कुंडलिनी जागरण दीपावली और राम की योगसाधना रामायण महाकाव्य के मिथकीय रूपक में निरूपित

कुंडलिनी देवी सीता और जीवात्मा भगवान राम है

सीता कुंडलिनी ही है जो बाहर से आंखों की रौशनी के माध्यम से वस्तु के चित्र के रूप में प्रविष्ट होती है। वास्तव में शरीर की कुंडलिनी शक्ति नेत्रद्वार से बाहर गई होती है। शास्त्रों में कहा भी है कि आदमी का पूरा व्यक्तित्व उसके मस्तिष्क में रहता है, जो बाह्य इन्द्रियों के रास्ते से बाहर निकलकर बाहरी दुनिया में भटकता रहता है। बाहर हर जगह भौतिक दोषों अर्थात रावण का साम्राज्य है। वह शक्ति उसके कब्जे में आ जाती है, और उसके चंगुल से नहीं छूट पाती। मस्तिष्क में बसा हुआ जीवात्मा अर्थात राम उस बाहरी दुनिया में भटकती हुई सीता शक्ति को लाचारी से देखता है। यही जटायु के भाई सम्पाति के द्वारा उसे अपनी तेज नजर से समुद्र पार देखना और उसका हालचाल राम को बताना है। फिर राम योगसाधना में लग जाता है, और किसी मंदिर वगैरह में बनी देवता की मूर्ति को या वहाँ पर रहने वाले गुरु की खूब संगति करता है, औऱ तन-मन-धन से उनको प्रसन्न करता है। इससे धीरे-धीरे उसके मन में अपने गुरु के चित्र की छाप गहरी होती जाती है, और एक समय ऐसा आता है जब वह मानसिक चित्र स्थायी हो जाता है। यही लँका के राजा रावण से सीता को छुड़ाकर लाना, और उसे समुद्र पर बने पुल को पार कराते हुए अयोध्या पहुंचाना है। प्रकाश की किरण ही वह पुल है, क्योंकि उसीके माध्यम से बाहर का भौतिक चित्र मन के अंदर प्रविष्ट हुआ। मन ही अयोध्या है, जिसके अंदर राम रूपी जीवात्मा रहता है। मन से कोई भी युद्ध नहीं कर सकता, क्योंकि वह भौतिकता के परे है। हर कोई किसीके शरीर से तो युद्ध कर सकता है, पर मन से नहीं। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि मन को समझा-बुझा कर ही सीधे रास्ते पर लगाना चाहिए, जोरजबरदस्ती या डाँट-डपट से नहीं। टेलीपैथी आदि से भी दूसरे के मन का बहुत कम पता चलता है। वह भी एक अंदाज़ा ही होता है। किसी दूसरे के मन के बारे में पूरी तरह से कभी नहीं जाना सकता। पहले तो राम रूपी जीवात्मा लंबे समय तक बाहर की दुनिया में अर्थात रावण की लँका में भटकते हुए अपने हिस्से को अर्थात सीता माता को दूर से ही देखता रहा। मतलब उसने उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। अगर वह बाहर गया भी, तो अधूरे मन से गया। अर्थात उसने शक्ति को वापिस लाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए। फिर जब राम उसके वियोग से बहुत परेशान हो गया, तब वह दुनियदारी में जीजान से कूद गया। यही राक्षसों के साथ उसके युद्ध के रूप में दिखाया गया है। दरअसल असली और जीवंत जीवन तो युद्धस्तर के जैसा संघर्षमयी और बाह्यमुखी जीवन ही होता है। मतलब कि वह मन रूपी अयोध्या से बाहर निकलकर आँखों की रौशनी के पुल से होता हुआ लँका में प्रविष्ट हो गया। दुनिया में वह पूरे जीजान से व पूरे ध्यान के साथ मेहनत करने लगा। यही तो कर्मयोग है, जो सभी आध्यात्मिक साधनाओं के मूल व प्रारंभ में स्थित है। मतलब कि वह लँका में सीता को ढूंढने लगा। फिर किसी सत्संगति से उसमें दैवीय गुण बढ़ने लगे। मतलब कि अष्टाङ्ग योग के यम-नियमों का अभ्यास उससे खुद ही होने लगा। यह सत्संग राम और राक्षस संत विभीषण की मित्रता के रूप में है। इससे जीवात्मा को कोई वस्तु  बहुत पसंद आई, और वह लगातार उसी एक वस्तु के संपर्क में बना रहने लगा। मतलब कि राम की नजर अपनी परमप्रिय सीता पर पड़ी, और वह उसीके प्रेम में मग्न रहने लगा। मतलब कि इस रूपक कथा में साथ में तंत्र का यह सिद्धांत भी प्रतिपादित किया गया है कि एक स्त्री अर्थात पत्नी ही योग में सबसे ज्यादा सहायक होती है। पुराणों का मुख्य उद्देश्य तो आध्यात्मिक और पारलौकिक है। लौकिक उद्देश्य तो गौण या निम्न है। पर अधिकांश लोग उल्टा समझ लेते है। उदाहरण के लिए, वे इस आध्यात्मिक मिथक से यही लौकिक आचार वाली शिक्षा लेते हैं कि रावण की तरह पराई स्त्री पर बुरी नजर नहीं डालनी चाहिए। हालांकि यह शिक्षा भी ठीक है, पर वे इसमें छिपे हुए कुंडलिनी योग के मुख्य और मूल उद्देश्य को या तो समझ ही नहीं पाते या फिर नजरअंदाज करते हैं। फिर जीवात्मा के शरीर की पोज़िशन और सांस लेने की प्रक्रिया स्वयं ही इस तरह से एडजस्ट होने लगी, जिससे उसका ज्यादा से ज्यादा ध्यान उसकी प्रिय वस्तु पर बना रहे।  इससे योगी राम का विकास अष्टाङ्ग योग के आसन और प्राणायाम अंग तक हो गया। इसका मतलब है कि राम सीता को दूर से व छिप-छिप कर देखने के लिए कभी बहुत समय तक खड़ा रहता, कभी डेढ़ा-मेढ़ा बैठता, कभी उसे लंबे समय तक सांस रोककर रखनी पड़ती थी, कभी बहुत धीरे से साँसें लेनी पड़ती थी। ऐसा इसलिए था ताकि कहीं दुनिया में उलझे लोगों अर्थात लँका के राक्षसों को उसका पता न चलता, और वे उसके ध्यान को भंग न करते। वास्तव में जो भौतिक वस्तु या स्त्री होती है, उसे पता ही नहीं चलता कि कोई व्यक्ति उसका ध्यान कर रहा है। यह बड़ी चालाकी से होता है। यदि उसे पता चल जाए, तो वह शर्मा कर संकोच करेगी और अपने विविध रूप-रंग व भावनाएं ढंग से प्रदर्शित नहीं कर पाएगी। इससे ध्यान परिपक्व नहीं हो पाएगा। अहंकार पैदा होने से भी ध्यान में क्षीणता आएगी। ऐसा ही गुरु के मामले में भी होता है। इसी तरह मन्दिर में जड़वत खड़ी पत्थर की मूर्ति को भी क्या पता कि कोई उसका ध्यान कर रहा है। क्योंकि सीता के चित्र ने ही राम के मन की अधिकांश जगह घेर ली थी, इसलिए उसके मन में फालतू इच्छाओं और गैरजरूरी वस्तुओं को संग्रह करने की इच्छा ही नहीं रही। इससे अष्टाङ्ग योग का पांचवां अंग, अपरिग्रह खुद ही चरितार्थ हो गया। अपरिग्रह का अर्थ है, वस्तुओं का संग्रह या उनकी इच्छा न करना। फिर इस तरह से योग के इन प्रारंभिक पांच अँगों के लंबे अभ्यास से जीवात्मा के मन में उस वस्तु या स्त्री का चित्र स्थिर हो जाता है। यही योग के धारणा और ध्यान नामक एडवांस्ड व उत्तम अंग हैं। इसका मतलब है कि राम ने लँका के रावण से सीता को छुड़ा लिया, और उसे वायुमण्डल रूपी समुद्र पर बने उसी प्रकाश की किरण रूपी पुल के माध्यम से आँख रूपी समुद्रतट पर पहुंचाया और फिर अंदर मनरूपी अयोध्या की ओर ले गया या जैसा कि रामायण में लिखा गया है कि लँका से उनकी वापसी पुष्पक विमान से हुई। यही समाधि या कुंडलिनी जागरण का प्रारंभ है। इससे उसकी इन्द्रियों के दस दोष नष्ट हो गए। इसे ही दशहरा त्यौहार के दिन दशानन रावण को जलाए जाने के रूप में मनाया जाता है। फिर जीवात्मा ने कुंडलिनी की जागृति के लिए उसे अंतिम व मुक्तिगामी छलांग या एस्केप विलोसिटी प्रदान करने के लिए बीस दिनों तक तांत्रिक योगाभ्यास किया। उस दौरान वह घर पहुंचने के लिए सुरम्य और मनोहर यात्राएं करता रहा। वैसे भी अपने स्थायी घर के ध्यान और स्मरण से कुंडलिनी को और अधिक बल मिलता है, क्योंकि कुंडलिनी स्थायी घर से भी जुड़ी होती है, जैसा मैंने एक पिछले लेख में बताया है। मनोरम यात्राओं से भी कुंडलिनी को अतिरिक्त बल मिलता है, इसीलिए तो तीर्थयात्राएं बनी हैं। उस चौतरफा प्रयास से उसकी कुंडलिनी बीस दिनों के थोड़े समय में ही जागृत हो गई। यही राम का अयोध्या अर्थात कुंडलिनी के मूलस्थान पहुंचना है। यही कुंडलिनी जागरण है। कुंडलिनी जागरण से जो मन के अंदर चारों ओर सात्त्विकता का प्रकाश छा जाता है, उसे ही प्रकाशपर्व दीपावली के रूप में दर्शाया गया है। क्योंकि कुंडलिनी जागरण का प्रभाव समाज में, विशेषकर गृहस्थान में चारों तरफ फैलकर आनन्द का प्रकाश फैलाता है, इसलिए यही अयोध्या के लोगों के द्वारा दीपावली के प्रकाशमय त्यौहार को मनाना है।

कुंडलिनी और ब्रह्ममुहूर्त के अन्तर्सम्बन्ध से भूतों का विनाश


सभी मित्रों को गुरु नानक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

कालरात्रि के चाँद गुरु नानक देव

मित्रो, इस वर्ष के गुरु नानक दिवस के उपलक्ष्य में अपने सिख भाई व पड़ौसी के यहाँ प्रभात-फेरी कथा में जाने का मौका मिला। बड़े प्यार और आदर से निमंत्रण दिया था, इसलिए कुंडलिनी की प्रेरणा से सुबह के चार बजे से पहले ही आंख खुल गई। जैसे ही तैयार होकर कथा में पत्नी के साथ पहुंचा, वैसे ही गुरुद्वारा साहिब से ग्रन्थ साहिब भी पहुंच गए। ऐसा लगा कि जैसे मुझे ही सेवादारी के लिए विशेष निमंत्रण मिला था। बहुत ही भावपूर्ण व रोमांचक दृश्य था। सुबह साढ़े चार बजे से लेकर साढ़े पांच बजे तक मधुर संगीत के साथ शब्द कीर्तन हुआ। अच्छा लगा। यह समय ब्रह्ममुहूर्त के समय के बीचोंबीच था, जो लगभग 4 बजे से 6 बजे तक रहता है। ऐसा लगा कि हम पूरी रातभर कीर्तन कर रहे हों। ऐसा ब्रह्ममुहूर्त की उच्च आध्यात्मिक ऊर्जा के कारण ही लगता है। इसीलिए आध्यात्मिक साधना के लिए यही समय सर्वोपरि निश्चित किया गया है। ब्रह्ममुहूर्त में आध्यात्मिक साधना से कुंडलिनी चरम के करीब पहुंच जाती है। मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा। कथा-कीर्तन के अंत में हल्का जलपान भी हुआ। आदमी हर पल कुछ न कुछ सीखता है। सिख मतलब सीख। इससे सिद्ध हो जाता है कि यह धर्म अत्याधुनिक और वैज्ञानिक भी है, क्योंकि आजकल सीखने का ही तो युग है। इसी तरह से इसमें सेवादारी का भी बड़ा महत्त्व है। आजकल का उपभोक्तावाद, व्यावसायिक व प्रतिस्पर्धा का युग जनसेवा या पब्लिक सर्विस का ही तो युग है। आत्मसुरक्षा का भाव तो इस धर्म के मूल में है। यह भाव भी आजकल बहुत प्रासंगिक है, क्योंकि हर जगह झूठ-फरेब, और अत्याचार का बोलबाला दिखता है। ब्रह्ममुहूर्त के बारे में सुना तो बहुत था, पर खुद अच्छी तरह से अनुभव नहीं किया था। लोगों को जो इसकी शक्ति का पता नहीं चलता, उसका कारण यही है कि वे ढंग से साधना नहीं करते। शक्ति के पास बुद्धि नहीं होती। बुद्धि आत्मा या विवेक के पास होती है। यदि शक्ति के साथ विवेक-बुद्धि का दिशानिर्देशन है, तभी वह आत्मकल्याण करती है, नहीं तो उससे विध्वंस भी संभव है। उदाहरण के लिए पाकिस्तान को देख सकते हैं। सूत्रों के अनुसार पाकिस्तानी सेना निर्दोष व निहत्थी जनता को मारती है। कई बार यह देश कम, और दुष्प्रचार करने वाली मशीन ज्यादा लगता है। बन्दर के हाथ उस्तरा लग जाए, तो अंजाम कुछ भी हो सकता है। शक्ति तो एक धक्का है। यदि मन में पहले से ही कचरा है, तो शक्ति से उसीको धक्का मिलेगा, जिससे वह और ज्यादा फैल जाएगा। इससे तो आदमी ब्रह्ममुहूर्त में जागने से भी तौबा करेगा। यदि मन में कुंडलिनी है, तो विकास का धक्का कुंडलिनी को ही मिलेगा। मेरा जन्म से ही एक हिंदु परिवार से सम्बन्ध रहा है। मेरे दादाजी एक प्रख्यात हिंदु पुरोहित थे। मैंने कई वर्षों तक उनके साथ एक शिष्य की तरह काम किया है। लगता है कि वे अनजाने में ही मेरे गुरु बन गए थे। मुझे तो हिंदु धर्म और सिख धर्म एकजैसे ही लगे। दोनों में धर्मध्वज, ग्रन्थ और गुरु का पूजन या सम्मान समान रूप से किया जाता है। दरअसल, भीतर से सभी धर्म एकसमान हैं, कुछ लोग बाहर-2 से भेद करते हैं। तंत्र के अनुसार, कुंडलिनी ही गुरु है, और गुरु ही कुंडलिनी है। हाँ, क्योंकि सिक्ख धर्म धर्मयौद्धाओं से जुड़ा हुआ है, इसलिए इसमें पारम्परिक हिंदु धर्म की अपेक्षा थोड़ी ज्यादा संक्षिप्तता, व्यावहारिकता और कट्टरता होना स्वाभाविक ही है। पर वह भी कुछ विशेष धर्मों के सामने तो नगण्यतुल्य ही है। हालांकि सिक्ख धर्म बचाव पक्ष को लेकर बना है, आक्रामक पक्ष को लेकर नहीं। यदि कभी आक्रामक हुआ भी है, तो अपने और हिंदु धर्म के बचाव के लिए ही हुआ है, अन्यथा नहीं। मैं यहाँ किसी धर्मविशेष का पक्ष नहीं ले रहा हूँ। हम सभी धर्मों का सम्मान करते हैं। केवल मानवीय सत्य को स्पष्ट कर रहा हूँ। युक्तिपूर्ण विचार व लेखन से सत्य ज्यादा स्पष्ट हो जाता है। कुछ न कुछ कट्टरता तो सभी धर्मों में है। कुछ सकारात्मक कट्टरता तो धर्म के लिए जरूरी भी है, पर यदि वह मानवता और सामाजिकता के दायरे में रहे, तो ज्यादा बेहतर है, जिसके लिए सिक्ख धर्म अक्सर जाना और माना जाता है। मध्ययुग में जिस समय जेहादी आक्रांताओं के कारण भारतीय उपमहाद्वीप अंधेरे में था, उस समय ईश्वर की प्रेरणा से पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रमा की तरह गुरु नानकदेव का अभ्युदय हुआ था, जिसने भयजनित अंधेरे को सुहानी चांदनी में तब्दील कर दिया था।

भगवान शिव भूतों से भरी रात के बीच में पूर्ण चन्द्रमा की तरह प्रकाशमान रहते हैं

किसी धार्मिक क्रियाकलाप में प्रकाशमान भगवान के साथ उसका साया अंधेरा भी प्रकट हो सकता है। क्योंकि प्रकाश और अंधकार साथसाथ रहते हैं। अंधेरे को शिव का भूतगण समझकर सम्मानित करना चाहिए, क्योंकि वह शिव के साथ ही आया। चान्द के साथ रात तो होती ही है। उससे डरना नहीं चाहिए। इससे शक्तिशाली अद्वैत पैदा होता है, जो  कुंडलिनी जागरण में सहायक होता है। दरअसल धार्मिक विद्वेष के लिए यही भूत जिम्मेदार होते हैं, शिव नहीं। आपने भी देखा या सुना ही होगा कि अमुक आदमी बहुत ज्यादा धार्मिक बनने के बाद अजीब सा हो गया। कई बार आदमी गलत काम भी कर बैठता है। मेरा एक रिश्तेदार है। वह गाँव के ही अपने एक मित्र के साथ निरन्तर धार्मिक चर्चाएँ करता रहता था। उन दोनों को इकट्ठा देखकर गांव की महिलाएं उनका मजाक उड़ाते हुए आपस में बतियाने लगतीं कि देखो सखियो, अब श्रीमद्भागवत पुराण का कथा-प्रवचन शुरु होने वाला है। कुछ समय बाद मेरे रिश्तेदार के उस मित्र ने अचानक आत्महत्या कर ली, जिससे सभी अचम्भित हो गए, क्योंकि उसमें अवसाद के लक्षण नहीं दिखते थे। अति सर्वत्र वर्जयेत। हो सकता है कि सतही धार्मिकता ने एक पर्दे का काम किया, और उसके अवसाद को ढक कर रखा। उस अपूर्ण धार्मिकता ने उसके मुंह पर नकली मुस्कान पैदा कर दी। हो सकता है कि अगर वह अधूरी आध्यात्मिकता का चोला न पहनता, तो लोग उसके अंदरूनी अवसाद के लिए जिम्मेदार समस्या को जान जाते, और उसे उससे अवगत कराते और उसका हल भी सुझाते। उससे वह घातक कदम न उठाता। तभी तो कहा गया है कि लिटल नॉलेज इज ए डेंजरस थिंग। इसके विपरीत अगर उसने आध्यात्मिकता को पूर्णता के साथ अपनाया होता, तो उसका अवसाद तो मिट ही जाता, साथ में उसे कुंडलिनी जागरण भी प्राप्त हो जाता। धार्मिकता या आध्यात्मिकता की चरमावस्था व पूर्णता तांत्रिक कुंडलिनी योग में ही निहित है। तांत्रिक कुण्डलिनी योग सिर्फ एक नाम या प्रतीक या तरीका है एक मनोवैज्ञानिक तथ्य का। इस आध्यात्मिक व मनोवैज्ञानिक सिद्धांत को धरातल पर उतारने वाले अन्य नाम, प्रतीक या तरीके भी हो सकते हैं। हिंदु ही क्यों, अन्य धर्म भी हो सकते हैं। ऐसा है भी, पर उसे हम समझते नहीं, पहचानते नहीं। जब सभी धर्मों व जीवनव्यवहारों का वैज्ञानिक रूप से गम्भीर अध्ययन किया जाएगा, तभी पूरा पता चल पाएगा। इसलिए जब तक पता नहीं चलता, तब तक हिंदु धर्म के कुंडलिनी योग से काम चला लेना चाहिए। हमें पीने के लिए शुद्ध जल चाहिए, वह जहां मर्जी से आए, या उसका जो मर्जी नाम हो। अध्यात्म की कमी का कुछ हल तंत्र ने तो ढूंढा था। उसने भूतबलि को पंचमकार के एक अंग के रूप में स्वीकार किया। यह गौर करने वाली बात है कि सिक्ख धर्म मे पंचककार होते हैं। ये पाँच चीजें होती हैं, जिनके नाम क अक्षर से शुरु होते हैं, और जिन्हें एक सिक्ख को हमेशा साथ रखना पड़ता है। ये पाँच चीजें हैं, केश, कड़ा, कंघा, कच्छा और कटार। इससे ऐसा लगता है कि उस समय वामपंथी तंत्र का बोलबाला था, जिससे पंचमकार की जगह पँचककार प्रचलन में आया। भूतबलि, मतलब भूत के लिए बलि। इससे भूत संतुष्ट होकर शांत हो जाते हैं। एकबार मुझे कुछ समय के लिए ऊंचे हिमालयी क्षेत्रों में रहने का मौका मिला। वहाँ पर घर-घर में जब देवता बुलाया जाता है, तो उसे पशुबलि भी दी जाती है। पूछने पर वहाँ के स्थानीय लोगों ने बताया कि वह बलि देवता के लिए नहीं, बल्कि उसके साथ आए वजीर आदि अनुचरों के लिए होती है। देवता का आहार-विहार तो सात्विक होता है। तो वे अनुचर एकप्रकार से शिवगण या भूत ही हुए, और देवता शिव हुए। आजकल भी इसी तर्ज पर बहुत से चतुर लोग दफ्तर के बाबुओं को खुश करके बहुत से काम निकाल लेते हैं, अधिकारी बस देखते ही रह जाते हैं। दरअसल बलिभोग ऊर्जा के भंडार होते हैं। उसमें तमोगुण भी होता है। ऊर्जा और तमोगुण के शरीर में प्रविष्ट होने से जरूरत से ज्यादा बढ़ा हुआ सतोगुण संतुलित हो जाता है, और मन में एक अद्वैत सा छा जाता है। संतुलन जरूरी है। जरूरत से ज्यादा ऊर्जा और तमोगुण से भी काम खराब हो जाता है। अद्वैत भाव को धारण करने के लिए भी शरीर को काफी ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। अद्वैत भाव पैदा होने से फिर से सतोगुण बढ़ने लगता है। तमोगुण की सहायता से सतोगुण को पैदा करना, वामपंथी शैवों व तांत्रिकों का सम्भवतः यही एक दिव्य फार्मूला है। मूलाधार चक्र तमोगुण का प्रतीक है, और सहस्रार चक्र सतोगुण का प्रतीक है। पहले तमोगुण से कुंडलिनी को मूलाधार पर आने दिया जाता है। फिर तांत्रिक कुंडलिनी योग से उसे सहस्रार तक सीधे ही उठाया जाता है। उससे एकदम से सतोगुण बढ़ जाता है, हालांकि संतुलन या अद्वैत के साथ। कुंडलिनी योग से कुंडलिनी को मन में बना कर रखने के अनगनित लाभों में से गुण-संतुलन का लाभ भी एक है। क्योंकि कुंडलिनी पूरे शरीर में माला के मनके की तरह घूमते हुए तीनों गुणों का संतुलन बना कर रखती है। सारा खेल ऊर्जा या शक्ति का ही है। तभी तो कहते हैं कि शक्ति से ही शिव मिलता है। वैसे ऊर्जा और गुण-संतुलन या अद्वैत को प्राप्त करने के और भी बहुत से सात्विक तरीके हैं, जिनसे अध्यात्म शास्त्र भरे पड़े हैं। ऐसी ही एक आधुनिक पुस्तक है, “शरीरविज्ञान दर्शन~एक आधुनिक कुंडलिनी तंत्र”। भूत तब प्रबल होकर परेशान करते हैं, जब शिव का ध्यान या पूजन ढंग से नहीं किया जाता। जब इसके साथ अद्वैत भाव जुड़ जाता है, तब वे शांत होकर गायब हो जाते हैं। दरअसल वे गायब न होकर प्रकाशमान शिव में ही समा जाते हैं। भूत एक छलावा है। भूत एक साया है। भूत का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। भूत मन का भ्रम है, जो दुनिया की मोहमाया से पैदा होता है। इसका मतलब है कि भूत अद्वैतभाव रखना सिखाते हैं। इसलिए वे शिव के अनुचर ही हुए, क्योंकि वे सबको अपने स्वामी शिव की तरह अद्वैतरूप बनाना चाहते हैं। उन्हें अपने स्वामी शिव के सिवाय कुछ भी अच्छा नहीं लगता। शिवपुराण में इस रूपक को कथाओं के माध्यम से बड़ी मनोरंजकता से प्रस्तुत किया गया है। इन्हीं भूतों को बौद्ध धर्म में रैथफुल डाईटी कहते हैं, जो ज्ञानसाधना के दौरान साधक को परेशान करते हैं। इनको डरावनी आकृतियों के रूप में चित्रित किया जाता है। 

राम से बड़ा राम का नाम~भक्तिगीत कविता

जग में सुंदर हैं सब काम
पर मिल जाए अब आ~राम।
बोलो राम राम राम
राम से बड़ा राम का नाम।१।
दीपावली मनाएं हम
खुशियां खूब लुटाएं हम।
आ~राम आ~राम रट-रट के
काम को ब्रेक लगाएं हम।२।
मानवता को जगाएँ हम
दीप से दीप जलाएँ हम।-2
प्रेम की गंगा बहाएं हम-2
नितदिन सुबहो शाम।३।
बोलो राम राम राम
राम से बड़ा राम का नाम।-2
जग में------
वैर-विरोध को छोड़ें हम
मन को भीतर मोड़ें हम।
ज्ञान के धागे जोड़ें हम
बंधन बेड़ी तोड़ें हम।४।
दिल से राम न बोलें हम
माल पराया तोलें हम।-2
प्यारे राम को जपने का-2
ऐसा हो न काम।५।
बोलो राम राम राम
राम से बड़ा राम का नाम।-2
जग में------
मेहनत खूब करेंगे हम
रंगत खूब भरेंगे हम।
मन को राम ही देकर के
तन से काम करेंगे हम।६।
अच्छे काम करेंगे हम
अहम-भ्रम न भरेंगे हम।-2
बगल में शूरी रखकर के-2
मुँह में न हो राम।७।
बोलो राम राम राम
राम से बड़ा राम का नाम।-2
जग में------
भाईचारा बाँटें हम
शिष्टाचार ही छांटें हम।
रूढ़ि बंदिश काटें हम
अंध-विचार को पाटें हम।८।
धर्म विभेद करें न हम
एक अभेद ही भीतर हम।-2
कोई शिवजी कहे तो कोई-2
दुर्गा कृष्ण या राम।९।
बोलो राम राम राम
राम से बड़ा राम का नाम।-2
जग में------
धुन प्रकार~ जग में सुंदर हैं दो नाम, चाहे कृष्ण कहो या राम [भजनसम्राट अनुप जलोटा गीत]
साभार~भीष्म🙏@bhishmsharma95
राम से बड़ा राम का नाम

होली त्यौहार व तंत्र का आपस में रिश्ता- Tantra versus Holi festival

होली त्यौहार व तंत्र का आपस में रिश्ता (please browse down or click here to view this post in English)

होली है………। सभी मित्रों को होली की बहुत-२ शुभकामनाएँ। “होली” नाम ही तांत्रिक है। “ल” अक्षर को तंत्र में कामप्रधान माना गया है। मूलाधार का बीजाक्षर “लं” है, व उसी का बीजमंत्र “क्लीं” है। दोनों में ही “ल” अक्षर है। मूलाधार चक्र को भी कामप्रधान माना जाता है। प्रेमयोगी वज्र के साथ भी बीजाक्षर से सम्बंधित घटना हुई थी। वह जिस ऑनलाईन कुण्डलिनी-ग्रुप का सदस्य था, उसमें बहुत से लोगों के नाम “ल” अक्षर वाले थे। कई के नाम में तो दो “ल” भी थे। उदाहरण के लिए “ल्लो”, “लीं”, व “लि” आदि। उन “ल” अक्षर के नाम वाले लोगों के साथ ही उसका अधिकाँश वार्तालाप होता था। उससे उसका मूलाधार चक्र अनजाने में ही जागृत हो गया। उससे उसमें तांत्रिक योग की प्रवृत्ति जागृत हुई, जिससे शीघ्र ही उसकी कुण्डलिनी जागृत हो गई। साथ में, उनके चेहरे भी लाल रंग लिए हुए थे। लाल रंग भी कामोत्तेजक माना जाता है। उससे भी प्रेमयोगी वज्र को सहयोग मिला।

उस फोरम पर उसका नाम हृदयेश था। इसका अर्थ है, “हृदय का स्वामी”। एक परिपक्व व स्वस्थ हृदय ही मूलाधार को लम्बे समय तक क्रियाशील रख सकता है। बहुत मेहनती होने के कारण, उसका नाभि-चक्र भी क्रियाशील था। हृदय-चक्र व मूलाधार चक्र, दोनों को शक्ति की बहुत आवश्यकता होती है। नाभि चक्र दोनों के लिए शक्ति की आपूर्ति कर रहा था। इसलिए हम नाभि चक्र को अनाहत चक्र व मूलाधार चक्र को आपस में जोड़ने वाला पुल भी कह सकते हैं।

इसी तरह देवी भागवत पुराण में भी एक कथा आती है कि किसी जंगल में एक व्यक्ति के मुख से किसी भय के कारण अनायास ही बीजाक्षर वाले बोल निकले थे, क्योंकि वह मानसिक रूप से व वाणी से दिव्यांग भी था। उसी बीजाक्षर के बल से उसे देवी सिद्ध हो गई, और वह हर प्रकार से उन्नति करने लगा।

तंत्र के साथ होली के सम्बन्ध को उजागर करने वाला दूसरा कारक लाल रंग है। हम सभी जानते हैं कि होली का मुख्य रंग लाल रंग ही है। यह रंग होली वाला जोश भी पैदा करता है। आपको यह जानकार हैरानी होगी कि जो कुंकुम आम जनजीवन में सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है, वह हल्दी ही होता है। 95 भाग हल्दी-चूर्ण को 5 भाग चूने (पानी में घोलकर) के साथ मिलाकर जब छाया में सुखाया जाता है, तब वह सुर्ख लाल हो जाता है। चूने की मात्रा बहुत कम होने से इस तरह से निर्मित कुंकुम शरीर के लिए हानिकारक भी नहीं होता। परन्तु सिन्दूर बहुत भिन्न होता है। वह पारे व सीसे का यौगिक होता है, इसलिए स्वास्थ्य के लिए हानि भी पहुंचा सकता है, यदि ढंग से प्रयोग में न लाया जाए। उसका रंग संतरी होता है। हनुमान के ऊपर लगे हुए लाल रंग को आप सिन्दूर समझें। इसी तरह, गुलाल भी कई रंगों के होते हैं, व प्राकृतिक होते हैं। लाल गुलाब लाली वाले पौधों से, नीले रंग का गुलाल इंडिगो से आदि-२। होली के रंग खुद ही बनाने चाहिए। बाजार में तो अधिकाँश तौर पर सिंथैटिक रंग मिलते हैं, जो शरीर के लिए हानिकारक होते हैं। उपरोक्त कारणों से ही तंत्र के मूलाधार चक्र का रंग भी लाल ही होता है।

होलिका दहन भी तंत्र के अनुसार ही है। हम जानते हैं कि यज्ञादि अनुष्ठान अधिकाँश तौर पर तांत्रिक   होते हैं। यज्ञ में जल रही अग्नि के बीच में तांत्रिक अपनी कुण्डलिनी को अनुभव करता है। इससे उसकी  कुण्डलिनी बहुत पुष्ट हो जाती है, क्योंकि वह अग्नि के तेज से जगमगा जाती है।

होली के दिन एक दूसरे पर सीधे तौर पर व पिचकारी से रंग उड़ेलना भी तंत्र के अनुसार ही है। हम सभी जानते हैं कि सभी को अपने किए हुए  कर्मों का भोग करना ही पड़ता है। तांत्रिक योग से यह प्रक्रिया सरल हो जाती है। उससे फल देने वाले कर्म के संस्कार निरंतर के अभ्यास से इतने क्षीण हो जाते हैं कि या तो वे सीधे ही नष्ट हो जाते हैं, या मामूली सा फल देकर नष्ट हो जाते हैं। होली के रंगों से शरीर का विकृत होना एक प्रकार से पूर्व के किए हुए कुकर्मों से शरीर को दंड मिलना ही है। हो सकता है कि किसी के पिछले कर्मों के अनुसार उसके शरीर को गंभीर चोट लगनी हो। होली के रंग से जब उसका शरीर कुरूप हो जाता है, तो होनी उसे शरीर की क्षति समझ लेती है, जिससे उससे सम्बंधित कुकर्म क्षीण हो जाता है। तांत्रिक योगाभ्यास की अतिरिक्त सहायता से वह नष्ट ही हो जाता है। इसी तरह किसी को पानी में डुबो कर मार सकने वाला कुकर्म पानी की एक पिचकारी मात्र से शांत हो जाता है। होली के दिन चलने वाले हल्के-फुल्के मजाक व वाद-विवाद से भी इसी सिद्धांत के अनुसार ही पिछले कुकर्म शांत हो जाते है। अब ज़रा सोचें, बरसाने की लट्ठमार होली से तो पुराने कुकर्मों का भण्डार ही ढीला पड़ जाता होगा।

अब जो पुरानी कथा है कि होली के दिन प्रहलाद को मारने की मंशा रखने वाली उसकी बहन होलिका स्वयं ही दहन हो गई थी, उसमें वास्तव में हिरण्यकशिपु के कुकर्म को ही होलिका कहा गया है। कहा जाता है कि पिता के कुकर्म पुत्र को भोगने पड़ते हैं। वे कुकर्म (हिरण्यकशिपु की पुत्री व प्रहलाद की बहन के रूप में वर्णित) होली के तांत्रिक प्रभाव से नष्ट हो गए, अर्थात होलिका जल गई।

वास्तव में, होली के दिन चारों ओर कामदेव का तेज विद्यमान होता है, क्योंकि सभी लोग एकसाथ मिलकर काम को बढ़ा रहे होते हैं। उससे मूलाधार चक्र को बहुत बल मिलता है। यह तांत्रिक सिद्धांत है कि मूलाधार की क्रियाशीलता के समय किया गया कोई भी कार्य अनेक गुना फलदायी होता है। तभी तो होली का दिन तांत्रिक सिद्धि के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। अगर उस दिन तंत्रयोगी की कुण्डलिनी न भी जागृत हो पाए, तो भी कुण्डलिनी को बहुत अधिक बल मिलता है। वास्तव में, कुण्डलिनी की क्रियाशीलता को भी उतना ही अहम् माना जाता है, जितना की कुण्डलिनी-जागरण को।

कई लोग होली का प्रारम्भ कृष्ण-राधा के प्रेम से बताते हैं। इसमें तो होली की काम-प्रधानता स्वयं ही सिद्ध हो गई। तंत्र भी तो काम प्रधान ही है।

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Tantra versus Holi festival

Holi hai ………. Lots of good luck of Holi to all friends. The name “Holi” is tantric. The letter “L” is considered to be a romantic in Tantra. The seed-syllable of the root chakra is “Lm”, and the seed-mantra of it is “Kleem”. Both have the same letter “L”. Mulaladar chakra is also considered as pro-romantic. There was also an incident related to seed-syllable with Premyogi vajra. He was a member of the online Kundalini-group, in which many people had names containing the alphabet “L”. There were also two “L” in many names. For example, “Llo”, “Lee”, and “li” etc. He had most of his conversations with those people having names bearing “L” in any form. From this, his root chakra was awakened itself. From that, the tendency of tantric sexual activity was awakened in him, so that soon his kundalini awoke. Together, their faces were also red in color. Red color is also considered to be erotic. Premyogi vajra got support from that too.

His name was Hridayesh on that forum. It means “lord of the heart”. A mature and healthy heart can keep the mooladhara active for a long time. Due to being very diligent, his navel-chakra was also functional. Heart-chakra and Muladhadara chakra both require a lot of power. Navel Chakra was supplying power for both. Therefore, we can also call the Naval Chakra as a bridge connecting the Anahata Chakra and Muladhadra Chakra together.

In the same way, in the Goddess Bhagwat Puran, there is a story that in a forest, from the mouth of a person, due to fear, some seed syllables emanated itself, because he was also handicapped mentally and verbally as well. With the help of the same seed syllable, Goddess was pleased, due to which he started progressing in every way.

The second factor to highlight Holi’s relationship with tantra is red color. We all know that Holi’s main color is red color. This color also produces the passion of Holi. You must be surprised to know that the kunkum (sacred red color powder), which is most commonly used in the general life, that is turmeric only. Mix 95 part turmeric powder with five parts lime (dissolved in water) and when it is dried in the shade, then it becomes red. Since the amount of lime is very low, this form made in this way is not harmful to the body. However, vermilion is very different. It is a compound of mercury and lead, hence can also cause harm to the health, if not used in the manner. Its color is orange. Think of the red color shown on the Hanuman as vermilion. Similarly, gulals are also of many colors, and are natural. Red gulal from reddish plants, blue gulal from indigo etc. Holi colors should be made by themselves. In the market, there are mostly synthetic colors, which are harmful to the body. For the above reasons only the color of the root chakra of tantra is red.

Holika Dahan is also according to the tantra. We know that yajna rituals are mostly tantric. Tantric experiences his kundalini in the middle of the fire burning in Yajna. This makes his kundalini very strong, because that is shining with the shine of fire.

On the day of Holi, it is according to the tantra the ritual of coloring directly each other or with water mixed colors. We all know that everybody has to enjoy the deeds done by him. With Tantric Yoga, this process becomes simpler. The mental imprints of the actions that give phala become so weak with the practice of tantric yoga that either these are destroyed directly, or are destroyed by giving slightest phala or results. Being distorted from the colors of Holi, there is a way to get punishment for the body from the pre-existing misdeeds. It may be that according to past deeds someone has to bear serious injuries to his body. When the body becomes deformed with the color of Holi, then it is considered to be the loss of the body, due to which the karma associated with it becomes lose. With the additional help of Tantric Yoga, it is fully destroyed. Similarly, a karma that is able to drown someone through water immersion becomes calm with only one stream of colored water on Holi. According to the same principle, the past misdeeds become calm after the light joke and debate that runs on Holi. Now think, the Lath mar Holi (stick-fight) of Barsana can loosen even the storage of old misdeeds.

Now the old story is that on Holi, his sister Holika, who had the intention to kill her brother Prahlad, had become combusted herself. In reality, misdeeds of his father Hiranyakashipu have been called as Holika. It is said that the son has to suffer the misdeeds of his father. Those misdeeds (described as the daughter of Hiranyakashipu and sister of Prahlad) were destroyed with the tantric influence of Holi that means Holika was burnt.

In fact, the passion and shine of Kamdeva (god of romance) is present all around on the day of Holi, because all people are working together to grow romance. It gives a lot of force to the Mooladhar Chakra. It is the tantric theory that any work undertaken during the activation of the Muladhara is fruitful many folds. Only then is Holi’s day considered as the best for tantric accomplishment. Even if the Kundalini of Tantric Yogi cannot be awakened on that day, then too, Kundalini gets very much strength. In fact, the activity of Kundalini is also considered that much important, as much as its awakening.

Many people think the historical start of Holi with the love of Krishna-Radha. In this, Holi’s romantic nature is itself proved. Tantra is also romantic in nature.

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शिव-अराधना से सर्वधर्मसमभाव- Love and brotherhood between all religions through Shiva-worship

पावन शिवरात्रि के अवसर पर सभी मित्रों को बहुत-२ शुभकामनाएं। (please browse down or click here to view this post in English)

आशुतोष शंकर बहुत जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं। इसका अर्थ है कि उनके द्वारा उपदिष्ट तंत्र-साधना अतिशीघ्र मुक्ति प्रदान करती है। तंत्रसाधना हमारे दैनिक जीवन की गतिविधियों को आध्यात्मिक रूप देकर ही बनी है। उदाहरण के लिए निपुण तंत्रयोगियों का शरीर स्वयं ही मुड़ता, सिकुड़ता, फैलता व ऊपर की ओर उठता हुआ सा रहता है। ऐसा कुण्डलिनी को चक्रों पर स्थापित करने के लिए स्वयं ही होता रहता है। जब थकान होती है या कन्फ्यूजन होता है, तब भी ऐसा होता है, जिससे कुण्डलिनी मस्तिष्क-चक्र पर स्वयं ही प्रतिष्ठित हो जाती है। उससे एकदम चैन के साथ एक लम्बी सांस शरीर के अन्दर स्वयं ही प्रविष्ट होती है। नींद आने पर या बोरियत होने पर शरीर के उठने जैसे (अंगड़ाई) के साथ जम्हाई आने के पीछे भी यही रहस्य छिपा हुआ है।

शिव की मूर्ति मानवाकार होती है। इसका अर्थ है कि उस मूर्ति के अन्दर की कोशिकाएं (देहपुरुष) भी वैसी ही होती हैं, जैसी हमारे अपने शरीर के अन्दर की। इसका अर्थ है कि शिवमूर्ति की पूजा के समय हम उसमें स्थित देहपुरुष की ही पूजा कर रहे होते हैं। उस अद्वैतस्वरूप देहपुरुष को हमने अपनी मानसिक कुण्डलिनी का रूप दिया होता है। सीधा सा अर्थ है कि शिव-पूजन से भी कुण्डलिनी ही पुष्ट होती है। कुण्डलिनी-रूपी मानसिक चित्र किसी की व्यक्तिगत रुचि के अनुसार शिव का रूप लिए हुए भी हो सकता है, गुरु का रूप लिए भी हो सकता है, या प्रेमी / प्रेमिका का रूप लिए भी हो सकता है। कई बार तो कुण्डलिनी-चित्र शिव के जैसी वेशभूषा में भी अनुभव होता है, जैसे की बैल पर सवार, गले में सर्प की माला के साथ व डमरू के साथ, एक औघड़ तांत्रिक की तरह आदि-2। ऐसा शिव-पूजन के प्रभाव से होता है।

भगवान शिव दुनिया के सभी लोगों व धर्मों के आराध्य हैं। शिव-पूजन से दुनिया में सर्वधर्मसमभाव स्थापित हो सकता है। इससे धार्मिक उन्माद, कट्टरपंथ, व आतंकवाद पर रोक लग सकती है। सभी धर्म व दर्शन शिव से ही निकले हैं। इसका प्रमाण है कि भगवान शिव खान-पान के मामले में, पूजा के विधि-विधान के मामले में किसी से भेदभाव नहीं करते। उन्हें भूत-प्रेतों जैसे लोग भी उतने ही प्रिय हैं, जितने देवता जैसे लोग। वे सभी को प्रेम से व समान भाव से स्वीकार करते हैं, चाहे कोई किसी भी धर्म आदि का क्यों न हो। उनके द्वारा प्रदत्त तांत्रिक-साधना से यह स्पष्ट हो जाता है। शिवप्रदत्त तांत्रिक साधना ही सर्वाधिक वैज्ञानिक, प्रासंगिक, आधुनिक, सामाजिक, कर्मठतापूर्ण व मानवतापूर्ण है।

शिव-शक्ति अवधारणा सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में मानी जाती है। जो सत्य है, वह शिव है। वही पूर्ण है। उसमें सभी भाव-अभाव हैं। उसमें स्त्रीभाव व पुरुषभाव, दोनों एकसाथ विद्यमान हैं। एक प्रकार से शिव का स्वरूप मनुष्य के उस रूप के करीब है, जिसमें वह समाधि में स्थित रहता है। यह सभी जानते हैं कि सर्वाधिक मजबूत समाधि तांत्रिक यौनसंबंध के साथ ही लगती है। अतः एक ही भगवान शिव को शिव-पार्वती के रूप में काल्पनिक रूप से विभक्त किया गया है, ताकि समझने में आसानी हो। वास्तव में शिव-पार्वती सदैव एकाकार ही हैं, इससे यह भी कल्पित हो जाता है कि शिव-पार्वती सदैव पूर्णरूप से तांत्रिक-साधना में लीन रहते हैं। शिवलिंग इस साधना का प्रतीक है।

रशिया में भी इसी तरह की एक लोककथा प्रचलित है कि आदमी कभी पूर्ण हुआ करता था। उससे देवताओं का राजा डर गया और उसने आदमी को दो हिस्सों में बाँट दिया। एक हिस्सा पुरुष बना, और एक हिस्सा स्त्री बना। तभी से लेकर दोनों हिस्से एकाकार होने के लिए व्याकुल होते रहते हैं, ताकि पुनः पूर्ण होकर देवताओं पर राज कर सकें।

कई लोगों को शंका हो सकती है कि शिव तो हमेशा ही तांत्रिक साधना में लीन रहते हैं, फिर उन्हें कामारि, यह नाम क्यों दिया गया है? वास्तव में, एक तांत्रिक ही यौन-दुर्भावना को जीत सकता है। यौनता से दूर भागने वाला आदमी यौन-दुर्भावना को नहीं जीत सकता। उसके अन्दर यौनता के प्रति इच्छा बहुत बलवान होती है, बेशक वह बाहर से उससे अछूता होने का दिखावा करता रहे। काम को वही जीत सकता है, जो काम के रहस्य को समझता हो। काम के रहस्य को एक सच्चे तांत्रिक से अधिक कोई नहीं समझ सकता।

भगवान शिव को भूतनाथ भी इसीलिए कहते हैं, क्योंकि वह उन तांत्रिकों का नाथ भी होता है, जो बाहर के आचारों-विचारों से भूत-प्रेत की तरह ही प्रतीत होते हैं। यद्यपि अन्दर से वे शिव की तरह ही पूर्ण होते हैं।

भगवान शिव को भोला इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वह अपनी नित्य तांत्रिक-साधना के बल से पूर्ण अद्वैत-भाव में स्थित रहते हैं। अर्थात वे एक बच्चे की तरह होते हैं। उनके लिए काष्ठ, लोष्ठ व स्वर्ण आदि सब कुछ एकसमान है। यद्यपि वे जीवन-व्यवहार के लिए ही बाहर से भेदभाव का प्रदर्शन करते हैं, अन्दर से नहीं।

मुझे एक बार भगवान स्शिव स्वप्न में दिखे थे। वे एक ऊंचे चबूतरे जैसी जगह पर बैठे हुए थे। वे कुछ गंभीर यद्यपि शांत लग रहे थे, एक औघड़ व अर्धवृद्ध तांत्रिक की तरह। साथ में वे मस्त-मौले जैसे भी लग रहे थे। फिर भी, उनका पहरावा शिव के जैसा लग रहा था। उनके चारों तरफ बहुत से भूत-प्रेत धूम-धड़ाके व जोर के हो-हल्ले के साथ नाच-गा रहे थे। वह आवाज जोर की व स्पष्ट थी। वह विशेष, रोमांचकारी, व संगीतमयी आवाज (खासकर ढोल की डिगडिगाहट) मुझे आजतक कुछ याद सी आ जाती है। उन भूत-प्रेतों से तनिक भी डर नहीं लग रहा था, अपितु बहुत आनंद आ रहा था। ऐसा लगा कि मेरे कुछ जानने में आने वाले व दिवंगत लोग भी उस भूत-प्रेतों के टोले में शामिल हो गए थे। उस स्वापनिक घटना से मेरी कुण्डलिनी को बहुत शक्ति मिली, और उसके लगभग डेढ़ से दो वर्षों के बाद वह जागृत भी हो गई।

इसी तरह, लगभग 30 वर्ष पूर्व मैं अपने चाचा की बरात के साथ जा रहा था। एक बड़े पहाड़ के नीचे से गुजरते हुए मुझे भगवान शिव एक अर्धवृद्ध के रूप में शांति से एक बड़ी सी चट्टान पर पालथी लगा कर बैठे हुए दिखे। वहां पर लोग फूल-पत्ते चढ़ा रहे थे, क्योंकि उसके थोड़ा ऊपर व पेड़ों के पीछे एक शिव-पार्वती का मंदिर था, जो वहां से दिखाई नहीं देता था। मैंने भी पत्ते चढ़ाए, तो मुझे उन्होंने प्रसाद के रूप में कुछ दिया, शायद चावल के कुछ दाने थे, या वहीँ से कुछ पत्ते उठाकर दे दिए थे। मुझे पूरी तरह से याद नहीं है। वे मुस्कुराते हुए, कुछ गंभीर जैसे, साधारण वेशभूषा में, व एक औघड़-गुरु के जैसे लग रहे थे। फिर भी वे एक साधारण मनुष्य ही लग रहे थे। तभी तो शायद मैंने उनसे बात नहीं की। वैसे भी, तंग पगडंडी पर लोगों की लम्बी पंक्ति में जल्दी-२ चलते हुए बात करने का समय ही नहीं था।

भगवान शिव की महिमा का कोई अंत नहीं है, पर निष्कर्ष के रूप में यही कह सकते हैं, शिव है तो सब कुछ है; शिव नहीं है तो कुछ नहीं है।

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Best wishes to all friends on the occasion of holy Shivratri.

Ashutosh Shankar becomes happy very easily. It means that the tantra-oriented technique provided by him gives liberation very quickly. The tantric techniques are made of the simple activities of our daily lives by giving those a spiritual shape. For example, the body of skilled tantric turns, shrinks, spreads and remains rising upward (tucking) itself. Such happen for kundalini to be installed on the chakras itself. When there is fatigue or confusion, this happens, due to which the Kundalini becomes distinguished itself on the cerebral chakra. With this, a long breath is drawn inside the body itself with a sudden relief. This secret is hidden behind the yawning with the body’s rise (body tucking up), when it comes to relieve of sleep or boredom.

Shiva’s idol is a human-form. It means that the cells (dehpurush) inside the body of that idol are also similar, as those in the inside of our own body. It means that while worshiping Shiva-idol, we are worshiping the non-dual dehpurush inside it. We have given the form of our mental Kundalini to that  dehpurush having non-dual attitude. It means straightforward that the Kundalini becomes strong even from Shiva-worship. Kundalini (mental image) can be having a form of Shiva according to somebody’s personal interest, can also be the form of a guru, or the form of boyfriend / girlfriend too. Many times, Kundalini-image is also experienced in Shiva-like costumes, such as one riding a bull, with a snake’s necklace and with a damroo (special drum), like a soft tantric etc. This happens with the influence of Shiva-Pooja (worship).

Lord Shiva is adorable of all people and religions of the world. Shiva-poojan can establish universal harmony in the world. It can prevent religious mania, fundamentalism, and terrorism. All religions and philosophies have come from Shiva. Its proof is that Lord Shiva does not discriminate against anyone in the case of eating-drinking and in the case of law and order of worship. He loves the people who are like the ghosts just equal to those people who are like God. He accepts all with love and with the same emotion, no matter how religious one is or what type the religion one has. It is clear from the tantric-sadhana given by him. Shiva-provided Tantric Sadhana is the most scientific, relevant, modern, social, productive, and humanistic.

Shiva-Shakti concept is considered in some form in all religions. That which is truth that is Shiva. That is the whole thing. There are all emotions in it. In it, both femininity and maleness are present together. In a sense, the nature of Shiva is close to that form of man, in which he lives in Samadhi. All of us know that the strongest Samadhi (meditation) seems to be accompanied by tantric sexual intercourse. Therefore, the only Lord Shiva has been conceptually divisible in the form of Shiva-Parvati that is easy to understand. In fact, Shiva-Parvati is always united as one, but it is also assumed that Shiva-Parvati are always completely absorbed in tantric-sadhana. Shiva lingam is a symbol of this sadhana.

In Russia, a similar folktale is prevalent that a man used to be perfect. From him the king of the gods was scared and he divided the man into two halves. One part is made of man, and one part becomes a woman. From then on, both sides are anxious to be united, so that they can rule over the gods once they are completed again.

Many people may doubt that Shiva is always absorbed in Tantric meditation, then why he has been given this name as kamari? In fact, only a tantric can conquer sex-malice. A man escaping sexuality cannot win sexually ill thought. His desire for sex in him is very strong, of course, he pretends to be untouched from the outside. Only one can win the sexuality, who understands its secret. Nobody can understand the secret of sexuality more than a true tantric.

Bhootnath (lord of ghosts) is also a name given to Lord Shiva, because he is also the master of those tantrics, who seem to be like ghosts from outside. Although from inside they are fulfilled just like Shiva.

Lord Shiva is also called as Bhola (innocent), because he is situated in full Advaita Bhava (non-dual attitude) with the force of his daily Tantric-Sadhana. That is, he is like a child. For him wood, lumber, and gold etc. everything is the same. Although he demonstrates discrimination from outside to live a mundane life-style, not having it inwardly.

I once saw Lord Shiva in my dream. He was sitting at a place like a table-type rock. He looked somewhat quiet though, like a soft, and semi-old Tantric. Together he seemed like a mast man (easy going). Even so, his dress looked like Shiva. Around him, many of the ghosts were dancing, singing with loud, and mast sound. That voice was loud and clear. That particular exhilarating musical voice (especially low pitch beats of the drum) makes me remember that a little today. I was not feeling frightened at all from those ghosts, but I was feeling very happy and a bliss. It seemed that the people who came to know me and were the departed ones also joined the group of those ghosts. My Kundalini got very much power from that automatic incident, and after about one and half a year to two years, she became awakened too.

Likewise, about 30 years ago, I was going with my uncle’s marriage procession. Passing under a big mountain, I saw Lord Shiva sitting in squatting posture in peace on a big rock in the form of a half-old man. There people were offering flowers and leaves, because there was a Shiva-Parvati temple behind the trees and a little above that place, which was not visible from there. I also offered him the leaves, then he gave me something in the form of a gift maybe that was in the form of some grains of rice or he picked up some leaves. I do not remember completely. He was smiling, looking like something serious, in ordinary costumes, and like a softhearted guru. Yet he seemed to be an ordinary man. Then maybe I did not talk to him. Anyway, there was no time to talk about while moving in the long line of people on the tight footpath for early running.

There is no end to the glory of Lord Shiva, but in the form of conclusions it can be said, Shiva is everything; if there is no Shiva, then there is nothing.

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Could Dusshara-tragedy of Amritsar be avoided-क्या अमृतसर का दशहरा-हादसा टल सकता था?

Could Dusshara-tragedy of Amritsar be avoided-

Probably could have been avoided, or at least it could have minimally happened, if the following four fundamental principles once divulged by Premyogi vajra were kept in tune with a knot-

Not a big religion than humanity, not a big worship than work.

Not a bigger guru than a problem, not a big monastery from a householder.

Now we analyze all the phrases –

Not a big religion with humanity – It does not mean that religion should not be accepted. But it means that religion should not overpower humanity. If they were playing the religious rituals of Burning Ravana, then it does not mean that the security of themselves and others should be ignored. Humanity is hidden only in the safety and well-being of all living beings, especially humans. History is filled with inhuman atrocities in the name of religion, and it continues to be in sporadic form even today. If this phrase is settled in the heart by everyone, then it should be stopped immediately.

Do not worship more than work – This phrase does not mean that worship should not be done. It means that work should not be hindered due to worship, but help should be given only in the work. Then gradually the work begins to become a pooja / worship. The work of the people who visited Dussehra was that they would allow the ceremony to be done in a grand and secure manner, but in the worship of Ravana-combustion, they forgot that work, and made a great mistake in security. If this phrase was seated deep in their minds, then perhaps giving them correct directions, maybe giving them correct directions.

Not a big master than the problem – It does not mean that the master should not be respected. Guruseva / serving master is the biggest identity of humanity. This phrase means that even blind devotion should not be done towards a guru too. There should be a deep look at the problems because they also keep guiding. In fact, the gurus also learn direction from the problems. What sometimes happens is that the master ignorant of the problem is giving wrong directions. Even if the organizers of the ceremony asked to come to the maximum number of people, even if there was less space at the venue, then people should not have come, or should have gone back after seeing the problem of more crowds. Who ones would have been angry with this act, they would have lived. Seeing the problem of absence of the police should also have to go back. Surprisingly, people climbed to the railway tracks, yet they did not see the problem of running fast train probably coming soon. For the overall security, the future problem should also be assessed. Most of the incidents happen in the future by ignoring the problem that can be seen in the future, because the problem in front is visible to everyone. People would have guessed that they would go away after seeing the car. They did not think that one problem could also be that the speed of the train was very fast, and they could not even run away seeing it. They would have also thought that they would run away by listening to the vehicle’s voice. But their limited intellect was unable to assess the potential problem that the voice of the vehicle can not be heard even between the firecrackers and the noise of the people, as happened. They also thought that if they were standing on the track for a few seconds to avoid falling down Ravana, then what would happen to them? But they could not even assess the potential problem that at times, very rare incidents happen, and in those very few seconds, the carriage can reach there, and it had reached. Then comes, give priority to problems. To avoid the big problem, a small problem should be taken. If they were also troubled by the burning heat of Ravana, then that problem should have been taken to prevent the possible life-threatening problem by going on the track. Many times it takes a lot of time to make a decision, so the brain should be prepared for that time too. If this above phrase was always held, it would probably not be an accident. Another thing about “honee / destined” is By the way, it can be very weak if you try, if it can not be avoided. Then, like the diffuse bomb, it also becomes defused. No place is free from the problem, so always be alert while keeping the mind. Most of the scientific discoveries and inventions have been done while learning from the problems. It also means that if one doesn’t walk on the true path indicated by a true master, then problems try to make him walk on the same. It also means that when a man becomes troubled and disappointed from all around, then he prefers recluse and starts yoga meditation, which brings to him spiritual fruit immediately. The same happened to Premyogi vajra, hero of this hosting website and there said eBook. It also means that in most of the cases the defective man fires long spiritual speeches. Experiential and conduct full master only teaches through his conduct, speaking minimally only through signs. One of the many meanings of this phrase is that if anyone don’t walk in line with the humanity, then he is turned right way towards humanity by various types of problems.

Not a big monastery from a householder – This phrase means that there is no big meeting place, no religious place, bigger than a householder. If this thing was sitting in their mind, they would not leave their family and not run away to the problematic area, but perform religious rituals in their hometown / neighborhood. Even if they went away, they would have kept themselves safe by keeping their family in their mind in their strong desire to return back.

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क्या अमृतसर का दशहरा-हादसा टल सकता था-

शायद टल सकता था, या कम तो जरूर ही हो सकता था, यदि प्रेमयोगी वज्र द्वारा कभी उद्गीरित निम्नलिखित चार मूलभूत सिद्धांतों को गांठ बाँध कर याद रखा जाता-

मानवता से बड़ा धर्म नहीं, काम से बढ़ कर पूजा नहीं।

समस्या से बड़ा गुरु नहीं, गृहस्थ से बड़ा मठ नहीं।।

अब हम एक-२ करके सभी वाक्यांशों का विश्लेषण करते हैं-

मानवता से बड़ा धर्म नहीं- इसका अर्थ यह नहीं है कि धर्म को नहीं मानना चाहिए। अपितु इसका अर्थ है कि धर्म मानवता के ऊपर हावी नहीं हो जाना चाहिए। यदि वे रावण-दहन की धार्मिक रस्म को निभा रहे थे, तो इसका मतलब यह नहीं है कि अपनी और औरों की सुरक्षा को नजरअंदाज कर देना चाहिए था। मानवता सभी जीवधारियों की, विशेषतः मनुष्यों की सुरक्षा व हितैषिता में ही तो छिपी हुई है। इतिहास धर्म के नाम पर अमानवीय अत्याचारों से भरा पड़ा है, और आज भी छिटपुट रूप में ऐसा होता रहता है। यदि इस वाक्यांश को सभी के द्वारा ह्रदय में बसा लिया जाए, तो इस पर तुरंत रोक लग जाए।

काम से बढ़ कर पूजा नहीं- इस वाक्यांश का यह अर्थ नहीं है कि पूजा नहीं करनी चाहिए। इसका अर्थ यह है कि पूजा के कारण काम में बाधा नहीं पहुंचनी चाहिए, अपितु काम में सहायता ही मिलनी चाहिए। फिर धीरे-२ काम भी पूजा ही बनने लगता है। दशहरा देखने आए लोगों का काम था कि वे समारोह को भव्य रूप से व सुरक्षित रूप से संपन्न होने देते, परन्तु रावण-दहन रुपी पूजा के चक्कर में वे उस काम को ही भूल गए, और सुरक्षा में भारी चूक कर बैठे। यदि यह वाक्यांश उनके मन में गहरा बैठा होता, तो शायद उन्हें सही दिशा-निर्देश देता।

समस्या से बड़ा गुरु नहीं- इसका अर्थ यह नहीं है कि गुरु का सम्मान नहीं करना चाहिए। गुरुसेवा तो मानवता की सबसे बड़ी पहचान है। इस वाक्यांश का यही अर्थ है कि अंधभक्ति तो गुरु की भी नहीं करनी चाहिए। समस्याओं पर भी गहरी नजर रहनी चाहिए, क्योंकि वे भी दिशा-निर्देशित करती रहती हैं। वास्तव में गुरु भी समस्याओं से ही दिशा-निर्देशन सीखते हैं। कई बार क्या होता है कि वास्तविक समस्या से अनजान गुरु गलत दिशा-निर्देश दे रहे होते हैं। यदि समारोह-स्थल पर कम जगह होने के बावजूद समारोह के आयोजकों ने अधिक से अधिक संख्या में लोगों से आने के लिए कहा था, तो लोगों को आना नहीं चाहिए था, या अधिक भीड़ की समस्या को देखकर वापिस चले जाना चाहिए था। जिसने नाराज होना होता, वह होता रहता। पुलिस की गैरमौजूदगी की समस्या को देखकर भी वापिस चले जाना चाहिए था। हैरानी की बात है कि लोग रेल की पटड़ी पर चढ़ गए, फिर भी उन्हें तेजी से दौड़कर आने वाली समस्या नहीं दिखी। सम्पूर्ण सुरक्षा के लिए भविष्य की समस्या का आकलन भी करके रखना चाहिए। ज्यादातर हादसे भविष्य में हो सकने वाली समस्या को नजरअंदाज करके ही होते हैं, क्योंकि सामने खड़ी समस्या तो सबको दिख ही जाती है। लोगों ने यह अनुमान लगाया होगा कि वे गाड़ी को देखकर हट जाएंगे। उन्होंने यह नहीं सोचा कि एक समस्या यह भी हो सकती है कि गाड़ी की रप्तार बहुत तेज हो, और वे उसे देख कर भी भाग न सकें। उन्होंने यह भी सोचा होगा कि गाड़ी की आवाज को सुनकर वे भाग जाएंगे। परन्तु उनकी सीमित बुद्धि उस संभावित समस्या का आकलन नहीं कर पाई कि पटाखों व लोगों के शोर के बीच में गाड़ी की आवाज नहीं भी सुनाई दे सकती है, जैसा कि हुआ भी। उन्होंने यह भी सोचा होगा कि जल कर गिरते हुए रावण से बचने के लिए यदि वे कुछ सेकंडों के लिए पटरी पर खड़े होते हैं, तो उससे क्या होगा। परन्तु वे उस संभावित समस्या का भी आकलन नहीं कर पाए कि कई बार संयोगवश बहुत दुर्लभ घटनाएं भी हो जाती हैं, और उन्हीं चंद सैकंडों में भी गाड़ी वहां पहुँच सकती है, और वह पहुँची भी। फिर आता है, समस्याओं को प्राथमिकता देना। बड़ी समस्या से बचने के लिए छोटी समस्या को झेल लेना चाहिए। यदि जलते रावण की गर्मी से वे परेशान भी हो रहे थे, तो उस परेशानी को पटरी पर जाने से संभावित जीवनघाती समस्या को रोकने के लिए झेल लेना चाहिए था। कई बार निर्णय लेने के लिए बहुत कम समय मिलता है, इसलिए दिमाग को वैसे समय के लिए भी तैयार करके रखना चाहिए। यदि इस उपरोक्त वाक्यांश को हरदम धारण किया गया होता, तो शायद यह हादसा न होता। “होनी” की बात और है। वैसे अपने प्रयास से होनी को बहुत क्षीण तो किया ही जा सकता है, यदि टाला नहीं जा सकता। फिर डिफ्यूज बम्ब की तरह होनी भी डिफ्यूज हो जाती है। कोई भी स्थान समस्या से मुक्त नहीं है, इसलिए दिमाग लगाते हुए सदैव सतर्क रहना चाहिए। सभी वैज्ञानिक आविष्कार आदि समस्याओं से सीखकर ही हुए हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि यदि कोई सद्गुरु की बताई हुई सही राह पर नहीं चलता है, तो समस्याऐं उसे सही राह पर चलवाने का प्रयास करती हैं। इसका यह मतलब भी है कि जब व्यक्ति चारों ओर से समस्याओं व अपेक्षाओं का शिकार हो जाता है, तब वह एकांत के आश्रय से योगसाधना करता है और आध्यात्मिक उत्कर्ष को प्राप्त करता है। यही प्रेमयोगी वज्र के साथ भी हुआ, जो इस मेजबानी-वेबसाइट व वहां उल्लेखित ई-पुस्तक का नायक है। इसका एक अर्थ यह भी है कि अधिकांशतः दोषपूर्ण व्यक्ति ही खाली लम्बे-2 उपदेश देता है, असली गुरु तो अनुभवपूर्ण होता है, और अपने आचरण से ही सिखाता हुआ इशारों में ही बातें करता है। इस अनेकार्थक छंद का एक अर्थ यह भी है कि यदि कोई व्यक्ति मानवता के रास्ते पर नहीं चलता है, तब अनेक प्रकार की समस्याएं उसे सही रास्ते पर लाने का प्रयास करती हैं।

गृहस्थ से बड़ा मठ नहीं- इस वाक्यांश का यह अर्थ है कि गृहस्थ से बड़ा कोई सभा-स्थल नहीं, कोई धार्मिक-स्थल नहीं। यदि यह बात उनके मन में बैठी होती, तो वे अपने परिवार को छोड़कर वैसे समस्याग्रस्त क्षेत्र की ओर पलायन न करके अपने घर-पड़ौस में ही धार्मिक रस्म निभाते। और यदि चले भी जाते, तो भी अपने परिवार में वापिस लौटने की तीव्र ख्वाहिश रखते हुए अपने को सुरक्षित बचा कर रखते।

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Mahishasur mardini (goddess, killer of demon mahishasur)-महिषासुर मर्दिनी

Mahishasur mardini (कृपया इस पोस्ट को हिंदी में पढ़ने के लिए नीचे ब्राऊस करें या इस वाक्य के लिंक पर क्लिक करें)

Mahishasur was a great demon in prehistoric ages. He was having nature and appearance that of a male Buffalo. He used to appear as a divine and smart human being or as a male Buffalo as per his willingness. His army and followers of Buffalo race were too strong to be defeated even by the gods / demigods / devatas. He had captured all the territories including the divine and astral ones. He was torturing everyone. Ordinary people went to the doorsteps of gods, but they were unable to help those and were themselves too badly affected for the demon was not allowing them to work for the development of human race, most intelligent of all the creatures. Ultimately all gods became gathered and went to the doorstep of super god Bramha. He along with those went to another super god Shiva. He finding himself unable to help those went to last and topmost super god Vishnu along with them. Vishnu told them the importance of unity. All gods and super gods expressed out their individual powers. Those all individual powers were then united together and came out in the form of a super power in the appearance of a too beautiful, powerful and divine goddess called as Durga. She warned the demon many times but he took her lightly. Ultimately she killed him thus opening the way for the development of humanity and divinity.
This is a classical pauranik story of Hindu religious literature. We can take it into original scientific form. Mahishasur demon was the prehistoric dinosaur kingdom when Buffalo-mouthed reptilians used to roam the earth, hindering the human evolution by the natural elements / gods. No separate / lonely natural element was able to detain those. So in embodied / body less human spirits went to the personified heads of those natural elements / gods to help them for their embodied expression. Those natural elements ultimately joined together and made a most favorable condition for their destruction in the form of that scientifically proved drastic and prehistoric meteorite-hit that pushed dinosaurs to extinction. The flashing light of that meteorite was considered as the most beautiful goddess that was made through the so rare incidence of union of all of the favorable climatic conditions as union of individual powers of all the climate controlling natural elements / gods. May be that small meteorite-hits also occured before that drastic one as the signs of warning from the goddess.
This proves that ancient pauranik stories are just only the personified descriptions of the real and scientific world around us. This has only been done with a motive to produce functional non duality that leads to kundalini awakening with sustained practice. So these puranas should be regularly read, understood and that’s non dual attitude attached with one’s own individual life.
Premyogi vajra has made a Tantric book in Hindi, in which he has described universe existing inside our own body in a Purana-style. He has taken help of medical science for this. He has correlated everything happening inside our own human body with our gross social life. It’s already proved that whatever there is inside the universe, that everything is present inside our own body. His book appears more interesting than Purana today for he has written everything that’s scientifically proved, so in an easy form to comprehend. I have myself read it and found it suddenly transforming and spiritually elevating. It’s an extraordinary, incomparable and wonderful book. Detailed description of this book is available here at-

The non dual, tantric, Kundalini yoga technique (the real meditation), and spiritual Enlightenment explained, verified, clarified, simplified, justified, taught, guided, defined, displayed, summarized, and proved in an experiential, philosophical, practical, humanely, scientific and logical way best over

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महिषासुर प्रागैतिहासिक युग में एक महान दैत्य था। वह पुरुष बफेलो / भैंसे के जैसे स्वभाव व उसीकी जैसी शक्ल का था। वह अपनी इच्छा के अनुसार कभी एक दिव्य और स्मार्ट / सुन्दर इंसान और कभी एक भैंसे के रूप में दिखाई देता था। भैंस-वंश की उसकी सेना और उसके अनुयायी देवताओं द्वारा भी पराजित होने के लिए नहीं बने थे। उन्होंने दिव्य और सूक्ष्म लोकों सहित सभी क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया था। वह महिषराज हर किसी को यातना दे रहा था। साधारण लोग देवताओं के दरवाजे पर सहायता के लिए गए, लेकिन वे उन लोगों की मदद करने में असमर्थ थे और उन राक्षसों से खुद भी बहुत बुरी तरह प्रभावित हुए थे, जिससे उन्हें उस मानव जाति के विकास के लिए काम करने की इजाजत नहीं मिल पा रही थी, जो सभी प्राणियों में सबसे अधिक बुद्धिमान होती है। आखिरकार सभी देवता इकट्ठे हो गए और सुपर गॉड / महा देवता ब्रह्मा के द्वार पर गए। वे उनके साथ एक और सुपर भगवान शिव के पास गए। उन्होंने भी खुद को उन लोगों व देवताओं की सहायता करने में असमर्थ पाया, अतः वे भी उनके साथ अंतिम और शीर्ष सुपर भगवान विष्णु के पास चले गए। विष्णु ने उन्हें एकता के महत्व के बारे में बताया। सभी देवताओं और सुपर देवताओं ने अपनी व्यक्तिगत शक्तियों को अभिव्यक्त किया। फिर उन सभी व्यक्तिगत शक्तियों को एक साथ एकजुट किया गया, जिससे एक बहुत ही शक्तिशाली, सुन्दर, मनुष्याकृत और दिव्य देवी के रूप में एक सुपर पावर उत्पन्न हुई, जिसे दुर्गा कहा जाता था। उसने राक्षस को कई बार चेतावनी दी लेकिन उसने उसे हल्के में लिया। आखिरकार उसने मानवता और दिव्यता के विकास के लिए रास्ता खोलने के लिए उसे मार डाला।

यह हिंदू धार्मिक साहित्य की शास्त्रीय पौराणिक कहानी है। हम इसे मूल वैज्ञानिक रूप में ले सकते हैं। महिषासुर राक्षस का साम्राज्य प्रागैतिहासिक डायनासौर का साम्राज्य ही था, जब महिषमुख सरीसृप पृथ्वी के चारों ओर घूमते थे, और प्राकृतिक तत्वों / देवताओं द्वारा मानव विकास में बाधा डालते थे। कोई अकेला प्राकृतिक तत्व उनको रोकने में सक्षम नहीं था। तो देहरहित मानव आत्माओं ने उन प्राकृतिक तत्वों के मनुष्याकृत प्रमुखों / देवताओं से अपनी मानवीय अभिव्यक्ति के लिए सहायता माँगी। वे सभी प्राकृतिक तत्व / जल, वायु, अग्नि आदि आखिरकार एक साथ शामिल हो गए और वैज्ञानिक रूप से साबित प्रागैतिहासिककाल की कठोर उल्कापिंड-टक्कर के रूप में उन्होंने उन दैत्यों के विनाश के लिए सबसे अनुकूल स्थितियां बनाईं, जो अंततः डायनासोर को विलुप्त कर पाईं। उस उल्कापिंड की चमकती रोशनी को सबसे खूबसूरत / दिव्य व शक्तिशाली देवी माना गया, जो सभी अनुकूल जलवायु-स्थितियों के संघ की इतनी दुर्लभ घटना के माध्यम से अंतरिक्ष से धरती की ओर गिराया गया था। वास्तव में  ऐसी अति दुर्लभ घटना करोड़ों वर्षों में, सभी जलवायु नियंत्रक प्राकृतिक तत्वों / देवताओं की व्यक्तिगत शक्तियों के संघ से ही होती है। हो सकता है कि उससे पहले भी छोटे-२ उल्कापात हुए हों, जो उस दैत्य को देवी के द्वारा दी गई अंतिम चेतावनी के रूप में माने जा रहे हों।

यह साबित करता है कि प्राचीन पौराणिक कहानियां हमारे आस-पास की वास्तविक और वैज्ञानिक दुनिया के केवल personified / मनुष्याकृत वर्णन ही हैं। ऐसा केवल कार्यात्मक अद्वैत को पैदा करने के उद्देश्य से किया गया है, जो निरंतर अभ्यास के साथ कुंडलिनी जागृति को उत्पन्न करता है। इसलिए इन पुराणों को नियमित रूप से पढ़ा जाना चाहिए, समझ लिया जाना चाहिए और इनसे उत्पन्न अद्वैत-दृष्टिकोण को अपने वर्तमान के अपने व्यक्तिगत जीवन से जोड़ा जाना चाहिए।

प्रेमयोगी वज्र ने हिंदी में एक तांत्रिक पुस्तक बनाई है, जिसमें उन्होंने पुराण-शैली में अपने शरीर के अंदर मौजूद ब्रह्मांड का वर्णन किया है। उन्होंने इसके लिए चिकित्सा विज्ञान की मदद ली है। उन्होंने अपने स्वयं के मानव शरीर के भीतर होने वाली हर चीज को हमारे अपने सकल सामाजिक जीवन के साथ सहसंबंधित किया है। यह पहले ही साबित होया हुआ है कि ब्रह्मांड के अंदर जो कुछ भी है, वह सब हमारे अपने शरीर के अंदर भी वैसा ही मौजूद है। उनकी आधुनिक पुस्तक प्राचीन पुराण की तुलना में अधिक दिलचस्प व व्यावहारिक प्रतीत होती है, क्योंकि उन्होंने वही सब कुछ लिखा है जो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है और समझने में बहुत आसान है। मैंने खुद इसे पढ़ लिया है और इससे मैंने अपने आपको अचानक ही रूपांतरित सा व आध्यात्मिक रूप से उन्नत सा महसूस किया। यह एक आश्चर्यजनक, अनुपम व अविस्मरणीय पुस्तक है। इस पुस्तक का विस्तृत विवरण यहां उपलब्ध है-

अद्वैतपूर्ण, तांत्रिक, कुंडलिनी योग तकनीक (असली ध्यान), और आत्मज्ञान को एक अनुभवपूर्ण, दार्शनिक, व्यावहारिक, मानवीय, वैज्ञानिक और तार्किक तरीके से; सबसे अच्छे रूप में समझने योग्य, सत्यापित, स्पष्टीकृत, सरलीकृत, औचित्यीकृत, सीखने योग्य, निर्देशित, परिभाषित, प्रदर्शित, संक्षिप्त, और प्रमाणित किया गया है

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In honor of Ganesha parva/chaturthi (गणेश पर्व/चतुर्थी के सम्मान में)

Ganesh is not only an idol, but also a very good Kundalini carrier. Actually, mental Kundalini is worshipped indirectly through superimposing her over the physical structure of an idol. Otherwise how can a mental image be worshipped that is inseparable from the own self of the worshipper for one can worship the separately existing other thing only, not his own self. In this way, God Ganesha’s physical structure is simplest, semi real and non judgemental that’s why it doesn’t interfere with the process of focusing one’s mental image over it. On the other hand, too attractive/comparatively fully real idol-structures of other gods may interfere with this process little or more specially in case of an unaccustomed and novice kundalini meditator. Ganesha idol is an intermediary link between nonliving god-symbols (stone etc.) and fully personified god-statues/idols, thus having properties of both of these intermixed together. It is the Link between inanimate vedic deity symbols and full fledged personified gods of later history. His head of elephant is there only to replace that with the head of personified mental kundalini.

गणेश केवलमात्र एक मूर्ति नहीं है, अपितु एक सर्वोत्तम कुण्डलिनी वाहक भी है। वास्तव में कुण्डलिनी की  पूजा अप्रत्यक्ष रूप से, उसे देव-मूर्ति के ऊपर आरोपित करके की जाती है। नहीं तो मानसिक कुण्डलिनी की पूजा कैसे की जा सकती है, क्योंकि किसी दूसरी व बाहरी वस्तु की ही पूजा की जा सकती है, अपने आप की (मानसिक कुण्डलिनी के रूप में अभिव्यक्त) नहीं। इस मामले में, भगवान गणेश की सर्वसाधारण, कम वास्तविक व निष्पक्ष मूर्ति सर्वोत्तम प्रतीत होती है, क्योंकि वह अपने ऊपर कुण्डलिनी का आरोपण करवाने की ध्यानात्मक प्रक्रिया में अधिक व्यवधान उत्पन्न नहीं करती। दूसरी ओर अन्य देवी-देवताओं की आकर्षक व अपेक्षाकृत रूप से अधिक वास्तविक मूर्तियां उस प्रक्रिया के दौरान अपने प्रति आकर्षण पैदा करके, उस प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न कर सकती हैं, विशेषकर के असहज व नए-नवेले कुण्डलिनी साधक के मामले में। गणेश की मूर्ति जड़ देव-प्रतिमाओं (पत्थर आदि) व पूर्णतः मनुष्याकृत देव-मूर्तियों के बीच की कड़ी है, अतः यह दोनों ही प्रकार की मूर्तियों के गुणों को अपने अंदर समाहित करती है। यह निर्जीव वैदिक देव प्रतिमाओं व अवांतर पूर्णमनुष्याकृत देव प्रतिमाओं के बीच की कड़ी है। इसको हाथी का शीश इसीलिए लगाया गया है, ताकि उसे मानसिक मनुष्याकृत कुण्डलिनी के शीश से मन से बदला जा सके।