर्तमान की संवेदना की तरफ ध्यान देने से शरीर और सांस पर भी खुद ही ध्यान चला जाता है, क्योंकि तीनों आपस में जुड़े हुए हैं। वैसे तो बीती हुई और आने वाली घटनाओं के ख्याल भी मानसिक संवेदना के ही अंतर्गत आते हैं, पर उनके साथ शरीर और सांस कम जुड़ते हैं, क्योंकि न भूतकाल में यह वर्तमान काल में स्थित भौतिक शरीर था, और न ही भविष्यकाल में होगा, यह तो केवल वर्तमान काल में ही स्थित है। इसीलिए कहते हैं कि वर्तमान में ही स्थित रहना चाहिए। मुझे लगता है कि जब किसी के द्वारा वर्तमान स्थिति के साथ जुड़ी भौतिक संवेदनाओं का ध्यान किया जाता है, तो इससे यह विश्वास पक्का होता रहता है कि वे उसके शरीर से ही जुड़ी हैं, क्योंकि वे शरीर और सांसों की बदलती स्थिति के साथ बदलती रहती हैं। इससे यह विश्वास भी खुद ही हो जाता है कि उसकी सभी मानसिक संवेदनाएं जैसे कि विभिन्न भावनाएं और विचार भी उसके शरीर के ही भाग हैं, क्योंकि संवेदना चाहे शारीरिक हो या मानसिक, वर्तमानकालिक हो या भूतकालिक या भविष्यकालिक, उन सभी का गुणस्वभाव व अनुभव बिल्कुल एकसमान ही होता है। इससे वे शांत हो जाती हैं, क्योंकि अपने आप से किसीको आसक्तिभाव, लगाव या प्रेम नहीं होता। क्योंकि स्वयं तो स्वयं से हमेशा के लिए जुड़ा हुआ है, उसे कोई अलग नहीं कर सकता, क्योंकि वह अपना ही रूप है। आसक्ति केवल दूसरे से या अलग व्यक्ति या पदार्थ से होती है मतलब तब काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर जैसे मानसिक दोष शांत होकर जीवन को अपने लिए और औरों के लिए सुखमय बना देते हैं। इसी शान्त माहौल में ही आध्यात्मिक प्रगति भी होती है, भौतिक प्रगति तो होती ही है। इसका प्रमाण है ऐसी अवस्था में कुंडलिनी ध्यानचित्र का आदमी के मन में सुस्पष्ट अभिव्यक्त होना। साथ में, कुंडलिनी ध्यानसाधना से मस्तिष्क इतना ज्यादा चुस्त और संवेदनशील हो जाता है कि वह हरेक भौतिक संवेदना को गहराई से महसूस करने लगता है, जिससे खुद ही जागरूकता साधना की आदत पड़ जाती है। साथ में आदमी को ऐसा भी लगता है कि जब सभी संवेदनाएं एकजैसी ही हैं, तब वह किसी संवेदना पर ज्यादा तो किसी पर कम आसक्त क्यों है। उसे तो सबके प्रति बराबर रहना चाहिए। इसलिए वह निष्पक्ष व निरपेक्ष होकर शान्त हो जाता है। या ऐसा समझ लो कि आसक्ति वाली संवेदनाओं से सामान्य भौतिक संवेदनाओं की तरफ ध्यान डाईवर्ट हो जाता है।