कुंडलिनी योग सांख्य दर्शन और वेदांत दर्शन के बीच की एक संयोजक कड़ी है

दोस्तों, पुरुष से कुछ भी निर्माण नहीं हो सकता। वही असल में शून्य आकाश है। नजर में आने वाला खाली व भौतिक आकाश भी वास्तव में शून्य आकाश नहीं है। पुरुष से अगर संसार की उत्पत्ति मानी जाएगी तो यह उस मूल वैज्ञानिक सिद्धांत के खिलाफ होगा जिसके अनुसार कोई भी पदार्थ ना तो पैदा हो सकता है, और न ही नष्ट हो सकता है, बल्कि केवल रुप ही बदल सकता है। पुरुष से संसार के पैदा होने का मतलब है, शून्य से पैदा होना, क्योंकि पुरुष ही असली शून्य है। पर वेदांत दर्शन का यह सिद्धांत है कि संसार ब्रह्म अर्थात पुरुष में विलीन हो जाता है। यह वास्तव में संसार के मानसिक चित्र के बारे में है, असली या स्थूल व भौतिक संसार के बारे में नहीं। इसको शास्त्रों में विशेषकर योग वासिष्ठ में ऐसे उदाहरण से समझाया गया है, जैसे आकाश में पुष्प या उद्यान नहीं खिल सकता या खरगोश के सिर पर सींग नहीं उग सकते, आदि आदि। ऐसे ही अनेकों उदाहरणों से समझाया गया है।

सांख्य और वेदांत दर्शन के बीच अज्ञान के कारण विरोधाभास दिखाई देता है। यह इसलिए होता है क्योंकि इनके सिद्धांतों को हम एक दूसरे के ऊपर थोपते हैं। अपने-अपने दर्शनों के अंदर दोनों के सिद्धांत पूर्ण और युक्तियुक्त हैं। अगर हम वेदांत के जगतमिथ्यावाद को सांख्य दर्शन के ऊपर थोपेंगे, तो गड़बड़ तो होगी ही। वेदांत का जगत मस्तिष्क के अंदर महसूस होने वाला और आत्मा के ऊपर बना जगत का सूक्ष्म प्रतिबिंब है। प्रतिबिंब तो हमेशा मिथ्या या झूठा ही होता है। दर्पण में दिखने वाला पहाड़ क्या सत्य होता है? बिल्कुल नहीं। पर सांख्य का जगत बाहर का असली, स्थूल और भौतिक जगत है। इसे हम मिथ्या कैसे मान सकते हैं? क्या सड़क के किनारे पड़ी हुई चट्टान झूठी है? बिल्कुल नहीं। अगर कार चालक उसे प्रतिबिंब की तरह मिथ्या मानेगा, तो अपनी कार उससे टकरा सकता है।

वेदांत कहता है कि ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है। ब्रह्म मतलब आत्मा ही सत्य है, जगत तो उस पर बना एक प्रतिबिंब है, जो मिथ्या है। यह ऐसे ही है कि दर्पण ही सत्य है, और उसमें दिख रहे जगत के चित्र मिथ्या हैं, मतलब उनका अस्तित्व नहीं है। पर बाहर के स्थूल जगत पर तो यह सिद्धांत लागू नहीं हो सकता। बाहर तो कार्यकारण परंपरा चलती है। मतलब कारण के बिना कार्य का अस्तित्व नहीं हो सकता। बाहर मूल प्रकृति का भौतिक अस्तित्व है, तभी उससे भौतिक संसार बन सकता है। यह ऐसे ही है, जैसे बर्फ से पानी बनता है, और पानी से बादल। पानी या बादल बिना कारण के अचानक कहीं से प्रकट नहीं हो जाते। दर्पण में तो किसी भी वस्तु का चित्र अचानक बन जाता है, बिना किसी कारण के। पर जिस वस्तु से वह चित्र बनता है, वह वस्तु तो अपने जनक अर्थात कारण से बनी है। वह अचानक प्रकट नहीं हुई है। इसी तरह आत्मा के ऊपर संसार की सभी वस्तुओं का चित्र अचानक व बिना कारण के बन जाता है। पर उन असली सांसारिक वस्तुओं को बनने में तो करोड़ों और अरबों वर्ष लगे हैं। अगर हम इस कार्य कारण परंपरा को पीछे खींचते जाएं, तो अंत में मूल प्रकृति बचती है। इसी से संसार का निर्माण शुरू होता है। यह पुरुष में विलीन नहीं हो सकती, क्योंकि पुरुष ही असली शून्य आकाश है। इसमें स्थूल प्रकृति के विलीन होने का मतलब है, मूल प्रकृति का शून्य हो जाना अर्थात नष्ट हो जाना। और सृष्टि के समय इससे मूल प्रकृति के बनने का अर्थ है कि मूल प्रकृति का पैदा होना। पर  यह इस वैज्ञानिक सिद्धांत के खिलाफ है कि कोई भी चीज ना तो पैदा हो सकती है और न ही नष्ट हो सकती है। वह केवल रूप बदल सकती है।

जो वेदांती लोग कहते हैं कि मूल प्रकृति आत्मा में विलीन हो जाती है, वह व्यष्टि मतलब व्यक्तिगत मूल प्रकृति के लिए है, समष्टि मतलब सामूहिक मूल प्रकृति के लिए नहीं। वह दरअसल आत्मा पर बना मूल प्रकृति का प्रतिबिंब होता है, असली व भौतिक मूल प्रकृति नहीं। अगर दर्पण के आगे से सब कुछ हटा दो, तो दर्पण के सभी प्रतिबिंब एकदम से मिट जाएंगे। इसी तरह आत्मा को दुनियादारी से हटा दो तो दुनिया के सारे प्रतिबिंब मिट जाएंगे। बेशक मूल प्रकृति के प्रतिबिंब को मिटने में ज्यादा समय लगता है, क्योंकि यह अज्ञान के भ्रम से बना होता है। मूल प्रकृति के प्रतिबिंब के मिटने को ही उसका आत्मा या परमात्मा में विलीन होना कहा गया है। विलीन कुछ नहीं हुआ, क्योंकि जब कुछ बना ही नहीं था, तो विलीन क्या होगा। भ्रम से ही बनता और विलीन होता प्रतीत होता है।

कुंडलिनी योगी सांख्य दर्शन और वेदांत दर्शन के बीच में विवाह करवाता है। पहले योगी सांख्य के अनुसार प्रकृति को असली और अलग समझता हुआ उसकी खूब उपासना करता है, और उसमें खूब मशगूल रहता है। फिर जब उसे कोई वस्तु, प्रेमी, गुरु, देवता आदि मन को बहुत भाने लगता है, तो वह उसके प्रति आसक्त हो जाता है, और दुनियादारी में पूर्णतया सक्रिय रहते हुए भी हर समय उसके बारे में सोचता रहता है। इससे उसके प्रति उसका ध्यान पक्का हो जाता है। फिर वह खुद ही योग की उच्चतर सीढ़ी में पहुंचकर कुंडलिनी योग करने लगता है। इससे वह वस्तु उसका ध्यान चित्र बन कर उसे बहुत आनंद और शांति प्रदान करती है। फिर इससे प्रेरित होकर वह खुद ही एक सीढ़ी और ऊपर चढ़कर तंत्र की अतिरिक्त सहायता लेने लगता है। इससे ध्यान चित्र कुंडलिनी चित्र बन जाता है। शीघ्र ही उसकी कुंडलिनी जाग जाती है। मतलब वह उस चित्र की याद में इतना ज्यादा खो जाता है कि वह उसकी आत्मा के साथ एकाकार हो जाता है। जो प्रकृति पहले सांख्य के अनुसार पुरुष से अलग होती थी, वह अब वेदांत के अनुसार पुरुष में विलीन हो जाती है। मतलब सांख्य दर्शन वेदांत दर्शन में रूपांतरित हो जाता है।

बेशक हरेक वैदिक दर्शन एक अलग किस्म के धर्म या जीवनशैली को रेखांकित सा करता है, पर मुझे ये सभी आपस में जुड़े हुए लगते हैं। इन दर्शनों का विकासक्रम एक आदमी के जीवन के विकासक्रम से हूबहू मेल खाता है। बचपन में आदमी जब गणना आदि को और ज्ञान प्राप्ति के लिए तर्कशीलता आदि को सीखता और अपनाता है, उस समय उसे न्याय दर्शन और वैशेषिक दर्शन जैसे निरे भौतिक और तार्किक दर्शनों में स्थित मानना चाहिए। जब वह प्रेम करने वाली किशोरावस्था व प्रारंभिक गृहस्थावस्था में पहुंचता है तब उसे सांख्य दर्शन में स्थित मानना चाहिए। बाद की गृहस्थावस्था में उसे योग दर्शन में स्थित मानना चाहिएं, कयोंकि तब वह योग भी करता है। योग के साथ वह सनातन धार्मिक कृत्य जैसे कि कर्मकांड भी करने लगता है, कयोंकि दोनों का आपस में अटूट रिश्ता है। इसे पूर्व मीमांसा दर्शन वाला स्तर मानना चाहिए। फिर जब उसे जागृति मिल जाती है, उसके बाद उसकी वेदांत दर्शन अर्थात उत्तर मीमांसा दर्शन में पदोन्नति हो जाती है। इस तरह से उसके जीवनकाल में छः के छः वैदिक दर्शन आ जाते हैं। यह सभी दर्शनों और सभी धर्मों के बीच परस्पर सहयोग की अत्यावश्यकता को रेखांकित करता है।

कई लोग इन दर्शनों को विभिन्न कालखंडों में धीरे धीरे उपरोक्त क्रम से ही विकसित होया हुआ मानते हैं। यह दृष्टिकोण भी सही है, कयोंकि संपूर्ण मानव जाति का विकास भी क्रमवार लगभग वैसा ही हुआ है, जैसा एक अकेले मनुष्य का उसके जीवनकाल में होता है। सबसे पहले आदिम मनुष्यकाल में न्याय और वैशेषिक जैसे भौतिक दर्शन आए। फिर जब मानव सभ्यता कुछ विकसित हुई, तो सांख्य और योग दर्शनों का उद्भव हुआ। मानव सभ्यता के बौद्धिक विकास के चरम पर वे पूर्व मीमांसा और वेदांत दर्शनों में समाहित हो गए। व्यष्टि हो या समष्टि, हरेक चीज अज्ञान से ज्ञान की ओर क्रमवार विकास करते देखी जाती है।

सांख्य दर्शन कहता है कि प्रकृति पहले अपने अंदर भटकाती है, फिर मुक्त भी कर देती है। दरअसल यह एक ऐसी सुंदर युवती की तरह है, जो पहले अपने रूप, लावण्य और हाव-भाव से आदमी को मोहित करके खूब नचाती है, और बाद में उसे छोड़ देती है या उससे विवाह कर लेती है। जब आदमी प्रकृति को और उससे पैदा हुई दुनियादारी को व्यवहारिक रूप से अच्छे से व पूरी तरह से समझ लेता है, तभी आगे के दर्शनों की सहायता से उस से पार पा सकता है, अन्यथा नहीं। हमने भी इस पोस्ट में अपने व्यक्तिगत अनुभव से यही कहा है। यह किताबी शब्दों का जाल होता है। व्यवहार में सब कुछ बड़ा स्पष्ट और सुंदर दिखता है। सांख्य दर्शन बेशक भौतिकवादी लगता हो, पर इसका लक्ष्य आध्यात्मिक ही होता है। इसलिए यह आम और मूढ़ भौतिकता के बिल्कुल विपरीत ही है। हालांकि दोनों समान ही हैं, सिर्फ़ धारणा का अंतर होता है। शुद्ध भौतिक लोग इसे केवल भोग के लिए अपनाते हैं, जबकि सांख्य आधारित भौतिकवादी लोग इसे मुख्यतः मोक्ष के लिए अपनाते हैं, भोग तो गौण या उपोत्पाद मात्र होता है।

कुंडलिनी योग एक माली की तरह काम करता है

दोस्तों, पूर्ण प्रकृति संपूर्ण जगत की छाया है। पूर्ण प्रकृति को मूल प्रकृति भी कहते हैं। यह समष्टि जगत की मूल प्रकृति है। व्यष्टि जगत की मूल प्रकृति को मूलाधार कहते हैं। पर मूलाधार तो शुद्ध छाया होती है। उसमें किसी विशेष भौतिक वस्तु की सूचना नहीं छिपी होती। मतलब यह शून्यमय छाया होती है। उधर हम मूल प्रकृति के अंदर संपूर्ण भौतिक जगत की सूचना को दर्ज होया हुआ मान रहे हैं। पर इसमें कोई विरोधाभास नहीं है। मूल प्रकृति में सभी विरोधी सूचनाएं एक दूसरे से रद्द होकर शून्य ही बन जाती हैं। पूरी सृष्टि संतुलित है, मतलब न्यूट्रल है। इसमें जितना पॉजिटिव है, उतना ही नेगेटिव है। इस तरह से मूल प्रकृति और मूलाधार दोनों एक ही है। मतलब आदमी मूलाधार के रूप में मूल प्रकृति को भी महसूस कर सकता है। क्योंकि मूल प्रकृति संपूर्ण सृष्टि का सूक्ष्म रूप है, इसका मतलब है कि आदमी अप्रत्यक्ष रूप में अर्थात मूलाधार के रूप में संपूर्ण सृष्टि को भी एक साथ अनुभव कर सकता है।

यहां एक पेच भी है। कोई कह सकता है कि जब मूल प्रकृति में सभी सूचनाएं खत्म हो गईं, तो उसमें अंधेरा कैसे रहा, क्योंकि अंधेरे का मतलब ही उसमें सूक्ष्म सूचनाओं की उपस्थिति है। दरअसल सूचनाएं खत्म नहीं हुईं, पर उनका कुल प्रभाव एकदूसरे से रद्द हो गया। सूचनाएं तो उसमें सारी रहीं। यह ऐसे ही है जैसे हलवे में चीनी और नीम डालने से होगा। रहेंगी तो ये दोनों चीजें, पर हलवा हमें न मीठा लगेगा, न कड़वा। आदमी के मूलाधार में पहुंचने पर भी ऐसा ही होता है। उसमें सभी सूचनाएं एकसमान होती हैं। इसलिए एकसमान सा, न चुभने वाला और आनंदमयी सा अंधेरा महसूस होता है उसमें। न किसी सूचना से राग, न किसी सूचना से द्वेष। यही अद्वैत है। इसीलिए अद्वैत और अनासक्त जीवन जीने की सलाह दी जाती है। इससे आदमी जल्दी मूलाधार में पहुंच जाता है। पर यह तभी होता है, जब अद्वैत के साथ भरपूर, विविध, और विरोधी दुनियादारी को भी जिया जाए। इससे आदमी सभी किस्म की विपरीत सूचनाएं इकट्ठा करेगा, जो एकदूसरे से रद्द होकर जल्दी ही मूलाधार में प्रवेश करा देती हैं। बिना विरोधी दुनियादारी के अद्वैत का आचरण एक दिखावा ही लगता है मुझे। 

फिर कहते हैं कि मूलाधार तो विकास करते हुए कुंडली जागरण के माध्यम से पुरुष में विलीन हो सकता है। फिर मूल प्रकृति पुरुष में विलीन होकर खत्म क्यों नहीं हो जाती। शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि मूल प्रकृति का भौतिक अस्तित्व है, जिसे हम डार्क मैटर या डार्क एनर्जी कहते हैं। यह वैज्ञानिक सिद्धांत है कि भौतिक वस्तु कभी खत्म नहीं हो सकती। वह केवल रूप बदल सकती है, पर रहेगी वह हमेशा। इसे हम थ्योरी ऑफ कंजर्वेशन ऑफ मास एंड एनर्जी कहते हैं। एक वस्तु विभिन्न किस्म की वस्तुओं के रूप में या ऊर्जा के रूप में रह सकती है। यह सभी रूप आपस में बदलते रह सकते हैं। पर वह वस्तु कभी खत्म नहीं हो सकती। दूसरी तरफ मूलाधार का कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है। यह एक आत्मा का अनुभव है। वह अनुभव भी सच्चा नहीं पर भ्रमपूर्ण है। या ऐसा कह लो कि यह आत्मा पर भ्रम से बना हुआ मूल प्रकृति का आभासी चित्र मात्र है। असली या भौतिक उसमें कुछ भी नहीं है। जब आत्मा को ज्ञान होने पर भ्रम समाप्त हो जाता है, तो मूलाधार का अनुभव पुरुष के अनुभव के असली रूप में आ जाता है। यही सच्चा और असली अनुभव है। अगर मूल प्रकृति भी मात्र एक अनुभव होता और उसका कोई भौतिक अस्तित्व न होता, तब तो वह कब की खत्म हो जाती, और सृष्टि का अस्तित्व ही नहीं बचता। तब न हम होते, न आप और न ही यह रंगीन दुनिया। कई वेदांती लोग कहते हैं कि मूल प्रकृति का अस्तित्व नहीं है। वह भ्रम है, आदि-आदि। वे दरअसल मूलाधार की बात कर रहे हैं, जो मूल प्रकृति का आभासी मानसिक चित्र है। भौतिक रूप में तो सूक्ष्म मूल प्रकृति का अस्तित्व वैसा ही सत्य है, जैसा स्थूल भौतिक जगत का। बाईबल के Genesis 2:7 में मानवता को इसी तरह परिभाषित किया गया है। वहाँ हम पाते हैं कि परमेश्वर ने मानवता को परमेश्वर की छवि में बनाया है। परमेश्वर ने मानवता को एक ऐसे तरीके से बनाया है जो भौतिक दुनिया को बनाने के तरीके से बहुत अलग है।

कुंडलिनी योग से मूलाधार को ही पुरुष में विलीन किया जा सकता है, मूल प्रकृति को नहीं। पहले हर एक चक्र पर जमा संसारी कचरे को बाहर निकाला जाता है। फिर खाली हुए चक्र स्थानों पर कुंडलिनी चित्र को भरा जाता है। तभी यह हर समय ध्यान में रहते हुए उचित अवसर आने पर जाग जाता है। यह ऐसे ही है, जैसे एक माली बंजर भूमि पर फूल तभी उगा सकता है, जब उसके द्वारा पहले वहां के घास, फूस, झाड़, कंकड़ आदि को हटाकर उस जगह को साफ किया जाता है। अच्छी तरह से पाला और संभाला गया फूल का पौधा ऊपर उठता हुआ और बढ़ता हुआ कभी न कभी तो जागृति के फूल के रूप में खिलेगा ही।

भौतिक वस्तु न तो कभी पैदा हो सकती है, और न नष्ट हो सकती है, यह वैज्ञानिक सिद्धांत सांख्य दर्शन के सिद्धान्त को भी बयां करता है। इसके अनुसार प्रकृति भी रूप बदलती रहती है। यह कभी व्यक्त होती है, कभी अव्यक्त। पर रहती यह हमेशा है। मतलब यह अनादि, अनंत है। इसलिए यह सत्य नहीं कि प्रकृति या जगत की उत्पत्ति पुरुष अर्थात परमात्मा से हुई है। पुरुष की तरह प्रकृति का भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। यह जो पुरुष से प्रकृति के उत्पन्न होने की बात की गई है, वह मन के अंदर बने प्रकृति के चित्र मतलब व्यष्टि प्रकृति के लिए कही गई है। आत्मा मतलब पुरुष खुद उस चित्र का रूप ले लेता है। मतलब उस प्रकृतिचित्र की उत्पत्ति पुरुष से हुई, प्रकृति की नहीं। आत्मा को जब अपने असली पुरुष रूप का ज्ञान हो जाता है, तो मानो वह प्रकृतिचित्र फिर से अपने असली पुरुष रूप में आ गया, मतलब प्रकृति पुरुष में विलीन हो गई।

कुंडलिनी योग से डार्क मैटर डार्क एनर्जी के रूप में व्यवहार करने लगता है

दोस्तों, स्थूल जगत और उसका अभाव दोनों का ही अस्तित्व नहीं है। आदमी दोनों को अस्तित्व प्रदान करता है। जगतभाव पुरुष का अविभाजित अंश है। इसलिए जगतअभाव भी पुरुष का अंश ही सिद्ध हुआ। बेशक भाव की अपेक्षा बहुत छोटा। अगर जगत भाव को हम पुरुष का अविभाजित अंश कहते हैं तो अभाव को प्रकृति का अविभाजित अंश कहने में कोई समस्या नहीं है। ज्ञान और साधना से आदमी पूर्ण पुरुष तो बन सकता है पर पूर्ण प्रकृति कैसे बनेगा। पूर्ण पुरुष का अस्तित्व है पर पूर्ण प्रकृति का तो अस्तित्व ही नहीं है। वैसे अस्तित्व तो संपूर्ण जगतभाव का भी नहीं है। मतलब आंशिक जगतभाव का अस्तित्व ही संभव है। यह इसलिए क्योंकि जगतभाव को अस्तित्व जीवों के अनुभव से मिलता है। और ऐसा कोई जीव नहीं है जो संपूर्ण जगतभाव को एक साथ अनुभव कर सके। सृष्टि के सभी जीव मिलकर भी ऐसा नहीं कर सकते। इसी तरह संपूर्ण जगतअभाव अर्थात प्रकृति का भी अस्तित्व संभव नहीं है। मतलब यह है कि बेशक समग्र जगतभाव का और समस्त जगतअभाव का भौतिक अस्तित्व है पर उनमें आत्मा नहीं है, और उन्हें कोई जीवात्मा भी अनुभव नहीं करता।

क्योंकि पुरुष तो कभी नष्ट नहीं होता इसलिए उसका अभाव नहीं होता। मतलब पुरुष की छाया बन ही नहीं सकती। छाया वास्तव में अभाव को ही कहते हैं। पेड़ की छाया वस्तुतः पेड़ की नहीं होती बल्कि प्रकाश किरणों की होती है। जिस क्षेत्र पर प्रकाश किरणों का अभाव हो गया, उस क्षेत्र में पेड़ की छाया पड़ी हुई मानी जाती है। इसी तरह से जगत से जो छाया बनती है, वह पुरुष के अभाव से बनती है। मतलब जगत एक पेड़ की तरह है, और पुरुष सूर्य की तरह है। इसी तरह समग्र सृष्टि की छाया ही मूल प्रकृति है, पुरुष का इससे कुछ लेना देना नहीं। समग्र जगत के अभाव को मूल प्रकृति कहेंगे। क्योंकि समग्र जगत भी पुरुष का ही अविभाजित अंश है, इसलिए व्यवहार में मूल प्रकृति को पुरुष की छाया कहा जाता है। लघु मतलब व्यष्टि या व्यक्तिगत जगत के द्वारा पैदा किए गए छायानुमा अभाव को लघु या व्यष्टि या व्यक्तिगत प्रकृति कहेंगे। मतलब व्यष्टि जगत को ही अनुभवात्मक सत्ता मिलती है, समष्टि जगत को नहीं। हालांकि भौतिक अस्तित्व दोनों का होता है।

प्रकृति सीधी पुरुष तक नहीं जा सकती। उसे पुरुष अंशों से होकर ही क्रमवार ऊपर चढ़ना पड़ता है। इसलिए यह पुरुष के अविभाजित अंश को धीरे-धीरे बढ़ाती रहती है। सबसे छोटे जीव जैसे कि जीवाणु आदि में जरा भी पुरुष अंश नहीं होता। पर यह पुरुष अंश पैदा करने वाली शरीररूपी सीढ़ी का पहला पायदान होता है। फिर मेंढक, मछली आदि जीवो में प्रकृति बनी जीवात्मा को पुरुष अंश महसूस होने लगता है। कुत्ता, बंदर जैसे प्राणियों में यह अंश काफी बढ़ जाता है। आदमी में यह अंश सर्वोच्च स्तर पर होता है। इस स्तर से प्रकृति कुंडलिनी योग से सीधे ही पुरुष तक छलांग लगा सकती है। मतलब मनुष्य शरीर से ज्यादा विकसित शरीर की जरूरत नहीं पड़ती। महामानव आदि तो मिथकीय परिकल्पना ही लगती हैं इस मामले में, जिनका कोई विशेष उद्देश्य नहीं दिखता।

हम स्थूल जगत को कभी सीधे तौर पर अनुभव नहीं कर सकते, न इसके भाव को और न इसके अभाव को। स्थूल जगत का जो सूक्ष्म चित्र हमारी आत्मा पर बनता है, हम उसे ही महसूस कर सकते हैं। स्थूल जगत के भाव का चित्र तो हमें पहाड़, नदी, सूर्य आदि विविध पदार्थों के रूप में महसूस होता है। इन पदार्थों के अभाव का चित्र हमें अंधेरे के रूप में महसूस होता है। वह तो अंधेरे का सूक्ष्म रूप है। पर उसका स्थूल रूप भी बाहर मौजूद होता है, उसी तरह जैसे आत्मा में अनुभव हो रहे सूक्ष्म जगत का स्थूल रूप बाहर के स्थूल जगत के रूप में होता है। उस स्थूल अंधेरे को ही शायद डार्क एनर्जी, डार्क मैटर आदि कहते हैं।

भौतिक शरीर की तरह भौतिक जगत की भी एक जीवन सीमा है। जैसे शरीर उस सीमा को छू लेने पर मर जाता है, उसी तरह जगत भी अपनी आयु पूरी होने पर नष्ट हो जाता है। स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर रूपी व्यष्टि प्रकृति में समा जाता है। स्थूल जगत डार्क एनर्जी एंड डार्क मैटर जैसे नाम वाली समष्टि प्रकृति अर्थात मूल प्रकृति में समा जाता है। उस सूक्ष्म शरीर से नया शरीर फिर से जन्म ले लेता है। उसी तरह मूल प्रकृति से भी नया जगत पैदा हो जाता है। यह सिलसिला चक्रवत चलता रहता है।

कई लोग बोलते हैं कि इस जगत की उत्पत्ति परमात्मा से हुई है। वास्तव में पुरुष से कुछ पैदा नहीं होता। वह बिल्कुल असंग है। वह आश्चर्यमय और अद्वितीय है। हां, उसकी निकटता से जगत को अनुभवात्मक सत्ता मिलती है। जगत तो पुरुष की तरह ही अनादि, अनंत है। यहां यह अंतर है कि पुरुष हमेशा पूर्ण और एकसमान रहता है, जबकि जगत बदलता रहता है। जगत कभी भाव रूप में होता है तो कभी अभाव रुप में। इसके भाव रूप में अभिव्यक्ति के भी अनगिनत स्तर हैं और अभाव रुप में अभियुक्ति के भी अनगिनत स्तर हैं। इसी जगत को प्रकृति कहते हैं। जब इसे पुरुष की समीपता मिलती है, तब यह अनुभव के दायरे में आता है, अन्यथा बिना अनुभव के ही चलायमान रहता है, जैसे कि कोई नर्तकी अंधेरे में नाच रही हो। इसीलिए कहते हैं कि अनुभव में आने वाला समस्त संसार प्रकृति और पुरुष के सहयोग से बना है।

इसी तरह से लोग कहते हैं कि बच्चे परमात्मा से आते हैं इसलिए परमात्मा का साक्षात रुप है। आदमी के जन्म के साथ ही वह अपने मस्तिष्क में जगत के चित्र महसूस करने लगता है। मस्तिष्क में वे तभी महसूस हो सकते हैं, अगर वे बच्चे के सूक्ष्म शरीर में पहले से मौजूद हों, अन्यथा वे चित्र बनेंगे तो जरूर पर किसी को महसूस ही नहीं होंगे। बोलने का मतलब है कि अंधेरा रूपी सूक्ष्मशरीर पर ही वे प्रकाशमान चित्र बन सकते हैं। अगर बच्चों की आत्मा अंधेरे सूक्ष्म शरीर की बजाय प्रकाशमान पुरुष के रूप में हो तब उस पर प्रकाशमान चित्र कैसे बन सकते हैं। प्रकाशमान दीवार पर प्रकाश से रेखाचित्र तो नहीं बन सकते। पहले दीवार को काला या अंधेरानुमा करना होगा। हां यह जरूर है कि बच्चे परमात्मा के सबसे निकट होते हैं, क्योंकि उनमें अहंकार भाव बहुत कम होता है।

प्रकृति व्यक्त और अव्यक्त होती रहती है। यह शाश्वत चक्र है। इसमें पुरुष का कोई लेना देना नहीं है। वह स्थिर, शाश्वत और चेतन तत्व है। उसकी समीपता से प्रकृति को ऐसे ही शक्ति और गति मिलती रहती है, जैसे चुंबक की समीपता से लोहे को। अव्यक्त प्रकृति को डार्क मैटर कह सकते हैं। डार्क मैटर में सिर्फ गुरुत्व होता है, अन्य कुछ नहीं। मतलब डार्क मैटर का अस्तित्व है भी और नहीं भी है। इसलिए “नहीं है”, क्योंकि इसमें अस्तित्ववान वस्तु की कोई विशेषता नहीं है। इसे न देख सकते हैं, न सुन सकते हैं, न छू सकते हैं। यह इंद्रियों की पहुंच में नहीं है। यह “है” इसलिए है, क्योंकि इसमें गुरुत्व बल है। गुरुत्व बल भी सत्ता का या होने का ही सामान्य या छोटा सा लक्षण है। तभी तो कहते हैं कि फलां की बातों में वजन या गुरुत्व है। मतलब फलां की बातों का व्यावहारिक अस्तित्व है। डार्क एनर्जी भी मूल प्रकृति हो सकती है। यह भी डार्क मैटर और मूल प्रकृति की तरह अनिर्वचनीय ही है। यह “नहीं है”, क्योंकि इसमें भौतिक वस्तु का कोई भी लक्षण नहीं है। यह “है”, क्योंकि यह ऊर्जा के जैसा प्रभाव पैदा करती है। इसलिए हो सकता है कि दोनों एक ही चीज हों। किसी चीज के अस्तित्व के साथ उसका प्रभाव भी जुड़ा होता है। प्रभाव के बिना अस्तित्व अधूरा है। यदि एक कठोर चट्टान चोट न पहुंचा सके, तो उस चट्टान के होने का कोई मतलब नहीं रह जाता। डार्क मेटर उसी कठोर चट्टान की तरह है, और डार्क एनर्जी उसके द्वारा लगाई गई चोट है, जो ब्रह्मांड को बाहर की ओर धकेल रही है। जैसे नदी में पड़ी चट्टान किसी बहते आदमी को रोक भी सकती है, और किसी आदमी को अपने साथ बहा भी सकती है, उसी तरह मूल प्रकृति डार्क मैटर की तरह व्यवहार करके सभी अंतरिक्षीय पिंडों को गुरुत्व बल से आपस में बांध भी सकती है, और डार्क एनर्जी की तरह व्यवहार करके उन्हें एक दूसरे से दूर भी धकेल सकती है। आम आदमी के मन का अंधेरा डार्क मैटर जैसा होता है, जो उसके जगत को अपने में खींच कर और बांध कर रखता है। पर कुंडलिनी योगी के मन का अंधेरा डार्क एनर्जी की तरह व्यवहार करता है, जो उसके जगत को अपने से बाहर धकेलने की कोशिश करता रहता है। वह जगत फिर बाहर निकल कर उसके मन में पुनः उभरता रहता है, और प्रकाशमान आत्मा में विलीन होता रहता है। एक संतुलित व्यक्ति में डार्क एनर्जी और डार्क मैटर एक संतुलित अनुपात में रहते हैं, वैसे ही जैसे बाहर के भौतिक ब्रह्मांड में होते हैं।

इस लिहाज से तो आदमी के मस्तिष्क की सृष्टि भी व्यक्त और अव्यक्त के बीच झूलने वाली होनी चाहिए, अनादि काल से। मतलब आदमी का बंधन अनादि होना चाहिए। इसका विश्लेषण हम अगली पोस्ट में करेंगे।

कुंडलिनी जागरण सांख्य दर्शन का आधारभूत सिद्धांत प्रस्तुत करता है

दोस्तों पुरुष से ही आभासी प्रकृति को अनुभवात्मक अस्तित्व मिला। अनुभवात्मक मस्तिष्क बनने से पहले प्रकृति छाया की तरह आभासी होते हुए भी सृष्टि को चला रही थी। मतलब उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं था, पेड़ की छाया की तरह। जब पहला अनुभवात्मक मस्तिष्क बना तो उसके नाड़ी स्पंदनों से पुरुष के अंदर तरंगें पैदा हुई। वह पुलिस को महसूस हुई जिससे पुरुष के अपने अनंत प्रकाशरूप आत्मस्वरूप में अंधेरा छा गया। मतलब पुरुष प्रकृति बन गया। हालांकि जो मस्तिष्क में विचाररूपी नाड़ी स्पंदन उभरते रहे, वे उसे पुरुष की तरह प्रकाशमान और चेतन महसूस होते रहे। मतलब प्रकृतिपुरुष युग्म की उत्पत्ति हुई। यह ऐसे ही है जैसे एक पेड़ तूफान से टूट कर अपनी छांव के ऊपर गिर गया और छांव की तरह अस्तित्वहीन हो गया। पहले, तूफान से पेड़ के हिलने से उसकी छाया पर उसके रेखाचित्र बन और मिट रहे थे। पर उस पेड़ के ठूंठ से नई कोंपल निकलने से पुनः नया पेड़ बन गया। अब उस नए पेड़ के छायाचित्र उस पुराने गिरे हुए पेड़ पर बनने लगे। मतलब पेड़ की छाया भी अस्तित्व में आ गई थी और उस पर पड़ने वाले पेड़ के रेखाचित्र भी उसे असली पेड़ की तरह महसूस होने लगे। पुरुष के साथ भी ऐसा ही हुआ। बेशक प्रकाशरूप पुरुष अपनी तरंगों को महसूस करके अंधकार रूप प्रकृति बन गया। पर एक मूल पुरुष भी था जो कभी भी अपने सिवाय मतलब अपनी शुद्ध आत्मा के सिवाय कुछ भी महसूस नहीं करता, अपने अंदर बनने वाली अपनी तरंगों को भी नहीं। इसलिए वह कभी भी आत्मच्युत होकर प्रकृति नहीं बन सकता। उसे शास्त्रोक्त पुरुषोत्तम कह सकते हैं। पुरुष आसमान की तरह ही है। एक आसमान से चाहे जितने मर्जी आसमान बना लो।

उपरोक्त तथ्य का प्रमाण कुंडलिनी जागरण से मिलता है। कुंडलिनी जागरण के दौरान आत्मा पूर्ण प्रकाशरूप महसूस होती है, और उसमें समस्त सृष्टि तरंगों के रूप में महसूस होती है। पर जैसे ही आदमी उन सृष्टिरूपी तरंगों के प्रति आसक्त होने लगता है, वैसे ही आत्मा का अनंत प्रकाश ओझल हो जाता है। मतलब पुरुष की छाया अस्तित्व में आ जाती है। दरअसल भौतिक अस्तित्त्व में तो वह पहले भी थी, इससे तो अनुभवात्मक अर्थात आत्मिक सत्ता मिली। मतलब अब छाया अपने को महसूस करने लगी कि वह है। पहले तो वह मिट्टी पत्थर की तरह थी जैसे वे भी अपने को आत्मिक रूप में महसूस नहीं करते कि वे हैं, पर वे भौतिक रूप से होते हैं। आदमी फिर से पहले की तरह अपनी आत्मा को अंधकारमय प्रकृति के रूप में और उसमें उमड़ रहे मानसिक विचारों को प्रकाशमान पुरुषतरंगों के रूप में महसूस करने लगता है। पुरुषतरंगें तभी बन रही हैं न जब बैकग्राउंड में एक पुरुष अर्थात पुरषोत्तम बैठा है। नहीं तो तरंगें कहां से आएंगी? इस तरह से कई बार तो मुझे कुंडलिनी जागरण ही सांख्य दर्शन का आधारभूत सिद्धांत लगता है।

कुंडलिनी जागरण से ही बीज भरा पूरा वृक्ष बनता है

दोस्तो, सृष्टि के रहस्य को सिर्फ सांख्य दर्शन ने ही सबसे अच्छी तरह से समझाया है। प्रकृतिपुरुष युग्म के बारे में शायद शास्त्रों का यह मतलब है कि अगर शुरु में प्रकृति ने भी सृष्टि बनाई तो भी प्रकृतिपुरुष युग्म ने ही बनाई, क्योंकि पुरुष से मिलन की संभावना से प्रेरित होकर ही प्रकृति ने सृष्टि बनाई। जो पुराने समय में समय की कमी के कारण बुद्ध ने जिज्ञासु शिष्य को नहीं समझाया था कि जीवनमरण रूपी रोग की शुरुआत कहां से हुई उसे सांख्य दर्शन से समझा जा सकता है। आदमी हमेशा से भी इस बंधन रोग से ग्रस्त है और नहीं भी है। जब पहला अनुभवात्मक मस्तिष्क बना तभी बंधन की शुरुआत हुई। मतलब तभी जीवात्मा अस्तित्व में आई। पर जिस प्रकृति के ऊपर पुरुष से प्रकाशमय रेखाचित्र बना, वह प्रकृति तो अनादि है। इसका मतलब है कि जीवात्मा अनादिकाल से प्रकृति के रूप में थी।

मतलब जीवात्मा अनादिकाल से बंधन में था पर ऐसा भी नहीं है, क्योंकि प्रकृति छाया की तरह है जिसका अस्तित्व ही नहीं है। जो चीज अनादि है उसका अंत हो ही नहीं सकता। शास्त्रों में कई जगह लिखी यह बात मुझे समझ नहीं आती जिसमें कहा गया है कि बंधन अनादि है, पर उसका अंत हो सकता है। ऐसा होना असंभव है। अंत उसीका हो सकता है जिसकी कभी शुरुआत हुई हो। शायद वे ठीक कह रहे हैं पर हम गलत समझते हैं। ऐसा कहने का उनका एक प्रयोजन बंधन से डराना और उसे कमजोर न समझने की भूल न करना है। दूसरा प्रयोजन यह बताना है कि पुरुष कभी बंधन में नहीं पड़ सकता। अगर ऐसा होता तो लोग बंधन को मिटाने के लिए ज्यादा प्रयास न करते क्योंकि उन्हें फिर बंधन में पड़ने का डर बना रहता। शायद उनका बंधन अनादि कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति अनादि है, यह नहीं कि जीवात्मा अनादि है। शायद उनका कहने का यह मतलब है कि यह बंधन परंपरा अनादि है और एक आदमी के मुक्त होने से खत्म नहीं हो जाती। साथ में परमात्मा इतना निर्दयी नहीं हो सकता कि उसने सभी जीवों को अनादिकाल से बंधन में जकड़ कर रखा हो। अंतिम प्रयोजन यह लगता है कि लोग गूढ़ दर्शन के झमेले से बचकर सिर्फ साधना पर ध्यान दे। वैसे कई जगह शास्त्रों में ऐसा भी कहा गया है कि फलां आदमी एक ही मनुष्य जन्म में मुक्त हो गया या हो जाता है, फलां को दस जन्म लेने पड़े, फलां को सौ आदि। इस्का यह मतलब हुआ कि बंधन की कभी शुरुआत हुई और वह अनादि नहीं है।

दरअसल प्रकृति का अस्तित्व है भी और नहीं भी। इसीलिए इसे शास्त्रों में अनिर्वचनीय कहा है। पेड़ की छाया भी अनिर्वचनीय ही होती है। वह होती है इसीलिए दिखती है, पर असल में होती भी नहीं।मतलब जीव या आदमी का बंधन अनादि भी है और अनादि नहीं भी है। सैद्धांतिक रूप से तो यह अनादि है पर अनुभवात्मक रूप से इसकी शुरुआत हुई थी।  जब जीवात्मा बन ही गया तब इसका विलय पुरुष में ही संभव है, नहीं तो वह अस्तित्वहीन होकर भी सुख-दुख अनुभव करता हुआ भटकता ही रहेगा। यह आश्चर्य ही है कि जीवात्मा का अस्तित्व न होते हुए भी वह कैसे बन जाता है? यह प्रकृतिपुरुष का ही खेल है। जीवात्मा एक भ्रममात्र ही है। मतलब जीवात्मा की उत्पत्ति नहीं होती बल्कि भ्रम की उत्पत्ति होती है। भ्रम खत्म तो बंधन खत्म।

प्रकृति भूमि है तो पुरुष पेड़ है। जब पेड़ का बीज जमीन पर गिरता है तो वह बढ़ने लगता है और बढ़ते बढ़ते पेड़ ही बन जाता है। जैसे जैसे पेड़ बढ़ता है वैसे वैसे भूमि दिखनी कम होती रहती है, और पेड़ दिखना बढ़ता रहता है। अंत में पेड़ इतना फैल जाता है कि उसके पत्तों के झुरमुटों के शिखर से भूमि बिल्कुल नहीं दिखती। ऐसा लगता है कि भूमि और बीज दोनों वृक्ष बन गए हैं। पर दरअसल बीज ही वृक्ष बना होता है। भूमि तो पहले के जैसी ही होती है। एक बीज के पेड़ बनने से भूमि नष्ट नहीं हो जाती, पर दूसरे बीजों को भी पेड़ बनाने के लिए वैसी ही बनी रहती है। इसी तरह प्रकृति भी है जो न होते हुए भी आभासी भूमि की तरह है।

भूमि सबसे नीचे थी। वह आकाश की ऊंचाइयों को छूना चाहती थी। आकाश न सही, पेड़ की ऊंचाई तक ही सही। पर सीधे तौर पर वह ऐसा नहीं कर सकती थी। इसलिए उसने पेड़ की मदद ली। पेड़ के बीज को उसने बढ़ाया और फैलाया और उसे ऊंचा उठा दिया। भूमि बेशक खुद ऊंची नहीं उठ सकी पर उसे पेड़ों को ऊंचा उठाने का श्रेय मिला, जो उसे तसल्ली देने के लिए काफी था। इसी तरह पुरुष की छाया मतलब प्रकृति भी पुरुष जैसा महान बनना चाहती थी। वह सीधे तौर पर ऐसा नहीं कर सकती थी क्योंकि पेड़ की छाया कभी पेड़ नहीं बन सकती और न पेड़ से मिल ही सकती है। इसलिए उसने पुरुष के बीज की मदद ली। उसने पुरुषबीज मतलब जीवात्मा को बढ़ाना शुरु किया और उसे कुंडलिनी जागरण करा के पुरुष जितना ऊंचा उठा दिया। प्रकृति बेशक खुद पुरुष नहीं बन सकी, पर उसे जीवात्माओं को ऊंचा उठाने का श्रेय मिला, जो उसे तसल्ली देने के लिए काफी था। मां भी लगभग ऐसी ही होती है, इसीलिए प्रकृति और धरती को मां भी कहा गया है।

कुंडलिनी शक्ति से मूल प्रकृति में स्थित ध्यान चित्र जागृत होकर पुरुष बन जाता है

दोस्तों, यह बहुत छोटी पर बहुत सारगर्भित पोस्ट है। मूलाधार क्या मूल प्रकृति को ही कहा गया है। यह विचार मेरे मन में आया था। क्यों न इसका विश्लेषण कर लिया जाए। आदमी का आधार है व्यष्टि प्रकृति अर्थात जीवात्मा। यह सभी जीवों के लिए अलग-अलग है। आधार पर इमारत की गुणवत्ता, आकार, ऊंचाई आदि सभी निर्भर करते हैं। मतलब आधार में भावी इमारत की सारी सूचनाएं दर्ज रहती हैं। इसी तरह से आदमी की जीवात्मा में आदमी की सारी भावी सूचना दर्ज होती है, जैसे कि उसके जन्म, गुण, कर्म, फल आदि।

आधार तो हर एक जीव के लिए अलग और विशेष है, पर मूलाधार तो सबका एक ही है। आधार को प्रकृति का और मूल आधार को मूल प्रकृति का पर्यायवाची शब्द समझना चाहिए। कहते भी हैं कि अमुक आदमी की प्रकृति कैसी है। अर्थात स्वभाव कैसा है? मूलाधार से ही सभी आधार बनते हैं। आधार पहले मूलाधार में बदलना चाहिए। तभी कुंडलिनी योग की असली शुरुआत होगी। कर्म योग से आदमी की आत्मा में दबी हुई सूचनाएं अनासक्ति से उभर कर नष्ट हो जाएंगी। जब आत्मा का बक्सा लगभग खाली हो जाएगा तब वह मूलाधार बनेगा। मतलब उसमें सांसारिक सूचनाएं नहीं दबी होंगी। यह पुरुष की तरह ही होता है। सिर्फ यही अंतर है कि यह पुरुष के विपरीत अंधेरनुमा होगा। मतलब यह पुरुष की आभासी परछाई की तरह ही होगा। जब आदमी के अर्थात आदमी की जीवात्मा के मूल आधार अवस्था में स्थित होने पर गुरु आदि रूप के मानसिक चित्र का ध्यान किया जाता है, तब ध्यान आसानी से लगता है। यह इसलिए क्योंकि आत्मा में कोई दूसरा दबा हुआ कचरा होता ही नहीं जो ध्यान की शक्ति को सोखकर शक्तिशाली हो सके या अभिव्यक्त हो सके। जब तांत्रिक कुंडलिनी योग से उस ध्यान चित्र को कुंडलिनी शक्ति भी दी जाती है, तब तो है आग के शोले की तरह भड़कने लगता है। इससे वह जल्दी ही जागृत हो जाता है।

कुंडलिनी जागरण से पुरुष की प्रकृति तक की यात्रा पूरी होती है

दोस्तों यह पोस्ट थोड़ी लंबी लग सकती है, पर इसमें सृष्टि का बहुत बड़ा रहस्य छिपा हुआ है। बात हो रही थी कि जिस तरह पुरुष मतलब प्रकाश हर जगह और हर समय मौजूद है, उसी तरह मूल प्रकृति मतलब अंधेरा भी है। अगर मूल प्रकृति ना होती तो सृष्टि ही ना होती। पुरुष तो बिल्कुल निश्चेष्ट है क्योंकि वह अपनी अभौतिक आत्मा में पूर्ण है जिससे उसे किसी भी चीज की जरूरत ही नहीं है। जीवाणु को या चींटी को भी प्रकृति ही चलाती है, और बड़े-बड़े ग्रहों और नक्षत्रों को भी वही प्रकृति चलाती है। पुरुष तो एक लक्ष्य है, प्रकृति जिसे पाने की कोशिश करती है। उसी कोशिश में उससे सृष्टि के सारे काम संपन्न होते हैं। हालांकि हाथी, बंदर, मनुष्य जैसे विकसित प्राणी के शरीर को भी प्रकृति ही चलाती है। पर यहां एक विशेषता है। इनको चलाने में जीवात्मा नाम की एक दूसरी प्रकृति भी मदद करती है। जीवात्मा इन प्राणियों के जीवन के अनुभवों से संबंधित सभी सूचनाओं को भंडारित करके रखने का काम करती है। इससे इन्हें चलाना और ज्यादा निपुणता युक्त और आसान हो जाता है। यूं कहो कि मूल प्रकृति ही विकसित होकर कालांतर में जीवात्मा बन जाती है।

मूल प्रकृति मूल पुरुष की छाया है। इसलिए इसमें शुद्ध अंधेरे के सिवाय कुछ नहीं है। इसमें पुरुष की तरह ही संसार का कोई नामोनिशान नहीं है। पर मूल प्रकृति जीवात्मा तब बनती है, जब एक अनुभव करने वाले मस्तिष्क को धारण करने वाला जीव बनता है। वह जिन सांसारिक विषयों को अनुभव करता है, वह भी उससे जुड़ी मूल प्रकृति में सूक्ष्म कोड के रूप में जमा होने लगते हैं। इससे उसे पुरुष तक जल्दी पहुंचने में बहुत मदद मिलती है। हालांकि पहले वाली शुद्ध मूल प्रकृति भी अपनी जगह पर वैसी ही बनी रहती है, क्योंकि वह पुरुष की तरह अजर, अमर है।

जैसे आदमी सहित हर एक जीव के जीवन की परछाई उसकी जीवात्मा के रूप में बनी है, उसी तरह परम पुरुष की भी जरूर होगी। पुरुष की उसी परछाई को प्रकृति कहा गया है। यह सत्य नहीं पर आभासी है। वैसे ही जैसे पेड़ की छाया सत्य नहीं पर आभासी है। किसी पेड़ की छांव बिल्कुल उस पेड़ की तरह होती है। सिर्फ एक फर्क के साथ कि वह अंधेरमयी या काली होती है। इसी तरह प्रकृति भी बिल्कुल पुरुष की तरह अनादि, अनंत, अजर, अमर और सर्वव्यापक है। केवल यही फर्क है कि उसमें पुरुष की तरह प्रकाश नहीं होता। क्योंकि वह पुरुष की आभासी छाया है।

जब सृष्टि बनना शुरू होती है, तो सबसे पहले निर्मित सबसे छोटा मूल कण अपने को उन्नत करने की कोशिश करता हुआ आगे से आगे बढ़ने लगता है। उसे आगे बढ़ने की शक्ति मूल प्रकृति से मिलती है। मतलब मूल प्रकृति उस कण की आत्मा के रूप में है। वैसे तो मूल प्रकृति आनंद के रास्ते ही पुरुष तक पहुंच सकती है, क्योंकि पूर्ण आनंद ही पुरुष का असली रूप है। पर अपना आनंद बढ़ाने के लिए उसे पहले अपने सृष्टिरूपी शरीर की सत्ता बढ़ानी होगी। क्योंकि यदि विभिन्न कणों का आपस में खूनी संघर्ष होता रहा, तो ग्रह, सूर्य आदि पिंड कैसे बनेंगे? यदि इन पिंडों का आपस में और अंदरूनी खूनी संघर्ष चलता रहा तो पृथ्वी जैसा शांत और स्थिर ग्रह कैसे बनेगा। अगर पृथ्वी पर डायनासोरों जैसे जीवो का खूनी विध्वंस जारी रहा तो मनुष्य जैसा तीव्र बुद्धि वाला व विकसित प्राणी कैसे बनेगा। जब तक जीव में अनुभव करने वाला मस्तिष्क नहीं बना, तब तक प्रकृति सत्ता के लालच में सृष्टि का विकास करती रही। सत्ता के लिए अनुभव की जरूरत नहीं है। हालांकि सत्ता और आनंद आपस में जुड़े हुए हैं। सत्ता का विकास होने से आनंद का विकास भी होता है। हालांकि वह बाद में दिखाई दिया जब मस्तिष्क बना। मस्तिष्क बनने पर तो जीव के विकास की रफ्तार कई गुना बढ़ गई, क्योंकि अब वह विकास के लिए अनुभव या आनंद से भी प्रेरित हो रहा था। अनुभव और आनंद लगभग एक ही चीज हैं। सत्ता से तो पहले भी प्रेरित हो रहा था। आदमी बनने पर उसने कठिन कुंडलिनी योग साधना की और उससे कुंडलिनी जागरण के रूप में परम आनंद का अनुभव प्राप्त किया। मतलब प्रकृति की पुरुष तक की यात्रा पूरी हो गई। मूल प्रकृति विकास करती हुई पुरुष में विलीन हो गई पर मूल प्रकृति भी वैसी ही रही। यह ऐसे ही है जैसे एक पेड़ से उसकी जितनी मर्जी परछाइयां बना लो। मतलब अगर पेड़ की परछाई अपना विकास करके कुछ और ही बन जाए। तब भी उस पेड़ की मूल परछाई तो वैसी ही रहेगी।

दोस्तों मूल प्रकृति तब तक अपने शुद्ध मूल रूप में थी, जब तक अनुभव करने वाले मस्तिष्क का निर्माण नहीं हो गया। जब अनुभवात्मक मस्तिष्क बना तब मूल प्रकृति में प्रकाश की तरंगें उमड़ने लगीं। इन्हीं तरंगों को हम अनुभव कहते हैं। ये प्रकाश तरंगें प्रकाशमान पुरुष से ही प्राप्त हुई थीं, बेशक आभासिक रूप में। मतलब प्रकृति और पुरुष का आपस में मिलन हो गया था। इसीलिए शास्त्रों में कहा है कि सृष्टि पुरुष और प्रकृति के जुड़ने से बनी है। ऐसा नहीं कहा है कि खाली प्रकृति से बनी है। मतलब सृष्टि का निर्माण शुरु हो गया था। आप कहेंगे कि सृष्टि तो पहले से ही विकसित हो रही थी। बेशक ऐसा ही हो रहा था पर उसे अनुभव करने वाला तो कोई भी नहीं था उस समय। अंधेरे में हो रहे नृत्य का भला क्या महत्व है, जब उसे कोई देख ही नहीं सकता। जंगल में मोर नाचा, किसने देखा।मतलब सृष्टि की उत्पत्ति तभी मानी गई जब उसे अनुभव करने वाले जीव की और उसके रूप में प्रकृति पुरुष युग्म की उत्पत्ति हुई। फिर तो प्रकृति को पुरुष तक पहुंचने के लिए आनंद का सहारा भी मिल गया था। वह अधिक से अधिक आनंद की खोज करती हुई एक प्रकार से पुरुष की ही प्रचुर खोज कर रही थी। जागृति मिलने पर वह खोज खत्म हो गई और प्रकृति पुरुष में मिल गई। मतलब पेड़ की छाया पेड़ में मिल गई। पर पुरुष की छाया दिव्य है। यह चाहे कितनी ही बार पुरुष से मिल जाए, फिर भी यह कभी खत्म नहीं होती।

पुरुष भी प्रकृति की तरह दिव्य है। सूरज के प्रकाश को अगर लगातार निकाला जाता रहे तो यह कभी ना कभी खत्म हो जाएगा। पुरुष के प्रकाश को प्रकृति चाहे जितना मर्जी खींचती रहे, यह कभी कम नहीं होता, अनंत ही बना रहता है। जैसे एक आग का शोला अपना कुछ खोए बिना ही अनगिनत दीपकों को जला सकता है, वैसे ही एक पुरुष अपना कोई नुकसान किए बिना ही अनगिनत प्रकृतियों को जगमग कर सकता है।

कुंडलिनी योग प्रकृति को पुरुष की तरफ धकेलता है

दोस्तों! मिथक कल्पनाओं का आकर्षण हमेशा से रहा है। यह मानव मनोविज्ञान है जो मिथकों से बड़ा प्रभावित होता है। पुराने युग में भी विद्वान लोगों को छोड़कर आम लोग सीधे तौर पर दर्शन को ज्यादा महत्व नहीं देते थे। दर्शन उन्हें उबाऊ लगते थे। इसीलिए ऋषियों ने सत्य दर्शन पर आधारित मिथक कथाओं की रचना की जिनसे वेद पुराण भरे पड़े हैं। आज भी लोग टाइम ट्रेवल, स्पेस ट्रैवल आदि वैज्ञानिक सिद्धांतों से जुड़ी मिथक कथाओं के दीवाने हैं। इनसे मीडिया भरा पड़ा है। युग बदलता है पर मानव मनोविज्ञान वही रहता है। इसलिए सत्य को जगत में फैलाने के लिए दो किस्म के लोगों का परस्पर सहयोग अपेक्षित होता है। एक वह जो प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर सिद्धांत को प्रस्तुत करता है, और दूसरा वह जो उस पर आधारित मिथक कथाएं बनाता है। हो सकता है कि इस वेबसाइट के शास्त्र आधारित अध्यात्मवैज्ञानिक सिद्धांत भी कभी युगानुरूप मिथक कथाओं के रूप में उभरें।

आजकल के सुविधापूर्ण और वैज्ञानिक युग में लोगों के पास किसी भी विषय को विस्तार से समझने के लिए पर्याप्त समय और बल उपलब्ध है। पहले ऐसा नहीं था। एक बार महात्मा बुद्ध के एक शिष्य ने उनसे पूछा कि यह सांसारिक जन्ममरण रूपी दुख शुरु कैसे होता है। तो महात्मा बुद्ध ने कहा कि इसको जानने में समय बर्बाद करने की जरूरत नहीं है। बस इतना समझो कि इस दुख का अंत किया जा सकता है और उसके लिए प्रयास करो। आजकल लोगों के पास ब्लैकहोल और टाइम मशीन को समझने के लिए तो पर्याप्त समय है, पर उस आध्यात्मिक दर्शन को समझने के लिए नहीं है, जो मानव जीवन के मुख्य लक्ष्य से जुड़ा हुआ है। यह एक विडंबना ही है।

मित्रो, हम जिस चर्चा को छेड़े हुए हैं, वह पूरी तरह से शास्त्र सम्मत है। इसलिए यह प्रामाणिक भी मानी जा सकती है। यह कोई ख्याली पुलाव नहीं है। वैदिक सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति और पुरुष दो अजर अमर और सर्वव्यापी तत्त्व हैं। शुद्ध पुरुष तो कभी सृष्टि को चला ही नहीं सकता क्योंकि वह तो पूर्ण परमात्मा है। उसकी संसार में प्रवृत्ति ही नहीं होती। लोक में भी अक्सर देखा जाता है कि जो संत पूर्ण समाधि में स्थित होता है, उसकी संसार में कोई प्रवृत्ति नहीं होती। बेशक उसमें प्रेरक शक्ति होती है। लोग उससे प्रेरणा लेकर या कहो उसकी तरह पूर्ण बनने के लिए बड़े-बड़े और अच्छे-अच्छे सांसारिक काम और आचरण करते हैं। परमात्मा के मामले में भी ऐसा ही होता है। उससे प्रकृति को विकास करने की अर्थात उसके जैसा पूर्ण बनने की प्रेरणा मिलती रहती है। इसी से सृष्टि के सभी काम चलायमान रहते हैं। काम करने वाली तो प्रकृति होती है। सृष्टि से काम कराने वाली प्रकृति है, तो शरीर से काम करवाने वाला अहंकार या जीवात्मा है।

लोग बोलते हैं कि सृष्टि के सभी काम अंधेरे में हो रहे हैं, मतलब उन्हें करने वाली कोई प्रकाशमय चेतना शक्ति नहीं है। बात सही भी है और गलत भी। देखा जाए तो वही अंधेरा तो काम करवा रहा है। पर इसमें प्रकाश का अप्रत्यक्ष योगदान भी होता है। अंधेरा किसके लिए काम करवा रहा है। अंधेरा प्रकाश के लिए काम करवा रहा है। प्रकृति पुरुष के लिए काम करवा रही है। पुरुष ही प्रकृति को खींच रहा है। अहंकार निरंकार के लिए काम करवा रहा है। जीवात्मा परमात्मा के लिए काम करवा रहा है। परमात्मा ही जीवात्मा को खींच रहा है। जीवात्मा तो कभी परमात्मा बन जाएगा। तो क्या प्रकृति भी कभी पुरुष बनेगी। अगर एक जीवात्मा परमात्मा बनेगा तो दूसरा जीवात्मा फिर पैदा हो जाएगा। अगर प्रकृति पुरुष बनेगी तो दूसरी प्रकृति कहां से आएगी क्योंकि प्रकृति तो एक ही है। जीवात्मा अनेक हैं। जब नई प्रकृति नहीं बनेगी तो सृष्टि भी थम जाएगी। जीवात्मा भी प्रकृति से ही बनते रहते हैं।

जीवात्मा प्रकृति और पुरुष का मिश्रण है। अगर प्रकृति पुरुष बन गई तो नए जीव भी पैदा नहीं हो पाएंगे, क्योंकि जीवात्मा ही नहीं बनेगी। मतलब प्रकृति कभी पुरुष में नहीं मिलती। या अगर मिलती है तो नई प्रकृति फिर से बन कर तैयार हो जाती है। कुंडलिनी योग तो है ही प्रकृति को पुरुष की तरफ अंतिम और निर्णायक धक्का देने के लिए। पर बनेगी कैसे। इसका हम अगली पोस्ट में विस्तार से विश्लेषण करेंगे।

कुंडलिनी जागरण केवल मनुष्य के सूक्ष्म शरीर से ही संभव है

दोस्तों, अंत में बात हट फिर के सूक्ष्म शरीर पर ही आती है। पिछली चर्चाओं से स्पष्ट है कि जगत सिकुड़ता हुआ अहंकार तक पहुंच जाता है। मतलब पारलौकिक सूक्ष्म शरीर के रूप में अहंकार ही बचता है। बेशक लौकिक सूक्ष्म शरीर में बुद्धि, मन, प्राण और इंद्रियां भी आती हैं। कई जगह यह केवल अहंकार, बुद्धि और मन से बना बताया गया है। कई जगह इसमें पंच तन्मात्राएं और पंचमहाभूत भी जोड़ दिए गए हैं। लौकिक सूक्ष्म शरीर के लिए तो यह सब ठीक है पर पारलौकिक सूक्ष्म शरीर में तो ये सब नहीं होने चाहिए। उसमें तो सिर्फ अहंकार होना चाहिए। कई जगह इस अहंकार को कारणशरीर के रूप में माना गया है। इसमें कर्म और संस्कार छिपे होते हैं, जो अगले जन्म का निर्धारण करते हैं। मान लो, परलोकिक सूक्ष्मशरीर मन, बुद्धि और अहंकार से बना होता है। पर वह स्थूल शरीर के बिना सोच-विचार कैसे कर सकता है। अगर नहीं कर सकता तो उसमें मन बुद्धि को मानने की क्या जरूरत है। यह एक जटिल विषय है।

चलो हम एक कोशिकीय जीवाणु को लेते हैं। यह सबसे सूक्ष्म जीवित प्राणी है, जिसे नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता। मान लेते हैं कि उसकी आत्मा या उसका अपने आप का स्वरूप एक पारलौकिक सूक्ष्म शरीर है। यह इसलिए क्योंकि उसके इतने छोटे स्थूल शरीर में अनुभव करने वाला मस्तिष्क नहीं हो सकता। वैज्ञानिकों को भी अभी तक इसका कोई सुराग नहीं मिला है। वह जीवाणु आदमी जैसे विकसित मस्तिष्क वाले प्राणी के जैसे ही आम जीवनचर्या के सभी काम करता है। वह चलता है, खाता है, पीता है, शिकार करता है, डरता है, भागता है, संभोग करता है, बच्चे पैदा करता है, लड़ाई झगड़े करता है, दोस्ती दुश्मनी समझता है, और निभाता है, आदि-आदि। सूचि बहुत लंबी है। समझ लो, वह सभी काम करता है। कई जगह तो आदमी से ज्यादा भी करता। इसका मतलब है कि उसमें आत्मा के साथ अहंकार, बुद्धि, मन, प्राण, पंच ज्ञानेंद्रियां, पंच  तन्मात्राएं और पंचमहाभूत सब कुछ हैं। पर यह सब उसको तो महसूस होते नहीं। तो क्या इन सबके होने के लिए इन सब को महसूस करना जरूरी है। बिल्कुल नहीं। मतलब आत्मा खुद सूक्ष्म शरीर की तरह व्यवहार करती है। मान लिया कि जीवात्मा ऐसा व्यवहार करती है। वह इसलिए क्योंकि जीवात्मा अज्ञान के अंधेरे में फंसी होती है। उसने विकास करना होता है। वह विकास शरीर से ही हो सकता है। पर परमात्मा क्यों सूक्ष्मजीव की तरह व्यवहार करता है, वह तो पूर्ण विकसित है। निर्जीव सृष्टि भी प्राणी की तरह ही व्यवहार करती है। उदाहरण के लिए तारे भी पैदा होते हैं, बढ़ते हैं, लड़ते हैं, प्रजनन कार्य करते हैं, खाते हैं, उगलते हैं, शिकार करते हैं, लड़ाई झगड़ा करते हैं, भागते हैं, दोस्ती और दुश्मनी निभाते हैं, आदि आदि। तो क्या निर्जीव पदार्थों में भी जीवात्मा है। जरूर है। सांख्य दर्शन भी कहता है कि प्रकृति भी पुरुष अर्थात परमात्मा की तरह अनादि, अनंत और सर्वव्यापक है। मतलब यह प्रकृति भी जीवात्मा ही है। एक विशाल, सर्वव्यापक, वैश्विक या समष्टि जीवात्मा। इसे ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर भी कह सकते हैं। ब्रह्मा भी तो इसे महसूस नहीं करता। फिर भी सूक्ष्मशरीर होता है, और काम करता है। एक प्रकार से जीवात्मा के विकास के लिए अहंकार, बुद्धि, मन, प्राण, दस इंद्रियां, पांच तन्मात्राएं, और पंचमहाभूत होना जरूरी है। खैर अहंकार तो खुद ही जीवात्मा के रूप में है। क्योंकि ये सभी जरूरी हैं, इसीलिए ये सभी तत्व इकट्ठे हो गए। इनके इकट्ठा होने से एक शरीर बन गया। उसके साथ जीवात्मा का जुड़ाव हो गया। जीवात्मा तो प्रकृति के रूप में पहले से ही हर जगह और हर समय मौजूद था। समझ लो कि उसका एक कल्पित अंश नवनिर्मित शरीर से बंध गया। वही पहला जीवात्मा हुआ। वह पहला शरीर जीवाणु का था। फिर जीवाणु का शरीर विकसित होकर कीड़ों मकोड़ों का शरीर बना। फिर मछली मेंढक का, फिर बड़े जंतुओं का, बंदरों का और अंत में मनुष्य का। सूक्ष्म शरीर तो सब में एक जैसा ही है। सूक्ष्म शरीर में कोई विकास नहीं हुआ। वही इंद्रियां, वही प्राण, वही मन, वही बुद्धि आदि। मतलब जीवात्मा के विकास के लिए सूक्ष्म शरीर के अलावा अन्य कोई अन्य कुछ तत्व जरूरी नहीं। यह जरूर हुआ कि बड़े जीवों और मनुष्यों में सूक्ष्म शरीर का दायरा बढ़ गया। इसलिए जीवात्मा का विकास भी तेज हुआ। पर सूक्ष्म शरीर तो वही पौराणिक था। मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में जो एक चीज विशेष हुई, जो किसी अन्य जीव के शरीर में नहीं है, वह है कुंडलिनी योग साधना की योग्यता। इससे आदमी अपने सूक्ष्म शरीर को इतना ऊंचा उठा लेता है कि उससे कुंडलिनी जागरण हो जाता है।

Kundalini Yoga dispels the darkness of thought waves

Friends, in this post we are going towards a little deeper philosophy. If someone does not want to go too deep, he can even skip this post. Let us first understand the beginning of the formation of waves in the soul. First of all, the soul was completely pure. It was like God. Then it got attached to a body. The brain created a virtual movement or wave in that soul. The wave that was formed covered the eternal light of the soul. How much did it cover? As much as the effect of one wave was. Then the darkness of the soul increased further with the second wave. More with the third, more with the fourth. This continued. It is like the lesser number of leaves on a tree makes a less dense shadow on the ground. But as the number of leaves increases, the density of the shadow also increases. Single leave has been likened here to a single thought wave. In a way, the shadow of the denser leaves contains the information of each level of the less dense leaves. This is because the greater quantity of something includes all the lesser quantities of that thing itself. The same happens with the soul. The darkness created by its higher waves includes the darkness created by each level of its lower waves. Or you can say that each type of wave created its kind of darkness in the soul. It means that whatever waves have been created till today, the darkness of their kinds has been created in the soul. It means that every thought wave is recorded in the soul as a special darkness like that wave. Of course, superficially we may not feel those darknesses separately in the soul. It is like the information of each type of leaves of a tree was recorded in the shade of that tree in its own time. When the shade of the new level of leaves is formed, the shadow of the old level of leaves gets erased. But when new darkness is formed in the soul from the new wave, all the old darkness created by the old waves remains recorded, they do not get erased. That is why by looking at the shade of the tree, only one shade is felt and the other older shades are not experienced. But on feeling the darkness of the soul, it feels like that darkness is one, but in it, various information of its countless living states or births with countless bodies are recorded. However, this is a very subtle feeling and doesn’t look like differentiated but a single one. This can happen only if every information is present in the form of a separate darkness. If all the other small darknesses of the soul were erased or suppressed in the big darkness of the soul like the shade of a tree, then all souls would be the same. And then the principle of karma-phala would also not be applicable. Meaning that if the information of any karma is not present in the soul, then its fruit would also not be received. But nothing like this happens?

It is worth noticing here that God did not forcefully bind anyone. He had just shown nature aka Prakriti to the soul aka Purusha. If the soul wanted, it could have rejected it. But it chose it by leaving its own eternal form. Due to this, it got bound. Meaning God wanted to give it the additional bliss of nature. But due to the attachment of the soul, the opposite happened, meaning its eternal bliss also went away.

If some leaves fall after the dense shade of the tree, then that old dense shade vanishes on its own and is replaced by light shade. But if a light wave is formed in the soul after the deep waves, then the darkness created by the old deep wave does not vanish on its own. Of course, a new and light darkness gets added to the soul with a new and light or non-attached thought wave. The shade of the tree does not stick to the ground, but it vanishes immediately with the removal of the leaves that create the shade. But the darkness of the soul remains attached to the soul. Of course, the thought wave that creates that darkness may go away, but the darkness does not go away. Perhaps it gradually goes away by regularly remembering that thought wave. Perhaps this is what happens with Kundalini Yoga.