कुण्डलिनी योगी एक सच्चे क्वांटम वैज्ञानिक जैसा होता है, जो सूक्ष्म भौतिक दुनिया का मास्टर होता है

कुण्डलिनी योग ही आदमी की सीखने की और आगे बढ़ने की जिज्ञासा को पूरा कर सकता है

दोस्तों मैं पिछली पोस्ट में आत्मा की अंतरिक्ष-रूपता के बारे में बता रहा था। व्यवहार में देखने में आता है कि हरेक चीज नीचे से नीचे टूटती रहती है। अंत में सबसे छोटी चीज भी बनेगी जो नहीं टूटेगी। वह आकाश ही है। फिर सृष्टि के आरम्भ में पुनः जब इससे चीज बननी शुरु होएगी और पहली चीज बनेगी वह आकाश में आभासी तरंग ही होगी क्योंकि आकाश के इलावा कुछ भी नहीं था। इसके लिए एक ही तरीका है कि रनिंग या स्टेंडिंग वेव बना कर तरंग या कण जैसा दिखा दिया जाए। वैसे भी तरंग को कण के रूप में दिखा सकते हैं, कण को तरंग के रूप में नहीं। इससे भी सिद्ध होता है कि जगत का तरंग रूप ही सत्य है, कण या भौतिक रूप कल्पित व अवास्तविक है, जैसा शास्त्रों में हर जगह कहा गया है। मैं पिछली पोस्ट में भी बता रहा था कि जब मीडियम और पार्टिकल एक ही चीज हो और कण मीडियम के इलावा अन्य कुछ न हो तो पार्टिकल को भी वेव ही बोलेगे। हवा के अंदर पानी का कण बन सकता है, पर पानी के अंदर पानी का कण कैसे बन सकता है। एक ही तरीका है कि आभासी रनिंग या स्टेंडिंग वेव बना कर कण जैसा दिखा दिया जाए। इसलिए शास्त्रों में उस चिदाकाश अर्थात चेतन आकाश को नेति-नेति कह कर पुकारा गया है। नेति शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, न और इति। न का मतलब नहीं, और इति का मतलब यह है। इसलिए नेति का मतलब हुआ, यह नहीं, मतलब यह परमात्मा नहीं है। जो भी दिखेगा, वह नेति ही माना जाएगा। सभी मूलकणों को भी नेति ही माना जाएगा, जब तक जो भी मिलते जाएंगे। अंत में जो अदृष्य जैसा काला आसमान बचेगा, वह भी नेति ही होगा। वह इसलिए क्योंकि उसे भी हम अन्य रूप में देख पा रहे हैं या जान पा रहे हैं। यदि काला या अचेतन आसमान अपने आप के रूप में अनुभव हो तो यह आत्मा नहीं है, क्योंकि अँधेरे आसमान में प्रकाशमान जगतरूपी तरंगें पैदा नहीं हो सकतीं। तरंग और तरंग का आधार एकदूसरे से अलग नहीं हो सकते जैसे तरंग सागर से अलग नहीं। इसलिए वही अपनी आत्मा का असली अनुभव हैं, जिसमें जगतरूपी विचार, दृश्य आदि तरंग की तरह अपृथक दिखें। किसी भी तरह का कोई भी विचार या भाव नेति ही माना जाएगा। अंत में ऐसा तत्त्व बचेगा, जिसकी तरफ हम इशारा नहीं कर पाएंगे, मतलब वह हमारा अपना आत्मरूप होएगा। क्योंकि हम उसे इति अर्थात यह कहकर सम्बोधित नहीं कर पाएंगे, इसलिए वह नेति भी नहीं हो सकता। नेति वही हो सकता है, जिसे हम इति कह पाते हैं। यह कुण्डलिनी जागरण के दौरान अनुभव होता है। अर्थात एक मानसिक अनुभूति में स्थित प्रकाश और चेतना उसके अनंत सागर के भीतर एक छोटी सी लहर है, असंबद्ध आधार माध्यम के अंदर एक कण के रूप में नहीं, भौतिक प्रयोगों और जागृति के अनुभवों के अनुसार। दोनों इसको पूरी तरह से साबित करने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं। हालांकि अधिक दार्शनिकों और बुद्धिजीवियों के लिए जागृति का आंतरिक अनुभव ही काफी है। इससे बड़ा क्या प्रमाण होगा परमात्मा के बारे में। इसीलिए कहते हैं कि मौन ही ब्रह्म है। अधिकांश वैज्ञानिक व आधुनिकतावादी जो सोचते हैं कि फलां कण मिलेगा या फलां बल का पता चलेगा या फलां थ्योरी सिद्ध होएगी तो सम्भवतः ब्रह्माण्ड के सभी रहस्यों से पर्दा उठ जाएगा। पर ऐसा सच नहीं है। जो भी मिलेगा वह इति ही होगा, इसलिए नेति के दायरे में आएगा। कुछ न कुछ हमेशा बचा रहेगा ढूंढने को। मतलब सृष्टि के मूल का पता नहीं चलेगा। परम मूल मतलब परम आत्मा का पता तभी चलेगा जब कोई इति अर्थात अपने से अलग चीज न मिलकर अपना आत्म रूप महसूस होएगा। यह कुण्डलिनी योग से ही संभव है। इससे सिद्ध होता है कि कुण्डलिनी योग से ही सृष्टि के सभी रहस्यों से पर्दा उठ सकता है और वही आदमी की सीखने की और आगे बढ़ने की जिज्ञासा को पूरा कर सकता है। वही एक लम्बे अरसे की मानसिक प्यास बुझा सकता है।

जितने जीव उतने यूनिवर्स मतलब मल्टीवर्स

ब्रह्माण्ड तो चिदाकाश के अंदर विकाररहित तरंग की तरह है। यह बिल्कुल शुद्ध है ब्रह्म की तरह। जल और जलतरंग के बीच क्या अंतर हो सकता है। पर आदमी अपनी भावनाओं, मान्यताओं, व विचारों के साथ इसे रंग देता है। इसलिए यह ब्रह्माण्ड हरेक आदमी या जीव के लिए अलग है। इसीलिए कहते हैं कि सृष्टि बाहर कहीं नहीं, यह सिर्फ आदमी के मन की उपज है। यह बात पूरे योगवासिष्ठ ग्रंथ में अनेकों कहानियों और उदाहरणों से स्पष्ट की गई है। इसे ही हम मल्टीवर्स भी कह सकते हैं। कुण्डलिनी योग से जब मन की सोच व भावनाएँ शुद्ध होने से मन की चंचलता का शोर शांत हो जाता है, मतलब उनके प्रति आसक्ति नष्ट हो जाती है, तभी असली माने ओरिजिनल ब्रह्मरूपी ब्रह्माण्ड का अनुभव होता है, जिससे आदमी आत्मसंतुष्ट सा रहने लगता है । कुण्डलिनी ही अद्वैत है। अद्वैत ही जगत की सभी चीजों को एक जैसा व आत्म-आकाश में तरंग की तरह देखना है। क्वांटम वैज्ञानिक भी सूक्ष्म पदार्थों को इसी तरह अंतरिक्ष से अभिन्न, तरंगरूप व एकरूप देखता है। इलेक्ट्रोन तरंग और फोटोन तरंग अर्थात प्रकाश तरंग एक जैसी ही हैं। कण रूप में ही दोनों अलग-अलग दिखते हैं। मतलब कि तरंग-दृष्टि ही सत्य व अद्वैतपूर्ण है, जबकि कण-दृष्टि ही असत्य व द्वैतपूर्ण है। स्थूल जगत में भी सत्य दृष्टि यही तरंगदृष्टि है, क्योंकि सूक्ष्म पदार्थ ही आपस में जुड़कर स्थूल जगत का निर्माण करते हैं। कण वाली द्वैतपूर्ण दृष्टि मिथ्या, भ्रम से भरी, दुनिया में भटकाने वाली व दुःख देने वाली है, और यह आसक्ति के साथ दुनिया को देखने से पैदा होती है। यह ऐसे ही है जैसे अगर डबल स्लिट एक्सपेरिमेंट में मूलकणों को देखने की कोशिश करें, तो वे कण की तरह व्यवहार करते हैं, अन्यथा अपने असली तरंग के रूप में होते हैं। डबल मजा लेना हो तो डबल स्लिट के पास खड़े होकर कभी उसे तिरछी नजर से तनिक देख लो और कभी शर्मा कर मुंह फेर लो। हहा।

एक ही स्थान पर अनगिनत ब्रह्मान्डों मतलब पैरालेल यूनिवर्स का अस्तित्व

अनगिनत आयामों का अस्तित्व

क्योंकि भौतिक संसार अंतरिक्ष के अंदर एक आभासी तरंग है, इसलिए एक ही स्थान पर अनगिनत किस्म की आभासी तरंगें बन सकती हैं। हो सकता है कि एक किस्म की तरंग दूसरे किस्म की तरंग से बिल्कुल भी प्रतिक्रिया न करे। फिर तो एक ही स्थान पर एकसाथ अनगिनत स्वतंत्र ब्रह्माण्ड स्थित हो सकते हैं। इससे हो सकता है कि जहाँ मैं इस समय बैठा हूँ, बिल्कुल वहीं पर मतलब मेरे द्वारा घेरे हुए स्थान में ही ब्रह्माण्ड की सभी चीजें और ब्रह्माण्ड के सभी क्रियाकलाप मौजूद हों, क्योंकि किसी आयाम के ब्रह्माण्ड में कुछ होगा, तो किसी में कुछ, इस तरह अनगिनत ब्रह्मान्डों में सबकुछ कवर हो जाएगा। ऐसा भी हो सकता है कि इसी स्थान पर भरेपूरे अनगिनत ब्रह्माण्ड मौजूद हों, क्योंकि छोटा-बड़ा भी सापेक्ष ही होता है, वास्तविक नहीं। इसका मतलब है कि इस तरह से असंख्य आयामों का अस्तित्व है। उन्हें हम कभी जान ही नहीं सकते, क्योंकि जिस आभासी तरंग के आयाम में हमारा ब्रह्माण्ड स्थित है, वह दूसरे किस्म की आभासी तरंगों से निर्मित आयामों से बिल्कुल भी प्रभावित नहीं होगा। हो सकता है कि जो ग्रेट अट्रेक्टर माने महान आकर्षक बल ब्रह्माण्ड को गुब्बारे की तरह फुला रहा है, वह अज्ञात आयामों वाले अनगिनत व भारीभरकम ब्रह्मान्डों के रूप में हों। हम उसे अंतरिक्ष की इन्हेरेंट माने स्वाभाविक गुरुत्वाकर्षण शक्ति मान रहे हों, जबकि वह अदृष्य ब्रह्मान्डों से निर्मित हो रही हो।

पदार्थ के ड्यूल नेचर होने का व्यक्तिगत अनुभव रूपी वैज्ञानिक प्रयोग

एकबार मेरे हाथ पर आसमानी बिजली गिरने की एक चिंगारी टकराई थी। मुझे ऐसे महसूस हुआ कि किसी ने जोर से एक पत्थर मेरे हाथ की पिछली सतह पर मारा हो। यहाँ तक कि मैं इधरउधर देखने लगा कि किसने पत्थर मारा था। वह बिजली का चक्र लगभग दस मीटर दूर एक लोहे की चद्दर पर गिरा था जिसके आसपास बच्चे भी खेल रहे थे पर वे सौभाग्यवश सुरक्षित बच गए। अद्भुत बात कि उस लोहे की चद्दर पर खरोच तक नहीं आई थी, वह बिल्कुल पहले की तरह थी। कोई चीज वगैरह टकराने की भी कोई आवाज नहीं हुई। इसका मतलब है कि पदार्थ के मूल कण इलेक्ट्रोन ने मेरे हाथ पर कण की तरह व्यवहार किया, जबकि उसीने लोहे की चद्दर के ऊपर तरंग के रूप में व्यवहार किया। फोटोइलेक्ट्रीक इफेक्ट व डबल स्लिट एक्सपेरिमेंट तो बेजान पदार्थों वाला प्रयोग था, पर यह प्रयोग मैंने अपने जिन्दा शरीर के ऊपर महसूस किया। आपने भी देखा होगा कि कैसे आसमानी बिजली गिरने से पूरी इमारत धराशायी हो जाती है, या उसके छत पर बड़ा सा छेद हो जाता है, ऊँचे पेड़ की काफी लकड़ी बीच में से छिल जाती है, या पूरा पेड़ बीच में से टूट कर दो हिस्सों में बंट जाता है। इसे संस्कृत में वज्रपात कहते हैं, मतलब एक लोहे के जैसे गोले का आसमान से गिरना, जैसे कोई बम गिरता है। इसका मतलब है कि पुराने समय के लोगों को इलेक्ट्रोन-तरंग के कण-प्रभाव का ज्ञान था। हिमाचल प्रदेश के कुल्लूमें एक बिजली महादेव मंदिर है। इसमें स्थित पत्थर के शिवलिंग पर हर साल एकबार बिजली गिरती है, जिससे यह दो टुकड़ों में बंट जाता है। फिर उन दोनों टुकड़ों को मंदिर के पुजारियों के द्वारा मक्खन से जोड़ दिया जाता है। यह भी तो इलेक्ट्रोन का कण-रूप ही है। मूलकण इतना सूक्ष्म होता है कि लार्ज हैडरोन कोलायडर में उसका अंदाजा अप्रत्यक्ष रूप से उसके टकराने से हुए प्रभाव को मापकर लगाया जाता है, वैसे ही जैसे मेरे हाथ पर उसने टकराने की संवेदना पैदा की, प्रत्यक्ष रूप से तो उसे कभी नहीं जाना जा सकता, देखा जाना तो दूर की बात है।

कुण्डलिनी योग ही भगवान विष्णु के वराह अवतार के रूपक के रूप में वर्णित किया गया है

दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में नाक व इड़ापिंगला से जुड़े कुछ आध्यात्मिक रहस्य साझा कर रहा था। इसी से जुड़ी एक पौराणिक कथा का स्मरण हो आया तो सोचा कि इस पोस्ट में उसका योग आधारित रहस्योद्घाटन करने की कोशिश करते हैं। कहते हैं कि पुराने युग में राक्षस हिरण्याक्ष धरती को चुरा के ले गया था और उसे समुद्र के अंदर गहराई में छिपा दिया था। इससे सभी देवता परेशान होकर ब्रह्मा को साथ लेकर भगवान विष्णु के पास गए और उनसे सहायता का वचन प्राप्त किया। तभी ब्रह्मा की नाक से एक छोटा सा सूअर निकला। दरअसल भगवान विष्णु ने ही उस वराह का रूप धारण किया हुआ था। वह देखते ही देखते बड़ा होकर समुद्र में घुस गया। वहाँ उसने गहराई में छुपे दैत्य हिरण्याक्ष को देख लिया और उससे युद्ध करने लगा। देखते ही देखते उसने हिरण्याक्ष को मार दिया और वेदों समेत धरती को अपने मुंह के दोनों किनारों वाली लंबी और पैनी दो दाढ़ें आगे करके उन पर गोल धरती को बराबर संतुलित करके टिका दिया। फिर वे समुद्र के ऊपर आए और उन्होंने धरती को यथास्थान स्थापित कर दिया। फिर भी वराह भगवान शांत नहीं हो रहे थे। उनको भगवान शिव ने एक अवतार लेकर शांत किया।

वराह अवतार कथा का योग आधारित रहस्यात्मक विश्लेषण

नासिका पर और विशेषकर नासिका से अंदरबाहर आतीजाती साँस पर ध्यान देने से शक्ति केंद्रीय रेखा में सुषुम्ना नाड़ी की सीध में आ जाती है। कहते हैं कि नासिका से बाहर जाती साँस से होकर ही वराह बाहर निकला। बाहर जाती साँस पर ध्यान देने से शक्ति आगे वाले चैनल से नीचे उतरती है, और सभी चक्रोँ को भेदते हुए मूलाधार में पहुंच जाती है। यही वराह का समुद्र के नीचे पाताल लोक में पहुंचना है। अगर उसे पाताल लोक की बजाय समुद्र ही मानें तो भी संसार सागर का सबसे निचला पायदान मूलाधार ही है, क्योंकि विभिन्न चक्रोँ में ही सारा संसार बसा हुआ है। सम्भवतः इसलिए भी समुद्र कहा गया हो क्योंकि वीर्यरूपी जल के भंडार मूलाधार क्षेत्र के अंतर्गत ही आते हैं, जिसमें सारा संसार के रूप में दबा सा पड़ा होता है। हिरण्याक्ष का मतलब द्वैतभाव रूपी अज्ञान। हिरण्य मतलब सोना, अक्ष मतलब आंख। जिसकी नजर में सुवर्ण अर्थात समृद्धि के प्रति आदरभाव है, और उसके पीछे द्वैत भाव से अंधा सा होकर पड़ा हुआ है, वही हिरण्याक्ष है। उससे कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार के अँधेरे में छुप अर्थात सो जाती है। मतलब जो मन के विचारों की शक्ति है, वह अवचेतन विचारों के रूप में अव्यक्त होकर मूलाधार में दब जैसी जाती है। यही तो कुंडलिनी है। उस मानसिक संसार के साथ वेद भी मूलाधार में दब जाते हैं, क्योंकि शुद्ध व सत्त्वगुणी आचार-विचार ही तो वेदों के रूप में हैं। शक्ति मूलाधार पर पहुँचने के बाद पीठ से होते हुए वापिस ऊपर मुड़ने लगती है। शक्ति इड़ा और पिंगला, ज्यादातर इड़ा नाड़ी से ऊपर चढ़ने की कोशिश करती है, क्योंकि इसमें अवरोध कम होता है। कई बार शक्ति इड़ा और पिंगला में कुछ क्षणों के लिए प्रत्येक में बारीबारी से झूलने लगती है। ऐसे में आज्ञा चक्र पर भी ध्यान बनाकर रखने से शक्ति बीचबीच में कुछ क्षणों के लिए सुषुम्ना में भी ठहरती रहती है। इड़ा और पिंगला ही वराह के मुंह के दोनों किनारों वाले दो नुकीले दाँत हैं। सुषुम्ना नाड़ी या आज्ञा चक्र ही उन दोनों दांतों के ऊपर संतुलित करके रखी हुई गोल पृथ्वी है। चक्र भी गोल ही होता है। सुषुम्ना को पृथ्वी इसलिए कहा गया है क्योंकि दुनिया के सारे अनुभव मस्तिष्क में ही होते हैं, बाहर कहीं नहीं, और सुषुम्ना नाड़ी से होकर ही मस्तिष्क को शक्ति संप्रेषित होती है। वराह कुण्डलिनी-पुरुष अर्थात ध्यान-छवि है। यह भगवान विष्णु का ध्यान ही है। उसको भी विष्णु की तरह ही शंख, चक्र, गदा, पद्म के साथ चतुर्भुज रूप में दिखाया गया है।इसीलिए कहा है कि भगवान विष्णु ने वराह रूप में अवतार लिया। रूपक के लिए वराह को इसलिए भी चुना गया है क्योंकि सूअर ही जमीन को खोदकर गहराई में भोजन के रूप में छिपी अपनी शक्ति की तलाश करता रहता है। सूअर को पृथ्वी इसीलिए प्यारी होती है। इसीलिए उसे लाने वह समुद्र में भी घुस जाता है। मूलाधार में सोई हुई या दबी हुई धरती अर्थात मन रूपी शक्ति को पाने के लिए वह इड़ा और पिंगला रूपी दांतों के साथ उस शक्ति को वहाँ पर टटोलता और खोदता है। फिर उसको सुषुम्ना रूपी संतुलन देकर जल के बाहर ले आता है, और उसे अपने पूर्ववत असली स्थान पर स्थापित कर देता है। जल से बाहर ले आता है माने नाड़ी के शिखर पर उससे बाहर सहस्रार में पहुंचा देता है, क्योंकि नाड़ी भी जल की तरह ही बहती है। उसका असली स्थान मस्तिष्क का सहस्रार ही है, क्योंकि वही सभी अनुभवों का केंद्र है। सुषुम्ना नाड़ी भी सीधी मूलाधार से सहस्रार को जाती है। इससे अवचेतन मन में दबे हुए विचार फिर से अनुभव में आने लगते हैं, और आनंदमयी शून्य-आत्मा में विलीन होने लगते हैं। मतलब अवचेतन विचारों के रूप में सोई हुई शक्ति जागने लगती है। यह विपासना ही तो है। विपासना मस्तिष्क के किसी भी हिस्से में हो सकती है, सहस्रार को छोड़कर, क्योंकि इसके लिए कम शक्ति चाहिए होती है। होती सहस्रार में ही है, पर कम ऊर्जा के कारण बाहर जान पड़ती है। जिस विचार में जितनी कम शक्ति होती है, वह सहस्रार से उतना ही दूर प्रतीत होता है। वैसे भी आत्मा का स्थान सहस्रार में ही बताया गया है। सहस्रार में केवल कुण्डलिनी चित्र का ही ध्यान किया जाता है, जोकि किसी मूर्ति या गुरु या पारलौकिक देह आदि के रूप में होता है। यह चित्र लगभग असली भौतिक रूप की तरह महसूस होता है अभ्यास से, इसीलिए इसके लिए विपासना की अपेक्षा काफी ज्यादा शक्ति लगती है। यदि कोई किसी आम लौकिक आदमी या औरत के रूप की छवि को सहस्रार में जागृत करने लगे, तब तो वह रात को ही नींद में चलता हुआ उसके पास पहुंच जाएगा। तब ध्यान कैसे होगा। फिर सभी देवता और ऋषिगण प्रसन्न होकर वराह भगवान की हाथ जोड़कर स्तुति करते हैं। वैसे भी इन सभी का उद्देष्य जीवमात्र को जन्ममरण रूपी दुःख से दूर करना ही है, जो सहस्रार चक्र में ही संभव है, इसीलिए खुश होते हैं। शिवजी के द्वारा वराह को शांत करने या मारने का मतलब है कि योगी कुण्डलिनी का भी मोह छोड़कर शिव के जैसा अद्वैतवान तांत्रिक बन गया। वैसे भी सिद्धांत यही है कि ज्ञान अर्थात कुण्डलिनी जागरण होने के बाद या वैसे भी अद्वैतमय तंत्र ही सर्वोच्च समझ अर्थात सुप्रीम अंडरस्टेंडिंग है, जिसे ओशो महाराज भी अपनी एक पुस्तक ‘tantra- a supreme understanding’ के रूप में दुनिया के सामने स्पष्ट करते हैं।

कुण्डलिनी ध्यान योग में विपासना अर्थात साक्षीभाव साधना का अत्यधिक महत्त्व है

विपासना साधना के लिए अति उपयोगी प्राणायाम कपालभाति

पिछली से पिछली पोस्ट में ही मैं विपासना के बारे में भी बता रहा था। मेरे अनुभव के अनुसार कपालभाति प्राणायाम भी विपासना में बहुत मदद करता है। सिर्फ सांस को बाहर ही धकेलना है। अंदर जैसी जाती हो, जाने दो। अपने को थकान न होने दो। तनावरहित बने रहो। जो रंगबिरंगे विचार उमड़ रहे हों, उन्हें उमड़ने दो। जो पुरानी यादें आ रही हों, उन्हें आने दो। वे खुद शून्य आत्मा में विलीन होती जाएंगी। दरअसल ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि मस्तिष्क में बिना किसी भौतिक वस्तुओं की सहायता के उनके प्रकट होने से आदमी को यह पता चल जाता है कि वे असत्य व आकाश की तरह सूक्ष्म हैं, पर भौतिक संसार के सम्पर्क में आने से भ्रम से सत्य व स्थूल जान पड़ते हैं। विपासना का सिद्धांत भी यही है। इसीलिए शास्त्रों में बारबार यही कहा गया है कि संसार असत्य है। सम्भवतः यह विपासना के लिए लिखा गया है, क्योंकि जब विपासना से संसार असत्य जान पड़ता है, तब संसार को असत्य जान लेने से विपासना खुद ही हो जाएगी। कपालभाति प्राणायाम से इसलिए विपश्यना ज्यादा होती है, क्योंकि व्यस्त दैनिक व्यवहार में भी हम ऐसे ही तेजी से और झटकों से सांस लेते हैं। जैसे ही कोई विचार आता है, ऐसा लगता है कि सांस के लिए भूख बढ़ गई, और अंदर जाने वाली सांस भी गहरी, मीठी, स्वाद व तृप्त करने वाली लगती है। अगर विचार को बलपूर्वक न दबाओ, तो इससे आगे से आगे जुड़ने से विचारों की श्रृंखला बन जाती है, और लगभग सारा ही मन घड़े से बाहर आ जाता है, जिसे पिछली पोस्ट की कथा में कहा गया है कि एक घड़े से सैंकड़ो या हजारों पुत्रों ने जन्म लिया। जो विचार-चित्र पहले से ही हल्का जमा हो, वह कम उभरता है। मतलब साफ है कि आसक्ति भरे व्यवहार से ही मन में कचरा जमा होता है। उसको विपासना से बारबार बाहर निकालना मतलब कचरा साफ करना। जैसे कढ़ाई में पक्के जमे मैल को बारबार धोकर बाहर निकलना पड़ता है, वैसे ही आसक्ति वाले विचार को बारबार निकालना पड़ता है।

आदमी को घूमककड़ की तरह रहना चाहिए, क्योंकि विपश्यना साधना नए-नए स्थानों व व्यक्तियों के सम्पर्क में आने से मजबूत होती है

पिछली पोस्ट में कहे रंगारंग कार्यक्रम को देखते हुए मेरे मन में नए-पुराने विचार साक्षीभाव व आनंद के साथ उमड़ रहे थे, और आत्मा में विलीन हो रहे थे। मतलब विपश्यना साधना खुद ही हो रही थी। दरअसल वह क्षेत्र मेरे लिए खुद ही विपश्यना क्षेत्र बना था। ऐसा होता है जब किसी स्थान के साथ एक पुराना व अज्ञात सा संबंध जुड़ता है, जो अपने गृहक्षेत्र से मिलता जुलता तो है, पर वहाँ के लोग नए आदमी को अजनबी व बाहरी सा समझ कर उसके प्रति तटस्थ से रहते हैं। विरोध तो नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें भी नए व्यक्ति से अपनापन सा लगता है। इससे आदमी की शक्ति खुद ही दुappearing व रिश्तों के फालतू झमेलों से बची रहकर विपश्यना में खर्च होती रहती है। हमारे गाँव के जो देवता हैं, वे हमारे पुराने राजा हुआ करते थे। वे एकप्रकार से हमारे पूर्वज भी थे। उनके साथ हमारे पूर्वज पुरानी रियासत से नई रियासत को आए थे। नई रियासत में उन्होंने अपना घर उस जगह पर बनवाया, जहाँ से उन्हें अपनी पुरानी रियासत वाली पहाड़ी सीधे और हर समय नजर आती थी। अपने घर के ज्यादातर द्वार और खिड़कियां भी उन्होंने उसी पहाड़ी की दिशा में बनवाए थे। उनकी मृत्यु के बाद जब वहाँ उनका मंदिर बनवाया गया, तब भी उसका द्वार उसी दिशा में रखा गया। इसी तरह मेरी दादी माँ बताया करती थीं कि एक वैरागी साधु बाबा उनके गाँव में रहते थे, जो उन्हें बेटी की तरह प्यार देते थे। दादी का गाँव एक ऊँचे पहाड़ के शिखर के पास ही था। वह पहाड़ बहुत ऊँचा था, और आसपास के पहाड़ उसके सामने कहीं नहीं ठहरते थे। उस पहाड़ के शिखर पर आने का उनका मुख्य मकसद था, नीचाई पर बसे उनके अपने पुराने गांव का लगातार नजर में बने रहना, ताकि अच्छे से साधना हो पाती, और पुराने घर की याद विपासना के साथ बनी रहती अर्थात वह याद उनकी साधना में विघ्न न डालकर लाभ ही पहुंचाती। वास्तव में, दुर्भाग्य से, धीरे-धीरे उनके परिवार के सभी सदस्य विभिन्न आपदाओं से कालकवलित हो गए थे। इस वजह से ढेर सारी दौलत भी मौत की भेंट चढ़ गई थी। इससे वे संसार के मोह से बिल्कुल विरक्त हो गए थे। व्यक्तिगत संबंध के मामले में भी यही आध्यात्मिक मनोविज्ञान काम करता है। किसी व्यक्ति के प्रति आकर्षण हो पर यदि वह बाहरी व विदेशी समझ कर प्यार करने वाले को ठुकरा दे तो विपश्यना खुद ही होती रहती है। मुझे बताते हुए कोई संकोच नहीं कि इस दूसरे किस्म की व्यक्तिगत संबंध की विपशयन से मेरी नींद में जागृति में बहुत बड़ा हाथ था।

हिंदु शास्त्रीय कथाएं एकसाथ दो अर्थ लिए होती हैं, भौतिक रूप में प्रकृति संरक्षक व आध्यात्मिक रूप में मनोवैज्ञानिक

हम इस पर भी बात रहे रहे थे कि इन कथाओं को पढ़ने का पूरा मजा तब आता है जब इनके पहेली जैसे रूप के साथ असली मनोवैज्ञानिक अर्थ भी समझ में आता है। कोई यह कह सकता है कि इन कथाओं से अंधविश्वास बढ़ता है। पर इनको मानने वालों ने इनके असली या भौतिक रूप पर ज्यादा अमल नहीं किया, इन पर अटूट श्रद्धा करके इनकी दिव्यता और पारलौकिकता को बनाए रखा। इनको पवित्र व पारलौकिक कथाओं की तरह समझा, लौकिक और भौतिक नहीं। वैसे ये कथाएं ज्यादा अमानवीय भी नहीं हैं। गंगा नदी को पूजने को ही कहा है, उसे गंदा करने को तो नहीं। इससे प्रकृति के प्रति प्रेम जागता है। वैसे भी नाड़ी विशेषकर सुषुम्ना नाड़ी नदी की तरह बहती है। नदी के ध्यान से संभव है कि नाड़ी की तरफ खुद ही ध्यान चला जाए। मतलब जो भी कथाएं हैं, दोनों प्रकार से फायदा ही करती हैं, भौतिक रूप से प्रकृति का संरक्षण करती हैं, और आध्यात्मिक रूपक के रूप में आध्यात्मिक उत्थान करती हैं। कुछ गिनेचुने मामले में मानवता के अहित में प्रतीत भी हो सकती हैं, जैसे कि मनु स्मृति के कुछ वाक्यों पर आरोप लगाया जाता है। पर आरोप के जवाब में ज्यादातर उनका आध्यात्मिक या पारलौकिक अर्थ ही लगाया जाता है, भौतिक नहीं। हमने तो अपने जीवन में उनके अनुसार चलते हुए कोई देखा नहीं, सिर्फ उन पर आरोप ही लगते देखे हैं। बहुत सम्भव है कि वे वाक्य मूल ग्रंथ में नहीं थे और बाद में उनको साजिश के तहत जोड़ दिया गया हो। इसके विपरीत कुछ अन्य धर्मों में मुझे अधिकांश लोग वैसी रहस्यात्मक कथाओं पर हूबहू चलते दिखाई देते हैं, उनके विकृत जैसे भौतिक रूप में। यहाँ तक कि वे उन कथाओं के आध्यात्मिक विश्लेषण व रहस्योद्घाटन की इजाजत भी नहीं देते, और जबरदस्ती ऐसा करने वालों को जरा भी नहीं बख्शते। जेहाद, काफीरों की अकारण हत्या, जबरन धर्मान्तरण जैसे उदाहरण आज सबके सामने हैं। हमने एक पोस्ट लिखी थी, जिसमें होली स्पिरिट व कुंडलिनी के बीच में समानता को प्रदर्शित किया गया था। दो-चार लोग किसी भी वैज्ञानिक तर्क को नकारते हुए उस पोस्ट को नकारने लगे। एक जेंटलमेन तो उसे शैतान व डेमन या शत्रु की कारगुजारी बताने लगे। वे इस बात को नहीं समझ रहे थे कि वह विभिन्न धर्मों के बीच मैत्री व समानता पैदा करने का प्रयास था। वे इस वैबसाईट में दर्शाए तंत्र को ओकल्ट या भूतिया प्रेक्टिस समझ रहे थे। हमें किसी भी विषय में पूर्वाग्रह न रखकर ओपन माइंडड होना चाहिए। हिंदु दर्शन में अन्य की अपेक्षा विज्ञानवादी सोच व तर्कशीलता को ज्यादा महत्त्व दिया गया है, और जबरदस्ती अंधविश्वास को बनाए रखने को कम, जहाँ तक मैं समझता हूँ। वैसे कुछ न कुछ कमियाँ तो हर जगह ही पाई जाती हैं। साथ में वे महोदय मुझे कहते हैं कि मैं किसी धर्म वगैरह से अपनी पहचान बना कर रखता हूँ। मैं जब हिंदु हूँ तो अपने हिंदु धर्म से पहचान बना कर क्यों नहीं रखूंगा। सभी धर्मों में अपनी विशिष्टताएं हैं। विभिन्न धर्मों से दुनिया विविध रंगों से भरी व सुंदर लगती है, हालांकि उनमें अवश्यँभावी रूप से अनुस्यूत मानव धर्म सबके लिए एकसमान ही है। पर फिर भी मैं अपने स्वतंत्र विचार रखता हूँ, और जो मुझे गलत या अंधविश्वास लगता है, उसे मैं नहीं भी मानता। मेरी लगभग हरेक पोस्ट में किसी न किसी हिंदु मान्यता का वैज्ञानिक व मानवीय स्पष्टीकरण होता है। मेरे धर्म की उदार और सर्वधर्मसमभाव वाली सोच का भला इससे बड़ा सीधा प्रमाण क्या होगा। एकबार हिंदी भाषा पढ़ाने वाले एक विद्वान व दार्शनिक अध्यापक से व्हट्सएप्प पर मेरी मुलाक़ात हुई थी। मैंने उन्हें बताया कि कैसे पाश्चात्य लोग योग में यहाँ के स्थानीय हिंदु लोगों से ज्यादा रुचि ले रहे हैं। तो उन्होंने लिखा कि उनमें संस्कार नहीं होते। संस्कार मतलब पीढ़ियों से चली आ रही सांस्कृतिक परम्परा। अब मुझे उनकी वह बात समझ आ रही है कि कैसे संस्कारों की कमी से आदमी एकदम से उस परम्परा के खिलाफ जा सकता है, जिसको वह जीजान से मान रहा हो। संस्कार आदमी को परम्परा से जोड़ कर रखते हैं।

कुंडलिनी योग ही सभी धर्मों की रीढ़ है, इसपर आधारित इनका वैज्ञानिक विश्लेषण इनके बीच बढ़ रहे अविश्वास पर रोक लगा सकता है

आक्रमणकारियों से शास्त्रों की रक्षा करने में ब्राह्मणों की मुख्य भूमिका थी

कई बार कट्टर किस्म के लोग छोटीछोटी विरोधभरी बातों का बड़ा बवाल बना देते हैं। अभी हाल ही में दिल्ली के जवाहर लाल यूनिवर्सिटी (जेएनयू) की दीवारों पर लिखे ब्राह्मण विरोधी लेख इसका ताज़ा उदाहरण है। यह सबको पता है कि यह तथाकथित पिछड़े वर्णों ने नहीं लिखा होगा। हिंदु समुदाय के बीच दरार पैदा करने के लिए यह तथाकथित निहित स्वार्थ वाले बाहरी लोगों की साजिश लगती है। ऐसा सैंकड़ों सालों से होता चला आ रहा है। दरअसल यह सामाजिक कर्मविभाजन था, जिसे वर्ण व्यवस्था कहते थे। इसमें सभी बराबर होते थे, केवल यही विशेष बात होती थी कि वंश परम्परा से चले आए काम को करना ही अच्छा समझा जाता था, जैसे व्यापारी का बेटा भी अपने पिता के व्यापार को संभालता है। जबरदस्ती कोई नहीं थी, क्योंकि शूद्र वर्ण के बाल्मीकि ने रामायण लिखी है, विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्राह्मण बन गए थे। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं। हालांकि ज्यादातर लोग अपने ही वर्ण का काम सँभालने में ज्यादा गौरव, सम्मान और गुणवत्तापूर्णता महसूस करते थे। जैसे वर्णमाला के वर्ण अपना अलग-अलग विशिष्ट रूप-आकार लिए होते हैं, वैसे ही समाज के लोग भी अलग-अलग रूपाकार के कर्म करते हैं। अगर कर्म के अनुसार ही किसी का स्वभाव बन जाता हो, तो यह अलग बात है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि सबको पंक्ति में खड़ा किया गया और शरीर के रंगरूप के अनुसार विभिन्न किस्म के समूह बनाए गए। वर्ण या वर्णभेद से मतलब रंग या रंगभेद बिल्कुल नहीं है, क्योंकि हरेक वर्ण के लोगों में हरेक किस्म के त्वचा-रंग के लोग मिलेंगे। इसी तरह यह परम्परा विदेशी कास्ट या जाति परम्परा की तरह भी नहीं है। यह नाम भी इसको गलतफहमी से दिया गया लगता है। रही बात ब्राह्मणों की तो यह बता दूँ कि सबसे कठिन जीवन उन्हीं का होता था। उनको विलासिता भरे जीवन से अपने को कोसों दूर रखना पड़ता था। फिर धनसम्पत्ति किस काम की अगर उसे भोग ही न सको। अधिकांशतः उनकी कमाई संपत्ति औरों के या परमार्थ के काम ही आती थी। दुनिया में ठगों की कमी न आज है, न पुराने समय में थी। पहली बात तो उनके पास सम्पत्ति होती ही नहीं थी। भिक्षाजीवी की तरह वे दक्षिणा में मिले मामुली से मेहनताने से अपना और अपने परिवार का गुजारा मुश्किल से चलाते थे। फिर बोलते कि राजा उन्हें बहुत सारी धनसंपत्ति दान में दिया करते थे। राजा भी कितनों को देंगे। कर वसूलने वाले इतनी आसानी से दान दिया करते तो आज कोई गरीब न होता। कुछेक ब्राह्मणों को अगर मुहमाँगा दिया गया होगा तो उसको हमेशा गिनते हुए सब पर तो लागू नहीं करना चाहिए। मुफ्त में तो राजा भी नहीं देते थे। जब उन्हें ब्राह्मण से कोई बड़ा ज्ञान प्राप्त होता था, तभी वे अपने आध्यात्मिक कल्याण के लिए दान देते थे। कहावत भी है कि फ्री लंच का अस्तित्व ही नहीं है। मैं ऐसा इसलिए लिख रहा हूँ, क्योंकि मुझे पता है। मेरे दादा खुद एक आदर्श हिंदु पुरोहित थे, जो लोगों के घरों में पूजापाठ किया करते थे। मैंने उनके साथ काम करते हुए खुद महसूस किया है कि आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना और उसे दुनिया में बाँटना कितना मुश्किल और आभारहीन माने थैंकलेस काम है। ये काम ही ऐसा है, इसमें लोगों की गल्ती नहीं है। ये बातें अधिकांश लोगों को अब पुनः समझ में आने लग गई हैं। इसीका परिणाम है कि ब्राह्मणों के खिलाफ उक्त भड़काऊ लेखन के विरोध में सोशल मीडिया में “हैशटैग ब्राह्मण लाइफ मैटर्स” ट्रैण्ड किया। इसी तरह “हैशटैग मैं भी ब्राह्मण हूँ” भी ट्विटर पर काफी ट्रैण्ड रहा, जब क्रिकेटर सुरेश रैना के अपने आप को ब्राह्मण कहने का बहुत से वामपंथी किस्म के लोगों ने विरोध किया था। हम ये नहीं कह रहे कि सभी ब्राह्मण आदर्श हैं। पर इससे ब्राह्मणवाद को गलत नहीं ठहरा सकते। ब्राह्मणवाद ज्ञानवाद, बुद्धिवाद या अध्यात्मवाद का पर्याय है। अगर कहीं पर चिकित्सक निपुण नहीं हैं, तो उससे चिकित्सा विज्ञान झूठा नहीं हो जाता। आज जो हम इस ब्लॉग पर आध्यात्मिक ज्ञान से भरी जिन रहस्यवादी कथाओं के विश्लेषण का आनंद लेते हैं, वे अधिकांशतः ब्राह्मणों ने ही बनाई हैं। इन्हें आजतक सुरक्षित भी इन्होंने ही रखा है। अगर ब्राह्मण हमलावरों के आगे झुक जाते तो न तो हिंदु धर्म का नामोनिशान रहता और न ही इस धर्म के रहस्यमयी ग्रंथों का। क्षत्रिय भी किसके लिए लड़ते, अगर ब्राह्मण ही डर के मारे धर्म बदल देते। किसी पर मनगढंत इल्जाम लगाना आसान है, पर अपने अहंकार को नीचे रखकर सच्ची प्रशंसा करना मुश्किल। फिर कहते हैं कि ब्राह्मण विदेशों से यहाँ आकर बसे। एक तो इसके स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं, हमला करके आने के तो बिल्कुल भी नहीं, और अगर मान लो कि वे आए ही थे, तो यहाँ प्रेम से घुलमिलकर यहाँ की सरजमीं के सबसे बड़े रखवाले और हितैषी सिद्ध हुए। इसमें बुरा क्या है। हाँ, यह जरूर है कि जिस कुंडलिनी योग के आधार पर बने शास्त्रों और उनकी परम्पराओं का वे निर्वहन करते हैं, उसे वे समझें, प्रोत्साहित करें और हठधर्मिता छोड़कर उसके खिलाफ जाने से बचें।

विश्व के सभी धर्म और सम्प्रदाय कुंडलिनी योग पर ही आधारित हैं

शिवपुराण में भगवान शिव कहते हैं कि वे विभिन्न युगों में विभिन्न योगियों का अवतार लेकर उन-उन युगों के वेदव्यासों की वेद-पुराणों की रचना में सहायता करते हैं। वे लगभग 5-6 पृष्ठ के दो अध्यायों में यही वर्णन करते हैं कि किस युग में कौन वेद व्यास हुए, उन्होंने किस योगी के रूप में अवतार लेकर उनकी सहायता की और उनके कौन-कौन से शिष्य हुए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि ध्यान योग माने कुंडलिनी योग ही सनातन धर्म की रीढ़ है। मुझे तो अन्य सारे धर्म सबसे प्राचीन सनातन धर्म की नकल करते हुए जैसे ही लगते हैं। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि सभी धर्म योग पर ही आधारित हैं, और योग को सरल, लोकप्रिय व व्यावहारिक बनाने का काम करते हैं। जब सबसे योग ही हासिल होता है, तो क्यों न सीधे योग ही किया जाए। अन्य धर्म भी यदि साथ में चलते रहे, तो भी कोई बुराई नहीं है, बल्कि योग के लिए फायदेमंद ही है।

ध्यान ही सबकुछ है

साथ में महादेव शिव कहते हैं कि ध्यान के बिना कुछ भी संभव नहीं है। वे कहते हैं कि केवल ध्यान से ही मोक्ष मिल सकता है, यदि ध्यान न किया तो सारे शास्त्र और वेदपुराण निष्फल हैं।

नए धर्म व नए योग स्टाइल बदलते दौर के साथ अध्यात्म को ढालने के प्रयास से पैदा होते रहते हैं

जमाने के अनुसार सुधार धर्म में भी होते रहने चाहिए। मतलब सुधार का मौका मिलता रहना चाहिए, यह जनता पर निर्भर करता है कि सुधार को स्वीकार करती है या नहीं। हालांकि इसके साथ षड्यंत्र से भी बचना जरूरी होगा, क्योंकि कई लोग दुष्प्रचार आदि तिकड़में लगाकर किसी घटिया सी रचना को भी बहुत मशहूर कर देते हैं। इसके लिए कोई निष्पक्ष संस्था होनी चाहिए जो रचनाओं की सही समीक्षा करके जनता को अवगत करवाती रहे। कट्टर बनकर यदि सुधार का मौका ही नहीं दोगे, तो धर्म जमाने के साथ कंधा से कंधा मिला कर कैसे चल पाएगा। सुधार का मतलब यह नहीं है कि पुरानी रचनाओं को नष्ट किया जाए। सम्भवतः इसी डर से सुधार नहीं होने देते कि इससे पुरानी रचना नष्ट हो जाएगी। पर यह सोच मिथ्या और भ्रमपूर्ण है। नए सुधारों से दरअसल पुरानी रचनाओं को बल मिलता है क्योंकि इनसे वे बाप का दर्जा हासिल करती हैं। आइंस्टीन के गुरुत्वाकर्षण के नए सिद्धांत से न्यूटन का पुराना सिद्धांत नष्ट तो नहीं हुआ। गुरुत्वाकर्षण तो वही है, बस उसको समझने के दो अलगलग तरीके हैं। इसी तरह ध्यान व अद्वैत को अध्यात्म की मूल विषयवस्तु मान लो। इसको प्राप्त कराने के लिए ही विभिन्न पुराण, मंत्र व पूजा पद्धतियाँ बनी हैं। हो सकता है कि इनमें सुधार कर के जमाने के अनुसार नई रचनाएं बन जाएं, जो इनसे भी ज्यादा प्रभावशाली हों, और ज्यादा लोगों के द्वारा स्वीकार्य हों। शरीरविज्ञान दर्शन भी एक ऐसा ही छोटा सा प्रयास है, हालांकि उसमें भी विकास की गुंजाईश है। मेरा व्यक्तिगत अनुभवरूपी शोध इसके साथ जुड़ा है। मतलब यह ऐसा दर्शन नहीं कि मन में आया और बना दिया। जब मुझे इसकी मदद से जागृति का अनुभव हुआ, तभी इस पर प्रमाणिकता की मुहर लगी। यह अलग बात है कि साथ में उस सनातन धर्म वाली सांस्कृतिक जीवनचर्या का भी योगदान रहा होगा, जिसमें मैं बचपन से पला-बढ़ा हूँ। पर इतना जरूर लगता है कि कम से कम पचास प्रतिशत योगदान शरीरविज्ञान दर्शन का रहा ही होगा। अब आम जीवन में इतना शुद्ध शोध तो कहाँ हो सकता है कि अन्य सभी सहकारी कारणों को ठुकरा कर केवल एक ही कारण के असर को परखा जाए। दरअसल एक मेरे जैसे आम आदमी के पास इतना समय नहीं होता कि ऐसे सुधारों और विकास के लिए विस्तृत शोध किया जाए। जैसे ज्ञानविज्ञान के अन्य क्षेत्रों में विशेषज्ञ व अनुभवशाली शोध-वैज्ञानिकों की सेवा ली जाती है, वैसी ही अध्यात्म के क्षेत्र में भी ली जा सकती है। इसमें बुरा क्या है। पर समस्या यह है कि समर्पित शोधार्थी से ज्यादा पार्ट टाइम या हॉबी शोधार्थी ज्यादा अच्छा काम कर सकते हैं। मतलब कि अध्यात्म रोजाना के व्यवहार से ज्यादा जुड़ा होता है। एकाकीपन के शोध से व्यावहारिक नतीजे नहीं निकलते। यह भी समस्या है कि शोध के लिए जागृत व्यक्ति कहाँ से लाए। परीक्षा लेने वाले भी जागृत ही चाहिए। जागृत व्यक्ति को ही असली लक्ष्य का पता होता है। जिसको लक्ष्य की ही पहचान नहीं है, वह उसके लिए शोध कैसे करेगा। आज तक कोई मशीन नहीं बनी जो किसी की जागृति का पता लगा सके। अध्ययन के बल पर कुछ टोटके तो कोई भी ईजाद कर सकता है, पर ज्यादा असली व प्रामाणिक तो जागृत व्यक्ति का शोध ही माना जाएगा।

पुराण व अन्य धर्म संबंधित लौकिक साहित्य शहद के साथ मिश्रित की हुई कड़वी दवाई की तरह काम करते हैं

पिछली पोस्ट में मैं बता रहा था कि कैसे राजा भागीरथ गंगा नदी के प्रवाह में आई रुकावटों को हटा रहा था। हमारे दादा उस बात को शास्त्रों का हवाला देते हुए ऐसे कहा करते थे कि भागीरथ हाथ में कुदाली को लेकर गंगा के आगे-आगे चलता रहा और उसके जलप्रवाह के लिए जमीन खोद कर रास्ता बनाता रहा, जैसे कोई किसान सिंचाई की कूहल के लिए रास्ता मतलब चैनल बनाता है। मत भूलो, शरीर में शक्ति संचालन मार्ग को भी अंग्रेजी में चैनल ही कहते हैं। शब्दावली में भी कितनी समानता है। वे खुद एक छोटे से किसान भी थे। वैसे तो आलोचक विज्ञानवादी को यह बात अजीब लग सकती है, पर इसमें एक गहरा मनोवैज्ञानिक सबक छिपा हुआ है। यह बात मनोरंजक और हौसला बढ़ाने वाली है। साथ में यह अध्यात्मवैज्ञानिक रूप से बिल्कुल सत्य भी है, जैसा कि पिछली पोस्ट में दिखाया गया है। बेशक यह बात हमें स्थूल रूप में समझ नहीं आती थी, पर हमारे अवचेतन मन पर एक गहरा प्रभाव छोड़ती थी। उसी का परिणाम है कि कालांतर में हमारे को खुद ही यह रहस्य अनुभव रूप में समझ आया। पौराणिक ऋषि बहुत बड़े व्यावहारिक मनोवैज्ञानिक होते थे। वे जानते थे कि अनपढ़ और बाह्यमुखी जनता को सीधे तौर पर गहन आध्यात्मिक तकनीकें नहीं समझाई जा सकतीं, इसीलिए वे उन तकनीकों को व्यावहारिक, रहस्यात्मक और मनोरंजक तरीके से प्रकट करते थे, ताकि वे अवचेतन मन पर गहरा असर डालती रहें, जिससे आदमी धीरेधीरे उनकी तरफ बढ़ता रहे। सहज पके सो मीठा होय। एकदम से पकाया हुआ फल मीठा नहीं होता। ऐसी मिथकीय कथाओं पर लोगों की अटूट आस्था का ही परिणाम है कि वे आज तक समाज में प्रचलित हैं। किसीसे अगर पूछो कि उसे इन कथाओं से क्या लाभ मिला, तो वह पुख्ता तौर पर कुछ नहीं बता पाएगा, पर उन्हें पूजनीय व अवश्य पढ़ने योग्य जरूर कहेगा। कई कथाएं ऋषियों ने जानबूझ कर ऐसी बनाई हैं कि उनका रहस्योद्घाटन नहीं किया जा सकता। अगर सभी कुछ का पता चल गया तो विश्वास करने के लिए बचेगा क्या। ऋषि विश्वास और सस्पेंस की शक्ति को पहचानते थे। होता क्या है कि जब कुछ कथाओं के रहस्य से परदा उठता है, तो अन्य कथाओं की सत्यता पर भी विश्वास हो जाता है। वैसे गैरजरूरी कथाओं को उजागर करना ही नामुमकिन लगता है। जो कथा-रहस्य जितना ज्यादा जरूरी है, उसे उजागर करना उतना ही आसान है। वैसे धर्म के बारे ज्यादा कहने का मुझे बिल्कुल शौक नहीं है, पर कई बारे सीमित रूप में कहना पड़ता है, क्यकि अध्यात्म को धर्म के साथ बहुत पक्के से जोड़ा गया है, और कई बारे इनको अलग करना मुश्किल हो जाता है।आज जब विभिन्न धर्मों के बीच इतना अविश्वास बढ़ गया है, तो यह जरूरी हो गया है कि उनका आध्यात्मिक व वैज्ञानिक रूप में वर्णन करके विरोधियों की शंका दूर कर दी जाए।

कुंडलिनी-ध्यानचित्र का वाममार्गी तांत्रिक यौनयोग में महत्त्व

मित्रो, मैं इस पोस्ट में शिवपुराण में वर्णित राक्षस अंधकासुर, दैत्यगुरु शुक्राचार्य, देवासुर संग्राम और शिव के द्वारा देवताओं की सहायता का रहस्योदघाटन करूंगा।

शिवपुराणोक्त अन्धकासुर कथा

एक बार भगवान शिव पार्वती के साथ काशी से निकलकर कैलाश पहुंचते हैं, और वहाँ भ्रमण करने लगते हैं। एकदिन शिव ध्यान में होते हैं कि तभी देवी पार्वती पीछे से आकर उनके मस्तक पर हाथ रखती हैं, जिससे शिव के माथे की गर्मी से उनकी अंगुली से एक पसीने की बूंद जमीन पर गिर जाती है। उससे एक बालक का जन्म होता है, जो बहुत कुरूप, रोने वाला और अंधा होता है। इसलिए उसका नाम अंधकासुर रखा जाता है। उधर राक्षस हिरण्याक्ष पुत्र न होने से बहुत दुखी रहता है। वह शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तप करता है, और उनसे पुत्र-प्राप्ति का वर मांगता है। शिव अंधक को उसे सौंप देते हैं। वह शिवपुत्र अंधक की प्राप्ति से अति प्रसन्न और उत्साहित होकर स्वर्ग पर चढ़ाई कर देता है, जिससे देवता स्वर्ग से भागकर धरती पर छिप कर रहने लगते हैं। वह धरती को समुद्र में डुबोकर पाताल लोक में छुपा देता है। फिर भगवान विष्णु देवताओं की सहायता करने के लिए वाराह के रूप में अवतार लेकर हिरण्याक्ष को मार देते हैं और धरती को अपने दाँतों पर रखकर पाताल से ऊपर उठाकर पूर्ववत यथास्थान रख देते हैं। उधर बालक अंधक जब अपने भाई प्रह्लाद आदि अन्य राक्षस बालकों के साथ खेल रहा होता है, तो वे उसे यह कह कर चिढ़ाते हैं कि वह अंधा और कुरूप है इसलिए वह अपने पिता हिरण्याक्ष की जगह राजगद्दी नहीं संभाल सकता। इससे अन्धक दुखी होकर भगवान शिव को खुश करने के लिए घोर तप करने लगता है। वह धुएं वाली अग्नि को पीता है, अपने मांस को काटकाट कर हवनकुण्ड में हवन करता है। इससे वह हड्डी का कंकाल मात्र बच जाता है। शिवजी उससे प्रसन्न होकर उसके मांगे वर के अनुसार उसे बिल्कुल स्वस्थ व आँखों वाला कर देते हैं, और कहते हैं कि वह केवल तभी मरेगा जब किसी महान योगी की पतिव्रता स्त्री को अपनी स्त्री बनाने का प्रयास करेगा। वर से खुश और दंभित होकर अन्धक उग्र भोगविलास में डूब जाता है, अनेकों कामिनियों के साथ विभिन्न रतिवर्धक स्थानों में रमण करता है, और अपनी आयु का दुरुपयोग करता है। वह साधुओं और देवताओं पर भी बहुत अत्याचार करता है। वे सब इकट्ठे होकर भगवान शिव के पास जाते हैं। शिव उनकी मदद करने के लिए कैलाश पर पार्वती के साथ विहार करने लगते हैं। एकदिन अन्धक के सेवक की नजर देवी पार्वती पर पड़ती है, और वह यह बात अन्धक को बताता है। अंधक पार्वती पर आसक्त होकर शिव को गंदा तपस्वी, जटाधारी आदि कह कर उनका अपमान करता है और कहता है कि उतनी सुंदर नारी उसी के योग्य है, न कि किसी तपस्वी के। फिर वह सेना के साथ शिव से युद्ध करने चला जाता है। उसे शिव का गण वीरक अकेले ही युद्ध में हरा कर भगा देता है, और उसे शिवगुफा के अंदर प्रविष्ट नहीं होने देता। फिर शिव पाशुपत मंत्र प्राप्त करने के लिए दूर तप करने चले जाते हैं। मौका देखकर अंधक फिर हमला करता है। पार्वती अकेली होती है गुफा में। उसे वीरक भी नहीं रोक पा रहा होता है। डर के मारे पार्वती सभी देवताओं को सहायता के लिए बुलाती है, जो फिर स्त्री रूप में अस्त्रशस्त्र लेकर पहुंच जाते हैं। स्त्री रूप इसलिए क्योंकि देवी के कक्ष में पुरुष रूप में जाना उन्हें अच्छा नहीं लगता। घोर युद्ध होता है। अंधक का सैनिक विघस सूर्य चन्द्रमा आदि देवताओं को निगल जाता है। चारों ओर अंधेरा छा जाता है। हालांकि वे किसी दिव्य मंत्र के जाप से उसके मुंह में घूँसे मारकर बाहर भी निकल आते हैं। तभी शिव भी वहाँ पहुँच जाते हैं। उससे उत्साहित गण राक्षसों को मारने लगते हैं। पर राक्षस गुरु शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्या से सभी मृत राक्षसों को पुनर्जीवित कर देते हैं। शिव को यह बात शिवगण बता देते हैं कि शुक्राचार्य उनकी दी हुई विद्या का कैसे दुरूपयोग कर रहा है। इससे नाराज होकर शिव उसे पकड़ कर लाने के लिए नंदी बैल को भेजते हैं। नंदी राक्षसों को मारकर उसे पकड़कर ले आता है। शिव शुक्राचार्य को निगल जाते हैं। वह शिव के उदर में बाहर निकलने का छेद न पाकर चारों तरफ ऐसे घूमता है, जैसे वायु के वेग से घूम रहा हो। वह वहाँ से निकलने का वर्षों तक प्रयास करता है, पर निकल नहीं पाता। फिर शिव उसे शुक्र अर्थात वीर्य रूप में अपने लिंग से बाहर निकालते हैं। इसीलिए उनका नाम शुक्राचार्य पड़ा।

दरअसल संजीवनी विद्या उन्हें एक बहुत पुराने समय में शिव ने दी होती है। वह एक बहुत सुंदर स्थान पर शिव का लिंग स्थापित करते हैं। उस पर वे शिव की कठिन अराधना करते हैं। अग्निधूम को पीते हैं, और कठिन तप करते हैं। उससे शिव लिंग से प्रकट होकर उन्हें संजीवनी विद्या देते हैं, और वर देते हैं कि वे भविष्य में उनके उदर में प्रविष्ट होकर उनके वीर्य रूप में जन्म लेंगे। वे लिंग का नाम शुक्रेश और उनके द्वारा स्थापित कुएँ का नाम शुक्रकूप रख देते हैं। वे भक्तों द्वारा उस कूप में स्नान करने का अमित फल बताते हैं।

अंधकासुर कथा का कुंडलिनी-आधारित विश्लेषण

शुक्र मतलब ऊर्जा या तेज। शुक्र, ऊर्जा और तेज तीनों एकदूसरे के पर्याय हैं। शुक्राचार्य को निगल गए, मतलब योगी शिव ने खेचरी मुद्रा में जिह्वा तालु से लगाकर कुंडलिनी ऊर्जा को आगे के नाड़ी चैनल से नीचे उतारा, जिससे वीर्यशक्ति के रूपान्तरण से निर्मित कुंडलिनी ऊर्जा मूलाधार चक्र से पीठ की सुषुम्ना नाड़ी से होते हुए ऊपर चढ़ गई। वायु के वेग से वे इधरउधर भटकने लगे, मतलब साँसों की गति से कुंडलिनी ऊर्जा माइक्रोकोस्मिक औरबिट लूप में गोल-गोल घूमने लगी। शुक्राचार्य को बहुत समय तक घुमाने के बाद योगी शिव ने उन्हें वीर्य मार्ग से बाहर निकाल दिया, मतलब बहुत समय तक शक्ति को चक्रोँ में घुमाते हुए व उससे चक्रोँ पर इष्ट देव या गुरु आदि के रूप में कुंडलिनी चित्र का ध्यान करने के बाद जब वह शक्ति क्षीण होने लगी मतलब शुक्राचार्य शिथिल पड़ने लगे, तब उसे वीर्यरूप में बाहर निकाल दिया। उन्हें योगी शिव ने पुत्र रूप में स्वीकार किया, मतलब कि जिसे ओशो महाराज कहते हैं, ‘संभोग से समाधि’, वह तरीका अपनाया। इस यौनतंत्र में सहस्रार चक्र के समाधि चित्र को स्खलन-संवेदना के ऊपर आरोपित किया जाता है। इससे वही बात हुई जैसी एक पिछली पोस्ट में लिखी गई है कि गंगा नदी के किनारे पर उगी सरकंडे की घास पर शिववीर्य से बालक कार्तिकेय का जन्म हुआ, मतलब शुक्राचार्य ने कार्तिकेय के रूप में शिवपुत्रत्व प्राप्त किया। उपरोक्त कथा के ही अनुसार सबसे प्रसिद्ध, प्रिय व शक्तिशाली लिंग शुक्रलिंग ही माना जाएगा, क्योंकि यह पूरी तरह से असली है, अन्य तो प्रतीतात्मक ज्यादा हैं, जैसे कोई पाषाणलिंग होता है, कोई पारदलिंग, तो कोई हिमलिंग आदि। शुक्रकूप आसपास में एक ठंडे जल का कुआँ है, जो संभोगतंत्र में सहयोगी है, क्योंकि जैसा एक पिछली पोस्ट में दिखाया गया है कि कैसे ठंडे जल से स्नान यौनऊर्जा को गतिशील व कार्यशील बनाने का काम करता है।

शुक्राचार्य जो राक्षसों को जिन्दा कर रहे थे, उसका यही मतलब है कि वीर्यशक्ति बाह्यगामी होने के कारण संसारमार्गी मानसिक दोषों, आसक्तिपूर्ण भावनाओं और विचारों को बढ़ावा दे रही थी। शिव ने नंदी को शुक्राचार्य को पकड़ कर लाने को कहा, इसका मतलब है कि नंदी अद्वैत भाव का परिचायक है क्योंकि वह एक ऐसा शिवगण है जिसमें बैल के रूप में पशु और गण के रूप में मनुष्य एक साथ विद्यमान है। वह एक यिन-यांग मिश्रण है। अद्वैत से कुंडलिनी शक्ति को मूलाधार से ऊपर चढ़ने में मदद मिलती है।

देवी पार्वती ने महादेव शिव की आँखें बंद कीं, इससे वे अंधे जैसे हो गए। इसको यह समझाने के लिए कहा गया है कि कोई भावी योगी अज्ञान वाली अवस्था में था, न तो उसे लौकिक व्यवहार का ज्ञान था, और न ही आध्यात्मिक ज्ञान। फिर वह इश्कविश्क़ के चक्कर में पड़ गया। उससे उसकी शक्ति तो घूमने लगी, पर वह बिना कुंडलिनी चित्र के थी। कुंडलिनी चित्र माने ध्यान चित्र आध्यात्मिक ज्ञान की उच्चावस्था में बनता है। आध्यात्मिक ज्ञान लौकिक ज्ञान व अनुभव के उत्कर्ष से प्राप्त होता है। ऐसा होने में जीवन का लम्बा समय बीत जाता है। ज्ञानविज्ञानरहित प्यार-मोहब्बत से क्या होता है कि आदमी यौन शक्ति को ढंग से रूपान्तरित और निर्देशित नहीं कर सकता, जिससे उसका क्षरण या दुरुपयोग होता है। वही दुरुपयोग अंधक नाम वाला पुत्र है। इसका सीधा सा अर्थ है कि अमुक भावी योगी ने शक्ति को घुमाया तो जरूर। ऐसा उक्त कथानक की इस बात से सिद्ध होता है कि पार्वती ने दोनों नेत्रों को एकसाथ बंद किया, मतलब यिन-यांग संतुलित हो गए। पर परिपक्वता की कमी से इस संतुलन से किंचित चमक रहे कुंडलिनी चित्र को समझ नहीं पाया और उसे जानबूझकर व्यर्थ समझ कर त्याग दिया। चमक बुझने से स्वाभाविक है कि अंधेरा छा गया, जिसे आँखों को बंद करने के रूप में दिखाया गया है। क्योंकि शक्ति से मस्तिष्क में जो उच्च स्पष्टता के साथ छवि बनती है, उसे ही पुत्र कहा जाता है, जैसे कि इस ब्लॉग की एक पोस्ट में सिद्ध भी किया गया था। बिना किसी भौतिक सहवास के असली या भौतिक पुत्र तो पैदा हो ही नहीं सकता, वह भी मिट्टी-पत्थर से भरी जमीन के ऊपर या सरकंडों के ऊपर। क्योंकि इस पोस्ट के भावी योगी के मस्तिष्क में उस शक्ति से अंधेरा ही घनीभूत हुआ, इसलिए उसे पुत्र अंधक के रूप में दिखाया गया। चूंकि अँधेरे से भरा व्यक्ति किसी को प्रिय व कार्यक्षम नहीं लगता, इसलिए इसे ऐसा दिखाया गया है कि वह अंधकासुर सबको अप्रिय था और उसके बालमित्र उसे राजगद्दी के अयोग्य बताकर उसका मजाक उड़ाते थे। स्वाभाविक है कि भावी योगी दुनिया में सम्मान, सुखसमृद्धि और यहाँ तक कि जागृति के रूप में सम्पूर्णता को प्राप्त करने के लिए भरपूर प्रयास करता है, क्योंकि उसमें बहुत शक्ति होती है, केवल स्थिर ध्यानचित्र की ही कमी होती है। उसे दुनिया में ठोकरें खाने के बाद इस कमी का अप्रत्यक्ष अहसास हो ही जाता है, इसलिए वह कुंडलिनी ध्यानयोग के लिए एकांत में चला जाता है। इसे ही ऐसे दिखाया गया है कि अंधक फिर वन में जाकर शिव या ब्रह्मा का ध्यान करते हुए घोर तप करता है। अपने मांस को टुकड़ों में काटकाट कर वह उन्हें अग्नि में होम करता रहता है। साथ में अग्निधूम का पान करता है। इसका मतलब है कि भावी योगी कठिन हठयोग करता है, जिससे उसकी अतिरिक्त चर्बी तो घुलती ही है, साथ में मांसल शरीर भी योगाग्नि से जलकर दुबला हो जाता है। इस दहन से जो कार्बन डायक्साइड गैस निकलती है, उसे ही धुआँ कहा है। क्योंकि योग में अक्सर सांस को अंदर रोक कर रखा जाता है, इसलिए उसे ही धुएं को पीना कहा गया है। जब वह इतना कमजोर हो जाता है कि वह हड्डी का ढांचा जैसा दिखने लगता है, तब भगवान शिव उसे दर्शन दे देते हैं। इसका मतलब है कि जब हठयोगाभ्यास करते हुए काफी समय हो जाता है, जिससे योगी को अपने सहस्रार चक्र में बढ़ी हुई सात्विकता के कारण अपना शरीर अस्थिपंजर की तरह हल्का लगने लगता है, तब कुंडलिनी जागृत हो जाती है। मतलब अदृश्य या सुप्त कुंडलिनी शक्ति मानसिक शिवचित्र के रूप में जागृत हो जाती है। अब शिव अंधक को बिल्कुल स्वस्थ व सुंदर बना देते हैं। ठीक है, कुंडलिनी जागरण से ऐसा ही अकस्मात और सकारात्मक रूपान्तरण होता है। अब वह शिव से वर मांगता है कि वह कभी न मरे। शिव कहते हैं कि ऐसा सम्भव नहीं। विश्व की रक्षा के लिए भी यह जरूरी है। अमरता पाकर तो कोई भी अत्याचारी बनकर दुनिया को तबाह कर सकता है, क्योंकि उसे रोकने व डराने वाला कोई नहीं होगा। इसलिए ब्रह्मा उससे कोई न कोई मौत का कारण चुनने को कहते हैं, बेशक वह असम्भव सा ही क्यों न लगे। इस पर ब्रह्मा कहते हैं कि जब वह माँ के समान आदरणीय महिला को पत्नि बनाना चाहेगा, वह तब मरेगा। अब ये तंत्र की गूढ़ बातें हैं, जिनके यदि रहस्य से पर्दा उठाया जाए, तो आम जनमानस को अजीब लग सकता है। तिब्बतन यौनतंत्र में गुरु की यौनसाथी उनकी अनुमति से उनके शिष्यों को तांत्रिक यौनकला प्रयोगात्मक रूप में सिखाती है। गुरुपत्नि को माँ के समान माना गया है। मतलब कि तांत्रिक यौनयोग सीखने के बाद अंधक अंधी दुनियादारी से उपरत होकर अपनी आत्मा या अपने आप में शांत हो जाएगा, मतलब वह एक प्रकार से मर जाएगा। बाद में हुआ भी वैसा ही, मरने के बाद उसे शिव ने अपना गण बना लिया, मतलब वह मुक्त हो गया। आम मृत्यु के बाद तो कोई मुक्त नहीं होता। इसका एक मतलब यह भी है कि जब विवाह या सम्भोग के अयोग्य सम्मानित नारी से प्यार होता है, तब उसका रूप बारबार मन में आने लगता है, जिससे वह समाधि का रूप ले लेता है, जैसा कि प्रेमयोगी वज्र के साथ भी हुआ था। ब्रह्मा के वर को पाकर अन्धक राजा बन गया, और बहुत अय्याश हो गया। सुंदर व सुडोल शरीर तो उसे मिला ही था, इसलिए वह अनगिनत कामिनियों के साथ विभिन्न मनोहर स्थानों में रमण करते हुए अपना बहुमूल्य समय नष्ट करने लगा। इस यौन शक्ति के बल से वह बहुत पाप भी करने लगा। देवताओं को स्वर्ग से भगा कर वहाँ खुद राज करने लगा। जब कोई बुरे काम करेगा तो शरीर रूपी स्वर्ग में स्थित देवता दुखी होकर भागेंगे ही, क्योंकि देवताओं का मुख्य उद्देश्य है शरीर से अच्छे काम करवाना। अब मैं इससे जुड़ी हाल की घटना बताता हूँ और फिर पोस्ट को खत्म करता हूँ क्योंकि नहीं तो यह बहुत लंबी होकर पढ़ने में मुश्किल हो जाएगी। अगले हफ्ते तक शेष कथा के रहस्य को उजागर करने की कोशिश करूंगा, क्योंकि अभी मैं लगभग इतना ही समझ सका हूँ। हो सकता है कि आप मेरे से पहले उजागर कर दें, यदि ऐसा है तो कमेंट बॉक्स में जरूर लिखना।

आफताब-श्रद्धा से जुड़ा बहुचर्चित लवजिहाद काण्ड

आजकल बहुचर्चित आफताब पूनावाला से संबंधित मर्डर मिस्ट्री उपरोक्त अंधक कथा से बहुत मेल खा रही है। सूत्रों के अनुसार वह मुस्लिम युवक श्रद्धा नामक हिंदु लड़की के साथ लिव इन रिलेशनशिप में था। वह डेटिंग ऐप के माध्यम से अपना घरपरिवार छोड़कर उसके साथ लम्बे अरसे से रह रही थी। कई मकान मालिकों को तो वह उसे अपनी पत्नि तक बता कर साथ रखता था, क्योंकि यहाँ के परिवेश में लिव इन रिलेशनशिप को अच्छा नहीं समझा जाता। चोरी छुपे उसके 20 अन्य हिंदु लड़कियों के साथ भी प्रेमसंबंध थे। श्रद्धा को शायद यह बात पता चली होगी और वह उसे ऐसा करने से रोककर उससे शादी करना चाहती होगी। इसको लेकर झगड़े भी हुए और मारपीट भी। अंततः उसने उसका गला दबाकर हत्या कर दी और बिना अफ़सोस के उसके पेंतीस टुकड़े करके उन्हें फ्रिज में पैक कर दिया। धीरेधीरे करके वह उन्हें निकट के जंगल में फ़ेंकता रहा। छः महीने बाद श्रद्धा के पिता द्वारा लिखी शिकायत के बाद पुलिस उसे पकड़ सकी। यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि आज की तथाकथित आधुनिक महिलाओं को प्रसन्न करने के लिए कैसे आफताब की तरह शातिर, बेईमान, नशेड़ी, धूम्रपानी, मांसभक्षी, हिंसक और धोखेबाज बनना पड़ता है, हालाँकि ऐसे अतिवाद को कोई सभ्य व पढ़ालिखा समाज कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता, जिसमें मानवता का हनन होता हो। दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि बहुत से हिन्दुओं द्वारा शिवपुराण का कहीं गलत अर्थ तो नहीं निकला जा रहा, या बिना जानेबूझे कहीं वैसी विकृत सोच अवचेतन मन में तो नहीं बैठी हुई है। पुराण से प्राप्त आम धारणा के अनुसार महादेव शिव बिना कुलपरम्परा वाले एक भूतिया किस्म के आदमी थे, जिनको पति रूप में पाने के लिए पार्वती कई जन्मों तक घरपरिवार को छोड़कर भटकती रही। पति-पत्नि के परस्पर प्रेम को परवान चढ़ाने के लिए कुछ हद तक ऐसा पागलपन ठीक भी है, पर वह भी कुछ जरूरी शर्तों के साथ ही पूरा सफल होता है, और वैसे भी अति तो कहीं भी अच्छी नहीं है, ख़ासकर उस कौम के व्यक्ति के साथ तो बिल्कुल भी संबंध अच्छा नहीं है, जिनके तथाकथित लवजिहाद से जुड़े जालिमपने और जाहिलियत के उदाहरण आए दिन मिलते रहते हैं। सब पता होते हुए भी बारम्बार गलती करना तो ऐसा लगता है कि या तो परिवार में बच्चों को सही व संस्कारपूर्ण शिक्षा नहीं दी जा रही या ऐसी लड़कियों के ऊपर जादूटोना कर दिया गया है, या यह हिन्दुओं के पवित्र और ज्ञानविज्ञान से भरे शास्त्रों और पुराणों को बदनाम करने की एक सोचीसमझी और बहुत बड़ी साजिश चल रही है। कई लोग सख्त कानून की कमी को भी मुख्य वजह बता रहे हैं। कुछ लोग विकृत दूरदर्शन, ऑनलाइन व बॉलीवुड कल्चर को भी बड़ी वजह मानते हैं। कई लोग लिव इन रिलेशनशिप और डेटिंग एप्स को दोष दे रहे हैं। इससे हिंदु पुरुषों को भी शिक्षा लेनी चाहिए और महिलाओं की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश करनी चाहिए। जिसके अंदर ध्यान-कुंडलिनी चित्र नहीं है, यदि वह भी यौनतंत्र का अभ्यास करे, तो उसका हाल भी अंधक जैसा हो सकता है, जैसा आपने ऊपर पढ़ा, फिर यदि जिसको यौनतंत्र का कखग भी पता नहीं, यदि वह यौनसंबंधों के मामले में मनमर्जी करे, तो उसका उससे भी कितना बुरा हाल हो सकता है, यह उपरोक्त हाल की घटना से प्रत्यक्ष देखने को मिल रहा है।

प्रेमरोग से बचने का बेजोड़ उपाय

दोस्तों, इस समस्या का हल भी है। सौभाग्य से आज “शरीरविज्ञान दर्शन~एक आधुनिक कुंडलिनी तंत्र(एक योगी की प्रेमकथा)” नामक पुस्तक ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरह से उपलब्ध है। यह ईबुक के रूप में भी और प्रिंट पुस्तक के रूप में भी उपलब्ध है। इसमें ऐसा लगता है कि शिवपुराण का विवेचन आधुनिक शैली में किया गया है, जो हर किसी को समझ आ जाए, और उसके बारे में गलतफहमी दूर हो जाए। यह सत्य जीवनी और सत्य घटनाओं पर आधारित है। इसमें आधारभूत यौनयोग पर सामाजिकता के साथ प्रकाश डाला गया है। इस पुस्तक में स्त्री-पुरुष संबंधों का आधारभूत सिद्धांत भी छिपा हुआ है। यदि कोई प्रेमामृत का पान करना चाहता है, तो इस पुस्तक से बढ़िया कोई भी उपाय प्रतीत नहीं होता। इस पुस्तक में प्रेमयोगी वज्र ने अपने अद्वितीय आध्यात्मिक व तांत्रिक अनुभवों के साथ अपनी सम्बन्धित जीवनी पर भी थोड़ा प्रकाश डाला है। इस उपरोक्त “शरीरविज्ञान दर्शन” पुस्तक को एमाजोन डॉट इन पर एक गुणवत्तापूर्ण व निष्पक्षतापूर्ण समीक्षा में पांच सितारा, सर्वश्रेष्ठ, सबके द्वारा अवश्य पढ़ी जाने योग्य व अति उत्तम (एक्सेलेंट} पुस्तक के रूप में समीक्षित किया गया है। गूगल प्ले बुक की समीक्षा में भी इसे फाईव स्टार व शांतिदायक (कूल) आंका गया है। कुछ गुणग्राही पाठक तो यहाँ तक कहते हैं कि अगर इस पुस्तक को पढ़ लिया तो मानो जैसे सबकुछ पढ़ लिया। आशा है कि पुस्तक पाठकों की अपेक्षाओं पर खरा उतरेगी।

गांव शहर में भी बसता, तन से न सही मन से मानें

Featured image as Painting by Kritika

हम गाँवों के गबरू हैं तुम सा 
शहर में जीना क्या जानें।
है गांव शहर में भी बसता तन
से न सही मन से मानें।
बस सूखी रोटी खाई है तुम सा शहद
में पला नहीं।
हमने न झेली न टाली ऐसी भी
कोई बला नहीं।
हमने न पेड़ से खाया हो फल
ऐसा कोई फला नहीं।
तब तक सिर को दे मारा है जब
तलक पहाड़ भी टला नहीं।
सिर मत्थापच्ची करते जब तुम
थे भरते लंबी तानें।
हम गाँवों -----
दिल-जान से बात हमेशा की तुम
सी घुटन में जिया नहीं।
है प्यार बाँट कर पाया भी नफ़रत
का प्याला पिया नहीं।
इक काम जगत में नहीं कोई भी
हमने है जो किया नहीं।
है मजा नहीं ऐसा कोई भी
हमने हो जो लिया नहीं।
फिर अन्न-भरे खेतों में खड़ के
दाना-दाना क्यों छानें।
हम गाँवों के ----
है इज्जत की परवाह नहीं
बेइज्जत हो कर पले बढ़े।
अपनों की खातिर अपने सर
सबके तो ही इल्जाम मढ़े।
कागज की दुनिया में खोकर भी
वेद-पुराण बहुत ही पढ़े।
हैं असली जग में भी इतरा कर
खूब तपे और खूब कढ़े।
बस बीज को बोते जाना था कि
स्वर्ण कलश मिलते न गढ़े
इस सोच के ही बलबूते हम तो
हर पल निशदिन आगे बढ़े।
फिर छोटा मकसद ठुकरा कर हम
लक्ष्य बड़ा क्यों न ठानें।
हम गाँवों के -----
जो शहर न होते फिर अपनी हम
काबिलियत को न पाते।
रहते अगर न वहाँ तो क्या है
घुटन पता कैसे पाते।
न लोकतंत्र से जीते गर ये
नियम-व्यवस्था न ढाते।
फिर बेर फली तरु न भाते गर
भेल पकौड़े न खाते।
हम साइलेंट जोन में न बसते तो
घाट मुरलिया न गाते।
हम रिमझिम स्नान भी न करते गर
नगर में न तनते छाते।
है रात के बाद सुबह आती तम से ही
लौ दमखम पाती।
है सुखदुख का चरखा चलता वह
न देखे जाति-पाति।
फिर अहम को अपने छोड़ के हम यह
सत्य नियम क्यों न मानें।
हम गाँवों ----
है ढोल-गंवार यही कहते बस
तुलसी ताड़न-अधिकारी।
है अन्न उगाता जो निशदिन वो
कैसे है कम अधि-कारी।
जो दुनिया की खातिर जाता हो
खेतों पर ही बलिहारी।
वो कम कैसे सबसे बढ़कर वो
तो मस्ती में अविकारी।
फिर ऊंच-नीच ठुकरा क्यों न हम
इक ही अलख को पहचानें।
हम गाँवों ---

कुंडलिनी योग बनाम परमाणु विश्वयुद्ध

कुंडलिनी ऊर्जा ही नीलकंठ शिव महादेव के हलाहल विष को नष्ट करती है

दोस्तों, मैं हाल ही में एक स्थानीय मेले में गया। वहाँ मैं ड्रेगन ट्रेन को निहारने लगा। उसका खुले दांतों वाला मुंह दिखते ही मेरे अंदर ऊर्जा मुलाधार से ऊपर उठकर घूमने जैसी लग जाती थी। हालांकि यह हल्का आभास था, पर आनंद पैदा करने वाला था, लगभग वैसा ही जैसा शिवलिंगम के दर्शन से महसूस होता है। स्थानीय संस्कृति के अनुसार बाहरी अभिव्यक्ति के तरीके बदलते रहते हैं, पर मूल चीज एक ही रहती है। इसी के संबंध में मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि कैसे गुस्से आदि से कुंडलिनी शक्ति मस्तिष्क से नीचे उतरकर यौद्धा अंगों को चली जाती है। इससे मस्तिष्क में स्मरण शक्ति और भावनाएं क्षीण हो जाती हैं। भावनाएँ बहुत सारी ऊर्जा को खाती हैं। इसीलिए तो तीखी भावनाओं या भावनात्मक आघात के बाद आदमी अक्सर बीमार पड़ जाता है। आपने सुना होगा कि फलां आदमी अपने किसी प्रिय परिचित को खोने के बाद बीमार पड़ गया या चल बसा। गहरे तनाव के दौरान दिल का दौरा पड़ना तो आजकल आम ही हो गया है। शरीरविज्ञान दर्शन से अनियंत्रित भावनाओं पर लगाम लगती है। उपरोक्त मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ड्रेगन के ध्यान से या उसको अपने शरीर पर आरोपित करने से कुंडलिनी शक्ति विभिन्न चक्रोँ पर उजागर होने लगती है। सम्भवतः बुद्धिस्टों के रैथफुल डाइटि भी इसी सिद्धांत से कुंडलिनी की मदद करते हैं। दरअसल विभिन्न धर्मशास्त्रों में जो आचार शिक्षा दी जाती है, उसके पीछे यही कुंडलिनी विज्ञान छुपा है। सत्य बोलो, चोरी न करो, क्रोध न करो, मीठा बोलो, हमेशा प्रसन्न व हँसमुख रहो, आसक्ति न करो आदि वचन हमें अवैज्ञानिक लगते हैं, पर इनके पीछे की वजह बहुमूल्य ऊर्जा को बचा कर उसे कुंडलिनी को उपलब्ध कराना ही है, ताकि वह जल्दी से जल्दी जागृत हो सके। कइयों को इसमें केवल स्वास्थ्य विज्ञान ही दिखता है, पर इसमें आध्यात्मिक विज्ञान भी छुपा होता है। ड्रेगन, शेर आदि हिंसक जीवों की ऊर्जा जब मस्तिष्क से नीचे उतरती है, तब सबसे पहले चेहरे, जबड़े और गर्दन पर आती है। इसीलिए तो क्रोध भरे मुख से गुर्राते हुए ये जबड़े और गर्दन की कलाबाजी पूर्ण गतियों से शिकार के ऊपर टूट पड़ते हैं। फिर कुछ अतिरिक्त ऊर्जा आगे की टांगों पर भी आ जाती है, जिससे ये शिकार को कस कर पकड़ लेते हैं। जब इन क्रियाओं से दिल थक जाता है, तब अतिरिक्त ऊर्जा दिल को भी मिलती है। उसके बाद ऊर्जा पेट को पहुंचती है, जिससे भूख बढ़ती है। इससे वह और हमलावर हो जाता है, क्योंकि वहाँ से ऊर्जा बैक चैनल से वापिस ऊपर लौटने लगती है, और टॉप पर पहुंचकर एकदम से जबड़े को उतर जाती है। जब इतनी मेहनत के बाद भी शिकार काबू में न आकर भागने लगता है, तो ऊर्जा टांगों में पहुंच कर शिकारी को उसके पीछे भगाने लगती है। थोड़ी देर बाद वह ऊर्जा मस्तिष्क को वापिस चली जाती है, और शिकारी पशु थक कर बैठ जाता है। फिर वह अपनी ऊर्जा को नीचे उतारने के लिए चेहरे को विकृत नहीं करता क्योंकि तब उसे पता लग जाता है कि इससे कोई फायदा नहीं होने वाला। वह इतना थक जाता है कि उसके पास ऊर्जा उतारने के लिए भी ऊर्जा नहीं बची होती। ऊर्जा उतारने के लिए भी ऊर्जा चाहिए होती है। इसीलिए उस समय वह गाय की तरह शांत, दयावान, अहिंसक और सदगुणों से भरा लगता है, उसकी स्मरणशक्ति और शुभ भावनाएँ लौट आती हैं, क्योंकि उस समय उसका मस्तिष्क ऊर्जा से भरा होता है। यह अलग बात है कि मस्तिष्क से नीचे उतरी हुई ऊर्जा उसे अंधकार के रूप में महसूस होती है, कुंडलिनी चित्र के रूप में नहीं, क्योंकि निम्न जीव होने से उसमें दिमाग़ भी कम है, और वह कुंडलिनी योगी भी नहीं है। दरअसल जो शिव ने विष ग्रहण करके उसे गले में फँसा कर रखा था, वह आदमी के मस्तिष्क की दुर्भावनाओं के रूप में अभिव्यक्त ऊर्जा ही है। विष का पान किया, मतलब आम दुनिया की बुरी बातें और बुरे दृश्य नकारात्मक ऊर्जा के रूप में कानों और आँखों आदि से अंदर प्रविष्ट हो गए। वह नकारात्मक ऊर्जा जब विशुद्धि चक्र पर पहुंचती है, तब वह कुंडलिनी ऊर्जा में रूपांतरित होकर वहाँ लम्बे समय तक फंसी रहती है। इसकी वजह है गर्दन की स्थिति और बनावट। गर्दन सिर और धड़ के जोड़ की तरह है, जो सबसे ज्यादा गतिशील है। जैसे पाईप आदि के बीच में स्थित लचीले और मुलायम जोड़ों पर पानी या उसमें मौजूद मिट्टी आदि जम कर फंस जाते हैं, उसी तरह गर्दन में ऊर्जा फंसी रह जाती है। इसीलिए तो भगवान शिव से वह विष न तो उगलते बना और न ही निगलते, वह गले में ही फंसा रह गया, इसीलिए शिव नीलकंठ कहलाते हैं। इसीलिए कहते हैं कि जिसने विशुद्धि चक्र को सिद्ध कर दिया, उसने बहुत कुछ सिद्ध कर लिया। दरअसल अगर कुंडलिनी शक्ति को गले से नीचे के किसी चक्र पर उतारा जाए, तो वह एकदम से घूम कर दुबारा मस्तिष्क में पहुंच जाती है, और वहाँ तनाव के दबाव को बढ़ाती है। हालांकि फिर ज्यादातर मामलों में वह सकारात्मक या अद्वैतात्मक कुंडलिनी ऊर्जा के रूप में महसूस होती है, नकारात्मक या द्वैतात्मक ऊर्जा के रूप में नहीं। हृदय चक्र पर भी काफी देर तक स्थिर रहती है, नाभि चक्र और उसके नीचे के चक्रोँ से तो पेट की सिकुड़न के साथ एकदम वापिस मुड़ने लगती है। यद्यपि फिर यह सकारात्मक कुंडलिनी ऊर्जा है, लेकिन मस्तिष्क में इसके वापस बुरे विचारों में परिवर्तित होने की संभावना तब भी बनी ही रहती है। वह ऊर्जा योद्धा अंगों से उठापटक भी करवा सकती है। इसीलिए उसे गले के विशुद्धि चक्र पर रोककर रखा जाता है। मतलब कि अगर भगवान शिव तनाव रूपी जहर को गले से नीचे उतारकर पी जाए, तो वे विनाशकारी तांडव नृत्य से दुनिया में तबाही भी मचा सकते हैं, या वह रूपांतरित जहर उनके पेट से चूस लिया जाएगा, और वह रक्त में मिलकर पुनः मस्तिष्क में पहुंच जाएगा। मस्तिष्क में  जहर पहुंचने का अर्थ है, अज्ञानरूपी या मनोदोष रूपी अंधकार के रूप में मृत्यु की सम्भावना। मनोदोषों से दुनिया में फिर से तबाही का खतरा पैदा हो जाएगा। सम्भवतः कुंडलिनी शक्ति भोजन के साथ पेट में पहुंचती है, और वहाँ से इसी तरह मस्तिष्क में पहुंच जाती है। हालांकि, तथाकथित विकृत ऊर्जा रूपी जहर पीने के बाद, मस्तिष्क में पुन: अवशोषण के साथ, थोड़े अतिरिक्त विचारशील प्रयास के साथ लंबे समय तक इसके कुंडलिनी ऊर्जा में रूपांतरित बने रहने की अधिकतम संभावना होती है। शिव जहर को उगल भी नहीं सकते, क्योंकि अगर वे उसे बाहर उगलते हैं तो भी उससे जीवों का विनाश हो सकता है। आदमी के मस्तिष्क की दुर्भावनाएं यदि बदजुबानी, गुस्से, बुरी नजर या मारपीट आदि के रूप में बाहर निकल जाएं, तो स्वाभाविक रूप से वे अन्य लोगों और जीवजंतुओं का अहित ही करेंगी। उससे समाज में आपसी वैमनस्य और हिंसा आदि दोष फैलेंगे। इसीलिए लोग कहते हैं कि फलां आदमी को गुस्सा तो बहुत आया पर वह उसे पी गया। दरअसल गुस्सा पीआ नहीं जाता, उसे गले में अटकाकर रखा जाता है, पीने से तो वह फिर से दिमाग़ में पहुंच जाएगा। इसीलिए कई लोगों को आपने परेशान होकर कहते हुए सुना होगा, मेरे तो गले तक आ गई। दरअसल कमजोर वर्ग के लोग ऐसा ज्यादा कहते हैं, क्योंकि न तो वे परेशानी को निगल सकते हैं, और न ही उगल सकते हैं, लोगों के द्वारा बदले में सताए जाने के डर से। दरअसल वे सबसे खुश होते हैं भोले शंकर की तरह, परेशानी को गले में फँसाए रखने के कारण। वे परेशान नहीं होते, परेशानी का उचित प्रबंधन करने के कारण। परेशान वे औरों को लगते हैं, क्योंकि उन्हें परेशानी को प्रबंधित करना नहीं आता। बहुत से लोगों को नीले गले वाले शिव बेचारे लग सकते हैं, पर बेचारे तो वे लोग खुद हैं, जो उन्हें समझ नहीं पाते। शिव किसीके डर की वजह से विष को गले में धारण नहीं करते, बल्कि अपने पुत्र समान सभी जीवों के प्रति दया के कारण ऐसा करते हैं। भगवान शिव सारी सृष्टि को बनाते और उसका पूरा कार्यभार सँभालते हैं। इसलिए स्वाभाविक है कि उनका दिमाग़ भी तनाव और अवसाद से भर जाता होगा। वह तनाव गुस्से के रूप में दुनिया के ऊपर न निकले, इसीलिए वे तनाव रूपी विष को अपने गले में धारण करके रखते हैं। क्योंकि रक्त का रंग भी लाल-नीला ही होता है, जो शक्ति का परिचायक है, इसीलिए उनका गला नीला पड़ जाता है। वे एक महान योगी की तरह व्यवहार करते हैं।

समुद्र मंथन या पृथ्वी-दोहन मानसिक दोषों के रूप में विष उत्पन्न करता है, जिसे शिव जैसे महापुरुषों द्वारा पचाया या नष्ट किया जाता है

कहते हैं कि वह हलाहल विष समुद्रमंथन के दौरान निकला था। उसमें और भी बहुत सी ऐश्वर्यमय चीजें निकली थीं। समुद्र का मतलब संसार अर्थात पृथ्वी है, मंथन का मतलब दोहन है, ऐश्वर्यशाली चीजें आप देख ही रहे हैं, जैसे कि मोटरगाड़ियां, कम्प्यूटर, हवाई जहाज, परमाणु रिएक्टर आदि अनगिनत मशीनें। आज भी ऐसा ही महान मंथन चल रहा है। अनगिनत नेता, राष्ट्रॉध्यक्ष, वैश्विक संस्थाएं, वैज्ञानिक और तकनीशियन समुद्रमंथन के देवताओं और राक्षसों की तरह है। इस आधुनिक समुद्रमंथन से पैदा क्रोध, ईर्ष्या, अहंकार आदि मन के दोषों के रूप में पैदा होने वाले विष को पीने की हिम्मत किसी में नहीं है। दुनिया दो धड़ों में बंट गई है। एकतरफ तथाकथित राक्षस या तानाशाह लोग हैं, तो दूसरी तरफ तथाकथित देवता या लोकतान्त्रिक लोग हैं। इसीलिए पूरी दुनिया आज परमाणु युद्ध के मुहाने पर खड़ी है। सभी को इंतजार है कि किसी महापुरुष के रूप में शिव आएंगे और इस विष को पीकर दुनिया को नष्ट होने से बचाएंगे।

आज के समय में जिम व्यायाम के साथ योग बहुत जरूरी है

बहुत सी खबरें सुनने को मिल रही हैं कि फलां कलाकार या सेलिब्रिटी या कोई अन्य जिम व्यायाम करते हुए दिल के दौरे का शिकार होकर मर गया। मुझे लगता है कि वे पहले ही तनाव से भरे जीवन से गुजर रहे होते हैं। इससे उनके दिल पर पहले ही बहुत बोझ होता है। फिर बंद कमरे जैसे घुटन भरे स्थान पर भारी व्यायाम से वह बोझ और बढ़ जाता है, जिससे अचानक दिल का दौरा पड़ जाता है। पहले योग से तनाव को कम कर लेना चाहिए। उसके बाद ही भौतिक व्यायाम करना चाहिए, अगर जरूरत हो तो, और जितनी झेलने की क्षमता हो। योग से नाड़ियों में ऊर्जा घूमने लगती है। जीभ और तालु के आपसी स्पर्श के सहयोग से वह आसानी से मस्तिष्क से गले को या नीचे के अन्य चक्र को उतरती है, विशेषकर जब साथ में शरीरविज्ञान दर्शन की भी मन में भावना हो। शरीरविज्ञान दर्शन से मानसिक कुंडलिनी चित्र प्रकट होता है, और इसके साथ तालु-जीभ के परस्पर स्पर्ष के ध्यान से कुंडलिनी ऊर्जा अपने साथ ले जाता हुआ वह चित्र मस्तिष्क के दबाव को न बढ़ाता हुआ आगे के चैनल से होता हुआ किसी भी अनुकूल चक्र पर चमकने लगता है। इससे कुंडलिनी ऊर्जा व्यर्थ की बातचीत में बर्बाद न होकर विशुद्धि चक्र को भी पुष्ट करती है।

मस्तिष्क की ऊर्जा के सिंक या अवशोषक के रूप में विशुद्धि चक्र

ठंडे जल से नहाते समय जब नीचे से चढ़ती हुई ऊर्जा से मस्तिष्क का दबाव बढ़ जाता है या सिरदर्द जैसा होने लगता है, तब नीचे से आ रही ऊर्जा विशुद्धि चक्र पर कुंडलिनी प्रकाश और सिकुड़न के साथ घनीभूत होने लगती है। ऐसा लगता है कि नीचे का शरीर आटा चक्की का निचला पाट है, मस्तिष्क ऊपर वाला पाट है और विशुद्धि चक्र वह बीच वाला छोटा स्थान है, जिस पर दाना पिस रहा होता है। या ऊर्जा सीधी भी विशुद्धि चक्र को चढ़ सकती है, मस्तिष्क में अनुभव के बिना ही। जिसे ताउम्र प्रतिदिन गंगास्नान का अवसर प्राप्त होता था, उसे सबसे अधिक भाग्यवान, पुण्यवान और महान माना जाता था। “पंचस्नानी महाज्ञानी” कहावत भी शीतजल स्नान की महत्ता को दर्शाती है। गंगा के बर्फीले ठन्डे पानी में साल के सबसे ठंडे जनवरी (माघ) महीने के लगातार पांच पवित्र दिनों तक हरिद्वार के भिन्न-भिन्न पवित्र घाटों पर स्नान करना आसान नहीं है। आदमी में काफी योग शक्ति होनी चाहिए। पर यह जरूर है कि जिसने ये कर लिए, उसकी कुंडलिनी क्रियाशील होने की काफी सम्भावना है। इसीलिए कहते हैं कि ऐसे स्नान करने वाले को लोक और परलोक में कुछ भी दुर्लभ नहीं, मुक्ति भी नहीं। ठंडे पानी से नहाने वाले व ठंडे स्थानों में रहने वाले लोग इसके विशुद्धि चक्र प्रभाव की वजह से बहुत ओजस्वी और बातचीत में माहिर लगते हैं। यह ध्यान रहे कि ठंडे पानी का अभ्यास भी अन्य योगाभ्यासों की तरह धीरेधीरे ही बढ़ाना चाहिए, ताकि स्वास्थ्य को कोई हानि न पहुंचे। जिस दिन मन न करे, उस दिन नहीं नहाना चाहिए। अभ्यास और सहजता का नाम ही योग है। यकायक और जबरदस्ती योग नहीं है। अगर किसी दिन ज्यादा थकान हो तो न करने से अच्छा योगाभ्यास धीरे और आराम से करना चाहिए। इससे आदमी सहज़ योगी बनना सीखता है। किसी दिन कमजोरी लगे या मन न करे तो उस दिन अन्य धार्मिक गतिविधियों को छोड़ा भी जा सकता है, मूलभूत हठ योगाभ्यास को नहीं, क्योंकि योग सांसों या प्राणों से जुड़ा होने के कारण जीवन का मूल आधार ही है, जबकि अन्य गतिविधियां ऐड ऑन अर्थात अतिरिक्त हैं। होता क्या है कि बातचीत के समय मन में उमड़ रही भावनाएं और विचार विशुद्धि चक्र पर कैद जैसे हो जाते हैं, क्योंकि उस समय विशुद्धि चक्र क्रियाशील होता है। जब योग आदि से पुनः विशुद्धि चक्र को क्रियाशील किया जाता है, तब वे वहाँ दबे विचार व भावनाएँ बाहर निकल कर नष्ट हो जाती हैं, जिससे शांति महसूस होती है, और आदमी आगे की नई कार्यवाही के लिए तरोताज़ा हो जाता है। यह ऐसे ही है, जैसे खाली ऑडियो रिकॉर्डर में ऑडियो कैसेट को घुमाने से उस पर आवाज दर्ज हो जाती है। जब उस लोडिड कैसेट को पुनः उसी तरह घुमाया जाता है, तो वह दबी हुई आवाज गाने के रूप में बाहर आ जाती है, जिसे हम सब सुनते हैं। इसी तरह सभी चक्रोँ पर होता है। यह मुझे बहुत बड़ा चक्र रहस्य लगता है, जिसके बारे में एक पुरानी पोस्ट में भी बात कर रहा था।

श्री शब्द एक महामंत्र के रूप में (धारणा और ध्यान में अंतर)

जिंदगी की भागदौड़ में यदि शरीरविज्ञान दर्शन शब्द का मन में उच्चारण न कर सको, तो श्रीविज्ञान या शिवविज्ञान या शिव या शविद या केवल श्री का ही उच्चारण कर लो, कुंडलिनी आनंद और शांति के साथ क्रियाशील हो जाएगी। श्री शब्द में बहुत शक्ति है, इसी तरह श्री यंत्र में भी। सम्भवतः यह शक्ति शरीरविज्ञान दर्शन से ही आती है, क्योंकि श्री शब्द शरीर से निकला हुआ शब्द और उसका संक्षिप्त रूप लगता है। श्री शब्द सबसे बड़ा मंत्र लगता है मुझे, क्योंकि यह बोलने में सुगम है और एक ऐसा दबाव पैदा करता है, जिससे कुंडलिनी क्रियाशील होने लगती है। सम्भवतः इसीलिए किसी को नाम से सम्बोधित करने से पहले उसके साथ श्री लगाते हैं। इसी तरह धार्मिक अवसरों व क्रियाकलापों को श्री शब्द से शुरु किया जाता है। इसी तरह शिव भी शरीर से मिलता जुलता शब्द है, शव भी। इसीलिए शक्तिहीन शिव को शव भी कहते हैं। अति व्यस्तता या शक्तिहीनता की अवस्था में केवल “श” शब्द का स्मरण भी धारणा को बनाए रखने के लिए काफी है। मन की भावनात्मक अवस्था में इसके स्मरण से विशेष लाभ मिलता है। “श” व “स” अक्षर में बहुत शक्ति है। इसीलिए श अक्षर से शांति शब्द बना है। श अक्षर के स्मरण से भी शांति मिलती है और कुंडलिनी से भी। श अक्षर से कुंडलिनी मस्तिष्क के नीचे के चक्रोँ मुख्यतः हृदय चक्र पर क्रियाशील होने लगती है। इससे आनंद के साथ शांति भी मिलती है, और मस्तिष्क का बोझ हल्का हो जाने से काम, क्रोध आदि मन के जंगी दोष भी शांत हो जाते हैं। इसी तरह श अक्षर से ही शक्ति शब्द बना है, जो कुंडलिनी का पर्याय है। यह संस्कृत भाषा का विज्ञान है। आपने संस्कृत मंत्र स्वस्तिवाचन के बाद चारों ओर शांति का माहौल महसूस किया ही होगा। यह सामूहिक रूप में गाया जाता है, जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि की मंगलकामना की जाती है। ज्ञान होने पर भी उसका लाभ क्यों नहीं मिलता? क्योंकि हम ज्ञान की धारणा बना कर नहीं रखते। मैं ध्यान करने को नहीं बोल रहा। व्यस्त जीवन के दौरान ध्यान कर भी नहीं सकते। धारणा तो बना सकते हैं। धारणा और ध्यान में अंतर है। ध्यान का मतलब है उसको लगातार सोचना। इससे ऊर्जा का व्यय होता है। धारणा का मतलब है उस पर विश्वास या आस्था या उस तरफ सोच का झुकाव रखना। इसमें ऊर्जा व्यय नहीं होती। जब उपयुक्त समय कभी जिंदगी में प्राप्त होता है, तो धारणा एकदम से ध्यान में बदल जाती है और तनिक योगाभ्यास से समाधि तक ले जाती है। धारणा जितनी मजबूती से होगी और जितने लम्बे समय तक होगी, ध्यान उतना ही मजबूत और जल्दी लगेगा। पतंजलि ने भी अपने सूत्रों में धारणा से ध्यान स्तर का प्राप्त होना बताया है। मेरे साथ भी ठीक ऐसे ही हुआ। मैं शरीरविज्ञान दर्शन नामक अद्वैत दर्शन पर धारणा बना कर रखता था पर समय और ऊर्जा की कमी से ध्यान नहीं कर पाता था। इनकी उपलब्धता पर वह धारणा ध्यान में बदल गई और ====बाकि का सफर आपको पता ही है (कि क्या होता है )। अद्वैत की धारणा अप्रत्यक्ष रूप में कुंडलिनी की धारणा ही होती है, क्योंकि अद्वैत और कुंडलिनी साथसाथ रहने की कोशिश करते हैं। ध्यान प्रत्यक्ष रूप में, मतलब जानबूझकर कुंडलिनी का किया जाता है, जिसमे कुंडलिनी जागरण प्राप्त होता है।

रूपान्तरण से आदमी पुरानी चीजों को भूलता नहीं हैं, अपितु उन्हें सकारात्मकता के साथ अपनाता है

योग खुद कोई रूपान्तरण नहीं करता। यह अप्रत्यक्ष रूप से खुद होता है। योग से मन का कचरा बाहर निकलने से मन खाली और तरोताज़ा हो जाता है। इससे मन नई चीजों को ग्रहण करता है। नई चीजों में भी अच्छी चीजें और आदतें ही ग्रहण करता है, क्योंकि योग से सतोगुण बढ़ता है, जो अच्छी चीजों को ही आकर्षित करता है। कई लोगों को लगता होगा कि योग से रूपान्तरण के बाद आदमी इतना बदल जाता है कि उसके पुराने दोस्त व परिचित उससे बिछड़ जाते हैं, उसके मन में पुरानी यादें मिट जाती हैं, वह अकेला पड़ जाता है वगैरह वगैरह। पर दरअसल बिल्कुल ऐसा नहीं होता। रहता उसमें सबकुछ है, पर उसे उनके लिए वह क्रेविंग या छटपटाहाट महसूस नहीं होती, जो कि रूपान्तरण से पहले होती है। उनके लिए उसके मन में विकार नहीं होते, जैसे कि काम, क्रोध, लोभ, मोह और मत्सर। इसका मतलब है कि फिर पुराने दुश्मन भी उसे दोस्त लगने लगते हैं। अगर ऐसा रूपान्तरण सभी के साथ हो जाए, तो दुनिया से लड़ाई-झगड़े ही खत्म हो जाएं। अगर ऐसा ही रूपान्तरण सभी देशों या राष्ट्रध्यक्ष लोगों के साथ हो जाए, तो युद्ध वगैरह कथा-कहानियों तक ही सीमित रह जाएंगे।

कुंडलिनी तंत्र आधारित संभोग योग और ओशो~एक सच जो अधूरा समझा गया

मित्रो, मैं पिछली पोस्ट में ओशो महाराज के सम्मान में उनकी दार्शनिक रचनाओं पर प्रकाश डाल रहा था। वे अपनी दार्शनिक कौशलता से अपनी रचनाओं को सार्थक विस्तार देते थे। सार्थक मतलब उनसे मन की उलझनेँ दूर होती थीं। इसके विपरीत, कई लोगों द्वारा कई जगह निरर्थक विस्तार भी किया जाता है, जिससे मन की उलझनेँ सुलझने की बजाय बढ़ती हैं। इसी तरह सार्थक विस्तार कई रहस्यों को अपने अंदर छुपा कर रखते हैं, ताकि वे अयोग्य व्यक्ति को आसानी से उपलब्ध न हो सकें, पर योग्य व्यक्ति उन्हें अच्छी तरह समझ सकें। पुराणों की शैली भी इसी तरह की सार्थक विस्तारवाद की होती है। विस्तृत कथाओं के बीच में किस्मकिस्म के रहस्य उजागर किए गए होते हैं, जो ज्ञानचक्षु को खोलते रहते हैं। सबसे ज्यादा कारगर लेख बड़े लेख ही होते हैं। बड़े लेखों में दुर्लभ ज्ञान इसी तरह छिपा होता है, जैसे मिट्टी से भरी विस्तृत खदान में सोना। गूगल भी इस बात को समझता है, इसीलिए बड़े लेखों को ज्यादा तवज्जो देता है। अधिकांश लोग विशेषतः जो जल्दबाजी से भरे होते हैं, वे बड़े लेखों के अंदर छिपे हुए दिव्य ज्ञान से वँचित रह जाते हैं। मेरे हाल ही के पिछले कुछ लेख बहुत बड़े-बड़े थे, यहाँ तक कि एक तो आठ हजार के करीब शब्दों से भरा लेख था। इतने शब्दों से बहुत सी लघु पुस्तिकाएँ बनना शुरु हो जाती हैं। उन लेखों को लिखकर मुझे सबसे ज्यादा संतुष्टि मिली, क्योंकि उनमें वैसे उत्कृष्ट ज्ञान की और रहस्योद्घाटनों की झलक दिखी मुझे, जो बहुत कम दिखाई देती है। उनसे मुझे कई नई अंतःदृष्टियां भी मिलीं। हालांकि मुझे लगता है कि सम्भवतः उसे कम ही पाठक पूरा पढ़ पाए होंगे, समय की कमी के कारण। वैसे लेखक की मानसिकता पूरा लेख पढ़कर ही अच्छे से पकड़ में आती है। मैं एक पुस्तक लेखक ज्यादा हुँ, ब्लॉग लेखक कम। इसीलिए मेरी सभी ब्लॉग पोस्टें आपस में जुड़ी हुई सी लगती हैं। पिछली ब्लॉग पोस्ट की कमी अगली पोस्ट में पूरी कर लेता हुँ। इस तरह श्रृंखला में बंधी पोस्टें पुस्तक के रूप में भी संकलित की जाती रहती हैं। यह पुस्तक लिखने का अच्छा तरीका है, क्योंकि आज के व्यस्त युग में कोई आदमी एक बैठक में तो पुस्तक नहीं लिख सकता। साथ में, इन पोस्टों को बहुत सोचसमझ कर, बारबार निरिक्षण करने के बाद, पूर्ण विस्तार के साथ, और व्याकरण के अनुसार शुद्ध रूप में लिखा जाता है, ताकि पाठकों को कमेंट करने की जरूरत ही न पड़े। इसीलिए तो मेरे ब्लॉग में कमेंट होते ही नहीं, केवल पाठक ही होते हैं। अगर कमेंट होते हैं, तो तारीफ के ही होते हैं। हहा😄। पुस्तक में भी कमेंट सेक्शन नहीं होता। पुस्तक रूप में सम्भवतः वे बड़ी ब्लॉग पोस्टें काफी पसंद की गईं, जिसका पता बुक डाउनलोड रिपोर्ट में इजाफे से चला। किसी लेखक की सम्पूर्ण मानसिकता का पूरा पता उसकी सभी रचनाओं को पढ़कर चलता है। क्योंकि किसी में कुछ विशेष होता है, तो किसी में कुछ। अगर किसी एक रचना में कमी रह गई हो, तो लेखक उसे अपनी दूसरी रचना में पूरी कर देता है। अधूरी रचनाएं पढ़ने से रचनाकार के प्रति गलतफहमी पैदा हो सकती है। लिटल नॉलेज इज ए डेंजरस थिंग। इसमें कोई संदेह नहीं कि ओशो की सभी रचनाएं पढ़कर कोई भी व्यक्ति महामानव बन सकता है। ओशो की रचनाएं बहुत ज्यादा हैं, मेरी रचनाएं तो उनके मुकाबले बहुत कम हैं। मेरी सभी रचनाएं भी अगर कोई पढ़ ले, तो भी वह इनाम का पात्र बन जाए, ओशो की सभी रचनाएं पढ़ना तो दूर की बात है। हालांकि यह अलग बात है कि ओशो जैसे महान अवतारी पुरुष के आगे मैं कहीं भी नहीं ठहरता। महान लोगों को समझना भी कई बार कैसे कठिन हो जाता है, इसका मैं एक उदाहरण देता हुँ। मैं जब किशोरावस्था में था तो कई अय्याश किस्म के लोगों से, मुख्यतः कॉलेज टाइम में इस तरह से ओशो के सम्भोग-योग को सुना करता था, जैसे कि वे बड़ी ख़ुशी और उत्साह से अपनी बुराइयों को ढकने की कोशिश कर रहे हों। कुछ-कुछ मज़ाकिया लहजा भी होता था उनका सुनाने का। हालांकि वे लोग उसे शुद्ध सम्भोग मानकर चलते थे, योग का तो उसमें नामोनिशान नहीं दिखता था। इसलिए मुझे ओशो द्वारा प्रदत्त शिक्षा पर संदेह होता था। क्योंकि उस समय मैं कुंवारा था, और सम्भोग के अनुभव से अपरिचित था। हाँ, कुछ रहस्यमयी सच्चाई उसमें जरूर झलकती थी मुझे। इसकी वजह थी, उस समय के आसपास मुझे शुद्ध प्रेमयोग से क्षणिक आत्म जागृति का प्राप्त होना, बेशक स्वप्नकाल में ही सही। पर वह इतनी मज़बूत थी जिसने मुझे एक झटके में पूरी तरह से रूपातंरित करके आध्यात्मिक पथ पर लगभग पूरी तरह से धकेल दिया था। इसकी एक वजह यह भी रही होगी कि बाल्यकाल जैसी अवस्था के कारण मेरा मस्तिष्क तरोताज़ा व संवेदनशील था उस समय, इसलिए बहुत रिसप्टेव था रूपातंरण के लिए। मेरा शुद्ध मानसिक प्रेमयोग बेशक सम्भोग से नहीं बना था, पर सम्भोग की मानसिकता और लालसा उसके आधार में जरूर थी, जैसी कि पुरुष-स्त्री के हरेक प्रेम के संबंध में अक्सर होता ही है। इसमें विशेष बात यह थी कि सम्भवतः सम्भोग की सूक्ष्म मानसिकता और लालसा दोनों पक्षो में बराबर और बढ़चढ़ कर थी, मतलब वह एकतरफा प्यार की तरह नहीं था, ऐसा लगता है मुझे। हालांकि सबकुछ मन के अदृश्य आकर्षण से ही था, स्थूल रूप में कुछ भी नहीं था, कोई बोलचाल नहीं थी, कोई व्यक्तिगत मेलमिलाप नहीं था, सबकुछ लोगों या छात्रों के समूह तक ही सीमित था। यह अलग बात है कि स्त्रीपक्ष से ही प्रेम से भरी और नादानी या बचपने जैसे से भरी हुई पहलें हुआ करती थीं, शुद्ध मित्रता या प्रेम का संबंध बनाने के लिए। देवीमाता की विशेष कृपा से मुझे तो जैसे प्रेम के क्षेत्र में पीएचडी ही मिल गई थी, ऐसा लगता था मुझे, क्योंकि मुख्यतः वह वही प्रेम लगता था मुझे, जिससे मेरे सहस्रार का कमल खिल जैसा उठा था अंत में, क्योंकि यही सृष्टि की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसके लिए और भी बहुत सी अनुकूल वजहें रही थीं, पर वे प्रेम को परवान चढ़ाकर ही रंग ला सकी थीं, सीधे तौर पर नहीं, ऐसा लगता है मुझे। क्योंकि शरीरीक सम्भोग से न सही पर मानसिक या सूक्ष्म या अव्यक्त सम्भोग जैसे सुख से मुझे वह समाधि मिली थी, इसलिए मुझे ओशो से अपना अदृश्य संबंध भी महसूस होता था, बेशक दार्शनिक स्तर का ही सही। हालांकि मैंने उनकी शिक्षाओं को कभी ढंग से पढ़ा नहीं था। सम्भवतः मैं इसीलिए स्थूल सम्भोग से समाधि को नकारता था, बेशक बाहरबाहर से ही सही, क्योंकि अपने मन में ऐसी सम्भावना मुझे लगती भी थी। जब भी ओशो के व वामपंथी तांत्रिकों के अनुसार सम्भोग योग आदि के बारे में या कोई भी रोमांटिक किस्सा सुनता, तो मैं आनंद से भरी हुई समाधि में खोने लगता, कुंडलिनी मेरे सहस्रार में जोरों से चमकने लगती, मेरा रोमरोम खिल उठता और मेरे शरीर में कंपन जैसा होने लगता व सिर में भारीपन जैसा आ जाता। सम्भवतः मेरे मुलाधार पर बनी यौन ऊर्जा के ऊपर चढ़ने से ऐसा होता था। मेरी पीठ सीधी हो जाती, मेरे मुख पर लाली आ जाती, सांस तेज जैसी चलने लगती और मानसिक प्रेमिका का मनमोहक व समाधि चित्र जैसे जीवंत सा होकर मेरे सामने हँसता हुआ नाचने-गाने सा लगता, जिसे वश में करने के लिए कई बार उन वृद्ध आध्यात्मिक पुरुष का मानसिक चित्र भी जीवंत हो जाता। यह अलग बात है कि अनेक वर्षों के बाद पूर्ण समाधि या कुंडलिनी जागरण की झलक वाला अनुभव मुझे उन्ही पुरुष के मानसिक चित्र के यौनयोग सहायित कुण्डलिनीयोग के माध्यम से ध्यान से मिला, प्रेमिका के मानसिक चित्र से नहीं। साथ वाले छात्र या लोग उसे अन्यथा न समझे, इसके लिए मैं सम्भोग योग की वार्ता को बंद करवाने की कोशिश करता, या वे मुझे असहज जानकर खुद ही बंद कर देते, या मैं उनसे दूर हो जाने की कोशिश करता। सब उससे कुछ हैरान जैसे होते और सम्भवतः मुझे नपुंसक जैसा समझते। वैवाहिक जीवन में भी लम्बे समय तक मैं सम्भोग-समाधि का रहस्य समझ नहीं पाया, हालांकि स्वाभाविक रूप से मैं उसकी तरफ जा रहा था क्योंकि कुदरतन हर कोई पूर्णता की तरफ बढ़ता है, पर यह पता नहीं था कि यही समाधि है, और यह सम्भोग से सबसे शीघ्रता से मिलती है। मतलब कि जैसे एक अंधा आदमी हाथी को छू तो पा रहा था, पर उसे यह पता नहीं था कि वह हाथी था। एकबार मैंने अख़बार में ओशो के सम्भोग-समाधि से संबंधित एक लेख को पढ़ा, तो मैं झुंझला गया। खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे वाली बात हुई। मैं अपने शुद्ध प्रेमयोग पर गर्वित जैसा होते हुए एक पिता समान वृद्ध व्यक्ति के सामने उस लेख का खंडन करने लगा। उन्होंने बड़े गुस्से में भड़कते हुए एक ही बात कही, वह ठीक कहता है। उस समय तो कुछ समझ नहीं आया पर अब लगता है कि वे ओशो जैसे महान व्यक्तित्व के कथन का खंडन भी नहीं कर पा रहे थे, और उसे समझ भी नहीं पा रहे थे। साथ में लोकलाज के डर से उसपर कुछ बोल भी नहीं पा रहे। खैर, समय बीतता गया, और मेरे अनुभव का दायरा बढ़ता गया। बहुत वर्षों के बाद की बात है। मानो किसी दैवीय शक्ति से आधिभोतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक, तीनों तापों से तपे हुए मुझ राहगीर को एक सरोवर के निकट उपजे वटवृक्ष की छाया तले जैसे स्थान पर लगभग 2-3 वर्ष विश्राम का मौका मिला। उस सकारात्मक  विश्राम से शक्ति अर्जित करके मैं इंटरनेट पर तंत्र से संबंधित लेख और पुस्तकें पढ़ने लगा। लगभग 10-15 वर्षों से शरीरविज्ञान दर्शन के साथ जीवनयापन करने से तंत्र की तरफ मेरा झुकाव पहले से ही बना हुआ था। मतलब कि बारूद तैयार था, उसे सिर्फ चिंगारी की जरूरत थी। साथ में, बहुत से कुंडलिनी संबंधी ऑनलाइन वार्ता मंचों में भी शामिल होने लगा। वैज्ञानिक व खोजी स्वभाव तो मेरा पहले से था ही। इसलिए यौनतंत्र की सहायता से कुंडलिनी को खोजने की इच्छा हुई, जो कुछ हद तक सफल भी हो गई। तब मैं ओशो के उपरोक्त वैश्विक महावक्य को लगभग  पूरी तरह समझ पाया। एक युगपुरुष को पूरी तरह तो कौन समझ सकता है, इसीलिए साथ में लगभग शब्द जोड़ रहा हुँ। यह अलग बात है कि सम्भोग योग कोई आधुनिक या मध्य युग की खोज नहीं है। शिवपुराण में भी इसका बेहतरीन उल्लेख मिलता है। वहाँ इसे रहस्यात्मक तरीके से लिखा गया है, जैसे अग्निदेव का कबूतर बनकर शिवतेज को धारण करना, उस तेज को सात ऋषिपत्नियों के द्वारा ग्रहण करना, ऋषिपत्नियों के द्वारा उसे हिमालय को देना, हिमालय के द्वारा उसे गंगा में उड़ेलना, गंगा के किनारे पर उगे सरकंडों पर उससे बालक कार्तिकेय का जन्म होना आदि। इस आख्यान को इसी ब्लॉग की एक पोस्ट में विस्तार से रहस्योद्घाटित भी किया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि देशकालातीत भगवान शिव ही संभोग योग के जनक हैं, कोई पार्थिव व्यक्ति नहीं। जहाँ तक मेरे सीमित ज्ञानचक्षु देख पा रहे हैं, मुझे नहीं लगता कि प्रिय ओशो महाराज ने संभोग योग के वर्णन के दौरान भगवान शिव की इस कथा का हवाला देते हुए इसका श्रेय उन्हें दिया हो। अगर इसकी जानकारी किसी को हो तो कृपया मुझे बताए ताकि मेरे ज्ञान में भी वृद्धि हो सके। सम्भवतः इसी वजह से वे कुछ व्यर्थ के विवादों से भी घिरे रहे। होता क्या है कि जब अपने कथन का श्रेय किसी अन्य को, गुरु को या उच्चाधिकारी को या देवता को या ईश्वर को, या यहाँ तक कि काल्पनिक नाम को दिया जाता है, तो एक तो उससे अनावश्यक अहंकार पैदा नहीं होता, और दूसरा लोगों की गलतफहमी से अनावश्यक बवाल या विवाद भी पैदा नहीं होता। इसीलिए हरेक मंत्र के शुरु में ॐ लगाया जाता है, जिसका मतलब है कि यह कथन ईश्वर का है, मेरा नहीं। मैं भी शुरु से कहता आया हूँ कि इस बारे में मेरा कथन अपना नहीं है। मैं तो वही कह रहा हूँ जो पहले से ही भगवान शिव और ओशो महाराज या युगों पुरातन तांत्रिक कुंडलिनी योगियों ने कहा हुआ है। यह अलग बात है कि सूत्रों के अनुसार नूपुर शर्मा ने भी वही कहा था, जो कुरान में लिखा था, और उसने इस बात का हवाला भी दिया था। फिर भी उस बेचारी अकेली महिला के खिलाफ बहुत से मुस्लिम संगठन और इस्लामिक देश लामबंद हो गए, यहाँ तक कि उस बात पर जेहादियों ने कुछ हिन्दू लोगों का कत्ल तक कर दिया। इससे सिद्ध हो जाता है कि धर्माँधों के मामले में यह सोशल इंजिनीयरिंग तकनीक भी कम ही काम करती है। मुझे तो यह भी लगता है, और जैसी कुछ खबरें और गिरप्तारियां भी सुनने में आईं हैं कि यह नूपुर शर्मा को फँसाने का एक झूठा बहाना था, क्योंकि वह अपने ऊपर अंगुली उठाने का मौका ही नहीं देती थी। यह बहाना ऐसा था कि एक शेर नदी में ऊपर की तरफ पानी पी रहा था। उसकी निचली तरफ एक मेमना भी पानी पी रहा था। शेर ने मेमने से कहा कि तू मेरा पानी जूठा कर रहा है, मैं तुझे खा जाऊंगा। तो मेमने ने कहा कि महाराज, आप तो मेरे से ऊंचाई पर हैं, मेरा जूठा पानी तो आपतक आ ही नहीं रहा, बल्कि मैं आपका जूठा पानी पी रहा हुँ। तो शेर ने कहा कि फिर जरूर तेरे मांबाप ने मेरा पानी जूठा किया होगा, और ऐसा कहकर वह उसको खा गया। प्रखर और तेजस्वी भाजपा प्रवक्ता थी नूपुर शर्मा। हर राजनीतिक या धार्मिक प्रश्न का जवाब बड़ी चतुराई से, तहजीब से, दबदबे से, गहराई से और साक्ष्य के साथ प्रस्तुत करती थी। सरस्वती, लक्ष्मी और काली की एकसाथ छटाएं दिखती थीं कई बार उनके अंदर। दूरदर्शन की चर्चाओं में अनर्गल और बेतुके तर्क-वितर्क करने वाले इस्लामिक विद्वानों को छठी का दूध याद दिलाती थी वह। भैंस के आगे बीन बजाओगे तो वह माला तो नहीं पहनाएगी न। करे कोई, मरे कोई। अब समय आ गया है कि धार्मिक असहिष्णुता का रोग जड़ से खत्म कर दिया जाए। जब तक मानवतापूर्ण और क़ानूनबद्ध तरीके से ऐसा न कर लिया जाए, तब तक ऐसी उद्वेगकारी बयानबाजी से बचना चाहिए। जब पता है कि बोतल का ढक्कन खोलने से जिन्न बाहर निकलेगा, तो उसे खोलना ही क्यों। दरअसल भोलेभाले और बड़बोले लोगों को भड़काने वाले दूसरे ही शातिर लोग होते हैं। हम किसी का पक्ष-विपक्ष नहीं लेते, न किसी की प्रशंसा करते, न किसी की बेइज्जती, सच को सच और झूठ को झूठ बोलते हैं, धर्माँधों के बिलकुल उलट। चलो भाई, फिर से थोड़ा सा मुख्य विषय कुंडलिनी की तरफ और चलते हैं। मेरे द्वारा या किसी अन्य के द्वारा कुंडलिनी की खोज कोई विशेष बात नहीं है। कुंडलिनी की खोज कोई आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत की खोज नहीं है, कि जिसे एकबार खोज लिया, तो दूसरों को दुबारा खोजने की जरूरत नहीं है। कुंडलिनी की खोज हरेक आदमी को खुद करनी पड़ेगी, और उसके अनुसार जीवनयापन करना पड़ेगा, औरों की खोज से विशेष लाभ नहीं मिलने वाला। दूसरों की खोज से यह अंदाजा जरूर लग सकता है कि वह देखने में कैसी है, और उसे कहाँ और कैसे खोजा जा सकता है।

ओशो महाराज कट्टर धार्मिकता के प्रखर विरोधी थे

ओशो महाराज को मैं इसलिए भी बहुत मानता हूँ, क्योंकि वे धार्मिक कट्टरता के प्रखर विरोधी थे। वे मानते थे कि यह उन्मुक्त आध्यात्मिक चिंतन को नहीं पनपने देती। इससे आदमी के ज्ञान का कमल ढंग से विकसित नहीं हो पाता। वे जेहाद के खिलाफ भी खुलकर अपनी बात रखते थे। उनका कहना था कि परम तत्त्व को धर्म की सुरक्षा के लिए किसी सिपाही की जरूरत नहीं है। वे खुद पूर्ण सक्षम हैं। वे कट्टर धार्मिक अधिष्ठाताओं को मानसिक रोगी जैसा कहते थे। अभी हाल ही में इसी हफ्ते जिहादियों ने राजस्थान के उदयपुर में कन्हैया लाल नाम के एक दर्जी का इसलिए आईएसआई और तालिबानी स्टाइल में बेरहमी से गला रेत कर कत्ल कर दिया क्योंकि उसने नूपुर शर्मा के समर्थन में एक फेसबुक पोस्ट डाली थी। यह घटना फ्रांस में घटित चार्ली हैब्दो जेहादी कांड की याद दिलाती है। यह बेहद निंदनीय है।

कुंडलिनी पुरुष के रूप में भगवान कार्तिकेय का लीला विलास

मित्रो, मुझे भगवान कार्तिकेय की कथा काफी रोचक लग रही है। इसमें बहुत से कुंडलिनी रहस्य भी छिपे हुए लगते हैं। इसलिए हम इसे पूरा खंगालेंगे। शिवपुराण के अनुसार ही, फिर सरकंडे पर जन्मे उस बालक को ऋषि विश्वामित्र ने देखा। बालक ने उन्हें अपना वेदोक्त संस्कार कराने के लिए कहा। जब विश्वामित्र ने कहा कि वे क्षत्रिय हैं, ब्राह्मण नहीं, तब कार्तिकेय ने उनसे कहा कि वे उसके वरदान से ब्राह्मण हो गए। फिर उन्होंने उसका संस्कार किया। तभी वहाँ छः कृत्तिकाएँ आईं। जब वे उस बालक को लेकर लड़ने लगीं, तो वह छः मुंह बनाकर छहों का एकसाथ स्तनपान करने लगा। अग्निदेव ने भी उसे अपना पुत्र कहकर उसे शक्तियां दीं। उन शक्तियों को लेकर वह करौंच पर्वत पर चढ़ा और उसके शिखर को तोड़ दिया। तब इंद्र ने नाराज होकर उस पर वज्र से कई प्रहार किए, जिनसे शाख, वैशाख और नैगम तीन पुरुष पैदा हुए और वे चारों इंद्र को मारने के लिए दौड़ पड़े। कृत्तिकाओं ने अपना दूध पिलाकर कार्तिकेय को पाला पोसा, और जगत की सभी सुख सुविधाएं उसे दीं। उसे उन्होंने दुनिया की नजरों से छिपाकर रखा कि कहीं उस प्यारे नन्हें बालक को कोई उनसे छीन न लेता। 
पार्वती ने शंकित होकर शिव से पूछा कि उनका अमोघ वीर्य कहाँ गया। उसे किसने चुराया। वह निष्फल नहीं हो सकता। भगवान शिव जब पार्वती के साथ व अन्य देवताओं के साथ अपनी सभा में बैठे थे, तो उन्होंने सभी देवताओं से इस बारे पूछा। उन्होंने कहा कि जिसने भी उनके अमोघ वीर्य को चुराया है, वह दण्ड का भागी होगा, क्योंकि जो राजा दण्डनीय को दण्ड नहीं देता, वह लोकनिंदित होता है। सभी देवताओं ने बारी-बारी से सफाई दी, और वीर्यचोर को भिन्न-भिन्न श्राप दिए। तभी अग्निदेव ने कहा कि उन्होंने वह वीर्य शिव की आज्ञा से सप्तऋषियों की पत्नियों को दिया। उन्होंने कहा कि उन्होंने वह हिमालय को दे दिया। हिमालय ने बताया कि वह उसे सहन नहीं कर पाया और उसे गंगा को दे दिया। गंगा ने कहा कि उस असह्य वीर्य को उसने सरकंडे की घास में उड़ेल दिया। वायुदेव बोले कि उसी समय वह वीर्य एक बालक बन गया। सूर्य बोले कि रोते हुए उस बालक को देख न सकने के कारण वह अस्ताचल को चला गया। चन्द्रमा बोला कि कृत्तिकाएँ उसे अपने घर ले गईं। जल बोला कि उस बालक को कृत्तिकाओं ने स्तनपान कराके बड़ा किया है। संध्या बोली कि कृत्तिकाओं ने प्रेम से उसका पालन पोषण करके कार्तिक नाम रखा है। रात्रि बोली कि वे कृत्तिकाएँ उसे अपनी आँखों से कभी दूर नहीं होने देतीं। दिन बोला कि वे कृत्तिकाएँ उसे श्रेष्ठ आभूषण पहनाती हैं, और स्वादिष्ट भोजन कराती हैं। इससे शिवपार्वती, दोनों बड़े खुश हुए, और समस्त जनता भी। तब शिव के गण दिव्य विमान लेकर कृतिकाओं के पास गए। जब कृतिकाओं ने उसे देने से मना किया तो गणों ने उन्हें शिवपार्वती का भय दिखाया। कृत्तिकाएँ डर गईं तो कार्तिकेय ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि उसके होते हुए उन्हें डरने की आवश्यकता नहीं। उन्होंने रोते हुए कार्तिकेय को हृदय से लगाकर उसीसे पूछा कि वह कैसे उन अपनी दूध पिलाने वाली माताओं से अलग हो पाएगा, जो एकपल के लिए भी उसे अपनी नजरों से ओझल नहीं होने देतीं। कार्तिकेय ने कहा कि वह उनसे मिलने आया करेगा। दिव्य विमान पर आरूढ़ होकर कार्तिकेय शिवपार्वती के पास कैलाश पर आ गया। हर्षोल्लास का पर्व मनाया गया। शिवपार्वती ने उसे गले से लगा लिया। कार्तिकेय के दिव्य तेज से प्रभावित होकर बहुत से लोग उसके भक्त बन कर उसकी स्तुति करने लगे। वे उसे शिव की प्राप्ति कराने वाला और जन्ममरण से मुक्ति देने वाला कहते। वे उसे अपना सबसे प्रिय इष्टदेव कहते। एक आदमी का यज्ञ के लिए बंधा बकरा कहीं भाग गया था। सबने उसे ब्रह्मांड में हर जगह ढूंढा, पर वह नहीं मिला। फिर वह आदमी भगवान कार्तिकेय के पास आकर उनसे प्रार्थना करने लगा कि वे ही उस बकरे को ला सकते हैं, नहीं तो उसका अजमेध यज्ञ नष्ट हो जाएगा। कार्तिकेय ने वीरबाहु नामक गण को पैदा करके उसे वह काम सौंपा। वह उसे ब्रह्मांड के किसी कोने से बांध कर ले आया और कार्तिकेय के समक्ष उस आदमी को सौंप दिया। कार्तिकेय ने उसपर पानी छिड़कते हुए उससे कहा कि वह बकरा बलिवध के योग्य नहीं, और उसे उस आदमी को दे दिया। वह कार्तिकेय को धन्यवाद देकर चला गया।

उपर्युक्त कुंडलिनी रूपक का रहस्योद्घाटन

विश्वामित्र ने कुंडलिनी का अनुभव किया था। वे क्षत्रिय थे पर कुंडलिनी के अनुभव से उनमें ब्रह्मतेज आ गया था। उसी कुंडलिनी पुरुष अर्थात कार्तिकेय के अनुभव से ही वे ब्रह्मऋषि बने। कुंडलिनी से ब्रह्मऋषित्व है, जाति या धर्म से ही नहीं। कार्तिकेय का संस्कार करने का मतलब है कि उन्होंने कुंडलिनी पुरुष को अपनी योगसाधना से प्रतिष्ठित किया। छः कृत्तिकाएँ छः चक्र हैं। कुंडलिनी पुरुष अर्थात कुंडलिनी चित्र कभी किसी एक चक्र पर तो कभी किसी अन्य चक्र पर जाता हुआ सभी चक्रों पर भ्रमण करता है। इसीको उनका आपस में लड़ना कहा गया है। फिर योगी ने तीव्र योगसाधना से उसे सभी चक्रों पर इतनी तेजी से घुमाया कि वह सारे चक्रों पर एकसाथ स्थित दिखाई दिया। यह ऐसे ही है कि यदि कोई जलती मशाल को तेजी से चारों ओर घुमाए, तो वह पूरे घेरे में एकसाथ जलती हुई दिखती है। इसीको कार्तिकेय का छः मुख बनाना और एकसाथ छहों कृत्तिकाओं का दूध पीना कहा गया है। चक्रों पर कुंडलिनी पुरुष के ध्यान से उसे बल मिलता है। इसे ही कार्तिकेय का दूध पीना कहा गया है। रोमांस से सम्बंधित विषयों को ‘हॉट’ भी कहा जाता है। इसलिए उन विषयों पर अग्निदेव का आधिपत्य रहता है। क्योंकि कुंडलिनी पुरुष की उत्पत्ति इन्हीं विषयों से हुई, इसीलिए वह अग्निदेव का पुत्र हुआ। उत्पत्ति होने के बाद भी कुंडलिनी पुरुष को तांत्रिक योग से बल मिलता रहा, जिसमें प्रणय प्रेम की मुख्य भूमिका होती है। इसीको अग्निदेव के द्वारा कार्तिकेय को बल देना कहा गया है। फिर कुंडलिनी उससे शक्ति लेकर आज्ञाचक्र के ऊपर आ गई। मूलाधार और आज्ञाचक्र आपस में सीधे जुड़े हुए दिखाए जाते हैं। इसको कार्तिकेय का क्रौंच पर्वत पर चढ़ना बताया गया है। क्रौं से मिलता जुलता सबसे नजदीकी शब्द क्रांति है। क्रांतिकारी चक्र आज्ञा चक्र को भी कह सकते हैं। आज्ञाचक्र एक बुद्धिप्रधान चक्र है। क्रांति बुद्धि से ही होती है, मूढ़ता से नहीं। क्रौंच पर्वत के शिखर को तोड़ता है, मतलब तेज, जजमेंटल और द्वैतपूर्ण बुद्धि को नष्ट करता है। अहंकार से भरा जीवात्मा कुंडलिनी को सहस्रार में जाने से रोकना चाहता है। उसी अहंकार को इंद्र कहा गया है। उसके द्वारा कुंडलिनी को रोकना ही उसके द्वारा कार्तिकेय पर वज्र प्रहार है। कुंडलिनी आज्ञाचक्र पर तीन नाड़ियों से आती है। ये नाड़ियां हैं, इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इससे कुंडलिनी आज्ञा चक्र से नीचे आती रहती है, और तीनों नाड़ियो से फिर से ऊपर जाती रहती है। इससे वह बहुत शक्तिशाली हो जाती है। यही वज्र प्रहार से कार्तिकेय से तीन टुकड़ों का अलग होना है। शाख इड़ा है, वैशाख पिंगला है, नैगम सुषुम्ना है। शाखा से जुड़ा नाम इसलिए दिया गया है, क्योंकि ये दोनों नाड़ियां टहनियों की तरह हैं। मूल वृक्ष सुषुम्ना है, इसलिए उसे नैगम नाम दिया गया है। सभी निगमों अर्थात धर्मशास्त्रों का निचोड़ सुषुम्ना ही है, इसीलिए नैगम नाम दिया गया। कुंडलिनी पुरुष अर्थात कार्तिकेय के साथ ये तीनों पुरुष इंद्र को मारने दौड़ पड़े, मतलब कुंडलिनी सहस्रार की ओर अग्रसर थी, जिससे इंद्र रूपी अहंकार का नाश होना था। सभी लोग कार्तिक की ऐसे स्तुति कर रहे हैं, जैसे कुंडलिनी पुरुषरूप देवता की स्तुति की जाती है। कुंडलिनी तांत्रिक क्रियाओं से भी शक्ति प्राप्त कर सकती है। ऐसा तब ज्यादा होता है जब कुंडलिनी की तीव्र अभिव्यक्ति के साथसाथ शारिरिक श्रम भी खूब किया जाता है। इसका अर्थ है कि कुंडलिनी ही तांत्रिक यज्ञों को सफल बनाती है। कार्तिकेय के द्वारा पैदा किए गए वीरबाहु नामक गण के द्वारा बलि के बकरे को ढूंढ कर यज्ञ को पूर्ण करना इसी सिद्धांत को दर्शाता है। वीरबाहु का मतलब है, ऐसा व्यक्ति, जो अपनी भुजाओं की शक्ति के कारण ही वीर है। यह श्रमशीलता का परिचायक है। अधिकांशतः कुंडलिनी शक्ति के प्रतीकों से ही संतुष्ट हो जाती है, शक्ति के लिए हिंसा की जरूरत ही नहीं पड़ती। इससे यह तातपर्य भी निकलता है कि कम से कम हिंसा और अधिक से अधिक आध्यात्मिक लाभ। तंत्र के नाम पर नाजायज हिंसा का विरोध करने के लिए ही यह दिखाया गया है कि कार्तिकेय ने बकरे पर जल का छिड़काव करके उसे छोड़ देने के लिए कहा। यह हिंसा का प्रतीकात्मक स्वरूप ही है। शेष अगले हफ्ते।

कुंडलिनी साहित्य के रूप में संस्कृत साहित्य एक आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक, अत्याधुनिक, और सदाबहार साहित्य है

संस्कृत साहित्य कुंडलिनी आधारित साहित्य होने के कारण ही एक अनुपम साहित्य है

दोस्तो, मैं संस्कृत साहित्य का जन्मजात शौकीन हूँ। संस्कृत साहित्य बहुत मनोरम, सजीव, जीवंत व चेतना से भरा हुआ है। एक सज्जन संस्कृत विद्वान ने बहुत वर्षों पहले ‘संस्कृत साहित्य परिचायिका’ नाम से एक सुंदर, संक्षिप्त व ज्ञान से भरपूर पुस्तक लिखी थी। उस समय ऑनलाइन पुस्तकों का युग नहीं आया था। इससे वह आजतक गुमनामी में पड़ी रही। मेरी इच्छा उसको ऑनलाइन करने की हुई। कम्प्यूटर पर टाइपिंग में समस्या आई, क्योंकि अधिकांश शब्द संस्कृत के थे, और टाइप करने में कठिन थे। भला हो एंड्रॉयड में गूगल के इंटेलिजेंट कीबोर्ड का। उससे अधिकांश टाइपिंग खुद ही होने लगी। मैं तो शुरु के कुछ ही वर्ण टाइप करता हूँ, बाकी वह खुद प्रेडिक्ट कर लेता है। आधे से ज्यादा टाइप हो गई। अधिकांश पब्लिशिंग प्लेटफोरमों पर तो मैंने इसे ऑनलाइन भी कर दिया है। शेष स्थानों पर भी मैं इसे जल्दी ही ऑनलाइन करूँगा। निःशुल्क पीडीएफ बुक के रूप में यह इस वेबसाइट के शॉप पेज पर दिए गए निःशुल्क पुस्तकों के लिंक पर भी उपलब्ध है। यह सभी साहित्यप्रेमियों के पढ़ने लायक है। आजकल किसी भी विषय का आधारभूत परिचय ही काफी है। बोलने का तात्पर्य है कि विषय की हिंट ही काफी है। उसके बारे में बाकि विस्तार तो गूगल पर व अन्य साधनों से मिल जाता है। केवल साहित्य से जुड़े हुए प्रारम्भिक संस्कार को बनाने की आवश्यकता होती है, जिसे यह पुस्तक बखूबी बना देती है। संस्कृत साहित्य का भरपूर आनंद लेने के लिए इस पुस्तक का कोई सानी नहीं है। यह छोटी जरूर है, पर गागर में सागर की तरह है। इसी पुस्तक से निर्देशित होकर मैं कालीदासकृत कुमारसम्भव काव्य की खोज गूगल पर करने लगा। मुझे पता चला कि इसमें शिव-पार्वती के प्रेम, उससे भगवान कार्तिकेय के जन्मादि की कथा का वर्णन है। कुमार मतलब लड़का या बच्चा, सम्भव मतलब उत्पत्ति। कहते हैं कि शिव और पार्वती के संभोग का वर्णन करने के पाप के कारण कवि कालीदास को कुष्ठरोग हो गया था। इसलिए वहां पर उन्होंने उसे अधूरा छोड़ दिया। बाद में उसे पूरा किया गया। कुछ लोग कहते हैं कि आम जनमानस ने शिव-पार्वती के प्रति भक्तिभावना के कारण उनके संभोग-वर्णन को स्वीकार नहीं किया। इसलिए उन्हें उसे रोकना पड़ा। पहली संभावना यद्यपि विरली पर तथ्यात्मक भी लगती है, क्योंकि वह आम संभोग नहीं है। उसका लौकिक तरीके से वर्णन नहीं किया जा सकता। वह एक तंत्रसाधना के रूप में है, और रूपकात्मक है, जैसा कि पिछली पोस्ट में दिखाया गया है। लौकिक हास्यविनोद व मनोरंजन का उसमें कोई स्थान नहीं है। इस संभावना के पीछे मनोविज्ञान तथ्य भी है। क्योंकि देवताओं के साथ बहुत से लोगों की मान्यताएं और आस्थाएँ जुड़ी होती हैं, इसलिए उनके अपमान से उनकी अभिव्यक्त बददुआ या नाराजगी की दुर्भावना तो लग ही सकती है, पर अनभिव्यक्त अर्थात अवचेतनात्मक रूप में भी लग सकती है। इस तरह से अवलोकन करने पर पता चलता है कि सारा संस्कृत साहित्य हिंदु वेदों और पुराणों की कथाओं और आख्यानों के आधार पर ही बना है। अधिकाँश साहित्यप्रेमी और लेखक वेदों या पुराणों से किसी मनपसंद विषय को उठा लेते हैं, और उसे विस्तार देते हुए एक नए साहित्य की रचना कर लेते हैं। क्योंकि वेदों और पुराणों के सभी विषय कुण्डलिनी पर आधारित होने के कारण वैज्ञानिक हैं, इसलिए संस्कृत साहित्य भी कुण्डलिनीपरक और वैज्ञानिक ही सिद्ध होता है।

विभिन्न धर्मों की मिथकीय आध्यात्मिक कथाओं के रहस्योद्घाटन को सार्वजनिक करना आज के आधुनिक, वैज्ञानिक, व भौतिकवादी युग की मूलभूत मांग प्रतीत होती है

मुझे यह भी लगता है कि आध्यात्मिक रहस्यों को उजागर करने से समाज को बहुत लाभ भी प्राप्त हो सकता  है। मैं यह तो नहीं कहता कि हर जगह रहस्य को उजागर किया जाए, क्योंकि ऐसा करने से रहस्यात्मक कथाओं का आनन्द समाप्त ही हो जाएगा। पर कम से कम एक स्थान पर तो उन रहस्यों को उजागर करने वाली रचना उपलब्ध होनी चाहिए। कहते हैं कि आध्यात्मिक सिद्धांतों व तकनीकों को इसलिए रहस्यमयी बनाया गया था, ताकि आदमी आध्यात्मिक परिपक्वता से पहले उनको आजमाकर पथभ्रष्ट न होता। पर कई बार ऐसा भी होता है कि अगर आध्यात्मिक परिपक्वता से पहले ही आदमी को रहस्य की सच्चाई पता चल जाए, तब भी वह उससे तभी लाभ उठा पाएगा जब उसमें परिपक्वता आएगी। रहस्य को समझ कर उसे यह लाभ अवश्य मिलेगा कि वह उससे प्रेरित होकर जल्दी से जल्दी आध्यात्मिक प्रगति प्राप्त करने की कोशिश करके आध्यात्मिक परिपक्वता को हासिल करेगा, ताकि उस रहस्य से लाभ उठा सके। साथ में, तब तक वह योग साधना के रहस्यों व सिद्धांतों से भलीभांति परिचित हुआ रहेगा। उसे जरूरत पड़ने पर वे नए और अटपटे नहीं लगेंगे। कहते भी हैं कि अगर कोई आदमी अपने पास लम्बे समय तक चाय की दुकान का सामान संभाल कर रखे तो वह एकदिन चाय की दुकान जरूर खोलेगा, और कामयाब उद्योगपति बनेगा। पहले की अपेक्षा आज के युग में आध्यात्मिक रहस्योद्घाटन को सार्वजनिक करना इसलिए भी जरूरी लगता है क्योंकि आजकल ईमानदार, व निपुण आध्यात्मिक गुरु विरले ही मिलते हैं, और जो होते हैं वे भी अधिकांशतः आम जनमानस की पहुंच से दूर होते हैं। पहले ऐसा नहीं होता था। उस समय अध्यात्म का बोलबाला होता था। आजकल तो भौतिकता का बोलबाला ज्यादा है। अगर आजकल कोई आध्यात्मिक रूप से परिपक्व हो जाए, और उसे उसकी जरूरत के अनुसार सही मार्गदर्शन न मिले, तो उसे तो बड़ी आध्यात्मिक हानि उठानी पड़ सकती है। एक अन्य लाभ यह भी मिलेगा कि जब सभी धर्मों का रहस्योद्घाटन हो जाएगा, तब सबको कुंडलिनी तत्त्व अर्थात अद्वैत तत्त्व ही अध्यात्म के मूल तत्त्व के रूप में नजर आएगा। इससे सभी धर्मों के बीच में आपसी कटुता समाप्त हो जाएगी और असल रूप में सर्वधर्मसमभाव स्थापित हो पाएगा। इससे दुनिया के अधिकांश झगड़े समाप्त हो जाएंगे।

इड़ा नाड़ी को ही ऋषिपत्नी अरुन्धती कहा गया है

अब पिछली पोस्ट में वर्णित रूपकात्मक कथा को आगे बढ़ाते हैं। उसमें जिस अरुंधति नामक ऋषिपत्नी का वर्णन है, वह दरअसल इड़ा नाड़ी है। इड़ा नाड़ी अर्धनारीश्वर के स्त्री भाग का प्रतिनिधित्व करती है। कई बार हठयोग का अभ्यास करते समय प्राण इड़ा नाड़ी में ज्यादा प्रवाहित होने लगता है। इसका मतलब है कि वह प्राण को सुषुम्ना में जाने से रोकती है। सुषुम्ना से होता हुआ ही प्राण चक्रों पर अच्छी तरह स्थापित होता है। प्राण के साथ वीर्यतेज भी होता है। इसको यह कह कर बताया गया है कि अरुंधति ने ऋषिपत्नियों को अग्नि देव के निकट जाने से रोका। पर योगी ने आज्ञाचक्र के ध्यान से प्राण के साथ वीर्यतेज को सुषुम्ना से प्रवाहित करते हुए चक्रों पर उड़ेल दिया। इसको ऐसे दिखाया गया है कि ऋषिपत्नियों ने अरुंधती की बात नहीं मानी, पर भगवान शिव के इशारे को समझा। आज्ञाचक्र शिव का प्रतीक भी है, क्योंकि वहीँ पर उनका तीसरा नेत्र है।

कुंडलिनी जागरण और कुंडलिनी योग के बीच में केवल अनुभव की मात्रा को लेकर ही भिन्नता है, अनुभव की प्रकृति को लेकर नहीं

कई जगह सहस्रार को आठवां चक्र माना जाता है। सहस्रार तक वीर्यतेज पहुंचाना अन्य चक्रों से मुश्किल होता है। जबरदस्ती ऐसा करने से सिरदर्द होने लग सकता है। इसलिए नीचे के सात चक्रों पर ही वीर्य को स्थापित किया जाता है। इसीको रूपक में ऐसा कहा गया है कि आठ में से सात ऋषिपत्नियाँ ही अग्निदेव के पास जाकर आग सेंकने लगीं। आई तो आठवी भी, पर उसने आग की तपिश नहीं ली। मतलब कि थोड़ा सा वीर्यतेज तो सहस्रार तक भी जाता है, पर वह नगण्यतुल्य ही होता है। सहस्रार तक वीर्यतेज तो मुख्यतः सुषुम्ना के ज्यादा क्रियाशील होने से उससे होकर ही जाता है। इसीको रूपक में यह कहा गया है कि गंगानदी ने शिव के वीर्य को सरकंडे की घास में उड़ेल दिया। यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि प्राण या वीर्यतेज या ऊर्जा या शक्ति के साथ कुंडलिनी चित्र तो रहता ही है। ये सभी नाम आपस में पर्यायवाची की तरह हैं, अर्थात सभी शक्तिपर्याय हैं। वीर्यतेज से सर्वप्रथम व सबसे ज्यादा जलन आगे के स्वाधिष्ठान चक्र पर महसूस होती है। यह उसी जननांग से जुड़ा है, जिसे पिछले लेख में कबूतर कहा गया है। उसके साथ जब चक्रों पर बारी-बारी से कुंडलिनी का भी ध्यान किया जाता है, तब वह तेज चक्रों पर आने लगता है। फिर वह चक्रों से रीढ़ की हड्डी में जाता हुआ महसूस होता है। सम्भवतः यह आगे के चक्र से पीछे के चक्र को रिस जाता है। इसीलिए आगे-पीछे के दोनों चक्र आपस में एक पतले एनर्जी चैनल से जुड़े हुए बताए जाते हैं। इसीको मिथक कथा में यह कह कर बताया गया है कि ऋषिपत्नियों ने वह वीर्य तेज हिमालय को दिया, क्योंकि पीछे वाले चक्र रीढ़ की हड्डी में ही होते हैं। पुराण बहुत बारीकी से लिखे गए होते हैं। उनके हरेक शब्द का बहुत बड़ा और गहरा अर्थ होता है। इस तेज-स्थानांतरण का आभास पीठ के मध्य भाग में नीचे से ऊपर तक चलने वाली सिकुड़न के साथ आनन्द की व नीचे के बोझ के कम होने की अनुभूति से होता है। फिर थोड़ी देर बाद उस सिकुड़न की सहायता से वह तेज सुषुम्ना में प्रविष्ट होता हुआ महसूस होता है। यह अनुभूति बहुत हल्की होती है, और खारिश की या किसी संवेदना की या यौन उन्माद या ऑर्गेज्म की एक आनन्दमयी लाइन प्रतीत होती है। यह ऐसा लगता है कि पीठ के मेरुदंड की सीध में एक मांसपेशी की सिकुड़न की रेखा एकसाथ नीचे से ऊपर तक बनती है और ऑर्गेज्म या यौन-उन्माद के आनन्द के साथ कुछ देर तक लगातार बनी रहती है। ऐसा लगता है कि वह नाड़ी सहस्रार में कुछ उड़ेल रही है। इसके साथ ही कुंडलिनी चित्र सहस्रार में महसूस होता है। अभ्यास के साथ तो हर प्रकार की अनुभूति बढ़ती रहती है। इसीको रूपक में ऐसे कहा गया है कि अग्निदेव ने वह तेज सात ऋषिपत्नियों को दिया, ऋषिपत्नियों ने हिमालय को दिया, हिमालय ने गंगानदी को, और गंगानदी ने सरकंडे की घास को दिया। इसका सीधा सा मतलब है कि कुंडलिनी क्रमवार ही सहस्रार तक चढ़ती है, सीधी नहीं। योग में अक्सर ऐसा ही बोला जाता है। हालाँकि तांत्रिक योग से सीधी भी सहस्रार में जा सकती है। किसीकी कुंडलिनी मूलाधार में बताई जाती है, किसी की स्वाधिष्ठान चक्र तक ऊपर चढ़ी हुई, किसीकी मणिपुर चक्र तक, किसीकी अनाहत चक्र तक, किसीकी विशुद्धि तक, किसी की आज्ञाचक्र तक और किसीकी सहस्रार तक चढ़ी हुई बताई जाती है। हालांकि इन सातों चक्रों में तो कुण्डलिनी प्रतिदिन के योगाभ्यास में चढ़ती औऱ उतरती रहती है, पर कुंडलिनी को लम्बे समय तक एक चक्र पर स्थित रखने के लिए काफी अभ्यास की जरूरत होती है। आपकी कुंडलिनी प्रतिदिन सहस्रार में भी जाएगी, पर यह योगाभ्यास के दौरान सहस्रार पर ध्यान लगाने के समय जितने समय तक ही सहस्रार में रहेगी। जब कुण्डलिनी लगातार, पूरे दिनभर, कई दिनों तक और बिना किसी योगाभ्यास के भी सहस्रार में रहने लगेगी, तभी वह सहस्रार तक चढ़ी हुई मानी जाएगी। इसे ही प्राणोत्थान भी कहते हैं। इसमें आदमी दैवीय गुणों से भरा होता है। पशुओं को आदमी की इस अवस्था का भान हो जाता है। मैं जब इस अवस्था के करीब होता हूँ, तो पशु मुझे विचित्र प्रकार से सूंघने और अन्य प्रतिक्रियाएं दिखाने लगते हैं। इसमें ही कुंडलिनी जागरण की सबसे अधिक संभावना होती है। इसके लिए सेक्सुअल योग से बड़ी मदद मिलती है। ये जरूरी नहीं कि ये सभी अनुभव तभी हों, जब कुंडलिनी जागरण हो। हरेक कुंडलिनी योगी को ये अनुभव हमेशा होते रहते हैं। कई इन्हें समझ नहीं पाते, कई ठीक ढंग से महसूस नहीं कर पाते, और कई दूसरे छोटे-मोटे अनुभवों से इन्हें अलग नहीं कर पाते। सम्भवतः ऐसा तब होता है, जब कुंडलिनी योग का अभ्यास हमेशा या लंबे समय तक नित्य प्रतिदिन नहीं किया जाता। अभ्यास छोड़ने पर कुण्डलिनी से जुड़ीं अनुभूतियां शुरु के सामान्य स्तर पर पहुंच जाती हैं। मैं एक उदाहरण देता हूँ। नहाते समय चाहे शरीर के किसी भी हिस्से में पानी के स्पर्श की अनुभूति ध्यान के साथ की जाए, वह अनुभूति एक सिकुड़न के साथ पीठ से होते हुए सहस्रार तक जाती हुई महसूस होती है। इससे जाहिर होता है कि मेरुदण्ड में ही सुषुम्ना नाड़ी है, क्योंकि वही शरीर की सभी संवेदनाओं को मस्तिष्क तक पहुंचाती है। कुंडलिनी जागरण और कुंडलिनी योग के बीच में केवल अनुभव की मात्रा को लेकर ही भिन्नता है, अनुभव की प्रकृति को लेकर नहीं। कुंडलिनी जागरण में कुंडलिनी अनुभव उच्चतम स्तर तक पहुंच जाता है, व इससे सम्बंधित अन्य अनुभव भी शीर्षतम स्तर तक पहुंच सकते हैं। कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी फिर से एक साधारण कुंडलिनी योगी बन जाता है, ज्यादा कुछ नहीं।

मेडिटेशन एट टिप अर्थात शिखर पर ध्यान

यह एक वज्रोली क्रिया का छोटा रूप ही है। इसमें वीर्य को बाहर नहीं गिराया जाता पर पेनिस टिप या वज्रशिखा पर उसे ले जाकर वापिस ऊपर चढ़ाया जाता है। यह ऐसा ही है कि वीर्य स्खलन के बिना ही उसकी चरम अनुभूति के करीब तक संवेदना को बढ़ाया जाता है, और फिर संभोग को रोक दिया जाता है। यह ऐसा ही है कि यदि उस अंतिम सीमाबिन्दु के बाद थोड़ा सा संभोग भी किया जाए, तो वीर्य का वेग अनियंत्रित होने से वीर्यस्खलन हो जाता है। यह तकनीक ही आजकल के तांत्रिकों विशेषकर बुद्धिस्ट तांत्रिकों में लोकप्रिय है। यह बहुत प्रभावशाली भी है। यह तकनीक पिछले लेख में वर्णित अग्निदेव के कबूतर बनने की शिवपुराण कथा से ही आई है। यह ज्यादा सुरक्षित भी है, क्योंकि इसमें पूर्ण वज्रोली की तरह ज्यादा दक्षता की जरूरत नहीं, और न ही संक्रमण आदि का भय ही रहता है। दरअसल शिवपुराण में रूपकों के रूप में लिखित रहस्यात्मक कथाएं ही तंत्र का मूल आधार हैं। 

शरीर व उसके अंगों का देवता के रूप में सम्मान करना चाहिए

तंत्र शास्त्रों में आता है कि योनि में सभी देवताओं का निवास है। इसीलिए कामाख्या मंदिर में योनि की पूजा की जाती है। इससे सभी देवताओं की पूजा स्वयं ही हो जाती है। दरअसल ऐसा मूलाधार की प्रचण्ड ऊर्जा के कारण ही होता है। वास्तव में यही मूलाधार को ऊर्जा देती है। उससे वहाँ कुंडलिनी चित्र का अनुभव होता है। क्योंकि मन में सभी देवताओं का समावेश है, और कुंडलिनी मन का सारभूत तत्त्व या प्रतिनिधि है, इसीलिए ऐसा कहा जाता है। इसलिए पिछले लेख में वर्णित रूपक के कुछ यौन अंशों को अन्यथा नहीं लेना चाहिए। शरीरविज्ञान दर्शन के अनुसार शरीर के सभी अंग भगवदस्वरूप हैं। पुराणों के अनुसार भी शरीर के सभी अंग देवस्वरूप हैं। शरीर में सभी 33 करोड़ देवताओं का वास है। इसका मतलब तो यह हुआ कि शरीर का हरेक सेल या कोशिका देवस्वरूप ही है। इससे यह अर्थ भी निकलता है कि शरीर की सेवा और देखभाल करना सभी देवताओं की पूजा करने के समान ही है। पुस्तक ‘शरीरविज्ञान दर्शन’ में यह सभी कुछ तथ्यों के साथ सिद्ध किया गया है। यह शरीर सभी पुराणों का और शरीरविज्ञान दर्शन का सार है। पुराण पुराने समय में लिखे गए थे, पर शरीरविज्ञान दर्शन आधुनिक है। इसलिए शरीर के किसी भी अंग का अपमान नहीं करना चाहिए। शारीरिक अंगों का अपमान करने से देवताओं का अपमान होता है। ऐसा करने पर देवता तारकासुर रूपी अज्ञान को नष्ट करने में मदद नहीं करते, जिससे आदमी की मुक्ति में अकारण विलंब हो जाता है। कई लोग धर्म के नाम पर इसलिए नाराज हो जाते हैं कि किसी देवता की तुलना शरीर के अंग से क्यों कर दी। इसका मतलब तो भगवदस्वरूप शरीर और उसके अंगों को तुच्छ व हीन समझना हुआ। एक तरफ वे देवता को खुश कर रहे होते हैं, पर दूसरी तरफ भगवान को नाराज कर रहे होते हैं।