दोस्तो, शरीरविज्ञान दर्शन के ध्यान से दुनियादारी डिसोल्व नहीं बल्कि मॉडरेट होती है, जिससे उत्तम कर्मयोग पैदा होता है। जबकि ऐसी भावना से कि दुनियादारी सत्य या बाहर नहीं पर असत्य या शरीर के अंदर है, उससे सन्यास योग पैदा होता है।
इससे दुनियादारी का लय होता है। शरीरविज्ञान दर्शन से यह भावना रहती है कि दुनियादारी सत्य है और बिल्कुल वैसी ही शरीर के अंदर भी विद्यमान है। क्योंकि शरीर के अंदर सब कुछ शांत है। कहीं चीख-पुकार नहीं है। जबकि शरीर के अंदर पूरा ब्रह्मांड समाया हुआ है, “यत्पिंडे तत् ब्रह्मांडे” के अनुसार। इसका मतलब है कि शरीर के अंदर की दुनियादारी अद्वैत के साथ है। इस भावना से हमारी दुनियादारी भी अद्वैतशील, ज्ञानवान और उत्तम बन जाती है। दुनियादारी नष्ट या लय को प्राप्त नहीं होती। यह बहुत बड़ा अंतर है कर्म योगी और सन्यासयोगी में। इसको लेकर कुछ लोग धोखे में आ जाते हैं। वे कर्मयोगी या शरीरविज्ञान दार्शनिक को बाबा या संन्यासी किस्म का मानने लगते हैं, और कई बार उसे परेशान या नजरअंदाज जैसा करने की कोशिश भी करने लगते हैं। पर जब देशकाल के अनुसार वह मिसाल पेश करता है, तो बड़े से बड़े भी देखते ही रह जाते हैं। शायद इसी से यह मशहूर पंजाबी कहावत बनी है कि तेल देखो और तेल की धार देखो। मतलब शरीर देखो और इसमें गिर रही अनंत ब्रह्मांड की चेतना देखो। कर्मयोगी में समय और स्थान के अनुसार कार्य करने की अंतर्निहित आदत होती है। उसकी किसी भी कर्म के प्रति न तो आदरबुद्धि होती है और न ही उपेक्षा बुद्धि। वह जो कुछ भी करता है, उसे विस्तार, गुणवत्ता और नायाब या उदाहरणीय तरीके से करता है। वह काम को चरम तक पहुंचाता है और अगर वह काम करने लायक हो तो उसे बीच में बोर होकर नहीं छोड़ता। वह एक वैज्ञानिक, विशेषज्ञ, लेखक, कवि, संगीतज्ञ किस्म का आदमी होता है। और तो और, मुझे तो दुनिया के सभी विशिष्ट काम कर्मयोग की देन लगते हैं। तो हम क्या कह रहे थे कि शरीर के ध्यान से ही कर्म योग होता है, और शरीर के ध्यान से ही संन्यास योग होता है। सिर्फ इस ध्यान से जुड़ी उपरोक्त धारणा में अंतर है। शरीर पर सबसे अच्छा ध्यान कुंडलिनी योग के दौरान ही जाता है। उपरोक्त शरीरविज्ञान दर्शन की धारणा से वही शरीरध्यान कर्मयोग में बदल जाता है, और संन्यास की धारणा से वही शरीरध्यान संन्यासयोग में बदल जाता है। कर्मयोग ही मध्य मार्ग है। आम लौकिक व्यवहार अति प्रवृत्तिपरक होता है। जबकि संन्यास योग अति पलायनवादी जैसा होता है। कर्मयोग ही युक्तियुक्त प्रवृत्ति और युक्तियुक्त पलायन के सर्वोत्तम मिश्रण वाला जीवन व्यवहार होता है। हां, एक बात और। सांस पे ध्यान देने से भी शरीर पर ही ध्यान जाता है, क्योंकि सांस से पूरा शरीर हिलता है। इससे भी वही शरीरविज्ञान दर्शन वाला प्रभाव पैदा होता है। पूरा शरीर दरअसल सांस में ही स्थित है, क्योंकि यह सांस से ही सत्तावान और जीवित है। मतलब पूरा ब्रह्मांड सांस के अंदर बसा हुआ है।