दोस्तों, पुरुष से कुछ भी निर्माण नहीं हो सकता। वही असल में शून्य आकाश है। नजर में आने वाला खाली व भौतिक आकाश भी वास्तव में शून्य आकाश नहीं है। पुरुष से अगर संसार की उत्पत्ति मानी जाएगी तो यह उस मूल वैज्ञानिक सिद्धांत के खिलाफ होगा जिसके अनुसार कोई भी पदार्थ ना तो पैदा हो सकता है, और न ही नष्ट हो सकता है, बल्कि केवल रुप ही बदल सकता है। पुरुष से संसार के पैदा होने का मतलब है, शून्य से पैदा होना, क्योंकि पुरुष ही असली शून्य है। पर वेदांत दर्शन का यह सिद्धांत है कि संसार ब्रह्म अर्थात पुरुष में विलीन हो जाता है। यह वास्तव में संसार के मानसिक चित्र के बारे में है, असली या स्थूल व भौतिक संसार के बारे में नहीं। इसको शास्त्रों में विशेषकर योग वासिष्ठ में ऐसे उदाहरण से समझाया गया है, जैसे आकाश में पुष्प या उद्यान नहीं खिल सकता या खरगोश के सिर पर सींग नहीं उग सकते, आदि आदि। ऐसे ही अनेकों उदाहरणों से समझाया गया है।
सांख्य और वेदांत दर्शन के बीच अज्ञान के कारण विरोधाभास दिखाई देता है। यह इसलिए होता है क्योंकि इनके सिद्धांतों को हम एक दूसरे के ऊपर थोपते हैं। अपने-अपने दर्शनों के अंदर दोनों के सिद्धांत पूर्ण और युक्तियुक्त हैं। अगर हम वेदांत के जगतमिथ्यावाद को सांख्य दर्शन के ऊपर थोपेंगे, तो गड़बड़ तो होगी ही। वेदांत का जगत मस्तिष्क के अंदर महसूस होने वाला और आत्मा के ऊपर बना जगत का सूक्ष्म प्रतिबिंब है। प्रतिबिंब तो हमेशा मिथ्या या झूठा ही होता है। दर्पण में दिखने वाला पहाड़ क्या सत्य होता है? बिल्कुल नहीं। पर सांख्य का जगत बाहर का असली, स्थूल और भौतिक जगत है। इसे हम मिथ्या कैसे मान सकते हैं? क्या सड़क के किनारे पड़ी हुई चट्टान झूठी है? बिल्कुल नहीं। अगर कार चालक उसे प्रतिबिंब की तरह मिथ्या मानेगा, तो अपनी कार उससे टकरा सकता है।
वेदांत कहता है कि ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है। ब्रह्म मतलब आत्मा ही सत्य है, जगत तो उस पर बना एक प्रतिबिंब है, जो मिथ्या है। यह ऐसे ही है कि दर्पण ही सत्य है, और उसमें दिख रहे जगत के चित्र मिथ्या हैं, मतलब उनका अस्तित्व नहीं है। पर बाहर के स्थूल जगत पर तो यह सिद्धांत लागू नहीं हो सकता। बाहर तो कार्यकारण परंपरा चलती है। मतलब कारण के बिना कार्य का अस्तित्व नहीं हो सकता। बाहर मूल प्रकृति का भौतिक अस्तित्व है, तभी उससे भौतिक संसार बन सकता है। यह ऐसे ही है, जैसे बर्फ से पानी बनता है, और पानी से बादल। पानी या बादल बिना कारण के अचानक कहीं से प्रकट नहीं हो जाते। दर्पण में तो किसी भी वस्तु का चित्र अचानक बन जाता है, बिना किसी कारण के। पर जिस वस्तु से वह चित्र बनता है, वह वस्तु तो अपने जनक अर्थात कारण से बनी है। वह अचानक प्रकट नहीं हुई है। इसी तरह आत्मा के ऊपर संसार की सभी वस्तुओं का चित्र अचानक व बिना कारण के बन जाता है। पर उन असली सांसारिक वस्तुओं को बनने में तो करोड़ों और अरबों वर्ष लगे हैं। अगर हम इस कार्य कारण परंपरा को पीछे खींचते जाएं, तो अंत में मूल प्रकृति बचती है। इसी से संसार का निर्माण शुरू होता है। यह पुरुष में विलीन नहीं हो सकती, क्योंकि पुरुष ही असली शून्य आकाश है। इसमें स्थूल प्रकृति के विलीन होने का मतलब है, मूल प्रकृति का शून्य हो जाना अर्थात नष्ट हो जाना। और सृष्टि के समय इससे मूल प्रकृति के बनने का अर्थ है कि मूल प्रकृति का पैदा होना। पर यह इस वैज्ञानिक सिद्धांत के खिलाफ है कि कोई भी चीज ना तो पैदा हो सकती है और न ही नष्ट हो सकती है। वह केवल रूप बदल सकती है।
जो वेदांती लोग कहते हैं कि मूल प्रकृति आत्मा में विलीन हो जाती है, वह व्यष्टि मतलब व्यक्तिगत मूल प्रकृति के लिए है, समष्टि मतलब सामूहिक मूल प्रकृति के लिए नहीं। वह दरअसल आत्मा पर बना मूल प्रकृति का प्रतिबिंब होता है, असली व भौतिक मूल प्रकृति नहीं। अगर दर्पण के आगे से सब कुछ हटा दो, तो दर्पण के सभी प्रतिबिंब एकदम से मिट जाएंगे। इसी तरह आत्मा को दुनियादारी से हटा दो तो दुनिया के सारे प्रतिबिंब मिट जाएंगे। बेशक मूल प्रकृति के प्रतिबिंब को मिटने में ज्यादा समय लगता है, क्योंकि यह अज्ञान के भ्रम से बना होता है। मूल प्रकृति के प्रतिबिंब के मिटने को ही उसका आत्मा या परमात्मा में विलीन होना कहा गया है। विलीन कुछ नहीं हुआ, क्योंकि जब कुछ बना ही नहीं था, तो विलीन क्या होगा। भ्रम से ही बनता और विलीन होता प्रतीत होता है।
कुंडलिनी योगी सांख्य दर्शन और वेदांत दर्शन के बीच में विवाह करवाता है। पहले योगी सांख्य के अनुसार प्रकृति को असली और अलग समझता हुआ उसकी खूब उपासना करता है, और उसमें खूब मशगूल रहता है। फिर जब उसे कोई वस्तु, प्रेमी, गुरु, देवता आदि मन को बहुत भाने लगता है, तो वह उसके प्रति आसक्त हो जाता है, और दुनियादारी में पूर्णतया सक्रिय रहते हुए भी हर समय उसके बारे में सोचता रहता है। इससे उसके प्रति उसका ध्यान पक्का हो जाता है। फिर वह खुद ही योग की उच्चतर सीढ़ी में पहुंचकर कुंडलिनी योग करने लगता है। इससे वह वस्तु उसका ध्यान चित्र बन कर उसे बहुत आनंद और शांति प्रदान करती है। फिर इससे प्रेरित होकर वह खुद ही एक सीढ़ी और ऊपर चढ़कर तंत्र की अतिरिक्त सहायता लेने लगता है। इससे ध्यान चित्र कुंडलिनी चित्र बन जाता है। शीघ्र ही उसकी कुंडलिनी जाग जाती है। मतलब वह उस चित्र की याद में इतना ज्यादा खो जाता है कि वह उसकी आत्मा के साथ एकाकार हो जाता है। जो प्रकृति पहले सांख्य के अनुसार पुरुष से अलग होती थी, वह अब वेदांत के अनुसार पुरुष में विलीन हो जाती है। मतलब सांख्य दर्शन वेदांत दर्शन में रूपांतरित हो जाता है।
बेशक हरेक वैदिक दर्शन एक अलग किस्म के धर्म या जीवनशैली को रेखांकित सा करता है, पर मुझे ये सभी आपस में जुड़े हुए लगते हैं। इन दर्शनों का विकासक्रम एक आदमी के जीवन के विकासक्रम से हूबहू मेल खाता है। बचपन में आदमी जब गणना आदि को और ज्ञान प्राप्ति के लिए तर्कशीलता आदि को सीखता और अपनाता है, उस समय उसे न्याय दर्शन और वैशेषिक दर्शन जैसे निरे भौतिक और तार्किक दर्शनों में स्थित मानना चाहिए। जब वह प्रेम करने वाली किशोरावस्था व प्रारंभिक गृहस्थावस्था में पहुंचता है तब उसे सांख्य दर्शन में स्थित मानना चाहिए। बाद की गृहस्थावस्था में उसे योग दर्शन में स्थित मानना चाहिएं, कयोंकि तब वह योग भी करता है। योग के साथ वह सनातन धार्मिक कृत्य जैसे कि कर्मकांड भी करने लगता है, कयोंकि दोनों का आपस में अटूट रिश्ता है। इसे पूर्व मीमांसा दर्शन वाला स्तर मानना चाहिए। फिर जब उसे जागृति मिल जाती है, उसके बाद उसकी वेदांत दर्शन अर्थात उत्तर मीमांसा दर्शन में पदोन्नति हो जाती है। इस तरह से उसके जीवनकाल में छः के छः वैदिक दर्शन आ जाते हैं। यह सभी दर्शनों और सभी धर्मों के बीच परस्पर सहयोग की अत्यावश्यकता को रेखांकित करता है।
कई लोग इन दर्शनों को विभिन्न कालखंडों में धीरे धीरे उपरोक्त क्रम से ही विकसित होया हुआ मानते हैं। यह दृष्टिकोण भी सही है, कयोंकि संपूर्ण मानव जाति का विकास भी क्रमवार लगभग वैसा ही हुआ है, जैसा एक अकेले मनुष्य का उसके जीवनकाल में होता है। सबसे पहले आदिम मनुष्यकाल में न्याय और वैशेषिक जैसे भौतिक दर्शन आए। फिर जब मानव सभ्यता कुछ विकसित हुई, तो सांख्य और योग दर्शनों का उद्भव हुआ। मानव सभ्यता के बौद्धिक विकास के चरम पर वे पूर्व मीमांसा और वेदांत दर्शनों में समाहित हो गए। व्यष्टि हो या समष्टि, हरेक चीज अज्ञान से ज्ञान की ओर क्रमवार विकास करते देखी जाती है।
सांख्य दर्शन कहता है कि प्रकृति पहले अपने अंदर भटकाती है, फिर मुक्त भी कर देती है। दरअसल यह एक ऐसी सुंदर युवती की तरह है, जो पहले अपने रूप, लावण्य और हाव-भाव से आदमी को मोहित करके खूब नचाती है, और बाद में उसे छोड़ देती है या उससे विवाह कर लेती है। जब आदमी प्रकृति को और उससे पैदा हुई दुनियादारी को व्यवहारिक रूप से अच्छे से व पूरी तरह से समझ लेता है, तभी आगे के दर्शनों की सहायता से उस से पार पा सकता है, अन्यथा नहीं। हमने भी इस पोस्ट में अपने व्यक्तिगत अनुभव से यही कहा है। यह किताबी शब्दों का जाल होता है। व्यवहार में सब कुछ बड़ा स्पष्ट और सुंदर दिखता है। सांख्य दर्शन बेशक भौतिकवादी लगता हो, पर इसका लक्ष्य आध्यात्मिक ही होता है। इसलिए यह आम और मूढ़ भौतिकता के बिल्कुल विपरीत ही है। हालांकि दोनों समान ही हैं, सिर्फ़ धारणा का अंतर होता है। शुद्ध भौतिक लोग इसे केवल भोग के लिए अपनाते हैं, जबकि सांख्य आधारित भौतिकवादी लोग इसे मुख्यतः मोक्ष के लिए अपनाते हैं, भोग तो गौण या उपोत्पाद मात्र होता है।