कुंडलिनीयोग का संकल्पपुरुष ब्लैकहोल के अन्दर ब्रह्मांड की उत्पत्ति की पुष्टि करता है

अनंताकाश का गड्ढा भी तो वही अनंताकाश हुआ न। उसे दूसरा अनंताकाश कैसे कह सकते हैं। चादर में बना गड्ढा भी उसी चादर से बना है, उसे दूसरी चादर थोड़ी न कहेंगे। सीमित चादर तो सीमित गड्ढा ही बना सकती है। असीमित आकाश में असीमित गड्ढा क्यों नहीं बन सकता। जब छोटे, बड़े द्रव्यमान वाले पिंड आकाश में छोटे, बड़े गड्ढे बना सकते हैं, तो अनंत द्रव्यमान का पिंड अनंत आकाश में अनंत आकार वाला गड्ढा भी बना सकता है। क्योंकि तारे के सिकुड़ने से बनी सिंगुलरिटी का आकार अनंत छोटा है, इसलिए उसका द्रव्यमान भी अनंत ज्यादा है। इसीलिए उससे अंतरिक्ष में अनंत आकार का गड्ढा मतलब ब्लैकहोल बनता है। ब्लैकहोल इसीलिए तो गड्ढा है। मतलब बेशक मूल आकाश में ही है, पर खाली है, अर्थात उसकी सृष्टि से अछूता है। ॐ के आकार को अनंत छोटा कैसे मानेंगे। माना कि अनंत बड़ा आकार तो शून्य आकाश है। पर अनंत छोटा आकार भी तो शून्य आकाश ही है। दोनों के अभासिक अनुभव में अंतर हो सकता है, जैसे पहले वाला परम प्रकाश परमात्मा है, तो बाद वाला परम अंधकार जीवात्मा। मतलब एक मृत तारे से नए आकाश का निर्माण हो गया। इसीलिए तो ब्लैकहोल का आकाश खत्म नहीं होता, क्योंकि उसमें तारे के निरंतर सिकुड़ने से नया अनंत आकाश जो बन गया। पर एक से ज्यादा आकाश का होना असम्भव है, इसीलिए वह अलग अनंत आकाश नहीं बल्कि उसमें अनंत आकार का गड्ढा है। ओम शायद आकाश का नाम और रूप है। क्योंकि ध्वनि एक तरंग है, जो आकाश में हर जगह फैलती है प्रकाश तरंग की तरह। यह अलग बात है कि उसे हर जगह डिटेक्ट नहीं किया जा सकता। वैसे भी शब्द या आवाज को आकाश का गुण कहा गया है। फिर सिर्फ ओम ध्वनि को ही आकाश का रूप क्यों दिया गया है। शायद इसलिए क्योंकि यह सबसे साधारण और आधारभूत है। ओम शब्द तीन अक्षरों अ, उ और म से बना है, जिनका मतलब क्रमशः सृजन, पालन और विनाश है। आकाश भी यही करता है। यह पहले अपने अंदर दुनिया को बनाता है, कुछ समय तक उसको कायम रखता है, और फिर अपने में ही विलीन कर लेता है। मतलब ओम अनंत आकाश का ही नाम है। सटीकता से बोलें तो शायद अनंत गड्ढे का, क्योंकि यही सबसे मूलभूत विचार से बनता है। पर आकाश में गड्ढा, यह बात इतनी सरल नहीं है। कुछ तो रहस्य छिपा है इसमें। फिर तो अगर परमात्मा अनंत आकाश है, तो जीवात्मा उसमें अनंत श्याम गड्ढा। शून्य आकाश में गड्ढा भी कोई विशेष होगा, साधारण नहीं। हम तो आकाश में गढ्ढा नहीं बना सकते। हां एक तरीका है, भ्रम से गड्ढे जैसा दिखा दिया जाए। फिर तो अनंत आकाश भी रहेगा, और उसमें अनंत गढ्ढा भी, दोनों एकसाथ। जीवात्मा तो परमात्मा में ऐसा ही भ्रमपूर्ण है, असली नहीं, जैसा कि शास्त्रों में लिखा है। पर अगर भौतिक आकाश में भी ऐसा भ्रमपूर्ण गढ्ढा बनता है, तब तो सभी पदार्थ और यहां तक कि प्रकाश भी भ्रमित होकर उसमें गिर जाते हैं। जीवात्मा रूपी गड्ढे में भी तो बाहर की दुनिया गिरती रहती है, बेशक सूक्ष्म रूप में। विभिन्न इंद्रियां बाहर से विभिन्न सूचनाएं इकट्ठा करके जीवात्मा का प्रभाव बढ़ाती रहती हैं। बेशक ब्लैकहोल जीवात्मा की तरह भ्रम को महसूस नहीं करते। अंधेरे कुएं की तरफ हरकोई गिरता है, बेशक गिरने वाला महसूस करे या न। अब ये पता नहीं, उस गड्ढे को क्या चीज़ रेखांकित करती है। हो सकता है, आकाश की आभासी अर्थात वर्चुअल तरंग हो। जैसे चादर धागे की बनी है, इसी तरह आकाश भी आभासी धागों या तरंगों से भरा हुआ है। चादर के गड्ढे की खाली जगह में हवा भर जाती है, जो धागे जितनी घनी नहीं है, इसलिए चादर पर रखी गेंद उसके गड्ढे की तरफ़ लुढ़कती है। इसी तरह भारी पिंड के वजन से आकाश के आभासी तानेबाने में गड्ढा बन जाता है। उस गड्ढे की खाली जगह में बाहर के अटूट आकाश की तुलना में कम घना आभासी तानाबाना बुना होता है। इसीलिए आसपास के अन्य छोटे पिंड उस गड्ढे की तरफ़ लुढ़कते हैं, पर हमें ऐसा लगता है कि बड़ा पिंड छोटे पिंड को गुरुत्व बल से अपनी तरफ खींच रहा है। यह ऐसे ही है जैसे हवा उच्च दाब वाले क्षेत्र से निम्न दाब वाले क्षेत्र की तरफ़ बहती है। शून्य आकाश वही एकमात्र है, पर आभासी तरंगों के कारण उसमें आभासी गड्ढा बन जाता है। इसका मतलब है कि अंतरिक्ष में हर समय बनने वाली आभासी तरंगें व कण वस्तुओं पर दबाव डालते हैं। केसीमिर इफेक्ट के प्रयोग में यह सिद्ध भी किया गया है। संभवतः यह दबाव भी पिंडों को आकाश में बने गड्ढों की तरफ़ धकेलने में मदद करता है, जिसे गुरुत्वाकर्षण कहते हैं।
आदमी दरअसल विशेष किस्म का आकाश है। उसका शरीर तो केवल उस आभासी आकाश का निर्माण करने वाली मशीन है, ब्लैकहोल की तरह। आकाश में सदैव आभासी तरंगे बनती, मिटती रहती हैं, पर उन्हें कोई भी, परमात्मा भी अनुभव नहीं करता, ऐसे ही जैसे समुद्र अपनी तरंगों को महसूस नहीं करता। यह समुद्र और उसकी तरंग का उदाहरण शास्त्रों में अनेक स्थानों पर मिलता है। मस्तिष्क भी उसमें वैसी ही आभासी तरंगें बनाता है, पर उसे जीवात्मा अनुभव करता है, और भ्रम में पड़कर अपने पूर्ण परमात्माकाश रूप को भूलकर जीवात्माकाश बन जाता है। इसे ब्लैकहोल की तरह आकाश में अनंत गड्ढा मान लो।
ऐसा लगता है कि फिर ब्लैकहोल के आकाश में ब्रह्मांड नहीं बनेगा। क्योंकि वह आभासी तरंगों का जाल तो बाहरी मूल आकाश में है जिससे पदार्थ बनते हैं, वह ब्लैकहोल में नहीं है या कम है। पर ब्लैकहोल के आकाश में तारे का द्रव्यमान भी एनकोडिड है, शायद डार्क एनर्जी या डार्क मैटर के रूप में। वह नया ब्रह्माण्ड बनाता हो। या ब्लैकहोल के आकाश में दूसरे व हल्के किस्म की आभासी तरंगें पैदा हो जाती हों जो पदार्थ व ब्रह्माण्ड बनाती हों। फिर उसमें भी कभी ब्लैकहोल बनेगा। जो फिर से नया ब्रह्माण्ड बनाएगा। यह सिलसिला पता नहीं कहां रुकेगा। कुंडलिनी योग से तो सिलसिला जल्दी ही रुक जाता है। योगवासिष्ठ में संकल्पपुरुष शब्द कई जगह लिखा आता है। शायद यह आदमी के लिए कहा गया है कि वह ब्रह्मा के मन के संकल्प या स्वप्न का आदमी है, असली नहीं। इसी तरह आदमी जब किसी देवता, गुरु आदि का ध्यान करता है, तो वह उसका संकल्पपुरुष बन जाता है। पर क्या वह संकल्पपुरुष अपना पृथक अस्तित्व महसूस करता है हमारी तरह, यह विचारणीय है। कई सभ्यताओं में मान्यता है कि जबतक किसी पूर्वज को उसके वंशजों द्वारा याद किया जाता है और श्राद्ध आदि धार्मिक समारोहों के माध्यम से पूजा जाता है, वह तब तक स्वर्ग में निवास करता है। इस पर कोको नाम की बेहतरीन एनिमेशन फिल्म भी बनी है। इसका मतलब है कि हम ध्यान से नया अस्तित्व तो नहीं बना सकते, पर यदि पूर्वनिर्मित अस्तित्व का ध्यान करते हैं, तो उसे उससे पोषण प्राप्त होता है। फिर तो यह भी हो सकता है कि एक उच्च कोटि का योगी ब्रह्मा की तरह अपने मन से नए मनुष्य की रचना कर दे। शास्त्रों में ऐसी बहुत सी कथाएं आती हैं। एक ऋषि ने तो अपने विवाहोत्तर विहार के लिए मनोवांछित दुनियावी साजोसामान और प्राकृतिक नजारे अपनी योगशक्ति से पैदा कर दिए थे। यह तो ऐसे ही है जैसे ब्लैकहोल में बिल्कुल अपने पितृ ब्रह्मांड के जैसा एक अन्य ब्रह्मांड का निर्माण होता है। अगर शास्त्रों का संकल्पपुरुष संभव है, तब तो ब्लैकहोल के अंदर ब्रह्मांड की उत्पत्ति भी संभव है।
ब्लैकहोल इसीलिए तो गड्ढा है, क्योंकि वह मूल आकाश की आभासी तरंगों से रहित मतलब खाली है। मतलब बेशक मूल आकाश में ही है, पर खाली है, अर्थात उसकी सृष्टि से अछूता है।हालाँकि, मूल आकाश की आभासी तरंगें अभी भी अपने मूल स्थान पर हैं, लेकिन इसके ऊपर एक नया आकाश भी बन गया है, पर वह मूल आकाश की आभासी तरंगों के प्रभाव से रहित है। यह कैसे हो सकता है। सीधे शब्दों में कहें तो यह केवल एक और एक ही आकाश है, लेकिन इसके अनगिनत रूप एक ही समय में आभासी तरंगों की विविधता के रूप में मौजूद हैं। अद्भुत मामला है। मैं पिछली एक पोस्ट में भी बता रहा था कि एक ही अनन्त आकाश में एक ही स्थान पर अनगिनत ब्रह्माण्ड हो सकते हैं। संभवतः उन सभी की आभासी तरंगें एकदूसरे से अप्रभावित रहती हों। आत्मा के मामले में भी ऐसा ही होता है। एक ही अनंत अंतरिक्ष में असंख्य आत्माएं अर्थात अलग-अलग जीवों के अपनेअपने अनंत अंतरिक्ष हैं, जो विचारों के रूप में एक-दूसरे की आभासी और सूक्ष्म सृष्टिरचनाओं अर्थात ब्रह्मांडों को नोटिस नहीं कर पाते अर्थात उन्हें प्रभावित नहीं कर पाते। जीवों के मामले में तो सभी जीवों की आभासी तरंगें एकसमान स्वभाव की हैं, फिर भी वे एकदूसरे की पहुंच से परे हैं, शायद स्थूल ब्रह्मांडों के मामले में भी ऐसा ही हो, मतलब वर्चुअल तरंगें एकसमान किस्म की हैं, पर एक ही स्थान पर एक ब्रह्मांड अन्य सभी ब्रह्मांडों से पूरी तरह अप्रभावित और कटा हुआ है। दिवंगत जीवात्मा में सबकुछ सूक्ष्म मतलब अनभिव्यक्त रूप में रहता है, इसलिए उसमें अंधेरा है। ब्लैकहोल में भी इसीलिए अंधेरा है। संभवतः यह अंधकारमय अनुभूति ही श्याम ऊर्जा अर्थात डार्क एनर्जी है, कोई भौतिक वस्तु नहीं। इसीलिए ऐसा प्रतीत होता है कि यही तथाकथित सबसे छोटी भौतिक इकाई अर्थात सिंगुलैरिटी अर्थात ओम है। डार्क मैटर कहना ज्यादा बेहतर होगा, क्योंकि इसका द्रव्यमान है, जिसमें गुरुत्व बल है। मुझे तो लगता है कि दोनों एक ही चीज़ है, कभी यह एनर्जी के रूप में व्यवहार करती है, तो कभी मैटर के रूप में, ऐसे ही जैसे आदमी के मन का अंधेरा कभी शांत, हल्का और आनंदप्रद सा प्रतीत होता है, तो कभी घना, भारी और दुखप्रद सा। पहले किस्म के अंधेरे से आदमी योग आदि की तरफ़ मुड़कर दुनिया से दूर भागने की कोशिश करता है, पर दूसरे किस्म के अंधेरे से दुनियादारी को अपनी तरफ आकृष्ट करता है। योग की यह विशेष खासियत है कि यह डार्क मैटर को हल्का करके डार्क एनर्जी में परिवर्तित करने की कोशिश करता है। यह ऐसे ही है, जेसे डार्क एनर्जी में धकेलने का गुण होता है, पर डार्क मैटर में आकर्षित करने का। इसका वर्णन हमें शास्त्रों में मिलता है जब कोई एक ऋषि से पूछता है कि प्रलय के बाद सृष्टि कैसी होती है, तो ऋषि कहते हैं कि इतना घनीभूत अंधेरा होता है कि अगर कोई चाहे तो उसे मुट्ठी में भर ले। यह डार्क मैटर की बात हो रही है, क्योंकि पदार्थ ही मुट्ठी में भरा जा सकता है, खाली आसमान नहीं। मुझे तो लगता है कि बेशक यह साधारण पदार्थ नहीं होता पर उसके जैसा सॉलिड महसूस होता है, वैसे ही जैसे क्वांटम कण दरअसल पदार्थ नहीं तरंगरूप होते हैं, पर पदार्थ के जैसा व्यवहार भी करते हैं।

चंद्रयान-3 प्रक्षेपण हेतु शुभकामनाएं

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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