अब तो पुष्प खिलने दो
अब तो सूरज उगने दो।
भौँरा प्यासा घूम रहा
हाथी पगला झूम रहा।
पक्षी दाना चौँच में लेके
मुँह बच्चे का चूम रहा।
उठ अंगड़ाई भरभर के अब
नन्हें को भी जगने दो।
अब तो पुष्प--
युगों युगों तक घुटन में जीता
बंद कली बन रहता था।
अपना असली रूप न पाकर
पवनवेग सँग बहता था।
मिट्टी खाद भरे पानी सँग
अब तो शक्ति जगने दो।
अब तो पुष्प ---
लाखों बार उगा था पाकर
उपजाऊ मिट्टी काया।
कंटीले झाड़ों ने रोका या
पेड़ों ने बन छाया।
खिलते खिलते तोड़ ले गया
जिसके भी मन को भाया।
हाथी जैसे अभिमानी ने
बहुत दफा तोड़ा खाया।
अब तो इसको बेझिझकी से
अपनी मंजिल भजने दो।
अब तो पुष्प--
अबकी बार न खिल पाया तो
देर बहुत हो जाएगी।
मानव के हठधर्म से धरती
न जीवन दे पाएगी।
करो या मरो भाव से इसको
अपने काम में लगने दो।
अब तो पुष्प --
मौका मिला अगर फिर भी तो
युगों का होगा इंत-जार।
धीमी गति बहुत खिलने की
एक नहीं पंखुड़ी हजार।
प्रतिस्पर्धा भी बहुत है क्योंकि
पूरी सृष्टि खुला बजार।
बीज असीमित पुष्प असीमित
चढ़ते मंदिर और मजार।
पाखण्डों ढोंगों से इसको
सच की ओर भगने दो।
अब तो पुष्प खिलने दो
अब तो सूरज उगने दो।
Author: minakshirani
स्कूल चले हम

घर को चले हम, घर को चले हम
स्कूल से अपने घर को चले हम।
को-रो-ना से डर हरदम
अपने-अपने घर चले हम।।
घर को चले हम, घर को चले हम
स्कूल से अपने-घर को चले हम।
खेल नहीं अब सकते हम
स्कू-ल के मैदान में।
कूद नहीं अब सकते हम
खेलों के जहान में।।
अब तो मजे करेंगे हम
खेत पर खलिहान में।
बूढ़ी अम्मा के संग-संग
बतियाएंगे हम हरदम।।
घर को चले हम, घर को चले हम
स्कूल से अपने घर को चले हम।
को-रो-ना से डर हरदम
अपने-अपने घर चले हम।।
घर को चले हम, घर को चले हम
स्कूल से अपने-घर को चले हम।
ऑनलाइन से पढ़ेंगे हम
ऑलराउंडर बनेंगे हम।
फालतू मीडिया छोड़कर
नॉलेज ही चुनेंगे हम।।
घर में योग करेंगे हम
इंडोर खेल करेंगे हम।
प्रातः जल्दी उठ करके
वॉकिंग भी करेंगे हम।।
घर को चले हम, घर को चले हम
स्कूल से अपने घर को चले हम।
को-रो-ना से डर हरदम
अपने-अपने घर चले हम।।
घर को चले हम, घर को चले हम
स्कूल से अपने-घर को चले हम।
स्कूल तो अपने जाएंगे
वैक्सी-नेशन के बाद।
फिर तो हम हो जाएंगे
जेल से जैसे हों आजाद।।
फिर तो नहीं करेंगे हम
व्यर्थ समय यूँ ही बरबाद।
पढ़-लिख कर व खेल कर
हम होंगे बड़े आबाद।।
शिक्षार्थ स्कूल जाएं हम
सेवार्थ हो आएं हरदम।
स्कूल का नाम रौशन करके
देश को रौशन करदें हम।।
स्कूल चले हम, स्कूल चले हम
घर से अपने- स्कूल चले हम।
हरा के उस को-रो-ना को
अपने-अपने स्कूल चले हम।।
स्कूल चले हम, स्कूल चले हम
घर से अपने-स्कूल चले हम।
बीच का बंदर खेलेंगे
स्टप्पू भी अब खेलेंगे।
लुक्का-छुप्पी खेलेंगे
चोर-सिपाही खेलेंगे।।
इक-दूजे संग दौड़ें हम
प्रेम के धागे जोड़ें हम।
मिलजुल रहना सीखें हम
कदम से सबके मिला कदम।।
स्कूल चले हम, स्कूल चले हम
घर से अपने-स्कूल चले हम।
हरा के उस को-रो-ना को
अपने-अपने स्कूल चले हम।।
स्कूल चले हम, स्कूल चले हम
घर से अपने-स्कूल चले हम।
-हृदयेश बाल
Kundalini awakening as the peak point reached, then the order of the universe’s development stops, and after some period of stability, the process of holocaust or Pralaya starts
Friends, I wrote in the previous post that Srishti or creation development is only for Kundalini development, and with Kundalini awakening, Srishti development completes and thereafter stops. Today we will discuss what happens after that. Actually, the event of holocaust also happens inside our body, not outside.
Description of Holocaust or Pralaya in Hindu Puranas
According to the Hindu Puranas, there are catastrophes when four eras have passed. The first era is Satyuga, the second era is Dwapara, the third is Treta, and the last age is Kali Yuga. There is a gradual decline of human beings in these ages. Satyuga has been described as the best and Kali Yuga as the worst. The order in which the creation of the world happens, in the same order, the holocaust also takes place. The five elements dissolve in the sense organs. The senses merge into the Tanmātras or subtle experiences. Panchatnamatras merge in ego. The ego merges in mahattattva or intellect. In the end, the mahattattva merges into nature. At the end of the disaster, nature also merge into God.
The four ages are in the form of the four stages of human life and the four ashramas
The childhood of man can be called the Satyuga. In this man would be free from all mental and physical disorders. He is as true as the deity. Then comes adolescence. It can be named Dwapara. In this, some disorder starts in the mind. The third stage is maturity age, in which a man becomes greatly depressed by the mess of worldliness. The last stage is that of old age. It is like Kali Yuga, in which darkness prevails due to distortion of mind and body. Similarly, the four ashrams or residencies of human life are also in the form of four yugas. Brahmacharya ashram can be called Satyuga, householder’s residency is Dwaparyuga, Vanaprastha is Tretayuga and Sannyasam Ashram is Kaliyuga. In fact the states are being matched from outside by looking at the Holocaust. In any state of body, a man can be at any higher level of mind.
Human death is depicted as a holocaust
As we clarified in the previous post that man can never know the world outside his mind. His world is limited to his mind. This means that then worldly creation and holocaust are also in the mind. This mental world is described in the Puranas. We fall into deception and understand it in the physical world outside. After Kundalini awakening or mental maturity, man’s attachment is not in the outside world. He lives with advaita bhava or non duality and detachment. We can call this the stability of the universe after its complete development. Then in the last days of his life, the process of holocaust starts in him. Due to weakness, he leaves the work of worldliness and keeps busy with the maintenance of his body. In a way we can say that the Panchamahabhutas or five elements merge into the senses. Then over time his senses also start to diminish. Due to weakness, his focus shifts from the senses to the inner mind. He cannot drink water with his hand. Others feed him with water in his mouth. He feels the juices of waters. Nearby attendants feed him food by putting food in his mouth. He feels the taste and smell of food. Families bathe him with their hands. He feels the touch of water. Others show him various pictures etc. He realizes their beauty. Others tell him Katha Kirtan or godly stories. He rejoices to feel their sweet and knowledge-filled voice. In a way, the senses merge into the Panchathanmatras or five subtle inner experiences. Even with the growing weakness, the man also has difficulty in experiencing the Panchatnamatras. Then his beloved brothers call him by name. This causes the flow of a little energy inside him, and he starts to enjoy himself. We can say that the Panchatnamatras merged in ego. With the further increase of weakness, the ego’s sense in him also starts to wane. He does not achieve agility even when called by name. With his intellect, he starts analyzing about his condition inside, it’s cause, it’s remedy and future outcome. In a way, the ego merges into the mahattattva or intelligence. After that, there is no energy to think even in the intellect. Man becomes like a lifeless. In that state he either goes into a coma or dies. We shall call this as mahattattva merging into nature. As mentioned in the previous post, at that stage all the gunas fall into equilibrium. Neither do they increase, nor decrease. They remain the same. In fact, it is the thoughtful brain that provides waves to increase and decrease the gunas of nature. It is a simple matter that when the brain itself is dead, then what will give the shock of thoughts to the gunas. Ignorant people go as far as nature. These types of people keep coming back and forth as birth and death again and again. The Enlightened one may goe one step further. They leave nature and merge into Purusha or God. All the gunas of nature cease there, and man becomes a form of light. There is no rebirth from there. This can be called as extreme holocaust or atyantik Pralaya.
कुंडलिनी जागरण ही सृष्टि विकास का चरम बिंदु है, फिर ब्रह्मांड के विकास का क्रम बंद हो जाता है, और स्थिरता की कुछ अवधि के बाद, प्रलय की प्रक्रिया शुरू हो जाती है
दोस्तों, मैंने पिछली पोस्ट में लिखा था कि सृष्टि का विकास केवल कुंडलिनी विकास के लिए है, और कुंडलिनी जागरण के साथ, सृष्टि का विकास पूरा हो जाता है, और उसके बाद रुक जाता है। आज हम चर्चा करेंगे कि उसके बाद क्या होता है। दरअसल, प्रलय की घटना हमारे शरीर के अंदर ही होती है, बाहर नहीं।
हिंदू पुराणों में प्रलय का वर्णन
हिंदू पुराणों के अनुसार, चार युग बीत जाने पर प्रलय होता है। पहला युग है सतयुग, दूसरा युग है द्वापर, तीसरा है त्रेता और अंतिम युग है कलियुग। इन युगों में मानव का क्रमिक पतन हो रहा है। सतयुग को सर्वश्रेष्ठ और कलियुग को सबसे बुरा बताया गया है। जिस क्रम से संसार का निर्माण होता है, उसी क्रम में प्रलय भी होता है। पंचतत्व इंद्रिय अंगों में विलीन हो जाते हैं। इंद्रियाँ तन्मात्राओं या सूक्ष्म अनुभवों में विलीन हो जाती हैं। पंचतन्मात्राएँ अहंकार में विलीन हो जाती हैं। अहंकार महात्त्व या बुद्धि में विलीन हो जाता है। अंत में, महातत्व प्रकृति में विलीन हो जाता है। आपदा के अंत में, प्रकृति भी भगवान में विलीन हो जाती है।
चार युग मानव जीवन के चार चरणों और चार आश्रमों के रूप में हैं
मनुष्य के बचपन को सतयुग कहा जा सकता है। इसमें मनुष्य सभी मानसिक और शारीरिक विकारों से मुक्त होता है। वह देवता के समान सत्यस्वरूप होता है। फिर किशोरावस्था आती है। इसे द्वापर नाम दिया जा सकता है। इसमें मन में कुछ विकार उत्पन्न होने लगता है। तीसरा चरण परिपक्वता आयु है, जिसमें एक व्यक्ति दुनियादारी की उलझनों से बहुत उदास हो जाता है। अंतिम चरण बुढ़ापे का है। यह कलियुग की तरह है, जिसमें मन और शरीर की विकृति के कारण अंधकार व्याप्त होता है। इसी प्रकार मानव जीवन के चार आश्रम या निवास भी चार युगों के रूप में हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम को सतयुग कहा जा सकता है, गृहस्थ का निवास द्वापरयुग है, वानप्रस्थ त्रेतायुग है और संन्यास आश्रम कलियुग है। वास्तव में होलोकॉस्ट या प्रलय को देखकर इन अवस्थाओं का बाहर से मिलान किया जा रहा है। वैसे तो शरीर की किसी भी अवस्था में, कोई भी व्यक्ति मन के किसी भी उच्च स्तर पर हो सकता है।
मानव मृत्यु को ही प्रलय के रूप में दर्शाया गया है
जैसा कि हमने पिछली पोस्ट में स्पष्ट किया था कि मनुष्य अपने मन के बाहर की दुनिया को कभी नहीं जान सकता। उसकी दुनिया उसके दिमाग तक सीमित है। इसका मतलब यह है कि तब सांसारिक निर्माण और प्रलय भी मन में हैं। इस मानसिक संसार का वर्णन पुराणों में मिलता है। हम धोखे में पड़ जाते हैं और इसे भौतिक दुनिया में व बाहर समझ लेते हैं। कुंडलिनी जागरण या मानसिक परिपक्वता के बाद मनुष्य का लगाव बाहरी दुनिया में नहीं होता है। वह अद्वैत भाव और वैराग्य के साथ रहता है। हम इसे ब्रह्मांड के पूर्ण विकास के बाद इसका स्थायित्व कह सकते हैं। फिर उसके जीवन के अंतिम दिनों में, प्रलय की प्रक्रिया शुरू होती है। कमजोरी के कारण, वह दुनियादारी का काम छोड़ देता है और अपने शरीर के रखरखाव में व्यस्त रहता है। एक तरह से हम कह सकते हैं कि पंचमहाभूत या पाँच तत्व इंद्रियों में विलीन हो जाते हैं। फिर समय के साथ उसकी इंद्रियाँ भी कमजोर होने लगती हैं। कमजोरी के कारण उसका ध्यान इंद्रियों से आंतरिक मन की ओर जाता है। वह अपने हाथ से पानी नहीं पी सकता। दूसरे उसे मुँह में पानी भरकर पिलाते हैं। वह पानी के रस को महसूस करता है। आसपास के परिचारक उसके मुंह में खाना डालकर उसे खाना खिलाते हैं। वह भोजन का स्वाद और गंध महसूस करता है। परिजन उसे अपने हाथों से नहलाते हैं। उसे पानी का स्पर्श महसूस होता है। अन्य लोग उसे विभिन्न चित्र आदि दिखाते हैं। दूसरे उसे कथा कीर्तन या ईश्वरीय कहानियाँ सुनाते हैं। वह उनकी मीठी और ज्ञान से भरी आवाज़ को महसूस करके आनन्दित होता है। एक तरह से, इंद्रियाँ पंचतन्मात्राओं या पाँच सूक्ष्म आंतरिक अनुभवों में विलीन हो जाती हैं। यहां तक कि बढ़ती कमजोरी के साथ, आदमी को पंचतन्मात्राओं का अनुभव करने में भी कठिनाई होती है। तब उसके प्यारे भाई उसे नाम से बुलाते हैं। इससे उसके अंदर थोड़ी ऊर्जा का प्रवाह होता है, और वह खुद का आनंद लेने लगता है। हम कह सकते हैं कि पंचतन्मात्राएँ अहंकार में विलीन हो गईं। कमजोरी के और बढ़ने के साथ ही उसके अंदर अहंकार का भाव भी कम होने लगता है। नाम से पुकारे जाने पर भी वह फुर्ती हासिल नहीं करता। अपनी बुद्धि के साथ, वह अंदर ही अंदर अपनी स्थिति के बारे में विश्लेषण करना शुरू कर देता है, क्या इसका कारण है, क्या उपाय और क्या भविष्य का परिणाम है। एक तरह से अहंकार महत्तत्त्व या बुद्धि में विलीन हो जाता है। उसके बाद बुद्धि में भी सोचने की ऊर्जा नहीं रहती है। मनुष्य निर्जीव की तरह हो जाता है। उस अवस्था में वह या तो कोमा में चला जाता है या मर जाता है। हम इसे महत्तत्त्व के प्रकृति में विलय के रूप में कहेंगे। जैसा कि पिछली पोस्ट में बताया गया है, उस स्तर पर सभी गुण संतुलन में आते हैं। न वे बढ़ते हैं, न घटते हैं। वे वही रहते हैं। वास्तव में, यह विचारशील मस्तिष्क है जो प्रकृति के गुणों को बढ़ाने और घटाने के लिए लहरें प्रदान करता है। यह एक साधारण बात है कि जब मस्तिष्क ही मृत हो गया है, तो गुणों को विचारों का झटका कौन देगा। अज्ञानी लोग मूल प्रकृति जितना ही दूर जा पाते हैं। इस प्रकार के लोग बार-बार जन्म और मृत्यु के रूप में आगे-पीछे आते रहते हैं। शास्त्रों के अनुसार प्रबुद्ध एक कदम आगे बढ़ सकता है। उसके मामले में प्रकृति पुरुष में विलीन हो जाती है। पुरुष पूर्ण और प्रकाशस्वरूप है। उसमें गुण नहीं होते। वह निर्गुण है। वहाँ से पुनर्जन्म नहीं होता।
Kundalini awakening is the sole purpose of creation; foetus development depicted as the universe development in Hindu mythological Puranas
Friends, the creation has been specifically described in the Puranas. Somewhere the egg explodes in the sky, somewhere the lotus appears in the baseless water body and the sudden appearance of a deity on it, etc. Somewhere it comes that the direct appearance of intellect from nature, ego from intellect, the subtle experience of natural elements from ego, the senses from it and all the gross creation was born from senses afterwards. When I was younger, I used to ask my grandfather (who was a famous Hindu priest and a household Purana reader) how all of these things suddenly appeared in the open sky without any basic infrastructure. He used to say in the manner of a traditionalist and mystic philosopher, “This is how it is done. It is done.” They did not go too deeply. But now with the help of Kundalini Yoga, I understand this classical dictum as the root of all mysteries, “Yatpinde Tatbramhande”. This philosophical saying has been scientifically proven in the book “Shareervigyan darshan” in Hindi. This means that whatever is there in this body, that everything is also in the universe, nothing else. Actually, a man can never know anything other than his mind or brain, because whatever he describes that’s there inside his brain, not outside. That is why the ancient sages have explained the universe by describing the body. They were amazing body scientists and psychologists.
The creation of universe is explained in the Puranas with help of human body creation
At many places, a lotus was born from the navel of Vishnu that was lying on a great serpent swimming in the endless ocean, on which Brahma originated. His mind created the world. You can consider mother as Vishnu. His body is like a Sheshnag or mythical serpent as the central nervous system, which is located in the spinal cord-brain axis. The serpent is always immersed in the cerebrospinal fluid that’s metaphorically related to the ocean water. The sensations of the Kundalini or mother’s mind in that serpent are the form of Lord Vishnu that are dispersed throughout the body of serpent, because there is essentially no difference between Shakti and the powerful God. During pregnancy, the belly of the mother emerges outside in the navel area, the same is the appearance of the lotus from the navel of Lord Vishnu. The gravid uterus is also connected with the mother’s body through blood vessels and nerves arising nearby the mother’s navel area. These are as stem of lotus. Like the lotus petals blooming, in the womb, the placentomes and cotyledons of placenta are formed on the uterus. These button like structures are then again attached to the navel of the infant with a chord called umbilical chord that’s again like stem of the lotus flower. These structures provide nutrition to the infant. This infant is Brahma, who develops on that blooming lotus. The pure and unblemished form of the infant is the basic nature, in which there is no waves in gunas (3 basic constituents of nature). In a way, it has all the three basic gunas in equilibrium or equal quantity. Earlier I used to think that samyastastha or equilibrium means that all gunas are equal to each other. Even today many people think so. But it is not so. If this happens, then basically all living beings would be the same, but they maintain their separate identity even after the Holocaust or death. This happens because the amount of tamoguna that covers the soul’s light is different. Due to it, the quantity of other gunas also differs by itself. If Tamoguna is more then Satoguna is reduced in the same proportion and vice versa, because they are opposed to each other. In fact, all the gunas are in the unchanging state in samyavastha. All gunas in equilibrium with no waves means that satoguna (showing light and knowledge) remains same without rise or fall, rajoguna (showing motion, energy and change) also remains same, and the tamoguna (showing darkness and ignorance) too. With this, the baby does not crave for any particular guna, as he has no habit of fluctuating gunas. That is why the child remains a bit indifferent even after experiencing everything. Actually, it can’t be said as absence of gunas but it’s gunas in equilibrium. Waves in gunas can only be produced if these gunas are already there, not in zero. Only God is nirguna or without guna. That’s why God never experiences waves in gunas as observed by all the creatures that bind the soul. This makes God perfectly changeless. God has zero gunas because God has not dark envelope of ignorance on it’s soul that makes tamoguna. Tamoguna is the base source of all gunas. That’s why panchmakarik leftist tantric appears well developed both in worldly as well as spiritual matters. Then when the baby is a little older, there is an increase in the sensations of the mind or brain. He is attracted towards light. With this, wave is produced in gunas mainly satoguna, and as a result the sattoguna form mahattatva is formed, that is, intelligence. He begins to realize how important it is for his existence to cry and drink milk. This makes the baby feel special and different, which is called ego. Tanmatras originate from it. Tanmatra is the subtle form of the Panchamahabhootas or 5 basic natural elements, which we experience in the brain. It’s the smell of the earth, the juiciness of water, the touch feel of air, the form feel of fire and the sound feel of the sky. He recognizes the taste of milk juice, recognizes the smell of toys, touches the warmth of his urine, begins to understand the difference between beautiful and ugly through form, is attracted to the sound of ghungroo or bell or toys. Then the infant looks outside to see where these sensations came from. The senses originate from it, because all of it feels outside with the help of senses such as eye, ear, skin, tongue, nose etc. Along with this, the internal sense of mind also develops, because that is what he thinks of all this. The above five elements originate from the senses, because he seeks or knows them only with help of his senses. He learns that physical substances like milk, toys, ghungroos or bells etc. are also there in the world, which he feels through his senses. Then as the child continues to learn, the origin of such creation continues to move forward. In this way, the entire creation is expanded inside a man.
Kundalini awakening is the limit of the development of creation
Man extends the creation of the universe only for Kundalini awakening. This fact is proved by the observation that after awakening of the Kundalini, man becomes a bit like a detached from the universe. His inclination starts to move away from the worldly trend but towards retirement. His tendency also becomes like a retirement, because then there is no craving arising out of attachment. It’s to be kept in mind that it’s only mental tendency as physically he may remain fully indulged and growing in the world. After awakening of the Kundalini, the man feels that he has attained everything worth attaining, and has done everything worth doing.
According to Shiva Purana, the creation was made from Shiva’s semen
In Shivpurana, it comes that an egg originated from Shiva’s semen deposited in the vagina of nature. The egg lay in water for 1000 years. Then it broke through the middle. Its upper part became the scalp of the universe. From that originated the upper heavenly abodes. From the lower part, the lower abodes were formed.
Actually Shiva is the father here, and Prakriti or Parvati is the mother. The egg is formed in the uterus by the union of semen and ovum fluid. It remains in the nutritious water of the uterus for a long time and continues to develop. Then it explodes, that is, it begins to differentiate into shape of a human being. The top part of it was clearly visible like a head or a scalp or kapola. In it, the upper worlds originated in the form of Sahasrara Chakra, ajna Chakra and Vishuddhi Chakra. In the lower part, lower abodes developed as lower chakras.
कुंडलिनी जागरण के लिए ही सृष्टिरचना होती है; हिंदु पुराणों में शिशु विकास को ही ब्रह्माण्ड विकास के रूप में दिखाया गया है
मित्रो, पुराणों में सृष्टि रचना विशेष ढंग से बताई गई है। कहीं आकाश के जल में अंडे का फूटना, कहीं पर आधाररहित जलराशि में कमल का प्रकट होना और उस पर एक देवता का अकस्मात प्रकट होना आदि। कहीं आता है कि सीधे ही प्रकृति से महत्तत्व, उससे अहंकार, उससे तन्मात्रा, उससे इंद्रियां और उससे सारी स्थूल सृष्टि पैदा हुई। जब मैं छोटा था, तब अपने दादाजी (जो एक प्रसिद्ध हिंदू पुरोहित और एक घरेलू पुराण वक्ता थे) से पूछा करता था कि अचानक खुले आसमान में बिना आधारभूत संरचना के ये सारी चीजें कैसे प्रकट हो गईं। वे परंपरावादी और रहस्यवादी दार्शनिक के अंदाज में कहते थे, “ऐसे ही होता है। हो गया तो हो गया।” वे ज्यादा बारीकी में नहीं जाते थे। पर अब कुंडलिनी योग की मदद से मैं इस शास्त्रीय उक्ति को ही सभी रहस्यों का मूल समझ रहा हूँ, “यत्पिण्डे तत्ब्रम्हांडे”। इसका मतलब है कि जो कुछ इस शरीर में है, वही सब कुछ ब्रम्हांड में भी है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। इस उक्ति को पुस्तक”शरीरविज्ञान दर्शन” में वैज्ञानिक रूप से सिद्ध किया गया है। इसलिए प्राचीन दूरदर्शी ऋषियों ने शरीर का वर्णन करके ब्रम्हांड को समझाया है। वे गजब के शरीर वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक थे। दरअसल, एक आदमी कभी भी अपने मन या मस्तिष्क के अलावा कुछ नहीं जान सकता है, क्योंकि वह जो कुछ भी वर्णन करता है, वह उसके मस्तिष्क के अंदर है, बाहर नहीं।
सृष्टि रचना पुराणों में शरीर रचना से समझाई गई है
कई जगह आता है कि शेषशायी विष्णु की नाभि से कमल पैदा हुआ जिस पर ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। उसी के मन ने सृष्टि को रचा। माँ को आप विष्णु मान सकते हो। उसका शरीर एक शेषनाग की तरह ही केंद्रीय तंत्रिका तंत्र के रूप में है, जो मेरुदंड में स्थित है। वह नाग हमेशा ही सेरेब्रोस्पाइनल फ्लुइड रूपक समुद्र में डूबा रहता है। उस नाग में जो कुंडलिनी या माँ के मन की संवेदनाएं चलती हैं, वे ही भगवान विष्णु का स्वरूप है, क्योंकि शक्ति और शक्तिमान भगवान में तत्त्वतः कोई अंतर नहीं। गर्भावस्था के दौरान जो नाभि क्षेत्र में माँ का पेट बाहर को उभरा होता है, वही भगवान विष्णु की नाभि से कमल का प्रकट होना है। विकसित गर्भाशय को भी माँ के शरीर की नसें-नाड़ियाँ माँ के नाभि क्षेत्र के आसपास से ही प्रविष्ट होती हैं। खिले हुए कमल की पंखुड़ियों की तरह ही गर्भाशय में प्लेसेंटोमस और कोटीलीडनस उन नसों के रूप में स्थित कमल की डंडी से जुड़े होते हैं। वे संरचनाएं फिर इसी तरह शिशु की नाभि से कमल की डंडी जैसी नेवल कोर्ड से जुड़ी होती हैं। ये संरचनाएं शिशु को पोषण उपलब्ध कराती हैं। यह शिशु ही ब्रह्मा है, जो उस खिले कमल पर विकसित होता है। शिशु का साम्यगुण रूप ही वह मूल प्रकृति है, जिसमें गुणों का क्षोभ नहीं है। पहले मैं समझा करता था कि साम्यावस्था का मतलब है कि सभी गुण (प्रकृति का आधारभूत घटक) एक-दूसरे के बराबर हैं। आज भी बहुत से लोग ऐसा समझते हैं। पर ऐसा नहीं है।अगर ऐसा होता तो मूल रूप में सभी जीव एक जैसे होते, पर वे प्रलय या मृत्यु के बाद भी अपनी अलग पहचान बना कर रखते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आत्मा के प्रकाश को ढकने वाले तमोगुण की मात्रा सबमें अलग होती है। इससे अन्य गुणों की मात्रा भी खुद ही अलग होती है। यदि तमोगुण ज्यादा है, तो उसी अनुपात में सतोगुण कम हो जाता है, क्योंकि ये एक-दूसरे के विरोधी हैं। दरअसल उसमें सभी गुण साम्यावस्था में अर्थात समान अवस्था में होते हैं। सभी गुणों का समान अवस्था में होने का या उनमें क्षोभ या लहरों के न होने का मतलब है कि सत्त्वगुण (प्रकाश व ज्ञान का प्रतीक) भी घटने-बढ़ने के बजाय एकसमान रहता है, रजोगुण (गति, बदलाव व ऊर्जा का प्रतीक) भी एकसमान रहता है, और तमोगुण (अंधकार व अज्ञान का प्रतीक) भी। इससे वह किसी विशेष गुण की तरफ लालायित नहीं होता। इसीलिए शिशु सबकुछ अनुभव करते हुए भी उदासीन सा रहता है। वह निर्गुण नहीं होता। क्योंकि गुणों में क्षोभ तभी पैदा हो सकता है, यदि गुण पहले से विद्यमान हों। निर्गुण या गुणातीत तो केवल भगवान ही होता है। इसलिए उसमें कभी गुण-क्षोभ सम्भव नहीं हो सकता है। इसीलिए ईश्वर हमेशा ही परिवर्तनरहित हैं। ईश्वर निर्गुण इसीलिए होता है, क्योंकि उसमें आत्म-अज्ञान से उत्पन्न तमोगुण नहीं होता। सभी गुण तमोगुण के आश्रित होते हैं। इसी वजह से तो पंचमकारी या वामपंथी तांत्रिक दुनियादारी और अध्यात्म दोनों में अव्वल लगते हैं। फिर शिशु के थोड़ा बड़ा होने पर चित्त या मस्तिष्क में वृत्तियों या संवेदनाओं के बढ़ने से गुणों में, विशेषकर सतोगुण में क्षोभ पैदा होता है, और वह प्रकाश की ओर आकर्षित होने लगता है। इससे सतोगुण रूप महत्तत्व अर्थात बुद्धि उत्पन्न होती है। उसे लगने लगता है कि उसकी सत्ता के लिए उसका रोना और दूध पीना कितना जरूरी है। उससे शिशु को अपने विशेष और सबसे अलग होने का अहसास होता है, जिसे अहंकार कहते हैं। इसप्रकार अहंकार की उत्पत्ति हो जाती है। उससे तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। तन्मात्रा पंचमहाभूतों का सूक्ष्म रूप या अनुभव मात्र होती हैं, जिन्हें हम मस्तिष्क में अनुभव करते हैं। जैसे पृथ्वी की तन्मात्रा गंध, जल की रस, वायु की स्पर्श, अग्नि की रूप और आकाश की शब्द होती है। वह दूध के रस के स्वाद को पहचानने लगता है, खिलौने की गंध को पहचानता है, अपने किए मूत्र की गर्मी को स्पर्ष करता है, सुंदर-असुंदर रूप में अंतर समझने लगता है, घुंघरू या खिलौने की आवाज की ओर आकर्षित होता है। फिर शिशु बाहर की तरफ नजर दौड़ाता है कि ये अनुभूतियाँ कहाँ से आईं। उससे इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि वह चक्षु, कान, त्वचा, जीभ, नाक आदि इन्द्रियों की सहायता से ही बाहर को महसूस करता है। इसीके साथ मन रूप इन्द्रिय भी विकसित होती है, क्योंकि वह इसी से ऐसा सब सोचता है। इन्द्रियों से उपरोक्त पंचमहाभूतों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि वह इन्द्रियों से ही उनको खोजता है और उन्हें अनुभव करता है। उसे पता चलता है कि दूध, खिलौना, घुंघरू आदि भौतिक पदार्थ भी दुनिया में हैं, जिन्हें वह इन्द्रियों से महसूस करता है। फिर आगे-2 जैसा-2 बच्चा सीखता रहता है, वैसी-2 सृष्टिरचना की उत्पत्ति आगे बढ़ती रहती है। इस तरह से एक आदमी के अंदर ही पूरी सृष्टि का विस्तार हो जाता है।
कुण्डलिनी जागरण ही सृष्टि विकास की सीमा है
सृष्टि रचना का विस्तार आदमी कुंडलिनी जागरण के लिए ही करता है। यह तथ्य इस बात से सिद्ध होता है कि कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी सृष्टि विस्तार से उपरत सा हो जाता है। उसका झुकाव प्रवृत्ति (दुनियादारी) से हटकर निवृत्ति (रिटायरमेंट) की तरफ बढ़ने लगता है। उसकी प्रवृत्ति भी निवृत्ति ही बन जाती है, क्योंकि फिर उसमें आसक्ति से उत्पन्न क्रेविंग या छटपटाहट नहीँ रहती। पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि यह स्थिति मन की होती है, बाहर से वह पूरी तरह से दुनियादारी के कामों में उलझा हो सकता है। कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी को लगता है कि उसने पाने योग्य सब कुछ पा लिया है, और करने योग्य सबकुछ कर लिया है।
शिव पुराण के अनुसार सृष्टि रचना शिव के वीर्य से हुई
शिवपुराण में आता है कि प्रकृति रूपी योनि में शिव के वीर्यस्थापन से एक अंडे की उत्पत्ति हुई। वह अंडा 1000 सालों तक जल में पड़ा रहा। फिर वह बीच में से फटा। उसका ऊपर का भाग सृष्टि का कपोल बना। उससे ऊपर के श्रेष्ठ लोक बने। नीचे वाले भाग से निम्न लोक बने।
दरअसल शिव यहाँ पिता है, और प्रकृति या पार्वती माता है। दोनों के वीर्य और रज के मिलन से गर्भाशय में अंडा बना। वह गर्भाशय के पोषक जल में लंबे समय तक पड़ा रहा और विकसित होता रहा। फिर वह फटा, अर्थात मनुष्याकृति में उससे अंगों का विभाजन होने लगा। उसमें ऊपर वाला भाग सिर या कपोल की तरह स्पष्ट नजर आया। उसमें सहस्रार चक्र, आज्ञा चक्र और विशुद्धि चक्र के रूप में ऊपर वाले लोक बने। नीचे के भाग में अन्य चक्रों के रूप में नीचे वाले लोक बने।
ਕੁੰਡਲਨੀ ਵੀ ਆਤਮ ਹੱਤਿਆ ਲਈ ਪ੍ਰੇਰਿਤ ਕਰ ਸਕਦੀ ਹੈ?
ਸਹਲੇਖਕ: ਡਾ. ਭੀਸ਼ਮ ਸ਼ਰਮਾ, ਵੈਟਰਨਰੀ ਸਰਜਨ, ਐਚ.ਪੀ. ਰਾਜ
ਸਹ ਸੰਪਾਦਕ: ਮਾਸਟਰ ਵਿਨੋਦ ਸ਼ਰਮਾ {ਅਧਿਆਪਕ, ਐਚ. ਪੀ. ਰਾਜ}
Photo by Vanderlei Longo from Pexels
ਕੁਝ ਦਿਨ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਮਸ਼ਹੂਰ ਬਾਲੀਵੁੱਡ ਸਟਾਰ ਸੁਸ਼ਾਂਤ ਸਿੰਘ ਰਾਜਪੂਤ ਦੀ ਖੁਦਕੁਸ਼ੀ ਦਾ ਮਾਮਲਾ ਸਾਹਮਣੇ ਆਇਆ ਸੀ। ਪਹਿਲਾਂ, ਅਸੀਂ ਉਸਦੀ ਆਤਮਾ ਨੂੰ ਸ਼ਾਂਤੀ ਦੀ ਕਾਮਨਾ ਕਰਦੇ ਹਾਂ। ਉਹ ਕਾਰੋਬਾਰਾਂ ਵਿੱਚ ਉੱਚਾ ਸੀ। ਉੱਚਾਈ ਕੁੰਡਲਨੀ ਦੁਆਰਾ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕੀਤੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਤਾਂ ਕੀ ਕੁੰਡਲਨੀ ਵੀ ਆਤਮ ਹੱਤਿਆ ਲਈ ਪ੍ਰੇਰਿਤ ਕਰ ਸਕਦੀ ਹੈ? ਇਸ ਪੋਸਟ ਵਿੱਚ ਅਸੀਂ ਇਸਦਾ ਵਿਸ਼ਲੇਸ਼ਣ ਕਰਾਂਗੇ।
ਉਦਾਸੀ ਇੱਕ ਫੈਲਣ ਵਾਲੀ ਬਿਮਾਰੀ ਵਾਂਗ ਹੈ, ਜਿਸ ਨੂੰ ਕੁੰਡਲਨੀ ਯੋਗ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਨਾਲ ਦੂਰ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ: ਇੱਕ ਸ਼ਾਨਦਾਰ ਅਧਿਆਤਮਕ ਮਨੋਵਿਗਿਆਨ
ਬਲਿਯੂ ਵਹੇਲ ਨਾਮ ਦਾ ਇਕ ਵੀਡੀਓਗੇਮ ਆਇਆ ਸੀ, ਜਿਸ ਨੂੰ ਖੇਡਦਿਆਂ ਕਈ ਬੱਚਿਆਂ ਨੇ ਆਤਮ ਹੱਤਿਆ ਕਰ ਲਈ ਸੀ। ਸੁਸ਼ਾਂਤ ਨੇ ਕਈ ਦਿਨਾਂ ਤੋਂ ਆਪਣੀ ਸੋਸ਼ਲ ਮੀਡੀਆ ਦੀਵਾਰ ‘ਤੇ ਸਵੈ-ਵਿਨਾਸ਼ਕਾਰੀ ਆਦਮੀ ਦੀ ਪੇਂਟਿੰਗ ਪੇਂਟ ਕੀਤੀ ਸੀ। ਆਪਣੀ ਛਿਛੋਰੇ ਫਿਲਮ ਵਿਚ, ਉਹ ਇਸ ਬਿਮਾਰੀ ਤੋਂ ਬਚਣ ਲਈ ਆਪਣੇ ਬੇਟੇ ਨੂੰ ਸਮਝਾਉਂਦਾ ਰਿਹਾ। ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਇਕ ਖ਼ਬਰ ਅਨੁਸਾਰ ਬਿਹਾਰ ਰਾਜ ਦਾ ਇਕ ਲੜਕਾ ਦੇਰ ਰਾਤ ਤੱਕ ਸੁਸ਼ਾਂਤ ਦੀ ਖ਼ੁਦਕੁਸ਼ੀ ਦੀ ਖ਼ਬਰ ਨਿੱਜੀ ਤੌਰ ‘ਤੇ ਵੇਖਦਾ ਰਿਹਾ ਅਤੇ ਉਹ ਵੀ ਸਵੇਰੇ ਲਟਕਦਾ ਪਾਇਆ ਗਿਆ। ਇਹ ਸਭ ਮਨ ਦੀ ਖੇਡ ਹੈ। ਅਜਿਹੀ ਖੁਦਕੁਸ਼ੀ ਨਾਲ ਸਬੰਧਤ ਚਿੰਤਨ ਗਲੇ ਦੇ ਸ਼ੂਧਤਾ ਚੱਕਰ ‘ਤੇ ਥੋੜਾ ਤਣਾਅ ਪੈਦਾ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਇਕ ਗਲਾ ਦੱਬਣ ਵਾਂਗ ਮਹਿਸੂਸ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਅਤੇ ਗਲੇ ‘ਤੇ ਇਕ ਘੁਟਣ ਮਹਿਸੂਸ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਕੁੰਡਲਨੀ ਯੋਗੀ ਦੀ ਸ਼ੁੱਧਤਾ ਚਕਰ ਉੱਤੇ ਮਨਨ ਕਰਨ ਦੀ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਆਦਤ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਉਹ ਉਥੇ ਕੁੰਡਲਨੀ ਦਾ ਧਿਆਨ ਬਰੋਬਰ ਕੇਂਦ੍ਰਤ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਗਲ਼ੇ ਨੂੰ ਜੀਵਨੀ ਸ਼ਕਤੀ ਦੀ ਤਾਕਤ ਦਿੰਦਾ ਹੈ, ਅਤੇ ਕੁੰਡਲਨੀ ਵੀ ਮਜ਼ਬੂਤ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਗੈਸਟਰਾਈਟਸ ਦੀ ਵੀ ਗਲੇ ਦੇ ਦਮ ਘੁਟਣ ਵਿਚ ਭੂਮਿਕਾ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਤਣਾਅਪੂਰਨ ਅਤੇ ਗੈਰ-ਸਿਹਤਮੰਦ ਜੀਵਨ ਸ਼ੈਲੀ ਗੈਸਟ੍ਰਾਈਟਿਸ ਦਾ ਕਾਰਨ ਬਣਦੀ ਹੈ। ਅੱਜ ਕੱਲ ਇਸ ਦੇ ਇਲਾਜ ਲਈ ਸੁਰੱਖਿਅਤ ਦਵਾਈ ਮੌਜੂਦ ਹੈ। ਅਜਿਹੀਆਂ ਦਵਾਈਆਂ ਯੋਗਾ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਨੁਕਸਾਨ ਪਹੁੰਚਾ ਸਕਦੀਆਂ ਹਨ। ਇਸ ਲਈ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਅੱਧੀ ਖੁਰਾਕ ਖਾਣ ਨਾਲ, ਸ਼ਰੀਰ ‘ਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵ ਦੀ ਜਾਂਚ ਕੀਤੀ ਜਾਣੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ। ਐਂਟੀ-ਡਿਪਰੇਸੈਂਟ ਦਵਾਈਆਂ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਲੋਕਾਂ ਲਈ ਉਦਾਸੀ ਨੂੰ ਵਧਾ ਸਕਦੀਆਂ ਹਨ, ਕਿਉਂਕਿ ਉਹ ਵਿਅਕਤੀ ਦੀ ਯਾਦਦਾਸ਼ਤ ਅਤੇ ਕਾਮ ਕਰਨ ਦੀ ਕਾਬਿਲੀਅਤ ਨੂੰ ਘਟਾਉਂਦੀਆਂ ਹਨ। ਉਹ ਦਵਾਈਆਂ ਲੰਬੇ ਸਮੇਂ ਲਈ ਰਹਿਣ ਵਾਲੀਆਂ ਕੁੰਡਲਨੀ ਨੂੰ ਨੁਕਸਾਨ ਪਹੁੰਚਾਉਂਦੀਆਂ ਹਨ, ਜੋ ਇਸ ਨਾਲ ਜੁੜੇ ਸਾਰੇ ਕੰਮਾਂ ਨੂੰ ਪ੍ਰਭਾਵਤ ਕਰ ਸਕਦੀਆਂ ਹਨ। ਜੇ ਕਿਸਮਤ ਚੰਗੀ ਹੈ, ਅਤੇ ਸਖਤ ਮਿਹਨਤ ਕੀਤੀ ਜਾਵੇ, ਤਾਂ ਇਹ ਇਕ ਨਵੀਂ ਕੁੰਡਲਨੀ-ਚਿਤਰ ਬਣਾਉਣ ਅਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਜਗਾਉਣ ਦਾ ਇਕ ਅਵਸਰ ਵੀ ਪ੍ਰਦਾਨ ਕਰਦੀਆਂ ਹਨ। ਹਾਲਾਂਕਿ ਨਵੀ ਕੁੰਡਲਨੀ ਨਾਲ ਅਭਿਅਸਟ ਹੋਣ ਲਈ ਸਮਯ ਲਗਦਾ ਹੈ। ਸੁਸ਼ਾਂਤ ਵੀ ਉਦਾਸੀ ਨਿਵਾਰਕ ਦਵਾ ਖਾ ਰਿਹਾ ਸੀ, ਹਾਲਾਂਕਿ ਕੁਝ ਵੇਲੇ ਤੋਂ ਨੀ ਖਾ ਰਿਗ ਸੀ। ਤੁਹਾਨੂੰ ਜਿੰਨਾ ਹੋ ਸਕੇ ਚੁੱਪ ਰਹਿਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਜੀਭ ਨੂੰ ਤਾਲੂ ਨਾਲ ਕੱਸ ਕੇ ਜੋੜਿਆ ਜਾਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਜੋ ਦਿਮਾਗ ਦੀ ਕੁੰਡਲਨੀ ਜਾਂ ਵਿਚਾਰ ਅਸਾਨੀ ਨਾਲ ਹੇਠਾਂ ਆ ਸਕਣ। ਜਿਹੜਾ ਵਿਅਕਤੀ ਆਪ ਨੂੰ ਖੁਦਕੁਸ਼ੀ ਦੀਆਂ ਭਾਵਨਾਵਾਂ ਦੇ ਵਿਚਕਾਰ ਹੋਣ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਵੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਦਬਾਉਂਦਾ ਹੈ ਉਹ ਅਸਲ ਯੋਗੀ ਹੈ।
ਸੁਸ਼ਾਂਤ ਸਿੰਘ ਰਾਜਪੂਤ ਆਪਣੀ ਸਵਰਗਵਾਸੀ ਮਾਂ ਦੀ ਯਾਦ ਵਿਚ ਕਈ ਵਾਰ ਭਾਵੁਕ ਹੁੰਦੇ ਸੀ
ਉਹ ਆਪਣੀ ਮਾਂ ਨੂੰ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਧ ਪਿਆਰ ਕਰਦਾ ਸੀ। ਇਹ ਵਧੀਆ ਗੱਲ ਹੈ,ਅਤੇ ਸਾਰੀਆਂ ਨੂੰ ਬਜ਼ੁਰਗਾਂ ਲਈ ਪਿਆਰ ਹੋਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ। ਉਸ ਦੀ ਆਖ਼ਰੀ ਸੋਸ਼ਲ ਮੀਡੀਆ ਪੋਸਟ ਨੇ ਵੀ ਉਸ ਦੀ ਮਾਂ ਨੂੰ ਯਾਦ ਕੀਤਾ। ਸਾਨੂੰ ਇਹ ਗੱਲ ਮੀਡੀਆ ਤੋਂ ਸੁਣਨੀ ਮਿਲੀ। ਕੇਵਲ ਸਭ ਤੋਂ ਪਿਆਰੀ ਚੀਜ਼ ਮਨ ਵਿੱਚ ਸਮਾ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਇੱਕ ਕੁੰਡਲਨੀ ਬਣ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਇਸਦਾ ਅਰਥ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਉਸ ਦੇ ਮਨ ਵਿੱਚ ਕੁੰਡਲਨੀ ਵਜੋਂ ਉਸਦੀ ਮਾਂ ਦੀ ਤਸਵੀਰ ਸੀ। ਇਸ ਨਾਲ ਉਸ ਨੂੰ ਨਿਰੰਤਰ ਸਫਲਤਾਵਾਂ ਮਿਲੀਆਂ।ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ, ਪੂਰਵਜਾਂ ਅਤੇ ਪਰਿਵਾਰਕ ਲੋਕਾਂ ਜਾਂ ਬਜ਼ੁਰਗਾਂ ਨਾਲ ਸੰਬੰਧਿਤ ਸ਼ੁੱਧ ਕੁੰਡਲਨੀ ਹਮੇਸ਼ਾਂ ਸ਼ਾਂਤ ਅਤੇ ਭਲਾਈ ਨਾਲ ਭਰਪੂਰ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ। ਪਰ ਕਈ ਵਾਰ ਉਸੇ ਕੁੰਡਲਨੀ ਦੇ ਸਮਰਥਨ ਨਾਲ, ਰੋਮਾਂਟਿਕ ਪ੍ਰੇਮ ਕਿਸਮ ਦੀ ਕੁੰਡਲਨੀ ਮਨ ਤੇ ਹਾਵੀ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਉਹ ਬਹੁਤ ਸੋਹਣੀ ਤੇ ਭੜਕਾਉਣ ਵਾਲੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਕਈ ਵਾਰ ਖ਼ਤਰਨਾਕ ਵੀ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਸੁਸ਼ਾਂਤ ਦਾ ਕੁਝ ਸਟਾਰ ਕੁੜੀਆਂ ਦੇ ਨਾਲ ਪਿਆਰ ਅਤੇ ਬ੍ਰੇਕਅਪ ਵੀ ਸੁਣਨ ਨੂੰ ਮਿਲਿਆ। ਕੁੰਡਲਨੀ ਨੂੰ ਸਕਾਰਾਤਮਕ ਅਤੇ ਸਹੀ ਦਿਸ਼ਾ ਦੇਣ ਲਈ ਇੱਕ ਸਥਿਰ ਪਰਿਵਾਰਕ ਜੋੜਾ-ਜੀਵਨ ਬਹੁਤ ਮਹੱਤਵਪੂਰਣ ਹੈ। ਹਾਲਾਂਕਿ ਫਿਲਮੀ ਜਗਤ ਵਿਚ ਇਹ ਵਾਪਰਨਾ ਜਾਰੀ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਪਰ ਹਰ ਕੋਈ ਇਕੋ ਜਿਹੇ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੇ, ਅਤੇ ਇਹ ਸਾਰਿਆਂ ਲਈ ਵੀ ਸੂਟ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ। ਪ੍ਰੇਮ ਸੰਬੰਧ ਵਿੱਚ ਖੁਦਕੁਸ਼ੀਆਂ ਇਸ ਕੁਦਰਤੀ ਕੁੰਡਲੀਨੀ ਨਾਲ ਸਬੰਧਤ ਹਨ। ਡਾਕਟਰ ਅਨੁਸਾਰ ਉਹ ਬਾਈਪੋਲਰ ਬਿਮਾਰੀ ਤੋਂ ਪੀੜਤ ਸੀ। ਇਹ ਕੁੰਡਲਨੀ-ਉਦਾਸੀ ਦਾ ਇਕ ਹੋਰ ਰੂਪ ਹੈ। ਇਸ ਵਿੱਚ ਤੀਬਰ ਉਤੇਜਨਾ ਦੇ ਬਾਅਦ ਤੀਬਰ ਉਦਾਸੀ ਦਾ ਦੌਰ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਜੇ ਸਹੀ ਢੰਗ ਨਾਲ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਕੁੰਡਲਨੀ ਯੋਗ ਬਾਈਪੋਲਰ ਬਿਮਾਰੀ ਦਾ ਸਭ ਤੋਂ ਵਧੀਆ ਇਲਾਜ ਹੈ। ਕਥਿਤ ਕਲਾਕਾਰ ਨੇ ਉਸ ਨਾਲ ਕੁਝ ਦਿਨਾਂ ਲਈ ਸਲੂਕ ਕੀਤਾ, ਫਿਰ ਯੋਗ ਨੂੰ ਛੱਡ ਦਿੱਤਾ।
ਕੁੰਡਲਨੀ ਮਨ ਦੇ ਵਿਕਾਰ ਬਾਹਰ ਕੱਢਦੀ ਹੈ। ਅਸਲ ਵਿਚ, ਸਿਰਫ ਵਿਕਾਰ ਉਦਾਸੀ ਦਾ ਕਾਰਨ ਹੋ ਸਕਦੇ ਹਨ, ਕੁੰਡਲਨੀ ਨਹੀਂ।ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਕੁੰਡਲਨੀ ਉਦਾਸੀ ਤੋਂ ਬਚਣ ਲਈ ਹਰ ਸਮੇਂ ਕੰਮ ਵਿਚ ਰੁੱਝਿਆ ਰਹਿਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ।
ਕਿਸੇ ਤੋਂ ਅਲੱਗ ਹੋਣ ਦਾ ਗਮ ਵੀ ਕੁੰਡਲਨੀ ਉਦਾਸੀ ਦਾ ਇਕ ਰੂਪ ਹੈ। ਉਸ ਦੁੱਖ ਨੂੰ ਖੁਸ਼ਹਾਲੀ ਵਿੱਚ ਬਦਲਣ ਲਈ, ਵਿਛੜੇ ਵਿਅਕਤੀ ਦੀ ਮਾਨਸਿਕ ਤਸਵੀਰ ਦੀ ਕੁੰਡਲਨੀ ਬਣਾ ਕੇ ਕੁੰਡਲਨੀ ਯੋਗ ਅਭਿਆਸ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰਨਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ।
ਉਸ ਫਿਲਮ ਦੇ ਕਲਾਕਾਰ ਦੀ ਅਧਿਆਤਮਕ ਤਰੱਕੀ ਵੀ ਕੁੰਡਲਨੀ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਨਾਲ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਅੱਗੇ ਵੱਧ ਰਹੀ ਸੀ
ਚਸ਼ਮਦੀਦਾਂ ਦਾ ਕਹਿਣਾ ਹੈ ਕਿ ਉਹ ਇੱਕ ਅਧਿਆਤਮਕ ਵਿਅਕਤੀ ਸੀ ਅਤੇ ਬਹੁਤ ਸੰਵੇਦਨਸ਼ੀਲ ਸੀ। ਉਸਦੇ ਜਵਾਨ ਸਰੀਰ ਦਾ ਬਜ਼ੁਰਗ ਦਿਮਾਗ ਸੀ। ਅਜਿਹੇ ਗੁਣ ਕੁੰਡਲਨੀ ਤੋਂ ਹੀ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦੇ ਹਨ।
ਕੁੰਡਲਨੀ ਆਦਮੀ ਨੂੰ ਬੇਫਿਕਰ ਬਣਾ ਸਕਦੀ ਹੈ
ਕੁੰਡਲਨੀ ਦੇ ਕਾਰਨ ਆਦਮੀ ਅਦਵਾਇਟ ਜਾਂ ਗੈਰ-ਦਵੈਤ ਨਾਲ ਭਰਪੂਰ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਇਸਦਾ ਅਰਥ ਹੈ ਕਿ ਰਾਤ ਅਤੇ ਦਿਨ, ਜੀਵਨ-ਮੌਤ, ਮਿੱਤਰ-ਦੁਸ਼ਮਣ, ਖੁਸ਼ੀ ਅਤੇ ਦੁੱਖ, ਸਾਰੀਆਂ ਵਿਪਰੀਤ ਚੀਜ਼ਾਂ ਇਕੋ ਜਿਹੀ ਦਿਖਣੀਆਂ ਸ਼ੁਰੂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ। ਇਸ ਤੋਂ ਭਾਵ ਹੈ ਕਿ ਆਦਮੀ ਕਿਸੇ ਵੀ ਚੀਜ ਤੋਂ ਨਹੀਂ ਡਰਦਾ। ਜਦੋਂ ਮਨੁੱਖ ਆਪਣੀ ਮੌਤ ਤੋਂ ਨਹੀਂ ਡਰਦਾ, ਤਾਂ ਉਹ ਆਪਣੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਲਈ ਲਾਪਰਵਾਹੀ ਨਾਲ ਭਰ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਜਦੋਂ ਇਹ ਸਰਹੱਦ ਪਾਰ ਕਰਦੀ ਹੈ ਤਾਂ ਇਹ ਲਾਪਰਵਾਹੀ ਖੁਦਕੁਸ਼ੀ ਦਾ ਰੂਪ ਧਾਰ ਲੈਂਦੀ ਹੈ।
ਦਰਅਸਲ, ਅਡਵਾਈਤਾ ਲਾਪਰਵਾਹੀ ਨਹੀਂ, ਚੌਕਸਤਾ ਵਧਾਉਂਦੀ ਹੈ। ਪਰ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਲੋਕ ਅਦਵੈਤ ਨੂੰ ਗਲਤ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਲੈਂਦੇ ਹਨ।
ਕੁੰਡਲਨੀ ਨੂੰ ਸੰਭਾਲਣ ਲਈ ਬਾਹਰੀ ਸਹਾਇਤਾ ਦੀ ਲੋੜ ਹੁੰਦੀ ਹੈ
ਉਪਰੋਕਤ ਸਥਿਤੀ ਵਿੱਚ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਬਾਹਰੀ ਸਹਾਇਤਾ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ। ਲੋਕਾਂ ਨਾਲ ਗੱਲਬਾਤ ਜਾਰੀ ਰੱਖਣੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ। ਪਰਿਵਾਰ ਅਤੇ ਦੋਸਤਾਂ ਦੇ ਨਾਲ ਬਹੁਤ ਸਾਰਾ ਸਮਾਂ ਬਿਤਾਉਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ। ਸਮਾਜਿਕ ਕਾਰਜਾਂ ਅਤੇ ਹੋਰ ਸਮਾਜਿਕ ਗਤੀਵਿਧੀਆਂ ਵਿੱਚ ਸ਼ਾਮਲ ਹੋਣਾ ਲਾਜ਼ਮੀ ਹੈ। ਇਹ ਕੁੰਡਲਨੀ ਯੋਗੀ ਨੂੰ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਮਨਾਂ ਵਿਚਲੇ ਜੀਵਨ ਲਈ ਪਿਆਰ ਦਰਸਾਏਗੀ। ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਮਨਾਂ ਵਿਚ ਅਣਸੁਖਾਵਾਂ ਹੋਣ ਦਾ ਡਰ ਰਹੇਗਾ। ਇਹ ਉਸਨੂੰ ਸਹੀ ਤਰੀਕਿਆਂ ਨਾਲ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਜੀਣ ਲਈ ਪ੍ਰੇਰਿਤ ਕਰੇਗਾ। ਅੱਜ ਦੇ ਕੋਰੋਨਾ ਲਾਕਡਾਉਨ ਨੇ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਲੋਕਾਂ ਤੋਂ ਇਸ ਸਮਾਜਿਕ ਸਹਾਇਤਾ ਨੂੰ ਖੋਹ ਲਿਆ ਹੈ।
ਕੁੰਡਲਨੀ ਦਾ ਸਭ ਤੋਂ ਉੱਤਮ ਸਮਰਥਨ ਇਕ ਗੁਰੂ ਕਰਦਾ ਹੈ
ਗੁਰੂ ਜੀ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਕੁੰਡਲਨੀ ਦੇ ਦੌਰ ਵਿਚੋਂ ਲੰਘ ਚੁੱਕੇ ਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਲਈ, ਉਹ ਸਭ ਕੁਝ ਜਾਣਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਲਈ, ਉਹ ਇਕੱਲੇ ਹੀ ਸਾਰੇ ਸਮਾਜ ਦੀ ਸ਼ਕਤੀ ਨਵੇਂ ਕੁੰਡਲਨੀ ਯੋਗੀ ਨੂੰ ਦੇ ਸਕਦੇ ਹਨ।
ਕੁੰਡਲਨੀ ਉਦਾਸੀ ਰੂਹਾਨੀ ਸਮੁੰਦਰ ਵਿਚੋਂ ਨਿਕਲਦਾ ਜ਼ਹਿਰ ਹੈ
ਸਮੁੰਦਰਮਨਥਨ ਦਾ ਵਰਣਨ ਹਿੰਦੂ ਪੁਰਾਣਾਂ ਵਿਚ ਮਿਲਦਾ ਹੈ। ਮੰਦਰਚਲ ਪਹਾੜ ਕੁੰਡਲਨੀ ਹੈ। ਕੁੰਡਲਨੀ-ਧਿਆਨ ਵਾਸੂਕੀ ਨਾਗ ਹੈ। ਉਸ ਵਿਚੋਂ ਨਿਕਲਦੀਆਂ ਚੰਗੀਆਂ ਚੀਜ਼ਾਂ ਚੰਗੀਆਂ ਸੋਚਾਂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ, ਜੋ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਇਕ ਦੇਵਤਾ ਬਣਾਉਂਦੀਆਂ ਹਨ। ਉਸ ਵਿੱਚੋਂ ਨਿਕਲਦੀਆਂ ਗੰਦੀਆਂ ਚੀਜ਼ਾਂ ਗੰਦੇ ਵਿਚਾਰ ਹਨ, ਜੋ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਭੂਤ ਕਰਦੀਆਂ ਹਨ। ਮਨ ਦੇ ਦੇਵਤਿਆਂ ਅਤੇ ਭੂਤਾਂ ਦੀ ਸਖਤ ਮਿਹਨਤ ਅਤੇ ਸਹਿਯੋਗ ਨਾਲ ਮੰਥਨ ਜਾਰੀ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ। ਅੰਤ ਦੇ ਨੇੜੇ ਜੋ ਜ਼ਹਿਰ ਬਾਹਰ ਆਉਂਦਾ ਹੈ ਉਹ ਹੈ ਕੁੰਡਲਨੀ ਦੀ ਪੈਦਾਇਸ਼ੀ ਉਦਾਸੀ। ਜਿਹੜਾ ਸ਼ਿਵ ਇਸ ਨੂੰ ਪੀਂਦਾ ਹੈ ਉਹ ਗੁਰੂ ਹੈ। ਉਹ ਇਸ ਨੂੰ ਗਲੇ ਵਿਚ ਮੁਅੱਤਲ ਰੱਖਦਾ ਹੈ। ਇਸਦਾ ਅਰਥ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਉਹ ਚੇਲੇ ਦੀ ਉਦਾਸੀ ਨੂੰ ਦੂਰ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਪਰ ਇਸ ਤੋਂ ਉਹ ਖੁਦ ਪ੍ਰਭਾਵਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ। ਉਸ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਜੋ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਉਭਰਦਾ ਹੈ ਉਹ ਅਨੰਦ ਹੈ ਜੋ ਕੁੰਡਲਨੀ ਤੋਂ ਆਉਂਦਾ ਹੈ। ਸਮੁੰਦਰ ਦੇ ਮੰਥਨ ਵਿਚੋਂ ਲਕਸ਼ਮੀ ਦੇ ਨਿਕਲਣ ਦਾ ਅਰਥ ਤਾਂਤਰਿਕ ਜਾਪਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਭਗਵਾਨ ਨਾਰਾਇਣ ਵੱਲ ਲੇ ਜਾਂਦੀ ਹੈ।
ਮੇਰਾ ਕੁੰਡਲਨੀ ਯੋਗਾ ਨਾਲ ਜੁੜਿਆ ਆਪਣਾ ਅਨੁਭਵ
ਆਪਣਾ ਅਨੁਭਵ ਉਹੀ ਹੈ, ਜੋ ਮੈਂ ਇਸ ਪੋਸਟ ਵਿੱਚ ਲਿਖਿਆ ਹੈ। ਉਹ ਮੇਰਾ ਆਪਣਾ ਕੁੰਡਲਨੀ ਸਬੰਧਤ ਉਦਾਸੀ ਦਾ ਤਜਰਬਾ ਹੈ, ਅਤੇ ਇਸ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਨਿਕਲਣ ਦਾ ਵੀ। ਖੁਸ਼ਕਿਸਮਤੀ ਨਾਲ, ਮੈਨੂੰ ਇਕ ਭਲੇਮਾਣਸ ਗੁਆਂਢੀ ਦਾ ਸਮਰਥਨ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਇਆ, ਜਿਸ ਦੇ ਘਰ ਮੈਂ ਬਿਨਾਂ ਪੁੱਛੇ ਖੁੱਲ੍ਹ ਕੇ ਤੁਰ ਸਕਦਾ ਸੀ, ਅਤੇ ਜਿਸ ਨਾਲ ਮੈਂ ਜਿੰਨਾ ਮਰਜੀ ਸਮਾਂ ਬਿਤਾ ਸਕਦਾ ਸੀ। ਜ਼ਿਆਦਾਤਰ ਹੋਰ ਲੋਕਾਂ ਨੇ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਮੰਗਲ ਦੇ ਜੀਵ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਵਿਵਹਾਰ ਕੀਤਾ। ਚੰਗਾ ਚੁਟਕਲਾ ਕੀਤਾ ਗਿਆ।
ਕੁੰਡਲਨੀ ਸਿਮਰਨ ਗਿਆਨ ਦੀ ਇੱਕ ਅਤਿਅੰਤ ਅਵਸਥਾ ਹੈ; ਦੂਜੇ ਲੋਕ ਉਦਾਸੀ ਮਹਿਸੂਸ ਕਰਦੇ ਹਨ
ਕੁੰਡਲਨੀ ਉਦਾਸੀ ਸਾਪੇਖ ਹੈ। ਕੁੰਡਲਨੀ ਯੋਗੀ ਖੁਦ ਕੁੰਡਲਨੀ ਸਮਾਧੀ ਵਿਚ ਗਿਆਨ ਦੀ ਉੱਚਤਮ ਅਵਸਥਾ ਨੂੰ ਮਹਿਸੂਸ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਕੁੰਡਲਨੀ ਦੇ ਹੋਰ ਮਾਹਰ ਵੀ ਇਸ ਨੂੰ ਜਾਣਦੇ ਹਨ। ਉਹ ਲੋਕ ਕੁੰਡਲਨੀ ਤੋਂ ਅਣਜਾਣ ਹਨ ਜੋ ਕੁੰਡਲਨੀ ਤੋਂ ਉਦਾਸੀ ਮਹਿਸੂਸ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਇਸੇ ਲਈ ਲੋਕ ਕੁੰਡਲਨੀ ਯੋਗੀ ਦੀ ਅਲੋਚਨਾ ਕਰਦੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਅਤੇ ਉਸ ਨੂੰ ਉਦਾਸੀ ਨਾਲ ਭਰ ਦਿੰਦੇ ਹਨ। ਲੋਕ ਉਸਦੇ ਚੰਗੇ ਲਈ ਉਸਦੀ ਆਲੋਚਨਾ ਕਰਦੇ ਹਨ ਤਾਂ ਕਿ ਉਹ ਕੁੰਡਲਨੀ ਤੋਂ ਬਗੈਰ ਜੀਉਣਾ ਸਿੱਖ ਸਕੇ, ਪਰ ਉਹ ਅਕਸਰ ਇਸ ਗੱਲ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਸਮਝਦਾ। ਉਸਦੀ ਉਦਾਸੀ ਉਸ ਦੇ ਮਨ ਵਿਚੋਂ ਕੁੰਡਲਨੀ ਨੂੰ ਹਟਾਉਣ ਨਾਲ ਹੁੰਦੀ ਹੈ, ਕਿਉਂਕਿ ਉਹ ਕੁੰਡਲਨੀ ਦਾ ਆਦੀ ਹੋ ਗਿਆ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਕੁੰਡਲਨੀ ਰੋਸ਼ਨੀ ਦੇ ਸਾਹਮਣੇ ਉਦਾਸੀ ਦੇ ਹਨੇਰੇ ਦਾ ਕੋਈ ਸਵਾਲ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ। ਇਸੇ ਲਈ ਜਾਂ ਤਾਂ ਕੁੰਡਲਨੀ ਨੂੰ ਕਿਸੇ ਵੀ ਸਥਿਤੀ ਵਿੱਚ ਨਹੀਂ ਛੱਡਿਆ ਜਾਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਜਾਂ ਕੁੰਡਲਨੀ ਨਾਲ ਕੋਈ ਲਗਾਵ ਨਹੀਂ ਹੋਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਅਤੇ ਇਸਦੇ ਬਿਨਾਂ ਜੀਣ ਦੀ ਆਦਤ ਵੀ ਬਣਾਈ ਰੱਖਣੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ। ਨਹੀਂ ਤਾਂ, ਉਦਾਸੀ ਪੈਦਾ ਹੋਣ ਦੀ ਸੰਭਾਵਨਾ ਹੈ, ਜਿਵੇਂ ਇਕ ਨਸ਼ੇੜੀ ਅਚਾਨਕ ਨਸ਼ਾ ਛੱਡਣ ਵੇਲੇ ਇਸ ਨੂੰ ਮਹਿਸੂਸ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਇਕ ਵਿਅਕਤੀ ਜਿੰਨਾ ਚਾਨਣ ਪਾਉਂਦਾ ਹੈ, ਹਨੇਰਾ ਵੀ ਉੱਨਾ ਹੀ ਗਹਿਰਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਜਦੋਂ ਇਹ ਬੁਝ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਸੇ ਲਈ ਚੰਗੀ ਸੰਗਤ ਅਪਣਾਉਣ ‘ਤੇ ਜ਼ੋਰ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਇਹ ਚੰਗਾ ਹੈ, ਜੇ ਤੁਸੀਂ ਦੂਜਿਆਂ ਦੇ ਰਾਹ ਤੇ ਫੁੱਲ ਨਹੀਂ ਬੀਜ ਸਕਦੇ, ਤਾਂ ਤੁਹਾਨੂੰ ਕੰਡੇ ਵੀ ਨਹੀਂ ਬੀਜਣੇ ਚਾਹੀਦੇ। ਫੁੱਲ ਆਪਣੇ ਆਪ ਵਧਣਗੇ। ਮਹਾਤਮਾ ਬੁੱਧ ਨੇ ਵੀ ਇਹੀ ਕਿਹਾ ਹੈ।
ਇਹ ਨੋਟ ਕੀਤਾ ਜਾਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਕਿ ਕੁੰਡਲਨੀ ਉਦਾਸੀ ਕੁਦਰਤੀ ਤੌਰ ਤੇ ਹੋਣ ਵਾਲੀ ਕੁੰਡਲਨੀ ਦੇ ਨਾਲ ਵਧੇਰੇ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਹਾਲਾਂਕਿ ਕੁਦਰਤੀ ਕੁੰਡਲਨੀ ਦੇ ਨਤੀਜੇ ਵਜੋਂ ਅਧਿਆਤਮਿਕਤਾ ਦਾ ਵਿਕਾਸ ਬਹੁਤ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਲਈ, ਕੁਦਰਤੀ ਕੁੰਡਲਨੀ ਦੇ ਇਸ ਖ਼ਤਰੇ ਤੋਂ ਬਚਣ ਲਈ, ਨਕਲੀ ਕੁੰਡਲੀਨੀ ਯੋਗ ਸਾਧਨਾ ਦਾ ਅਭਿਆਸ ਕਰਨਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ।
ਕੁੰਡਲਨੀ ਸਰੀਰ ਅਤੇ ਮਨ ਦੀ ਸ਼ਕਤੀ ਖਿੱਚਦੀ ਹੈ। ਉਹ ਕਮਜ਼ੋਰੀ ਉਦਾਸੀ ਦਾ ਕਾਰਨ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਇਸ ਲਈ, ਤੰਤਰ ਵਿੱਚ ਇਸ ਕਮਜ਼ੋਰੀ ਤੋਂ ਬਚਣ ਲਈ, ਪੰਚਮਕਾਰਾਂ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਦਾ ਪ੍ਰਬੰਧ ਹੈ।
ਇਕ ਕਿਤਾਬ ਜਿਸ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਕੁੰਡਲਨੀ ਉਦਾਸੀ ਤੋਂ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਬਾਹਰ ਕੱਰਣ ਲਈ ਸਹਾਇਤਾ ਕੀਤੀ
ਇਹ ਕਿਤਾਬ “ਸਰੀਰ ਵਿਗਿਆਨ ਦਰਸ਼ਨ” ਹੈ। ਪੂਰੇ ਵੇਰਵੇ ਹੇਠ ਦਿੱਤੇ ਲਿੰਕ ਤੇ ਉਪਲਬਧ ਹਨ।
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Kundalini development through getting help from Corona (Covid-19); The incident of the Tabligi Jamaat Markaj in the Nizamuddin-Masjid, New Delhi; A Spiritual-Psychological Analysis
We do not support or oppose any religion. We only promote scientific and human studies of religion.
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Friends, the lockdown is being strictly followed all over the world so that the corona epidemic can be avoided. In India too, there is complete lockdown in the entire country till 14 April. This lockdown is of duration of 21 days. All people are imprisoned in their homes. Health experts are saying that it will reduce the pandemic for a few days, but a continuous lockdown of about 45 days can completely prevent the pandemic.
In such a situation, people belonging to the fundamentalist religion, who believe in Islam, are pursuing friendship with the Corona virus. People from several corona-infected countries gathered recently in New Delhi, when curfew was imposed in New Delhi. These people were coming to India on a tourist visa, but here they were preaching, which is illegal. They also did not accept the police warning. Many times the policemen are also afraid of them, because they are open to violence in front, but pretend to be tortured behind the back. Most of the domestic and foreign media also present them as a victim. Micro-parasites (corona virus) also have similar strategy inside the body. It has been revealed by a media tape that Maulana Saad, its president in that Tabligi mosque of Nizamuddin is provoking people. He is telling everyone that Muslims should be kept close together, and should not leave eating food in a common plate. He further says that the propaganda of corona virus has been spread to isolate Muslims. If Allah has written death for one through the corona, no one can save him. What good can be done more than being dying in a mosque. Get your treatment from that doctor only who believes in Allah. Then they came out of that mosque and spread all over the country. Many of them were found infected with corona. Some died. Many people are still hiding in mosques etc., which are not getting caught. Even when an attempt was made to keep some people in Quarantine, they turned down every instruction, abused, stoned (some even fired), and spit on the staff so that the corona virus could spread everywhere. After this incident, the number of Corona patients has increased all over the country, which has questioned the success of Lockdown.
Kundalini lies in the confluence of life and death.
In the religious scriptures, there are many stories of disasters like war, famine etc., which are related to death. Together, the same scriptures are full of life-rich stories. This leads to the confluence of life and death. The same confluence is called Advaita/non-duality. Kundalini also exists along with the same advaita. This religiosity should be limited to stories only. When these are attempted in real life, then this is called extremism or fundamentalist religiosity.
Inhuman religious deeds are done only after being motivated by extreme craving to attain Kundalini
This is why Kundalini Yogi at times seems dull, boring, stingy, inhuman, and extremist. This seems to be because they are not afraid of death. With the influence of his Kundalini, he is equal in dualities like life-death, fame-defame, and happiness-sorrow. This non-duality in his mind is created by Kundalini yoga practice. But religious fundamentalists create this samata / advaita/sameness with inhuman deeds. They do wrong things, so that the fear of death, defamation and sorrow is removed from their mind. With this, they also remain equal in life-death, fame-defame, and happiness-sorrow. With this Advaita, Kundalini settles in their mind indirectly.
Meaning that Kundalini yogi achieves Advaita with the help of Kundalini, but religious fanatic achieves Advaita through inhuman acts. For some reason, religious fundamentalists are unable to do Kundalini Yoga. They have the opportunity to live a balanced and tantric life according to the Middle Way, but they do not believe in it, and consider it too slow. Inspired by this extreme longing for spiritual liberation, they become non-humanists. Only a few of them are successful, all the others fall into hellfire. That is why reincarnation is considered in many religions, so that a man does not become discouraged and inhuman, and he can understand that his lack of spiritual cultivation will be fulfilled in his next birth.
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ਕੁੰਡਲਨੀ ਵਿਕਾਸ ਲਈ ਕੋਰੋਨਾ (ਕੋਵਿਡ -19) ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨਾ; ਨਿਜ਼ਾਮੂਦੀਨ-ਮਸਜਿਦ, ਨਵੀਂ ਦਿੱਲੀ ਵਿਚ ਤਬਲੀਗੀ ਜਮਾਤ ਮਰਕਾਜ ਦੀ ਘਟਨਾ; ਇੱਕ ਰੂਹਾਨੀ-ਮਨੋਵਿਗਿਆਨਕ ਵਿਸ਼ਲੇਸ਼ਣ
ਅਸੀਂ ਕਿਸੇ ਧਰਮ ਦਾ ਸਮਰਥਨ ਜਾਂ ਵਿਰੋਧ ਨਹੀਂ ਕਰਦੇ। ਅਸੀਂ ਸਿਰਫ ਧਰਮ ਦੇ ਵਿਗਿਆਨਕ ਅਤੇ ਮਨੁੱਖੀ ਅਧਿਐਨ ਨੂੰ ਉਤਸ਼ਾਹਤ ਕਰਦੇ ਹਾਂ।
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ਦੋਸਤੋ, ਤਾਲਾਬੰਦੀ ਦੀ ਪੂਰੀ ਦੁਨੀਆਂ ਵਿੱਚ ਪਾਲਣਾ ਕੀਤੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ ਤਾਂ ਜੋ ਕੋਰੋਨਾ ਮਹਾਂਮਾਰੀ ਤੋਂ ਬਚਿਆ ਜਾ ਸਕੇ। ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਵੀ, 14 ਅਪ੍ਰੈਲ ਤੱਕ ਪੂਰੇ ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਤਾਲਾਬੰਦੀ ਹੈ। ਇਹ ਲਾਕਡਾਉਨ 21 ਦਿਨਾਂ ਦੀ ਹੈ। ਸਾਰੇ ਲੋਕ ਆਪਣੇ ਘਰਾਂ ਵਿੱਚ ਕੈਦ ਹਨ। ਸਿਹਤ ਮਾਹਰ ਕਹਿ ਰਹੇ ਹਨ ਕਿ ਇਹ ਕੁਝ ਦਿਨਾਂ ਲਈ ਮਹਾਂਮਾਰੀ ਨੂੰ ਘਟਾ ਦੇਵੇਗਾ, ਪਰ ਲਗਭਗ 45 ਦਿਨਾਂ ਦਾ ਨਿਰੰਤਰ ਤਾਲਾਬੰਦ ਮਹਾਂਮਾਰੀ ਨੂੰ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਰੋਕ ਸਕਦਾ ਹੈ।
ਅਜਿਹੀ ਸਥਿਤੀ ਵਿੱਚ ਕੱਟੜਪੰਥੀ ਧਰਮ ਨਾਲ ਸਬੰਧਤ ਲੋਕ, ਜੋ ਇਸਲਾਮ ਵਿੱਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਰੱਖਦੇ ਹਨ, ਕੋਰੋਨਾ ਵਾਇਰਸ ਨਾਲ ਦੋਸਤੀ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ। ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਕੋਰੋਨਾ ਨਾਲ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਦੇਸ਼ਾਂ ਦੇ ਲੋਕ ਹਾਲ ਹੀ ਵਿੱਚ ਨਵੀਂ ਦਿੱਲੀ ਵਿੱਚ ਇਕੱਠੇ ਹੋਏ, ਜਦੋਂ ਨਵੀਂ ਦਿੱਲੀ ਵਿੱਚ ਕਰਫਿਉ ਲਗਾਇਆ ਗਿਆ ਸੀ। ਇਹ ਲੋਕ ਟੂਰਿਸਟ ਵੀਜ਼ੇ ‘ਤੇ ਭਾਰਤ ਆ ਰਹੇ ਸਨ, ਪਰ ਇਥੇ ਉਹ ਧਰਮ ਪ੍ਰਚਾਰ ਕਰ ਰਹੇ ਸਨ, ਜੋ ਕਿ ਗੈਰ ਕਾਨੂੰਨੀ ਹੈ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਪੁਲਿਸ ਦੀ ਚੇਤਾਵਨੀ ਨੂੰ ਵੀ ਸਵੀਕਾਰ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ। ਕਈ ਵਾਰ ਪੁਲਿਸ ਵਾਲੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਤੋਂ ਡਰਦੇ ਵੀ ਹਨ, ਕਿਉਂਕਿ ਉਹ ਸਾਹਮਣੇ ਹਿੰਸਾ ਲਈ ਖੁੱਲ੍ਹੇ ਹੁੰਦੇ ਹਨ, ਪਰ ਪਿੱਠ ਪਿੱਛੇ ਤਸੀਹੇ ਦਿੱਤੇ ਜਾਣ ਦਾ ਦਿਖਾਵਾ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਬਹੁਤੇ ਦੇਸੀ ਅਤੇ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਮੀਡੀਆ ਵੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਪੀੜਤ ਵਜੋਂ ਪੇਸ਼ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਮਾਈਕਰੋ-ਪਰਜੀਵੀ (ਕੋਰੋਨਾ ਵਾਇਰਸ) ਵੀ ਸਰੀਰ ਦੇ ਅੰਦਰ ਇਕੋ ਜਿਹੀ ਰਣਨੀਤੀ ਰੱਖਦੇ ਹਨ। ਇੱਕ ਮੀਡੀਆ ਟੇਪ ਦੁਆਰਾ ਇਹ ਖੁਲਾਸਾ ਹੋਇਆ ਹੈ ਕਿ ਨਿਜ਼ਾਮੂਦੀਨ ਦੀ ਤਬਲੀਗੀ ਮਸਜਿਦ ਵਿੱਚ ਮੌਲਾਨਾ ਸਾਦ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਭੜਕਾ ਰਹੇ ਹਨ। ਉਹ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਕਹਿ ਰਿਹਾ ਹੈ ਕਿ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਨੂੰ ਇਕੱਠੇ ਰੱਖਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ, ਅਤੇ ਇਕ ਸਾਂਝੀ ਪਲੇਟ ਵਿਚ ਖਾਣਾ ਨਹੀਂ ਛੱਡਣਾ ਚਾਹੀਦਾ। ਉਹ ਅੱਗੇ ਕਹਿੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਕੋਰੋਨਾ ਵਾਇਰਸ ਦਾ ਪ੍ਰਚਾਰ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਨੂੰ ਅਲੱਗ ਕਰਨ ਲਈ ਫੈਲਾਇਆ ਗਿਆ ਹੈ। ਜੇ ਅੱਲ੍ਹਾ ਨੇ ਕੋਰੋਨਾ ਰਾਹੀਂ ਕਿਸੇ ਲਈ ਮੌਤ ਲਿਖੀ ਹੈ, ਕੋਈ ਵੀ ਉਸਨੂੰ ਬਚਾ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ। ਮਸਜਿਦ ਵਿਚ ਮਰਨ ਤੋਂ ਇਲਾਵਾ ਹੋਰ ਕਿਹੜਾ ਚੰਗਾ ਕੰਮ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਆਪਣਾ ਇਲਾਜ ਉਸ ਡਾਕਟਰ ਤੋਂ ਕਰੋ ਜੋ ਅੱਲ੍ਹਾ ਵਿੱਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਰੱਖਦਾ ਹੈ। ਫਿਰ ਉਹ ਉਸ ਮਸਜਿਦ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਆਏ ਅਤੇ ਸਾਰੇ ਦੇਸ਼ ਵਿੱਚ ਫੈਲ ਗਏ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਵਿਚੋਂ ਬਹੁਤਿਆਂ ਨੂੰ ਕੋਰੋਨਾ ਨਾਲ ਸੰਕਰਮਿਤ ਪਾਇਆ ਗਿਆ ਸੀ। ਕੁਝ ਮਰ ਗਏ। ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਲੋਕ ਅਜੇ ਵੀ ਮਸਜਿਦਾਂ ਆਦਿ ਵਿੱਚ ਛੁਪੇ ਹੋਏ ਹਨ, ਜੋ ਫੜੇ ਨਹੀਂ ਜਾ ਰਹੇ ਹਨ। ਇਥੋਂ ਤਕ ਕਿ ਜਦੋਂ ਕੁਝ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਅਲੱਗ ਰੱਖਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ ਗਈ, ਤਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਹਰ ਹਦਾਇਤ ਨੂੰ ਠੁਕਰਾ ਦਿੱਤਾ, ਦੁਰਵਿਵਹਾਰ ਕੀਤਾ, ਪੱਥਰ ਮਾਰੇ (ਕੁਝ ਤਾਂ ਫਾਇਰ ਵੀ ਕੀਤੇ) ਅਤੇ ਅਮਲੇ ਤੇ ਥੁੱਕ ਦਿੱਤੇ ਤਾਂ ਜੋ ਕੋਰੋਨਾ ਵਾਇਰਸ ਹਰ ਜਗ੍ਹਾ ਫੈਲ ਸਕੇ। ਇਸ ਘਟਨਾ ਤੋਂ ਬਾਅਦ, ਪੂਰੇ ਦੇਸ਼ ਵਿੱਚ ਕੋਰੋਨਾ ਦੇ ਮਰੀਜ਼ਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਵੱਧ ਗਈ ਹੈ, ਜਿਸ ਨੇ ਲਾਕਡਾਉਨ ਦੀ ਸਫਲਤਾ ‘ਤੇ ਸਵਾਲ ਖੜੇ ਕੀਤੇ ਹਨ।
ਕੁੰਡਲਨੀ ਜੀਵਣ ਅਤੇ ਮੌਤ ਦੇ ਸੰਗਮ ਵਿੱਚ ਹੈ
ਧਾਰਮਿਕ ਸ਼ਾਸਤਰਾਂ ਵਿਚ, ਤਬਾਹੀਆਂ ਦੀਆਂ ਬਹੁਤ ਸਾਰੀਆਂ ਕਹਾਣੀਆਂ ਹਨ ਜਿਵੇਂ ਕਿ ਯੁੱਧ, ਅਕਾਲ ਆਦਿ, ਜੋ ਕਿ ਮੌਤ ਨਾਲ ਸੰਬੰਧਿਤ ਹਨ। ਉੰਨਾਂ ਸ਼ਾਸਤਰਾਂ ਵਿਚ ਹੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਨਾਲ ਭਰਪੂਰ ਕਹਾਣੀਆਂ ਵੀ ਲਿਖੀਆਂ ਗਈਆਂ ਹਨ। ਇਹ ਜੀਵਨ ਅਤੇ ਮੌਤ ਦੇ ਸੰਗਮ ਵੱਲ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਸੇ ਸੰਗਮ ਨੂੰ ਅਦਵੈਤ / ਗੈਰ-ਦਵੈਤ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਕੁੰਡਲਨੀ ਵੀ ਉਹੀ ਅਡਵਾਈਟਾ ਦੇ ਨਾਲ ਮੌਜੂਦ ਹੈ। ਇਹ ਧਾਰਮਿਕਤਾ ਸਿਰਫ ਕਹਾਣੀਆਂ ਤੱਕ ਸੀਮਤ ਹੋਣੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ। ਜਦੋਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਅਸਲ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿਚ ਲਿਆਉਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ, ਤਾਂ ਇਸ ਨੂੰ ਅਤਿਵਾਦ ਜਾਂ ਕੱਟੜਪੰਥੀ ਧਾਰਮਿਕਤਾ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ।
ਅਣਮਨੁੱਖੀ ਧਾਰਮਿਕ ਕਾਰਜ ਕੁੰਡਲਨੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨ ਦੀ ਅਤਿ ਲਾਲਸਾ ਦੁਆਰਾ ਪ੍ਰੇਰਿਤ ਹੋ ਕੇ ਹੀ ਕੀਤੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ
ਇਹੀ ਕਾਰਨ ਹੈ ਕਿ ਕੁੰਡਲਨੀ ਯੋਗੀ ਕਈ ਵਾਰ ਸੁਸਤ, ਬੋਰਿੰਗ, ਕੰਜਰੀ, ਅਣਮਨੁੱਖੀ ਅਤੇ ਕੱਟੜਪੰਥੀ ਲੱਗਦੇ ਹਨ। ਅਜਿਹਾ ਜਾਪਦਾ ਹੈ ਕਿਉਂਕਿ ਉਹ ਮੌਤ ਤੋਂ ਨਹੀਂ ਡਰਦੇ। ਆਪਣੀ ਕੁੰਡਲਨੀ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵ ਨਾਲ, ਉਹ ਜੀਵਨ-ਮੌਤ, ਪ੍ਰਸਿੱਧੀ-ਬਦਨਾਮੀ, ਅਤੇ ਖੁਸ਼ਹਾਲੀ-ਦੁਖ ਵਰਗੀਆਂ ਦੁਵਿਧਾਵਾਂ ਵਿੱਚ ਬਰਾਬਰ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ। ਉਸਦੇ ਮਨ ਵਿਚ ਇਹ ਗੈਰ-ਦਵੰਦਤਾ ਕੁੰਡਲਨੀ ਯੋਗ ਅਭਿਆਸ ਦੁਆਰਾ ਬਣਾਈ ਗਈ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਪਰ ਧਾਰਮਿਕ ਕੱਟੜਪੰਥੀ ਅਣਮਨੁੱਖੀ ਕਾਰਜਾਂ ਨਾਲ ਇਹ ਸਮਤਾ / ਅਡਵਾਈਟਾ / ਸਮਾਨਤਾ ਪੈਦਾ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਉਹ ਗਲਤ ਕੰਮ ਕਰਦੇ ਹਨ, ਤਾਂ ਜੋ ਮੌਤ, ਮਾਣਹਾਨੀ ਅਤੇ ਦੁੱਖ ਦਾ ਡਰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਦਿਮਾਗ ਤੋਂ ਦੂਰ ਹੋ ਜਾਵੇ। ਇਸ ਦੇ ਨਾਲ, ਉਹ ਜੀਵਨ-ਮੌਤ, ਪ੍ਰਸਿੱਧੀ-ਬਦਨਾਮੀ, ਅਤੇ ਖੁਸ਼ੀ-ਗਮ ਵਿੱਚ ਵੀ ਬਰਾਬਰ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਅਦਵੈਤ ਨਾਲ, ਕੁੰਡਲਨੀ ਅਸਿੱਧੇ ਤੌਰ ‘ਤੇ ਉੰਨਾਂ ਦੇ ਮਨ ਵਿਚ ਵਸ ਜਾਂਦੀ ਹੈ।
ਭਾਵ ਕਿ ਕੁੰਡਲਨੀ ਯੋਗੀ ਕੁੰਡਲਨੀ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਨਾਲ ਅਦਵੈਤ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਪਰ ਧਾਰਮਿਕ ਕੱਟੜਪੰਥੀ ਅਣਮਨੁੱਖੀ ਕਾਰਜਾਂ ਦੁਆਰਾ ਅਦਵੈਤ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਕਿਸੇ ਕਾਰਨ ਕਰਕੇ, ਧਾਰਮਿਕ ਕੱਟੜਪੰਥੀ ਕੁੰਡਲਨੀ ਯੋਗ ਕਰਨ ਵਿੱਚ ਅਸਮਰੱਥ ਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਕੋਲ ਮਿਡਲ ਵੇਲ ਦੇ ਅਨੁਸਾਰ ਸੰਤੁਲਿਤ ਅਤੇ ਤਾਂਤਰਿਕ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਜੀਣ ਦਾ ਮੌਕਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਪਰ ਉਹ ਇਸ ਵਿਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨਹੀਂ ਕਰਦੇ, ਅਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਬਹੁਤ ਹੌਲੀ ਮੰਨਦੇ ਹਨ। ਰੂਹਾਨੀ ਮੁਕਤੀ ਦੀ ਇਸ ਅਤਿ ਚਾਹਤ ਤੋਂ ਪ੍ਰੇਰਿਤ ਹੋ ਕੇ ਉਹ ਗੈਰ ਮਨੁੱਖਤਾਵਾਦੀ ਬਣ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਵਿਚੋਂ ਸਿਰਫ ਕੁਝ ਕੁ ਸਫਲ ਹੁੰਦੇ ਹਨ, ਬਾਕੀ ਸਾਰੇ ਨਰਕ ਦੀ ਅੱਗ ਵਿਚ ਪੈ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਇਸੇ ਲਈ ਕਈ ਧਰਮਾਂ ਵਿੱਚ ਪੁਨਰ ਜਨਮ ਮੰਨਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਜੋ ਮਨੁੱਖ ਨਿਰਾਸ਼ ਅਤੇ ਅਣਮਨੁੱਖੀ ਨਾ ਹੋ ਜਾਵੇ, ਅਤੇ ਉਹ ਸਮਝ ਸਕੇ ਕਿ ਉਸਦੀ ਆਤਮਕ ਖੇਤੀ ਦੀ ਘਾਟ ਉਸਦੇ ਅਗਲੇ ਜਨਮ ਵਿੱਚ ਪੂਰੀ ਹੋ ਜਾਵੇਗੀ।
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कुण्डलिनी के विकास के लिए कोरोना (कोविड-19) से सहायता प्राप्त करना; नई दिल्ली की निजामुद्दीन-मस्जिद में तबलीगी जमात के मरकज की घटना; एक आध्यात्मिक-मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
हम किसी भी धर्म का समर्थन या विरोध नहीं करते हैं। हम केवल धर्म के वैज्ञानिक और मानवीय अध्ययन को बढ़ावा देते हैं।
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दोस्तों, अभी दुनियाभर में लौक डाऊन का सख्ती से पालन किया जा रहा है, ताकि कोरोना महामारी से बचा जा सके। भारत में भी पूरे देश में 14 अप्रैल तक संपूर्ण लौकडाऊन है। यह लौकडाऊन 21 दिनों का है। सभी लोग अपने घरों में कैद हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञ कह रहे हैं कि उससे कुछ दिनों के लिए तो महामारी कम हो जाएगी, पर लगभग 45 दिनों के लगातार लौकडाऊन से ही महामारी से पूरी तरह से बचा जा सकता है।
ऐसी लौकडाऊन की स्थिति में इस्लाम को मानने वाली कट्टरपंथी तबलीगी जमात के लोग कोरोना वायरस से दोस्ती निभा रहे हैं। नई दिल्ली में अनेक कोरोना संक्रमित देशों के लोग अभी हाल ही में इकट्ठे हुए, जब नई दिल्ली में कर्फ्यू लगा हुआ था। ये लोग टूरिस्ट वीजा पर भारत आए हुए थे, पर यहाँ पर वे धर्म-प्रचार कर रहे थे, जो कि अवैध है। इन्होंने पुलिस की चेतावनी को भी नहीं माना। अनेकों बार पुलिस भी इनसे डरती है, क्योंकि ये सामने तो खुली हिंसा पर उतारू हो जाते हैं, पर पीठ के पीछे प्रताड़ित होने का ढोंग करते हैं। अधिकाँश देशी-विदेशी मीडिया भी इन्हें प्रताड़ित की तरह प्रस्तुत करते हैं। सूक्ष्म परजीवियों (कोरोना वायरस) की भी शरीर के अन्दर ऐसी ही स्ट्रेटेजी होती है। मीडिया टेप के सामने आने से यह खुलासा हुआ है कि निजामुद्दीन की उस तबलीगी मस्जिद में उसके अध्यक्ष मौलाना साद लोगों को भड़का रहा है। वह सभी को कह रहा है कि मुसलामानों को आपस में नजदीकी बनाए रखना चाहिए, और एक थाली में खाना खाना नहीं छोड़ना चाहिए। और कहता है कि कोरोना वायरस का प्रोपेगेंडा मुसलमानों को अलग-थलग करने के लिए फैलाया गया है। अल्लाह ने अगर कोरोना से मौत लिखी है, तो कोई नहीं बचा सकता। मस्जिद में मरने से अच्छा क्या काम हो सकता है। अल्लाह को मानने वाले डाक्टर से ही अपना इलाज करवाएं। फिर वे लोग उस मस्जिद से निकलकर पूरे देश में फैल गए। उनमें से बहुत से लोग कोरोना से संक्रमित पाए गए। कुछ मर गए। बहुत से लोग अभी भी मस्जिद आदि में छुपे हुए हैं, जो पकड़ में नहीं आ रहे हैं। यहाँ तक कि जब कुछ लोगों को क्वारनटाइन में रखने का प्रयास किया गया, तो वे हरेक हिदायत को ठुकराने लगे, दुर्व्यवहार करने लगे, पत्थरबाजी करने लगे (कुछ तो फायरिंग करते हुए भी सुने गए), और कर्मचारियों पर थूकने लगे, ताकि कोरोना वायरस हर जगह फैल सके। इस घटना के बाद पूरे देश में कोरोना मरीजों की संख्या एकदम से बढ़ी है, जिसने लौकडाऊन की सफलता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।
कुण्डलिनी जीवन और मृत्यु के संगम में निहित है
धार्मिक शास्त्रों में मृत्यु से संबंधित युद्ध, दुर्भिक्ष आदि आपदाओं की बहुत सी कहानियां आती हैं। साथ में, उन्हीं शास्त्रों में ही जीवन से भरपूर कथा-रस भी बहुतायत में है। इससे जीवन और मृत्यु के संगम की अनुभूति होती है। उसी संगम को अद्वैत कहते हैं। उसी अद्वैत के साथ कुण्डलिनी भी विद्यमान होती है। यह धार्मिकता कथा-कहानियों तक ही सीमित रहनी चाहिए। जब उन्हें असली जीवन में हूबहू उतारने का प्रयास किया जाता है, तब उसे अतिवादी या कट्टर धार्मिकता कहा जाता है।
कुण्डलिनी की प्राप्ति के लिए अति लालसा से प्रेरित होकर ही अमानवीय काम होते हैं
इसी वजह से ही कई बार कुण्डलिनी योगी नीरस, उबाऊ, कट्टर, अमानवीय, व उग्रवादी जैसे लगते हैं। ऐसा इसलिए लगता है, क्योंकि उनमें मृत्यु का भय नहीं होता। अपनी कुण्डलिनी के प्रभाव से वे जीवन-मृत्यु में, यश-अपयश में, व सुख-दुःख में समान होते हैं। उनके मन में यह समता कुण्डलिनी योग साधना से छाई होती है। परन्तु धार्मिक कट्टरवादी इस समता/अद्वैत को अमानवीय कामों से पैदा करते हैं। वे गलत काम करते हैं, ताकि उनके मन से मृत्यु, अपयश व दुःख का भय ख़त्म हो ज्जाए। इससे वे भी जीवन-मृत्यु में, यश-अपयश में, व सुख-दुःख में समान रहने लगते हैं। इस अद्वैत से उनके मन में कुण्डलिनी अप्रत्यक्ष तरीके से आकर बस जाती है।
मतलब साफ है कि कुण्डलिनी योगी कुण्डलिनी की मदद से अद्वैत को प्राप्त करता है, परन्तु धार्मिक कट्टरवादी आमानवीय कामों से अद्वैत को प्राप्त करता है। किसी कारणवश धार्मिक कट्टरवादी कुण्डलिनीयोग नहीं कर पाते हैं। उनके पास मध्य मार्ग के अनुसार संतुलित व तांत्रिक जीवन जीने का अवसर होता है, पर वे उस पर विशवास नहीं करते, और उसे बहुत धीमा तरीका भी मानते हैं। आध्यात्मिक मुक्ति के प्रति इसी अति लालसा से प्रेरित होकर वे अमानवतावादी बन जाते हैं। उनमें से बहुत कम लोग ही सफल हो पाते हैं, बाकि सारे तो नरक की आग में गिर जाते हैं। तभी तो कई धर्मों में पुनर्जन्म को माना गया है, ताकि आदमी निरुत्साहित होकर अमानवीय न बन जाए, और वह यह समझ सके कि उसकी साधना की कमी उसके अगले जन्म में पूरी हो जाएगी।