कुंडलिनी तंत्र की वैज्ञानिकता को भगवान शिव स्वयं स्वीकार करते हैं

दोस्तो, शिवपुराण में आता है कि पार्वती ने जब शिव के साथ दिव्य वनों, पर्वत श्रृंखलाओं में विहार करते हुए बहुत समय बिता दिया, तो वह पूरी तरह से तृप्त और संतुष्ट हो गई। उसने शिव को धन्यवाद दिया और कहा कि वह अब संसार के सुखों से पूरी तरह तृप्त हो गई है, और अब उनके असली स्वरूप को जानकर इस संसार से पार होना चाहती है। शिव ने पार्वती को शिव की भक्ति को सर्वोत्तम उपाय बताया। उन्होंने कहा कि शिव का भक्त कभी नष्ट नहीं होता। जो शिवभक्त का अहित करता है, वे उसे अवश्य दंड देते हैं। उन्होंने शिवभक्ति का स्वरूप भी बताया। पूजा,अर्चन, प्रणाम आदि भौतिक तरीके बताए। सख्य, दास्य, समर्पण आदि मानसिक तरीके बताए। फिर कहा कि जो शिव के प्रति पूरी तरह से समर्पित है, शिव के ही आश्रित है, और हर समय उनके ध्यान में मग्न है, वह उन्हें सर्वाधिक प्रिय है। वे ऐसे भक्त की सहायता करने के लिए विवश है, फिर चाहे वह पापी और कुत्सित आचारों व विचारों वाला ही क्यों न हो। शिवभक्ति को ही उन्होंने सबसे बड़ा ज्ञान बताया है।

पार्वती का शिव के साथ घूमना जीव का आत्मा की सहायता से रमण करना है

वास्तव में जीव चित्तरूप या मनरूप ही है। जीव यहां पार्वती है, और आत्मा शिव है। मन के विचार आत्मा की शक्ति से ही चमकते हैं, ऐसा शास्त्रों में लिखा है। इसको ढंग से समझा नहीं गया है। लोग सोचते हैं कि आत्मा की शक्ति तो अनन्त है, इसलिए अगर मन ने उसकी थोड़ी सी शक्ति ले ली तो क्या फर्क पड़ेगा। पर ऐसा नहीं है। आत्मा मन को अपना प्रकाश देकर खुद अंधेरा बन जाती है। यह वैसे ही होता है, जैसे माँ अपने गर्भ में पल रहे बच्चे को अपनी ताकत देकर खुद कमजोर हो जाती है। वास्तव में ऐसा होता नहीं, पर भ्रम से जीव को ऐसा ही प्रतीत होता है। इसी वजह से पार्वती का मन शिव के साथ भोग-विलास करते हुए भ्रम से भर गया। अपनी आत्मा के घने अंधकार को अनुभव करके उसे उस अंधकार से हमेशा के लिए पार जाने की इच्छा हुई। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जब तक आदमी समस्या को प्रचंड रूप में अनुभव न करे, तब तक वह उसे ढंग से हल करने का प्रयास नहीं करता। इसीलिए तजुर्बेदार लोग कहते हैं कि संसार सागर में डूबने के बाद ही उससे पार जाने की इच्छा पैदा होती है। इसलिए यह तंत्र सम्मत सिद्धांत एक वैज्ञानिक सत्य है कि निवृत्ति के लिए प्रवृत्ति बहुत जरूरी है। प्रवृत्ति के बिना निवृत्ति का रास्ता सरलता से नहीं मिलता। इसलिए नियम-मर्यादा की डोर में बंधे रहकर दुनिया में जमकर ऐश कर लेनी चाहिए, ताकि मन इससे ऊब कर इसके आगे जाने का रास्ता ढूंढे। नहीं तो मन इसी दुनिया में उलझा रह सकता है। कई तो इतने तेज दिमाग होते हैं कि दूसरों के एशोआराम के किस्से सुनकर खुद भी उनका पूरा मजा ले लेते हैं। कइयों को वे खुद अनुभव करने पड़ते हैं।

कुंडलिनी को शिव, और कुंडलिनी योग को शिवभक्ति माना गया है

कुंडलिनी से भी यही फायदे होते हैं, जो शिव ने अपने ध्यान से बताए हैं। शिवपुराण ने कुंडलिनी न कहकर शिव इसलिए कहा है, क्योंकि यह पुराण पूरी तरह से शिव के लिए ही समर्पित है। इसलिए स्वाभाविक है कि शिवपुराण रचयिता ऋषि यही चाहेगा कि सभी लोग भगवान शिव को ही अपनी कुंडलिनी बनाए। उपरोक्त शिव वचन के अनुसार कुंडलिनी तंत्र सबसे ज्यादा वैज्ञानिक, प्रभावशाली और प्रगतिशील है। बाहर से देखने पर पापी और कुत्सित आचार-विचार तो तंत्र में भी दिखते हैं, हालांकि साथ में शक्तिशाली कुंडलिनी भी होती है। वह चकाचौंध वाली कुंडलिनी उन्हें पवित्र कर देती है। तीव्र कुंडलिनी शक्ति से शिव कृपा तो मिलती ही है, साथ में भौतिक पंचमकारों आदि से भौतिक तरक्की भी मिलती है। इससे कई लाभ एकसाथ मिलने से आध्यात्मिक विकास तेजी से होता है। शिव खुद भी बाहर से कुत्सित आचार-विचार वाले लगते हैं। प्रजापति दक्ष ने यही लांछन लगाकर ही तो शिव का महान अपमान किया था। वास्तव में शिव एक शाश्वत व्यक्तित्व हैं। जो शिव के साथ हुआ, वह आज भी उनके जैसे लोगों के साथ हो रहा है, और हमेशा होता है। शाश्वत चरित्र के निर्माण के लिए ऋषियों की सूझबूझ को दाद देनी पड़ेगी। दूसरी ओर, साधारण कुंडलिनी योग से भौतिक शक्ति की कमी रह जाती है, जिससे आध्यात्मिक विकास बहुत धीमी गति से होता है। जहाँ शक्ति रहती है वहीं शिव भी रहता है। ये हमेशा साथ रहते हैं। इसीलिए शिवपुराण में आता है कि आम मान्यता के विपरीत शिव और पार्वती (शक्ति) का कभी वियोग नहीं होता। वे कभी आपस में ज्यादा निकट सम्बन्ध बना लेते हैं, और कभी एक-दूसरे को कथाएँ सुनाते हुए थोड़ी दूरी बना कर रहते हैं। उनके निकट सम्बन्ध का मतलब आदमी की कुंडलिनी जागरण या समाधि की अवस्था है, और थोड़ी दूरी का मतलब आदमी की आम सांसारिक अवस्था है। मैंने कुंडलिनी तंत्र के ये सभी लाभ खुद अनुभव किए हैं। एकबार मेरे कान में दर्द होता था। मैंने व्यर्थ में बहुत सी दवाइयां खाईं। उनका उल्टा असर हो रहा था। फिर मैंने अपने कान का सारा उत्तरदायित्व कुंडलिनी को सौंप दिया। मैं पूरी तरह कुंडलिनी के आगे समर्पित हो गया। अगले ही दिन होम्योपैथी डॉक्टर का खुद फोन आया और मुझे छोटा सा नुस्खा बताया, जिससे दर्द गायब। और भी उस दवा से बहुत फायदे हुए। एकबार किसी गलतफहमी से मेरे बहुत से दुश्मन बन गए थे। मैं पूरी तरह कुंडलिनी के आश्रित हो गया। कुंडलिनी की कृपा से मैं तरक्की करता गया, और वे देखते रह गए। अंततः उन्हें पछतावा हुआ। पछतावा पाप की सबसे बड़ी सजा है। मेरा बेटा जन्म के बाद से ही नाजुक सा और बीमार सा रहता था। भगवान शिव की प्रेरणा से मैंने उसके स्वास्थ्य के लिए कुंडलिनी की शरण ली। कुंडलिनी को प्रसन्न करने या यूं कह लो कि कुंडलिनी को अतिरिक्त रूप से चमकाने के लिए शिव की ही प्रेरणा से कुछ छोटा मानवतापूर्ण तांत्रिक टोटका भी किया। उसके बाद मुझे अपने व्यवसाय में भी सफलता मिलने लगी और मेरा बेटा भी पूर्णिमा के चाँद की तरह उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। 

हिंदुओं के बीच में आध्यात्मिकता को लेकर कभी  विवाद नहीँ रहा

कुंडलिनी ध्यान ही कुंडलिनी भक्ति है। भक्ति से जो मन में निरंतर स्मरण बना रहता है, वही ध्यान से भी बना रहता है। अपने प्रभाव की कुंडलिनी को प्रसिद्ध करने के लिए तो विभिन्न सम्प्रदायों एवं धार्मिक मत-मतांतरों के बीच प्रारंभ से होड़ लगी रही है। शिवपुराण में भगवान शिव को भगवान विष्णु से श्रेष्ठ बताने के लिए कथा आती है कि एकबार भगवान शिव ने अपनी गौशाला में बड़ा सा सिंहासन रखवाया और उस पर भगवान विष्णु को बैठा दिया। उसके बाद भगवान शिव के परम धाम के अंदर वह गौशाला भगवान विष्णु का गौलोक बन गया। यह अपनी-2 श्रेष्ठता को सिद्ध करने वाले प्रेमपूर्ण व हास्यपूर्ण आख्यान होते थे, इनमें नफरत नहीं होती थी, मध्ययुग से चली आ रही कट्टर मानसिकता (जिहादी और अन्य बलपूर्वक धर्मपरिवर्तन कराने वाले धार्मिक समूहों की तरह) के ठीक उलट। 

सनातन धर्म की क्षीणता के लिए आंशिक आदर्शवाद भी जिम्मेदार है

आध्यात्मिक उपलब्धि के सच्चे अनुभव को जनता से साझा करने को अहंकार मान कर किनारे लगाया गया। जीवन की क्षणभंगुरता और मृत्यु के बखान से जीवन की आध्यात्मिक उपलब्धि  को ढका गया। दूसरी ओर, भौतिक तरक्की करने वाले लोग कुछ न छुपाते हुए अपनी उपलब्धि का प्रदर्शन करते रहे। लोग भी मजबूरन उनकी ही कीर्ति फैलाते रहे। इसको अहंकार नहीं माना गया। इस वजह से असली अध्यात्म सिकुड़ता गया। इस कमी का लाभ उठाने नकली आध्यात्मिक लोग आगे आए। उन्होंने अध्यात्म को भौतिकता का तड़का लगाकर पेश किया, जिसे लोगों ने स्वीकार कर लिया। वह भी लोगों को अहंकार नहीं लगा। इससे अध्यात्म और नीचे गिर  गया। ऐसे तो कोई भी अपने को आत्मज्ञानी या कुंडलिनी-जागृत बोल सकता है। यदि किसी को असल में आत्मज्ञान हुआ है, तो वह अपना स्पष्ट अनुभव हमेशा पूरी दुनिया के सामने रखे, ताकि उसका मिलान असली, शास्त्रीय, व सर्वमान्य अनुभव से किया जाए। ऐसा अनुभवकर्ता उम्रभर अपने उस अनुभव से संबंधित चर्चाएं, तर्क-वितर्क व उसकी सत्यता-सिद्धि करता रहे। साथ में, उसका आध्यात्मिक विकास भी उम्र भर होता रहे। वह उम्र भर जागृति के लिए समर्पित रहे। तभी माना जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति का अनुभव असली अनुभव है। चार दिन टिकने वाले जागृति के अनुभव तो बहुत से लोगों को होते हैं।

Published by

demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s