मोक्ष नहीं मुझे लक्ष्य चाहिए
शुष्क कण्ठ की बनूं तरलता जटिल भूमि की बनूं सरलता उमड़-घुमड़ कर नभ पर छाए उस बादल का जल बन जाऊं। मोक्ष नहीं मुझे लक्ष्य चाहिए, जब भी मैं धरा पर आऊं। वीरों के माथे का चन्दन जग करता है जिसका वन्दन प्रस्फुटित हुआ है अंकुर जिसमें उस माटी का कण बन जाऊं। मोक्ष नहीं मुझे लक्ष्य चाहिए, जब भी मैं धरा पर आऊं। सुमन-सौरभ को बिखराता संतप्त (तप्त) हृदय को हर्षाता जो दग्ध वपु को कर दे शीतल वो समीर झोंका बन जाऊँ। मोक्ष नहीं मुझे लक्ष्य चाहिए, जब भी मैं धरा पर आऊं। सुलगाए साहस की ज्वाला झुलसाए आतंक का जाला बुझी आशा (आस) का दीप जलाए वो अग्नि-स्फुलिंग बन जाऊं। मोक्ष नहीं मुझे लक्ष्य चाहिए, जब भी मैं धरा पर आऊं। उज्ज्वल चन्द्र-सितारों वाला पर्वत की दीवारों वाला जिसके नीचे जीव सृजन हो उस नभ का हिस्सा बन जाऊं। मोक्ष नहीं मुझे लक्ष्य चाहिए जब भी मैं धरा पर आऊं। जन्म-मरण के बन्धन से उस दिन मुक्ति देना ईश्वर! पर-नयनों के अश्रु से जिस दिन द्रवित न होने पाऊं मोक्ष नहीं मुझे लक्ष्य चाहिए, जब भी मैं धरा पर आऊं।
हकीकत में जिंदगी तो काँटों ने संवार दी
चाहत में हमने गुल की
उम्रें गुज़ार दी।
हकीक़त में ज़िन्दगी तो
कांटों ने संवार दी।
इल्ज़ाम क्यों दें वक्त को
हम चल न पाए साथ।
इसने दी गर ख़िज़ा तो
किसने बहार दी?
सब बन बैठे नाव खवैया
हवा चली ये कैसी भैया
कूद पड़े सब एक ही नैया
पता नहीं, पतवार चीज़ क्या?
सब बन बैठे नाव खवैया।
लय और ताल समझ न आई
नाच पड़े सब ता-ता थैया
आँख मूंद सब दौड़ लगाए
मन्ज़िल सबकी भूल-भूलैया।
पल में क्या हो? खबर नहीँ है
सबका एक ही नाच नचैया।
भाई विनोद शर्मा द्वारा रचित कालजयी, भावपूर्ण व दिल को छूने वाली कुछ कविताएँ- भाग 2
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