ऐसी ही एक अध्यात्मविद्या है, परकाया प्रवेश, जिसका उल्लेख मैं हाल ही की पिछली एक पोस्ट में कर रहा था। किंवदंती है कि आदिगुरु शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ चर्चा में विद्वान् मंडन मिश्रा को हरा दिया था। फिर उनकी पत्नि भारती चर्चा करने लगी। भारती ने उनसे कामशास्त्र से संबंधित व्यावहारिक प्रश्न पूछे पर क्योंकि वे अविवाहित ब्रह्मचारी थे इसलिए जवाब न दे सके। जवाब पाने के लिए उन्होंने मृत्यु को प्राप्त हुए एक गृहस्थ राजा के शरीर में प्रवेश किया था। इस पर एक फ़िल्म भी बनी है। किसी मृत व्यक्ति के सूक्ष्म शरीर से तो सम्पर्क बन सकता है, जैसा मैं अपना अनुभव बता रहा था, पर जिन्दा शरीर के सूक्ष्म शरीर में घुसा जा सकता है, यह मालूम नहीं। यह भी नहीँ मालूम कि मृत शरीर में घुसकर सूक्ष्मशरीर उसे जिन्दा कैसे कर सकता है। विज्ञान कहता है कि मृत्यु के थोड़े समय के बाद ही शरीर की कोशिकाएँ मृत हो जाती हैं। उनका इर्रिपेयरेबल डेमेज हो जाता है मतलब उनका इतना नुकसान हो जाता है कि उन्हें पुनः जिन्दा नहीँ किया जा सकता। विज्ञान वहीं तक कह सकता है, जहाँ तक उसकी पहुंच हो। हम दरअसल विज्ञान को फाइनल मान लेते हैं, और उसके आगे नहीँ सोचते। सच्चाई यह है कि विज्ञान को विज्ञान ही चुनौती देता रहता है, विकास करते हुए। पिछले सिद्धांतों को नए सिद्धांत ख़ारिज कर देते हैं। हो सकता है, जिन मृत कोशिकाओं को विज्ञान मुरम्मत के अयोग्य मानता हो, अध्यात्म विज्ञान से उनकी मुरम्मत हो सकती हो। मतलब योग से मृत कोशिकाएँ भी जिन्दा हो सकती हों। इसका आम आदमी को पता न हो क्योंकि उन्हें वैसा योग करना न आता हो। शास्त्रों में आता है कि राक्षसगुरु शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्या से मृत राक्षसों को जिन्दा कर दिया करते थे। मेरे एक प्रत्यक्षदर्शी मित्र ने बताया था कि उन्होंने खुद कुम्भ मेले में एक साधु को मृत चिड़िया को प्राणविद्या से जीवित करते हुए देखा था। अब मैं यह तो नहीँ कह सकता कि वह सच या झूठ कह रहा था। मुझे तो झूठ भी लगता कई बार। फिर भी चलो मैं ओपन माइंड हो लेता हूँ। ऐसा वही नहीं, और भी बहुत से सिद्ध लोग दावे करते हैं, खासकर शास्त्रों में। हालांकि इसकी भी कुछ शर्त या सीमा होती होगी, जो भौतिक विज्ञान की शर्त और सीमा से ज्यादा उदार होती होगी। जब कुण्डलिनी योग की प्राण शक्ति से शरीर स्वस्थ रह सकता है, और बीमार शरीर स्वस्थ हो सकता है, जिसे योगा हीलिंग कहते हैं, तब मृत शरीर जीवित भी हो सकता है, अगर आज के विज्ञान को एक किनारे रख दें। अगर योग से जीवित कोशिका की मुरम्मत हो सकती है, तो मृत कोशिका की मुरम्मत क्यों नहीं हो सकती। हो सकती है, पर ज्यादा योगशक्ति लगेगी। अगर हल्की टूटी कुर्सी की मुरम्मत हो सकती है, तो पूरी टूटी कुर्सी की क्यों नहीँ। हो सकती है, पर शरीर की ज्यादा शक्ति लगेगी।
रामचरितमानस में आता है कि हनुमान जी पहाड़ से संजीवनी बूटी लाए थे, जिसको खाने से लक्ष्मण का मृत शरीर जिन्दा हो गया था। उसको सूर्योदय से पहले खिलाया जाना जरूरी था, अन्यथा वह असर न करती। मुझे लगता है कि इसका मतलब है कि चौबीस घंटे के अंदर ही मृत शरीर जीवित हो सकता है अध्यात्मविज्ञान से भी, उसके बाद उसकी कोशिकाओं में इतनी टूटफूट हो जाती है कि उनकी मुरम्मत अध्यात्मविज्ञान से भी नहीं हो सकती। आजकल रामचरितमानस भी चर्चा में बना हुआ है। गलतफहमी व निहित स्वार्थ के वशीभूत कुछ तत्त्वों द्वारा इसमें वर्णित एकदो वाक्यों बारे दुष्प्रचार किया गया। फिर उसका खंडन करने के लिए कई बुद्धिजीवियों के द्वारा वैज्ञानिक स्पष्टीकरण भी दिया गया। उस सच्चाई को भी न मानने पर उनका मानवीय विरोध भी हुआ। फिर भी लोकतंत्र का ऊंट किस करवट बैठता है, कुछ कह नहीं सकते।